________________
रयनमजूषाकी प्राप्ति ।
हे प्रभो ! आप जगत पूज्य, करुणासागर, कुमतिषिनाशक शानसूर्य, शिवमगदर्शक, और समस्त दुःखहरण करनेवाले हो। हम स्पधुद्धि कहांतक की स्तुति करें ? निराश्रितको आश्रय देनेवाले सच्चे हितू आप ही है । हे दीन दयालु .. प्रभो ! मुझे एक चिता उत्पन्न हुई है। वह यह है कि मेरी पुत्री रयन मंजूषाका वर कौन होगा ? सो संशय दूर हो।
तब वे परम दयालु समस्त शास्त्रों के पारंगत मुनिराज '. अधिशानसे विचार करके बोले-'हे राजन् ! सहस्रकूट चैत्यालयके वज्रमयी कपाट जो महापुरुष उघाडेगा वहीं इस . पुत्रीको वरेगा ।" तब राजा प्रसन्नचित्त हो नमस्कार कर अपने घर आया और उसी समय नौकरोंको आज्ञा दी कि तुम लोग सहस्रकट चैत्यालयके द्वारपर पहरा दो, और जो पुरुष आकर वहांके वजमई किवाड उघाडे उस पुरुषका भले .. प्रकार सम्मान करो और उसी समय आकर हमको खबर दो । राजाकी माज्ञा पालनकर नौकरोंने उसी समयसे वहां पहरा देना आरम्भ कर दिया ।
धवल सेदने यहाँको शोमा और व्यापारका उत्तम स्थान देखकर जहाजोंके लंगर डाल दिए, और नगरके निकट डेरा. किया, तथा धवलसेठ आदि कुछ बादमी बाजारकी हालचाल देखनेको नगर में गये । श्रीपाल भी गुरुवचन को स्मरण करके कि जहां जिन मंदिर हो वहांपर प्रथम ही जिनदर्शन करना, नित्य षट् आवश्यक क्रियाओंकी यथाशक्ति पूर्णतः करना, इत्यादि जिनमदिरको बोलमें गये । सो अनेक प्रकार नगरको शोभा देखते और मनको आनन्दित करते हुए वे एक अति ही रमणीक स्थान में बाये। वहां अतिविशाल उत्संग सुवर्णका बसा. · इवा :सुबर मंदिर देखा । देखते ही