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श्रीपाल के भवान्तर ।
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उजेल ! भो पहुच नहीं सकता था । सो राजाने उन महामुनिको देखकर अपशुकन माना, और 'कोढ़ी है फोड़ी है, ऐसा कहकर समुद्र में गिरवा दिया। परन्तु मुनिका मन विचित् भो चलायमान नहीं हुआ | पश्चात राजाको कुछ दर्या उत्पन्न हुई, सो फिर पानी मेसे मुनिको निकलवा लिया, और अपने घर आया पश्चात् कितने दिनों बाद गजा फिरसे वनक्रीडाको गया, और सामने एक क्षीण शरीर, धीरबीर, परम तत्वज्ञानी मुनिको आते हुए देखा। वे रत्नत्रय के धारी महामुनिराज एक साल के उपवासके अनन्तर नगरकी ओर पारणा (भिक्षा) के लिये जा रहे थे । सो राजाने क्रोधित होकर मुनिसे कहा
'अरे निर्लज्ज ! देश ! तुले जनाको सां फोट ही हैं, जो नंगा फिर रहा है ? गेला शरीर, भयावना रूप बनाकर डोलता है । 'मारो ! मारी ! अभी इसका सिर काट लो' ऐसा कह खड़ग लेकर उठा और मुनिको बडा उपसर्ग तथा हास्य किया । पश्चात् कुछ दया उत्पन्न हुई, तब उनको छोड़कर अपने महलको हा चला आया। ऐसे मुनिको बारंबार उपसर्ग करनेसे उसने बहुत पाप बांधा 1
एक दिन किसी पुरुषने आकर यह सब मुनियोंके उपसर्ग करनेका समाचार रानी श्रीमती से कह दिया, तो सुनते ही रानीको बडा दुःख हुआ । यह बारर सोचने लगी- 'हे प्रभो ! मेरा कैसा अशुभ कर्म उदय आया जो ऐसा पाप करनेवाला भर्तार मुझे मिला । कमको बडी विचित्र गति होती है । यह इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग कराया करता है। सो अब इसमें किसको दोष दूं? मैंने अंसा पूर्व में किया था बेसा पाया ।'
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इस तरह रानीने बहुत कुछ अपने कर्मोकी निंदा गह की और उदास होकर पलंगपर जा पडी । इतने में राजा आया