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उज्जैनीसे श्रीपालका गमन ।
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क्योंकि जिस पुत्रसे पितादि गुरुजनों कुल व देशका नाम न चले वह पुत्र नहीं, किंतु कुलका कलंक है। उनका जन्म ही होना न होने के समान है। इसलिए माताजी ! मुझे सहर्ष आज्ञा व आशीष दीजिए, जिसमें मेरी यात्रा सफल हो । मैं शीघ्न ही । १२ वर्षमें ) लौटकर सेवामें उपस्थित होऊंगा । आप भी जिनेन्द्र का ध्यान कीजिए | और आपकी वध (मनासुन्दरी)
आपको सेवामें रहेगो ही तथा सातसो आज्ञाकारो सुभट भी अपनी शरण में उपस्थित रहेंगे। ___ माता कुन्दप्रभा पुत्रका अभिप्राय जान गई, उसे निश्चय हो गया कि अब पुत्र जाने से न रूकेगा इसलिये हठकर रखना ठीक नहीं है और वह कोई बुरे अभिप्राय से तो जा नहीं रहा है इत्यादि, सब वह अपने मनको दृढ़ कर बोली
"प्रिय पुत्र ! तुझे जानेको आज्ञा देते हुए मेरा जी निकलता हैं, परन्तु अब मैं तुझ रोकना भी नहीं चाहतो । इसलिये यदि जाते तो जाओ, और सहर्ष जाओ। श्री जिनेंद्रदेव गुरु और धर्मके प्रभावसे तुम्हारी यात्रा सफल होवे । परन्तु हे पुत्र ! विदेशका काम है बहुत होशियारीसे रहना । परधन और परस्त्रियाँ पर दृष्टि न डालना । सब जीवोंको आप समान जानना । कहा है -
मातृवत् परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्टवत् ।
आत्मबत् सर्वभूतेषु, य: जानाति स पण्डितः ।। तथा झूठे व दम्भी (छली) लोगोंका साथ कभी नहीं करना, किसी को भूलकर भी कुवत्रन नहीं कहना, मद्यपायो मांस भक्षक लोगोंके निकट न रहना न उनसे व्यवहार करना, जूना (हात) .. कभी नहीं खेलना, पानो ( नदो , ठग, कोतवाल. कृपण, हठो, स्त्री, हथियार, अंध पुरुष, नखी पशु, शृगवाले पशु, वेश्या, रोगी, ऋणी, बंधुबा (कैदी), शत्रु, ज्वारी, चोर, असत्यभाषी, ..