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________________ उज्जैनीसे श्रीपालका गमन । . सामग्री दुःखदायी है । यद्यपि मैनासुन्दरो सब जानती थी, - परन्तु दिन ऐसा ही होता है । जब थोपालजीने देखा कि स्त्रियां हठ पकड रही हैं, और इससे कार्यमें विघ्न होनेको सम्भावना है, तब उपरी ... मनसे कुछ क्रोध करके बोले स्त्रियोंका स्वभाव ऐसा ही होता है कि वे हजार "शिक्षा देनेपर अपनी चाल नहीं छोडती न कार्याकार्य ही विचार करतो हैं । बस, छोड दे मुझे ! " यह सुन नेत्र भरकर कांपते२ मैनासुन्दरीने पल्ला छोड दिया, और नीची दृष्टि कर स्वामोके चरणोंकी ओर देखने नगी ठीक है, इसके सिवाय वह और कर ही क्या सकतो थी ? धीपालजीको उसको ऐसी दीन दगा देखकर दया मा गई । ठीक है, दीनको देखकर फिसे दया न होगी ? पाषाण हृदय भी पिघल जायगा, जिसमें भी फिर अबलाओंका दोन झोना तो पुरुषोंको और भो विह्वल बना देता है। यद्यपि भोपालको दया आ गई थी, परन्तु पुरुषार्थका सुल कर लगा रहा था। इसलिए वे किसी प्रकार अपने विसारको बदल नहीं सके । किन्तु अपने विचार पर दृढ़ बने रहकर व स्वर से बोले प्रिये ! चिन्ता न करो। तुम यथार्थ में सतो शीलवती साध्वो हो । तुम्हारा रुदन करना, मेरे चित्तको व्याकुल कर रहा है जो कि मेरी यात्रामें विघ्न करनेवाला है, इसलिये मेरे मुहसे ये अयोर शब्द निकल गये हैं। तुम ऐसा कभी अपने मनमें नहीं विचास्ना कि तुमसे मेरा प्रेम भिसी प्रकार कम हो गया है, किंतु जिस प्रकार तुम मेरे जाने से दु:खित हो, भै भो ... जुम्हें छोडनेमें उससे किसी प्रकार कम दुःखी नहीं हूँ।
SR No.090465
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size3 MB
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