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भोपाल चरित्र ।
श्रीपालके भवान्तर श्रो मुनि बोले-'हे राजन् ! सुनो। इस जंबुझोपके दक्षिण दिशामें भरतक्षेत्र है। उसके आय खंडमें एक रत्नसंचयपुर नामका नगर महारमणोक बन, उपवन, तडाग, नदो, कोट, खाई आदि बडे२ उत्तंग महलों से सुसज्जित था। उसके राजा श्रीकंठ विद्याधर महाबलवान और चतुरंग सैन्य का स्वामी था । उस के यहां सब रानियोंमें प्रधान पट रानो प्रोमतो थो। सो वह महारूवती, गुणवतो और धर्मपरायणता थी । नित्यप्रति चार संघको भक्तिपूर्वक आहारादिक दान देती थी । एक दिन राजा रानी सहित श्री जिनमंदिर गया और जिन देवको स्तुति वन्दना करके पीछे फिरा तो वहां परम दिगम्बर मुनिराजको विराजमान देखकर नमस्कार किया, और समीप बैठा। श्रीगुरुने धर्मवृद्धि दी और संसारसे पार उतारनेवाले जिनधर्मका उपदेश दिया। इससे राजा आदि बहुत लोगोंने ययायोग्य व्रत लिये और अपने आवास स्थानों को आये व • यथायोग्य धर्म पालने लगे ।
पश्चात् तोव मोहके उदयसे राजाने श्रावकके व्रतोंको छोड़ दिया। और लक्ष्मी, ऐश्वर्य, रूप, कुल, वल और तरुणावस्थाके मद में उन्मत्त होकर निथ्यात्वियों के बहकानेसे वह मिथ्यादेव, धर्म और गुरुको सेवा करने लगा, तथा जनधर्मका निन्दक हो गया । एक दिन वह राजा अपने सात सौ वीरों को साथ लेकर वनक्रीडाको गया था, सो वहां एक सफामें बाईस "परिषहरू सहनेवाले ध्यानारूढ एक मुनिराजको देखा, जिसका शरीर बहुत क्षीण (दुर्बल) हो रहा था, धूलसे भर रहा था और डांस मच्छर आदि लग रहे थे।
वे एसे निश्चिल विराजमान थे कि जिनके पास सूर्यका