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________________ मनासुन्दरीका श्रीपालसे व्याह । जीव कमांधीन है । सुखके पीछे दुःख और दुःखके पीछे सुख । इसी प्रकार संसारका चक्र चलता है। जो कर्म आता है, उसकी निर्जरा भी होती है । मनुष्यका कर्तव्य है कि उदयनित अवस्थाको पूर्व कर्मका फल समझकर सममाबोंसे भोगे, न कि उसमें हर्ष विषाद कर संक्लेश भावोंसे आस्रव व बन्ध करे । समता भावोंसे शीघ्र ही कोंकी निर्जग होती है और पुण्य कर्मों में स्थिति और अनुभाग बढ़ जाता है । और यदि हर्ष विषादकर भोगता है, तो उदय जनित कर्मोका फल का तो होता नहीं है, -किन्तु विशेष दुःखप्रद मालुम होता है और तीन कषायोंके द्वारा पुन: अशुभ कर्मबन्ध करके आगेके लिए दुःखका बीज बोता है, क्योंकि जोव कर्म भोगने में परतन्त्र है, परन्तु कर्म करने में स्वतन्त्र है । सो उसे चाहिये कि कर्म करते समय सावधान रहे ताकि अशुभ कर्म बन्ध न पा और कर्मफलको समभावोंमे सहन करे, ताकि यहां भी भोगने में अतिशय कष्ट न मालूम होवे और आग,मी आतब तथा बन्धका कारण भी न हो । हे स्वजनगणों ! किसीको सुख दुःख देनेवाला संसारमें कोई भी नहीं है । केवल संसारी जीवों को उनके अन्तरंगमें उत्पन्न हुई इष्टानिष्ट कल्पना ही सुख दुःखका मूल कारण होती है, क्योंकि प्रत्यक्ष देखा जाता है कि जो वस्तु एकको इष्ट है वहो वस्तु किसी दूसरेको अनिष्ट मालुम होती है । यदि कोई बस्तु इष्ट व अनिष्ट होती, तो वह सबको समान रुपसे इष्ट व अनिष्ट होना चाहिये थो, सो ऐसा सो नहीं देखा जाता ।
SR No.090465
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size3 MB
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