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________________ पोपाल परित्र । श्रीपालजीकी विदा इस प्रकार सुखपूर्वक समय व्यतीत होते हुए कुछ भो मान्नुम नहीं होता था । सो इसप्रकार जब बहुत समय बोत गया, और धवल सेट भो अपना व्यापार कार्य कर घुक, तब एक दिन भालजीने सहक राज : साये और विनती करके बोले- 'हे नरनायक ! प्रजावत्सल स्वामिन् ! हमको आपके प्रसादसे बहुत आनंद रहा और बहुत सुख मोगा | अब आपको आज्ञा हो तो हम लोग देशांतरको प्रसाद प्रस्थान कर ।' राजाको यद्यपि ये वियोगमूचक वचन अच्छे नहीं लगे, क्योंकि संसार में ऐसा कौन कहोरचित है, जो अपने स्वजनोंको अलग करना चाहे, परन्तु यह सोचकर कि यदि हठकर रक्खेंगे तो कदाचित् इनको दुःख होगा और परदेशीको प्रीति भी तो क्षणिक ही होता है इसलिये जगी इनकी इच्छा हो सा ही करना उचित है। इससे वे उदास होकर बोले-- "आप लोगोंकी जैसी इच्छा हो और जिस तरह आपको हर्ष हो, सो हो हमको स्वीकार है ।" ठीक है. सज्जन पुरुषोंकी यही रीति होतो है कि वे परके दुःख में दुःखा और परके सुख में सुखी होते हैं, अर्थात् वे किसीको उचित कामनाका विघात नहीं करते । फिर तो ये राजाके स्वजन हा थे इसलिए राजाने इनका वचन स्वीकार करके जाने के लिए आज्ञा प्रदान की और बहुत धन, धान्य, दासी, दास, हिरण्य, मुवर्ण आदि अमूल्य रत्न मोंट देकर निज पुत्री रयनमंजुषाको भी साथ में विदा कर दिया ।
SR No.090465
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size3 MB
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