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श्रीपालका गुणमालासे ब्याह |
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जेल थल वन रण शत्रु ढिंग, गिरि गृह कन्दर मांहि । चोर अग्नि और वनचरोंसे, पुण्य हि लेय चचाहि ||
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इस प्रकार महामंत्र के प्रभावसे वे तिरते२ कुम्कुमद्वीपमें जाकर किनारे लगे । सो मार्गके खेदसे व्याकुल होकर निकट ही एक वृक्षके नीचे अचेत सो गये। इतनेही में वहां के राजा के अनुचर वहां पर आ पहुंचे और हर्षित हो परस्पर बतलाने लगे कि धन्य है ! राजकन्याका भाग्य, कि जिसके प्रभावसे यह महापुरुष बने गुरुबल अथाह यहुद्र पाकर यहाँ आ पहुंचा है। अब तो अपने हर्षका समय आ गया, यह शुभ समाचार राजाको देते ही वे हम सबको निहाल कर देवेंगे।
अहा ! यह कैसा सुन्दर पुरुष है ? विधाताने अंग अंगकी रचना बडी सम्हाल करके की है । यह यक्ष है कि नागकुमार ? या इन्द्र है, कि विद्याधर ? या गंधर्व है ? इत्यादि परस्पर सब बातें कर ही रहे थे कि श्रीपालजोकी नींद खुल गई। वे लाल नेत्रों सहित उठकर बैठ गये और पूछने लगे
' तुम लोग कौन हो ? यहां क्यों आये ? मुझसे डरते क्यों हो ? और क्यों मेरी स्तुति कर रहे हो ? सो निःशंक होकर कहो ।" तब ये अनुचर बोले - "महाराज ! इस कुकुमपुरका राजा सत्तराज और रानी वनमाला है। जो अपनी नोति और न्याय से सम्पूर्ण प्रजाके प्रेमपात्र हो रहे हैं। इस नगर मैं कोई भो दीन दुःखी दिखाई नहीं देते । इस राजाके यहां एक रूप और गुणकी निधान, सकल कलाप्रवीण सुशीला गुणमाला नामकी कन्या है। किसी एक दिन राजाने कन्याको यौवनवती देखकर अवधिज्ञानी श्रीमुनिराज से पूछा था कि
"हे देव ! इस कन्याका वर कौन होगा ? तब श्रीगुरु अवधिज्ञान के बल से जानकर यह कहा था कि जो पुरुष