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________________ ७४ ] श्रीपाल चरित्र "कहन सुननकी बात नहि: लिखो पढ़ी नहि जास' ।' अपने जियमे जानियो, हमरे स्पिकी बात ।।" परन्तु इस समय मुझे एक बार जाना ही उचित है। तुम . हठ न करो और हषित होकर मुम जाने के लिए अनुमति दो !. निदान मैनामुन्दराने हाथ जोड़ नमस्कार कर पति के चरणों में मस्तपा रख दिया । इस प्रकार श्रीपाल स्त्रोको समझाकर डरते डरते माताके पास आज्ञा लेनेको गये । मन में सोचते जाते थे कि क्या जान माता आज्ञा दगी या नहीं ? यहां से । तो किसी प्रकार निवटेरा हो गया है। इस प्रकार सोचनः जाकर माता चरणाम भस्तक अका दिया. दोनों हाथोंकी अंगुली जोडकर दीन हो खडे हो गये 1 माता पुश्मा बिना समय आगमन देखकर चितावतो होकर नाली पुत्र ! इस समय ऐसी भातुरतासे तेरे आनेका कारण क्या है ? तब श्रीपालने अपने मन का सत्र वृत्तांत कहकर विदेश जानेकी आना मांगी। सुनते ही माता अत्यन्त दु:खित होकर कहने लगी- पुत्र ! एक तो पूर्व असाता कमोन पहिले ही तुमसे वियोग कगया था सो. जमे तने बडे काटमें बहुत दिनाम तुमसे मिलकर अपने हृदयकी दाह पति को थी, परन्तु क्या अब भी निर्दबी कम न देख सका जो पुनः पुत्र से विछोह कराना चाहता है ! ये पुत्र! तुझे यह बसी पुद्धि उत्पन्न हुई है ? ऐ बेटा ! अभी तो मैं तुझे देखकर तेरे पिताम वियोग दुःखको भूली हुई है, सा तेरे बिना मैं कैसे दिन व्यतीत करूगी ?" ____ माता से बचन सुनकर श्रीपान बही नम्रतासे बोले - "हे माता ! मुझे इस समय जाना ही उचित है क्योंकि यहां रहने से यद्यपि मुझे कोई दुःख नहीं है, परन्तु मैं राजजंबाई कहकर बुलाया जाता है. और मेरे पिताका, कुलफा व देशका नाम कोई नहीं लेता है. इसीसे मेरा चित्त व्याकुल है ।
SR No.090465
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size3 MB
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