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रमनमंजूषाको प्राप्ति |
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पश्चात् कुछ दिनोंके पीछे इसे विचार हुआ कि मैं राज्यजवाई कहलाता हूं, और मेरे पिता, कुल व देशका कोई नाम तक भी नहीं लेता हैं यह बडी लज्जाकी बात है | इसलिए पिछली रात्रिको घरसे निकलकर फिरतेर एक वनमें आया । वहां पर एक विद्याधरको विद्या साधते और सिद्ध न होते देखकर इसने उसे सिद्ध करके सोंप दो, जिससे उसने 'प्रसन्न होकर दो अन्य विद्यायें इसे भेंट को ।
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फिर वहांसे आगे चलकर वह वत्स नगर में आया । सो वहां पर घबलसेठ के पचिसो जहाज समुद्र में अटक रहे थे, उनको ढकेलकर चलाया । तब उसने अपने लाभका दशमां भाग इसे देना स्वीकार कर अपने साथ ही ले लिया । पश्चात् रास्ते में आते हुए डाकुओंने जहाज घेर लिये, और सेठको बांधकर ले चले। तब इस बोरने निज भुजबल से उन सबको बांधकर सेठको छुड़ा लिया, और फिर उन सब हाकुओं को छोड़कर उनका बहुत सम्मान किया, जिससे उन्होंने प्रसन्न होकर अमुल्य रत्नोंसे भरे हुए सात जहाज भेंट किए । इस प्रकार बहांसे यह महापुरुष उस धवलसेट के साथ चल कर यहां आया है, और जिनदर्शन के निमित्त ये वज्रमय कपाट उघाड़े हैं |
इस प्रकार श्रीपालका चरित्र सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और मुनिवरोंको नमस्कार कर श्रीपालको साथ ले अपने महलको आया, और शुभ घड़ी मूहूर्त विचारकर अपनी पुत्री रयनमंजुषाको व्याह इनके साथ कर दिया । इसप्रकार ओपाल रयन मंजूषाको व्याह कर वहां सुखसे काल व्यतीत करने लगे और धवलसेठ भी यथायोग्य वस्तु बेचने और खरीदने रूप अपना व्यापार करने लगा |