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रयममंजाकी प्राप्ति
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दृष्टि रखकर व्रताचरण करते है, उन्हींका व्रत करना सफल है, क्योंकि जो जड़को काटकर वृक्ष व फलोंकी रक्षा करना चाहता है वह मूर्ख है । 'मूली कुतः शाखा बाय मोहसे उत्पन्न ये राग द्वेषादि कषाय ही आत्मा के परम शत्रु है इन्हीं निमित्तते कर्मोंका आस्रव और बन्ध होता है ।
जैसे जीव कर्म करता है जैसे ही शुभाशुभरूप होकर पुद्गलको कर्मबर्गणायें आत्माको ओर आती हैं जिससे तीव्र च मन्द कषाय भावोंके अनुसार तीव्र व मन्द रूप स्थिति व अनुभागको लिए हुबे कर्मोका बन्ध होता है। इसी प्रकार यह जीव अनादिकाल से कर्म बन्ध करता हुआ, संसार में जन्ममरणादि अनेक दुःखोंको भोगता है। यह संसारो मोहीजीव पुद्गलकर्मोंके वश हो जानेके कारण शुद्ध आत्माके स्व रूपको भूला हुआ चतुर्गति में ८४००००० योनियों में १९९॥ कोटि कुलरूप स्वांग धरकर विषयवासनाओं में ही सुख मान रहा है ।
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इसलिये धर्मके स्वरूपको जानकर श्रद्धापूर्वक जो पुरुष विषय और कषायोके दमन करनेवाले दो प्रकार ( सागार और अनगार) धर्मको धारण करते हैं ये स्वर्गादिके सुखोंकों भोगकर अनुक्रमसे सच्चे (मोक्ष के सुखको प्राप्त होते है । परन्तु जो लोग धर्मका स्वरूप समझें बिना केवल बाह्य चारित्र में हो रंजित हो जाते हैं वे संसारके पात्र ही बने रहते हैं। उनकी यह सब क्रिया काययलेश मात्र हो रहती है । इसीसे जिनदेवने प्रथम सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानपूर्वक ही चारित्रको सम्यक्चारित्र कहा है । इसलिये यथाशक्ति चारित्र भी धारण करना चाहिये ।
गुरुका यह उपदेश उन दोनोंको अमृत के समान हितकारी प्रतीत हुआ । सो उन्होंने ध्यानपूर्वक सुना । पश्चात् राजा
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