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श्रीपाल चरित्र !
आनंदित हो मंदिरके द्वार पर पहुँचे तो देखा कि दरवाजा क्यों बन्द है ? तब वे पहरेदार विनय सहित कहने लगे
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महाराज ! यह जिनमंदिर है। वज्रके कपाटोंसे बन्द कराया गया है। इसमें और कुछ विकार नहीं है, परीक्षा निमित्त हो बन्द किये गये है । सो अरज तक तो ये किवाद : किसीसे नहीं उघाड़े गये हैं। अनेकों योद्धा माये और अपना २ बल लगाकर थक गये, परन्तु किवाड न उघडे ।"
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श्रीपाल द्वारपालोंके बचन सुनकर चुप हो रहे और .. मन में हर्षित होकर सिद्धचक्रका आराधन कर ज्यों हो किवाड हाथ से दबाये त्यों ही वे खटसे खुल गये । तब श्रीपालने हर्षित होकर "ॐ जय, जय, जय, निःसहि, निःसहि. निःसहि ।" इत्यादि शब्दोंका उच्चारण करते हुए भीतर प्रवेश किया। और श्री जिनके सन्मुख खड़े होकर नीचे लिखे अनुसार स्तुति करने लगे
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श्री जिनबिंब लखी मैं सार मनवांछित सुख लहो अपार । जय जय निष्कलंक जिनदेव, जय जय स्वामा अलख अमेव ॥ जय जय मिथ्यातम हर सूर, जय जय शिव तरुवर अंकूर 4 जय जय संगमवत धन - मे, जय जय कंचनसम छ ति देह || जय जय कर्म विनाशन हार, जय जय भगवत् जग आधार | जब कंदर्प गज दलन मृगेश, जय चारित्र जय जय क़ोध सर्प हत मोर, जय अज्ञान जय जय निराभरण शुभ सत, जय जय बिन आयुध कुछ शंक न रहे, रागद्वेष जिराकरण तुम हो जिन चन्द्र, अव्य कुमुद विकावन कंब ॥
धुराधर दोष 1
रात्रिहर मोह | मुक्ति कामिनोत ॥
तुमको नहि चहे ।
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