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ग्रंथ (चरित्र) रचनाका कारण | वीतराग सर्वत्र प्रभु. निजानन्द गुणखान ।
अनन्त चतुष्टयके धनी, नमू वीर भगवान ॥ जय जय जिनवर तारन तरन, जब जम जन्म बस भा है। जय जय उद्यत जान दिनेश, जय जय मुक्तिवधू परमश ।। जय जय ल्यानास गुण मंड, जय अतिशय चौतीस. प्रचण्ड । तीन लोक को शोमा ताहि, और कोई उपमा नाहि आहि । जय जय केवलमान पयास, जय जय निशिन भव' बात 1: जय सम दोष रहित जिनदेव, सुरनर अमुर करें नुमा मेव । यह विधि जिनवर थुति करेय, बार तीन प्रदक्षिणा देव ।। विन श्रेणिक बारम्बार, भवदधिमे प्रभु को में पार ॥
तत्पश्चात् चतुविधि संघकी यथायोग्य विनय कर मनुष्योंको सभामें जाकर बैठ गया और प्रभु की वाणी से दो प्रकार सागार
और अनगार धर्मका स्वरूप सुनकर पूछने लगा कि है प्रभु ! सिद्धचक्र बेतको विधि क्या है ? और इसो स्वीकास कर किसने क्या फल पाया है, सो कृपा कर कहिये, जिसे सुनकर मध्यजीव धर्म में प्रवर्ते और दुःखसे छूटकर स्वाधीन सुखका अनुभव करें।' तब गौतम स्वामी ( जो श्री वीर भगवानके उपदेश की सभा (समवशरण) में प्रथम गणधर-- गणेश थे) बोले-है । राजन् ! इसको कथा इस प्रकार है:. सो मन लगाकर मुनो।"