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श्रीपाल बरि ।
'वन कर रही है, और जिसका शरीर धूल
धूसरित हो | तथा अस्तव्यस्त बनायें खड़ी हैं। उसे देख रमनमं मंजूषा करुणामय स्वर से बोली
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'हे बहिन ! तू क्यों रो रही हैं, और क्यों इतनी अधीर हो रही है ? तू कौन ? और यहां कैसे आई ?
गुणमालाको इसके
कुछ
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हुआ। वह अपने को सम्हाल करके बोली- 'स्वामिनी ! मेरे पिलाने मुनिराज से पूछा था कि जो पुरुष निज बाहुबलसे समुद्र तिरकर यहां आये, वही तेरी कन्याका पति होगा, सो ऐसा ही हुआ कि यहां कुछ दिन हुए एक पुरुष श्रीपाल नामका महातेजस्वी रूपमें कामदेव के समान धीरबीरे, महाबली, निजबाहुबल से समुद "तिरकर आया और मेरे पिता (यह राजा ) ने उसके साथ मेरा पाणिग्रहण भी करा दिया। इस प्रकार बहुत दिन हम दोनों आनन्दले रहे परन्तु आज बहुतसे भांड राज्यसभा में आगे, - और अपनी चतुराईसे राजाको प्रसन्नकर पारितोषिक प्राप्त किया। पश्चात उन्होंने मेरे पतिको देखकर पकड़ लिया | और 'पुत्र-पुत्र' कहकर चुम्बन करने लगे, बलया लेने लगे, और राजासे कहने लगे कि यह तो हमारा पुत्र है !
तब राजाको बहुत दु:ख हुआ, और उन्हें हीनकुलीन जानकर शूलीकी आज्ञा दे दी हैं। इसलिए स्वामिनी ! तुम इसके विषय में जो कुछ जानती हो तो कृपाकर कहो, ताकि "मेरे स्वामीकी प्राणरक्षा हो । मुझ अनाथको पति भिक्षा देकर सार्थ करो !" तब रयनमंजूषां बोली- हे बहिन ! तु शोक मत कर वह पुरुष परमशरीरी महाबली है, उत्तम राज'वंशीय है मरनेवाला नहीं हैं ! ल, मैं तेरे पिता के साथ है और वही सब वृतांत कहूंगी ।
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