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भोपाल परिष 1 लो!के लिए क्या आशा है ?" घबलसेठ तो कर-चित्त व अविचारी था, बोला-इन सबको बहुत कष्ट देकर मारमा पाहिये । तब श्रीपाल उसके कठोर वचन सुनकर भोल-तात ! उत्तम पुरुषोंका कोर क्षणमात्र होता है, और पारणमें आये हुयेको तो कोई नहीं मारता । दया मनुष्यों का प्रधान भूषण है । दयाके विना मनुष्य और सिंहादि कर जोवोंमें क्या अंतर हैं ? दयाके बिना अप सप शील सयम योग आचरण सब मुठे है, केवल कायस्लेश मात्र है। इसलिये दया कमी नहीं छोडना चाहिये । और फिर जब हम सरोम्छे पुरुष व्यापके साथ हैं तो पापको चिन्ता ही किस बातकी है?
तब लज्जित होकर सेठने कहा-हे कुमार ! आपको इच्छा हो सा करो, मुझे उसी में संतोष है। तब श्रोगलजी उन धोरोंको लेकर अपने जहाजपर आये और सबके बंधन छोड़कर घोले-वारो ! मुझे क्षमा करो! मैंने तुम्हें बहुत कष्ट दिया । आप यदि हमारे स्वामोको पकड़कर न ले जा तो यह समय न आता, इत्यादि । सबसे क्षमा कराकर सबको स्नान कराया, और वस्त्राभूषण पहिराकर सबको मिष्टान्न भोजन कराया, तथा पान इलायची इत्र फुजेनादि नयोंसे भले प्रकार सम्मानित किया । ये डांत भोपालजीके इस वापसे बड़े प्रसन्न हुये, सहस्र मुखसे स्तुति करने लगे और अपन! मस्तक श्रापालके चरणोंमें धरकर बाले
हे नाथ ! हम पर कृपा करो ! धन्य हो आप! आपका -नाम चिरस्मरणीय रहेगा। इस तरह परस्पर मिलकर डांकू घोपालसे विदा होकर अपने घर गये और श्रीपाल तमा धवलसेठ मानदसे मिलकर अपनो आगामी यात्राका विचार कर प्रणाम करनेको उद्यमी हये ।