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डाकुओंकी भेंट के डाँकु लोग श्रीपालसे विदा होकर अपने स्थान पर गये और श्रीपालके साहस व पराक्रमको प्रशंसा करने लगे कि धन्य है उस वीरका बल कि जिमने बिना हथियारके इतने डॉकू वांध लिए और फिर सबको छोड़कर उनके साथ बड़ा भारी
सलूक किया। इसलिये इसका इसके बदले अवश्य हो कुछ - 'भेंट करना चाहिये । क्योंकि हम लोगोंने बहुतमे डांके मारे,
और अनेक पुरुष देखे है। परन्तु ऐसा महान पुरुष आज तक कहीं नहीं देखा है। इसने पूर्व जन्मों में अवश्य ही महान सप किया है, या सुपात्र दान दिया है, इसीका यह फल है । 'ऐसा विचार कर वे लोग बहुतसा द्रव्य सात जहाजों में भरकर श्रोपाखके निकट आये । और विनय सहित भेंट करके विदा हो गये । ठीक है, पुण्यसे क्या नहीं हो सकता है ? कहा है" वने रणे शत्रजलाग्निमध्ये, महार्णवे पर्वतमस्तके वा। मुप्तं प्रमत्त विषमस्थलं वा, रक्ष्यति पुण्यानि पुरा कृतानि ।।
अर्थात् बनमें, रणमें, शत्रुके सन्मुख, जलमें, अग्निमें, : महासागरमें, पर्वतको शिखापर, सोते हो, प्रमाद अवस्थामें, अथवा विषम स्थल में पूर्ण पुण्य हो सहायता करता है।
तात्पर यह है कि जीवोंको सदेव अपने भाव उज्जवल रखना चाहिये, सदा सबका भला और परोपकार करना
चाहिये । क्योंकि पुण्यके उदयसे शत्रु भी मित्र और पापो• आपसे मित्र भी शत्रु हो जाते हैं।