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________________ श्रीपाल परिष। . तथा इसीप्रकार तत्वज्ञानके सामनभूत सच्चे देव दुर और शास्त्र हैं। इसलिये इनके श्रद्धानको भी व्यवहार सम्यक्रव कहते हैं। कारणसे कार्य होता है, इसलिये कारणकी उत्तमतापर हा कार्यको उत्तमता समझनी चाहिए । तात्पर्य सर्ग दोषोंसे रहित हो (धीतराग) लोकालोकका माता सर्वज्ञ और स; जीवोंका हित करनेवाला (हितोपदेशी) ऐसा तो देव महंत ही है। अथवा समस्त कर्म रहित सित परमेष्ठी देव ।। कहाते हैं । तथा ऐसे ही देवके द्वारा प्रतिपादित अनेकांत. स्वरूप धर्म तथा द्वादशांगरूप शास्त्र तथा परम जितेन्द्रिय अट्ठाईस मूल गुण और ६४०००८. उत्तर गुणकि धारी आजार्थ, उपाध्याय और सर्वसाधु गुरु इन तीनोंका भो सम्यक् श्रद्धान करना चाहिये । स्वप्न में भी इनके सिवाय अन्य भेषो कुलिंगोदेव, गुरु व बैनाभास मत तथा जेनेतर मत स्वरूप धर्मको कदापि अंगीकार नहीं करना चाहिये। ये ही पंचपरमेष्ठी (अहेत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु) भव्य जीवोंको भवसागरसे पार करने में समर्थ कारण स्वरूप होते हैं । इसलिये हे वत्स ! तुम मन, वचन, कायसे इन्हींका आराधन करो। . जिससे उभय लोकमें सुख पाओ। ऐसा जानकर सम्यग्दर्शन पूर्णक सप्त व्यसनोंका त्याग करो तथा पंच अणुव्रत और . सप्त शीलका पालन करो। हे वत्स ! बे इन सब व्रतोंका धारण करने का मुख्य तात्पर्य विषय और कषायों को कम करना अथवा सर्वथा बभाव करना है । क्योंकि आस्माका अहित करनेवाले विषय कषाय ही हैं । “ आतमके अहित विषय कषाय, इनमें मेरी परिणति न आय।" सो ओ भव्य जीव इन मूल बातोंपर .-- - -..- --. -
SR No.090465
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size3 MB
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