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श्रीपाल चरित्र ।
श्रोपालका चंपापुर जाना इस प्रकार सुखपूर्वक रहते हुए श्रीपालका बहुत समप बोत मया। एक दिन बैठे२ उनके मनमें वही विचार उत्पन्न हो गया, कि जिस कारण हम विदेश निकले थे. वह अभी पूर्ण नहीं हो पाया हैं । अर्थात् पिनाके कुलको प्रख्याति तो नहीं हूई और मैं वहीं राज-जवाई हा बना हुआ हूँ इसलिए अब अपने देश में च नकर अपना राज्य प्राप्त करना चाहिये । यह सोचकर श्रीपाल जो राजा पहलके निकट मये, और देश जानेको आज्ञा मांगो। तब राजाको 'भो उनको इच्छा-प्रमाण आज्ञा देनी पडी।
श्रोपाल भौनासुन्दरी आदि आठ हजार रानिकों और बहुत संन्या सहित उज्जनमे विदा हुए । राजा पहुराल आदि बहुत से रजा 'भा उसको पहुवानेको आये, और सबने शक्ति प्रमाण बहुमूल्य बस्तुये भेंट को ।।
बहुत भूप इकठे भये, : दियो भट बहु माल । कोलाहल होवत भयो, चलों राव श्रीपाल | श्रीपाल चलो मेरू हलो, जागो वासक शेष । गजघण्टा गाजहिं प्रबल, भाजहिं अरि तज देश ॥२॥ वाजे निशान अरू संन्य सब, गिनो कौनसे जाय । कलमले दश दिगपाल हो, कंपे थर हर राय ||३|| धूल उड़ी आकाशमें. लोप भयो है मान । खलबल हुई भुवि लोकमें, शब्द सुनिय नहिं कान ||४|| अन्धकार प्रगटयो तहां, जुरी सेन गंभोर । बोर कहा वाहू दिशा, छूट गयो तृण नीर ॥५॥ सांपत गिरि खाई नदो, बन थल नगर अपार । यश कर बहु नृप आइयो, चम्पापुरी मंझार ॥६॥