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श्रीपालका उज्जैनको प्रयाण ।
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चारों ओर ठहर गया। वहां घोडोकी हीस, हाथियोंकी चंघाड़, बलोंको डकार, ऊंटोंकी बलबलाहट, रथोको गड़-गडाहट, प्यादोको खटखटाफ, बाजाकी भनभनाट और भेरोकी भीमनाद आदिसे बड़ा घमसान कोलाहल होने लगा। जलचर भयके मारे जल में छिप रहे और बनचर स्थान छोडर कर भाग गये । नभचर भो आकाश में स्थान भ्रष्ट हुए इधर उधर शब्द करते डोलने लगे । नगर में मो बड़ी हलचल मच गई । कायर पुरुपोंके हृदय कांपने लगे। वे सोचने लगे कि अवसर पाकर चपके से हमलोंग निकल चलें । ऐसी नामवरी में क्या रखा है जो प्राण जाय ? वही जगल में 'छिपहिलपाकर दिन बिता दंगे । वृषण पुरुष धन को बांधर
जमीनमें गाड़ने लगे । चोर लुटेरे लुटका अवसर देखने लगे, विषयो भावी विरहके दुःखका अनुभव करने लगे। शूर बोर अपने हथियार निकालर मांजने लगे। वे सोचने लगेहमारे आज राज्यक नमक खाने का बदला देनेका शुभ दिन आन पहुंचा है।
विद्वज्जन तो संसार के विषयकषायोंसे विरक्त हो वादशा• नुप्रेक्षाका चिन्तब न करने लगे। वे सोचने लगे उपसर्ग दूर हो तो संयम लें और सदैव के लिए इस जंजाल से छूट । बहुतसे लोग सचन्त होकर राजाके पास दौडे और पुकारने लगेहे महाराज ! न जाने वहांका कौन राजा अपने नगर पर चढ़ आया है, सो रक्षा करो। राजा भी बड़े विचार में पड गये और मंत्रियों को बुलाकर सलाह करने लगे। मंत्रो भी अपनी अपनी राय बताने लगे । इसी प्रकार सोचते२ संध्या हो गई इसलिये राजा भी सेनाको तयार रहने की आज्ञा देकर आप अन्त:पुरको चले गये ।
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