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अन्जनीसे श्रीपालका गमन | [६९ पूजन, बन्दन, स्तवन दानादि षट्कर्मों में सावधान रहना व पंचावत मन, वचन, कायसे पालन करना और किसी प्रकारको चिंता न करना ।
पति के ये वचन उस सतीको यद्यपि दुःखदायक थे और वह स्वग्नमें भी पति विरह सहन करने के लिए अत्यन्त कायर थी, परन्तु जब उपको यह निश्चय हो गया कि अब ये नहीं मानेंगे, और अवश्य ही विदेश जायेंगे, तो फिर इस समय इनको छेड़ने से कुछ भी लाम नहीं होगा, किन्तु यात्रामें "विघ्न आवेगा, इसलिये छेड़छाड़ करना अनुचित है, ऐसा सोचकर उसने धीमे स्वरसे कहा
" प्राणधार । यद्यपि मैं आपका क्षणविरह करने को भी असमर्थ हूँ तथापि आपकी आज्ञा में शिरोधार्य करती हूँ परन्तु यह बताइये कि इम अत्रलाको पुग: आपके दर्शन कवतक मिलेंगे ? जिसके सहारे व आशापर चित्तको धेर्य देकर • सन्तोषित किया जाय । "
तब श्रीपाल जीने कहा-"प्रिये ! तुम धैर्य रखो, मैं बारह वर्ष पूर्ण होते हो, पोछे आकर तुमसे मिलुगा। इसमें किचित् भी अन्तर न समझना" यह सुनकर मनासुन्दरोने कहा-"हे नाथ ! यद्यपि मैंने अपमान 4 आपका चित्त नेदित होने के भयसे बिना आनाकानी किये हो आपका जाना स्वीकार कर लिया है और स्त्रीका धर्म भी यही है कि पतिको इच्छा प्रमाण प्रवर्ते, परन्तु संगारमें मोह महा प्रबल है, इसलिए मेरा चित्त यारम्बार अधीर हो जाता है। अर्थात् आपके चरणकमल छोडनेको जो नहीं चाहता।। __इसलिए यदि आप इस दासीको भी सेवाके लिए ले चलें, तो बहा उपकार हो। कारण, बारह वर्ष क्या, दासी बारह अल भी विरह सहनेको असमर्थ है। ऐसो नम्र प्रार्थना कर,