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भोपाल चरित
श्रीपालका गुणमालासे ब्याह अब इस वृत्तांतको यहां छोड़कर श्रीपालका हाल कहते हैं। वह महामति जब समुद्र में गिरा, सब हो उसने धवलसेठके मायाजालको समझ लिया, परन्तु उस उत्तम पुरुष 'बिना साक्षो या निर्णय किये बिना कमी किसोपर दोषारोपण नहीं करते. किन्तु वे अपने उपर आये उपलगोको अपने पूर्ण. वत् कर्मोका फल समझकर हो समभावोंसे भोगने का उद्यम करते है । इसलिये उक धोर वीर पुरुषने अपने भावोंको किंचित भी मलोन नहीं होने दिया और पंचारमेष्ठो मंत्रका आराधन करके समुद्र से तिरने का उद्यम करने लगा । ठोक है
"जो नर निज पुरुषार्थसे. निजको करे सहाय । देव सहाय करै तिनहि, निश्चय जानो भाय ।"
देवयोगसे उनको उस समुदकी लहरोंमें उछलता हुआ . एक लकडाका तख्ता दृष्टिगत हुआ। सो उसे पकड़कर वे उसों के सहारे तिरने लगे । इनको दिनरात तो समान हो था। खानापोनाके ठिकाने केवल एक जिनेन्द्रका नाम ही शरण था, और वहो लोको प्रभु उन्हें माग बतानेवाला था। वह महापली मम्मोरता और साहसमें समुद्र से किसी प्रकार भो कम न था। सो भला समुद्रको शक्ति कहां जो उसे बुबा दे? दूसरी बात यह थो, कि पत्थर पानो पर नहीं लिर सकता है, परन्तु यदि काठको नावमें मनों पत्थर भर दीजिए तो भो न डूबेगा ।
इसी प्रकार वह एक तो चरमशरोरी था । दुसरे जिनधर्महरा नांव पर सवार था, सा भला जो नांव इस अनादि बसन्त पंसारसे पार उतार सकती हैं, उस नासे इतना सा समुइ तिरन तो कुछ भो कठिन न था। कहा है -