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श्रीपालको वनवासको जाता ।
श्रीपालका वीरदमनको राज्य देकर वनवासको जाना
काका विरदमन मनमें विचारने लगे कि अब क्या करना बाहिये ? जो राजा नगर में रहते हैं तो प्रजा भागी जाती है, और जो प्रजाको रखते हैं तो राजाको बाहर जाना पडेगा । यह तो गुड़-लपेटी छुरी गलेसे अटकी है, जो बाहर निकालें तो जीव कटे, और अन्दर निगलें तो पेट फटे | इस प्रकार दुःखित हो रहे थे । और सोचते थे
पंख बिना पक्षी जिसो, पानी बिन तालाब | यात बिना तरुवर जिसो, रैयत चिनयों राव || नभ उडयन ज्यों चंद बिन, ज्यों बिन वृक्ष उद्यान । जैसे धन बिन मेह त्यो, प्रजा विना राजान | जैसे ब्राह्मण वेद बिन, वैश्य विश्व चिन जान शस्त्र बिना क्षत्रीय जिसो, विना प्रजा राजान ||
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तात्पर्य - विना प्रजाके राजा शोभा नहीं देता है । इत्यादि सोच विचारकर वीरदमन श्रीपाल राजाके पास गये और अति हो प्रोति भरे नम्र वचनोंसे प्रजाको सब दुःख कहानी कह सुनाई । तब राजा प्रजाके दुःखको सुनकर और भी व्याकुल हुए और आतुरता से पूछने लगे---
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'काकाजी ! प्रजाको इस कष्टसे बचानेका कुछ यत्न है, तो निःशंक होकर कहो क्योंकि जिस राजाकी या प्रजा दुःखी रहे, वह राजा अवश्य ही कुगतिका पात्र है। काकाजी ! मैं अपने कारण प्रजाको दुःखी रखता नहीं चाहता | मुझे
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