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दूसरा भाग
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ही उसकी खिलती हुई जवानीने तपस्वीके सपको डगमगाय दिया। कामके वश हो उन्होंने अपनी पापमयी मनोवृत्ति सत्यवती पर प्रकट की । सत्यवती सुनकर लज्जित हुई और डरती हुई बोली - "महाराज ! आप जैसे सर्व समर्थ धर्मात्मा के लिये मैं दुर्गन्धमय नीच जातिकी लड़की कैसे योग्य हो सकती हूँ ?" पराशरको इस भोली लड़की के निष्कपट विचार पर भो धर्म न आई, कामियोंको शर्म कहां ? उन्होंने सत्यवती से कहा- "मैं अभी तेरा शरीर सुगन्धमय बना देता हूँ और अपने तपोबल से तत्काल वैसा कर भी दिखाया ।" उनके प्रभावको देख सत्यवती राजी हो गई और बोली - "महाराज ! किनारे के लोग यह देखकर क्या कहेंगे ?" तब पराशरने आकाशको धुंधलाकर ( जिससे कोई देख न सके ) अपनी काम वासना पूरी की। इसके बाद उन्होने नदी में बीच में ही एक छोटा सा गांव बसाया और सत्यवतीसे विवाह कर वहां रहने लगे ।
कुछ दिन बाद सत्यवतीके व्यास नामक पुत्र हुआ । जन्मकाल से ही उसके सिर पर जटाएँ थीं और वह यज्ञोपवीत पहिने था । जन्मते ही वह पिताको प्रणाम कर तपस्या करने चला गया। ये बाते पागल के प्रलाप छोड़ और क्या हो सकती है और विवेक बुद्धिवाले इनपर विश्वास भी कैसे कर सकते हैं ? भक्तिके आवेश में आ कर असत्य पर विश्वास करनेबालोंने ऐसा लिख मारा हैं । अतएव बुद्धिमानोंको उचित है कि वे उन विद्वानोंकी संगति करें, जो जैनधर्मके रहृश्यको समझते हैं तथा जैन शाखका श्रद्धा के साथ अध्ययन करें और उनमें अपनी पवित्र बुद्धिको लगायें। इसी से उन्हें सच्चा सुख प्राप्त होगा ।