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उज्जनोसे श्रीपालका गमन ।
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मुझे भी खे चलो। तब श्रीपाल' बोल- प्रिय । परदेश में कि सहाय व बिना ठिकाने एकाएक स्त्रीको ले जाना ठीक नहीं है, क्योंकि प्रथम तो लोग अनेक प्रकारकी आशंकाय करने लगेंगे और जिन देशोंसे हम लोग सर्वथा अपरिचित्त हैं वहां पर हमारा सहायी कौन ? दूसरे जब कि मैं उद्यमके अर्थ ही विदेश जाता है तो यहां स्त्रीको संग रखकर उद्यम करना " गधेके सींगवत ' असम्भव हैं। हां, तीर्थयात्रा इत्यादि। होता तो ठोक ही था ।
पुरुषको चाहिए कि परदेश में जबतक भली भांति परिचय हो जाय और उद्यम आदि निश्चित व स्थिर न हो जाया तथा जहाँपर स्वपक्ष न हो जाय वहांपर स्त्रियादिको कभी साथ न ले जाय । किन्तु उन्हें अपने माता पिता आदि बड़े जनोंकी रक्षामें छोड जाय, अथवा उसके माता पिताके घर (यदि अपने घरमें कोई न हो तो) भेज द । और पश्चात सक्त बातोंको निश्चय करके उसे बाल बच्चो सहित ले जाय ।।
हां यह बात जरूरी है कि समयानुसार खबर देते लेते रहें । सो हे प्रिये ! मैं तो शोध्र हो आनेवाला हूं। तू चिन्ता मत कर ।
निदान मैनासुन्दरी उक्त सिखामन सुनकर बोली- स्वामीन् !! यदि आप जाते है और दासीको बिनती नहीं सुनते, तो जाइये;. परंतु एक प्रार्थना है कि इस दासीसे दासत्व करानेका विचार
और पंचपरमेष्ठी का ध्यान स्वप्न में भा न भूलिये, क्योंकि वे ही पंचपरमेष्ठी लोक में मंगलोत्तम और शरणधार है। तथा सिद्धचक्रका आराधन भी सदैव कीजियेगा । अपनी माता दी मित्रोंको भी नहीं भुलाइयेगा । मिथ्या देव, गुरु और धर्मका विश्वास न कीजियेगा । ये ही जीवके प्रबल शत्रु हैं। पिनदेव,