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श्रीपाल चरित्र ।
ही शृंगार है और शील हासे जीना है । इसलिए चाहे सर्वस्व चला जाय, परन्तु यदि शील बच गया, तो कुछ भी नहीं गया समझना चाहिए । इसलिए हे प्राणाधार ! मेरी यह प्रार्थना है कि दासीको सेवासे विमुख न कीजिए। इस समय • आपको सेवासे बढ़कर आनन्द मुझे संसारमें और कुछ हो ही नहीं सकता।
श्रीपाल अपनी प्रियतमाके ऐसे वचन सुनकर रोमर हर्षित होकर गद्गद् वाणीसे प्रशंसा करने लगे | वे कहने लगे कि हे गुणनिधे ! तू धन्य है जो तेरे हृदय में शीलकी प्रतिष्ठा है । और मेरा भी भाग्य धन्य है जो तुझसी रुप शोल व गुणको खानि पत्नी मुझे मिली । इसप्रकार परस्पर चातालाप होता रहता था निःसंदेह कर्मको गति भरोक व अमिट है । इसीका विचारकर वे दम्पति परस्पर वार्तालापमें समय व्यतीत करने लगे।
सत्य है, कर्मने किसीको भी नहीं छोडा, और तो क्या, वह श्री १००८ पार्श्वनाथ स्वामीपर आक्रमण किए बिना न रहा । यह बात अलग है कि सबलसे वैर करनेसे हार खाकर मरना पड़ा । और देखो सीता, द्रोपदी, अंजनी, रावण, राम बाहुबलि, भरत आदि जो बडे२ बलो और पराक्रमी नररत्न थे उनको भी जब कर्मने नहीं छोडा, तब फिर हमारो तो मात ही क्या है ? हां ! एक उन्हीं पर उसका जोर नहीं चलता जिन्होंने इसको सम्पूर्ण प्रकारले निर्मूल कर दिया है। अहा ! हम भी उन्हींका (कर्म रहित सिद्ध परमोष्ठीका) शरण लेवें तो निश्चय है कि शीघ्र ही कभी हमारे भी कोंका अन्य आवेगा । ऐसा विचार होते ही वे दोनों प्रफुल्लित चित्त होकर श्रीजीके गुणानुवाद गानेमें निमग्न हो गये, ठीक है--