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पोपाल या शुभाशुभ फलमें मोहके उदयसे इष्टानिष्ट कल्पना कर रहे हैं । इसलिये हो हमको सत्यार्थ मार्ग नहीं सूझता। हम लोग हीन शक्ति के धारक इस जड़ शरीरमें ही सुख व दुःखोंका अनुभव कर रहे हैं । और इतने कायर हो रहे हैं कि थोड़ी भी वेदना नहीं सह सकते । इसलिए इस रोगके मतीकारका कोई उपाय हो तो कृपाकर बतलाइये । तब मुनिराज बोलेवत्स ! सुनी।
॥ बसन्ततिलका छन्द ।। धर्म मतिर्भवति किं बहुभाषितेन । जीवे दया भवति किंबहुभिः प्रदान: । शांतर्मनो भवति किं धनदे चतष्टे । आरोग्यमस्ति विमवेन तदा क्रिमस्ति ।। अर्थात्-जिसको धुद्धि धर्म में है, तो बहुत कहने से क्या है ? जिसके अन्तरंगमें जीवोंकी दया वर्तमान है उसे और दानोंसे क्या है ? यदि संतोष चिसमें है तो कुबेरको लक्ष्मीसे क्या है ? और शरीर निरोग है तो और विभूति से क्या प्रयोजन है ? और भी
इन्द्रबच्चा ।। बुद्धे फलं तत्वविचारणं च देहस्य सारं व्रतधारणं च १ अर्थस्य सारं किल पात्रदान, वाचः फलं प्रीतिकरं नराणाम् ।।
अर्थात-बुद्धिका फल तो तत्वोंको विचार करना देहका फल व्रत धारण करना. धनका फल पात्रदान करना और वाणीका फल हितमित वचन बोलना हैं । इसलिए हे भव्यों ! भगवान ने जो दो प्रकारका धर्म कहा है-एक अनगार-साधुका और दूसरा सागार-गृहस्थका, सो भवसमुद्रके तटपर आये