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________________ श्रीपाल चरित्र । इस बातकी विशेष चिन्ता है, क्योंकि मेरे शरीरसे बहुत ही दुर्गन्ध निकलती है, जिसको वास्तव में प्रजा नहीं सह सकती, और मुझसे कह भी नहीं सकती, इसलिये शीघ्र ही ऐसा उपाय बताइये ताकि प्रजा मुखी होवे ।' यह सुनकर काका वीरदमन बोले--'हे राजन् ! मझे कहने में यद्यपि संकोच होता है, तथापि प्रजाकी पुकार और आपके आग्रहसे एक उपाय जो मुझे सूझा है सो निवेदन करता हूं, आशा है उसपर पूर्ण विचार कर कार्य करेंगे । श्रीपालके शरीर में जबतक यह व्याधि वेदना है, तबतक नगरके बाह्य उद्यान में निवास करें, और राजभार किसी -योग्य पुरुषो स्वाधीन कर देखें। वोरदमनकी बात सुनकर भोपालजीने निष्कपटभावसे कह दिया कि मुझे यह विचार सब प्रकार स्वीकार है और मैंने भी यही विचार किया है । इरालिये मैं राज्यका भार इतने का तापको ही देता है, क्योंकि इस समय कार्य योग्य आप ही है, अर्थात् जबतक मेरे इस असाता देवनायका उदय है, तब तs मैं अपना राज्य आपके द्वारा ही करूगा, और इसका क्षय अर्थात् साताका उदय होते हो मैं पुनः आकर ज्या समाल जुगा, वहांतक वा ही मान हैं। पलिमें आज भले प्रकार जाका पालन-गण नीजिये, ही प्रकार का कोई मान पाने । पाप और नोविक नानि, जो मे कुदानको रक्षा मी मना : वियोग जनित दुःख , i t i Timi : देल शिक्षा देकर राना मगर (मातमी) बोका साथ लिया होर नगरसे बहुत दूर उचानमें जाकर डेरा किया ।
SR No.090465
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size3 MB
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