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________________ ७० ] . . . . भोपाल चरिण . . ' ए । स्वामोकी ओर आशावता हो यह प्रतीक्षा करने लगी कि. स्वामो या तो मुझे साथ ले चलग, या अपने ज्ञानेका विचार बन्द कर दंग परन्न ऐमी आशा करना उसका निरर्थक या। क्योंकि बड़े पुरुष जो कुछ विचार करते हैं वह पक्का ही करते हैं, और उसे पूरा कर के ही छोड़ते हैं। कहा भी है-- यदि महज्जन निजवचन, करें न जो निर्वाह ।। तो उनमें अग लघुनमें, अन्तर सूझे नांह ।। निज प्रियाको मोहातुर देव श्रीपाल बोले-प्रिये ! तुम अधीर मत होओ, मैं अवश्य ही अपने कहे हर समय पर आ जाऊंगा । संसारमें जीवोंका परम शत्रु यह मोह हो है । जिसने इसको जीता है वे ही सनचे सुखा हैं । और अधिक . क्या कहा जाय ? निश्चयसे यदि देखो कि दुःख कोई वस्तु है, तो वह मोहके सिवाय और कुछ भी नहीं है । अर्थात् मोह हो दुःख है । यही इष्टानिष्ट चुद्धि कराकर प्राणियोंको माना प्रकार के नाच नचाता है । इसलिए इसका परिहार करना ही उत्तम पुरुषाका काम है । सो चिन्ता न करो। गै उद्यमके लिए जा रहा हूँ । उद्यम करना पुषका कलव्य है। उद्यमहोन पुरुष संसारमें निंद्य और दुःखका पात्र होता है । उद्यमसे हो नर सुर और क्रमपा: मोक्षका भी सुख प्राप्त होता है । जो उद्यम नहीं करते उनका जन्म संसार में -4 है। कहा है धर्मार्थकाममाक्षाणा, यस्यकोऽपि न विद्यते । ___ अजागलस्तनस्येव, तस्य जन्म निरर्थकम् ।। अर्थात्-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थोमसे जिसने एक भी प्राप्त नहीं किया उसका जन्म बकरेके गले में लटकते हुए पयरहित स्तनके समान निरर्थक है । इसलिए मोह त्यागकर मुझे अनुमति दो। __ तब वह सती कुछ धैर्य धारण करके बोली-स्वामिन् ।
SR No.090465
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size3 MB
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