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श्रीपालीको पिता । [१०१ चलते समय राजा बहुत दूर तक पहुँचानेको गये, और 'निज पुत्रीको इस प्रकार शिक्षा देने लगे-ए पुत्री ! तुम अपने कुल के आचारको नहीं छोड़ना कि जिससे मेरी हंसी हो । तुमसे जो बड़े हों उनको भूल करके भी कषाय युक्त होकर सन्मुख उत्तर नहीं देना, और सदा उनकी आज्ञा शिरोधार्य करना । छोटोंपर करुणा और प्रेमभाव रखना, दोनों पर दया करना, स्वप्न में भो और विरोध नहीं करना । तुम अपने से बड़े पुरुषोंको मुझ (पिता) समान, समवयस्कको 'भाई के समान और छोटोंको पुत्रवत् समझना । मन, वचन, कायसे पतिकी सेवा करना, और उससे कभी भी विमुख नहीं होना । कैसा भो समय क्यों न आवे, परन्तु मिथ्यादेव, गुरु और धर्मको सेवन नहीं करना, निरन्तर पंचपरमेष्ठीका आराधन किया करना । सच्चे देव-गुरु धर्मको कभी नहीं भूलना । और हे पुत्री ! नरनारियोंका जो प्रधान भूषण शीलवत हैं सो मन, बचन, कायमे भले प्रकार पालन करना।"
इस प्रकार पुत्रीको शिक्षा देकर राजा श्रीपालके निकट आये और मधुर शब्दोंमे कहने लगे-कुमार ! मुझमे आपकी कुछ भी सेवा सुश्रुषा नहीं हो सकी सो क्षमा कीजिये, और यह दासो आपकी दो हैं सो इससे भलेप्रकार सेवा कराईये । मैं आपको कुछ भी देनेको समर्श नहीं हूं । केवल यह गुण, बुद्धिहीन, एक कुरुप कन्यारूपी लघु भेट दी है। पहो मेरी धौनताकी निशानी हैं। इसके मिवाय मैं आपका किसी प्रकार . भी सत्कार नहीं कर सका हूँ सो क्षमा प्रदान कीजिये ।
तब श्रीपालजी बोले-"हे राजन् ! आपने जो स्त्रीरत्न प्रदान किया हैं वही सब कुछ हैं। इससे और अधिक सम्पत्ति व सन्मान संसारमें हो हो. कमा सकता है ? मुझे तो आपके