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श्रोपाल परित्र।
श्रीपालको कुटुम्ब-मिलाप अब रात्रि हो गई, और सब लोग सो गये, तन श्रीपालजीने सोचा, कि मैंने १२ वर्षका वादा किया था, सो आज हा पूर्ण होता हैं । यदि मैं इमो समय मनासुन्दरीसे नहीं मिलता हूं तो वह भोर होते ही दीक्षा ले लेगी और फिर निकट आकर भी वियोगका दुःख सहना होगा। इसो विचारमें उसे क्षण२ भारी मालूम होने लगा। और इसलिये वह महा. बली पिछलो रात्रिको अकेला हो उठकर चला, सो शीघ्र ही माता कुन्दप्रभाके महलके पास पहुँचा, और द्वारपर जाकर खडा हो गया, तो क्या सुनता है कि प्राणप्यारी मौनासुन्दरी अपनी सासुके समीप बठी हुई इस प्रकार वाह रहा है -
माताजी ! आपके पुत्र तो अबतक नहीं आये, और १२ वर्ष पूर्ण हो गये । इसलिए मैं अब प्रातः काल ही श्री जिनेश्वरी दीक्षा लुगो। मुझे आज्ञा दोजिये । इतने दिन मेरे आशा ही आशामें बोन गये। अब व्यर्थ समय बिताना उचित नहीं है । न पतिका हो सम्मेलन हुआ और न संयम ग्रहण किया तो नरजन्म व्यर्थ ही गया समझो और उनका दिया हुआ भी वचन पूर्ण हो गया है । कहा है
"प्रसरी या संसारमें, आशा पास अपार ।
वन्धे प्राणी छूटे नहीं, दुःख पावें अधिकार ।। सो उनके आने की अब कुछ आशा नहीं दिखती हैं क्योंकि परदेश की बात है । न जाने स्वामो राह भल गये या किसी स्त्रीके वश होकर मेरी याद भुल गये, अथवा अन्य हो कोई कारण हुआ, क्योंकि अबतक कुछ संदेशा भो तो नहीं मिला है। इसीसे और भी चित व्याकुल हो रहा है। माताजी ! अबतक
परदेशकी बात
मेरी याद भुल
भी तो नहीं