SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ घवलसेठ रयनमंजुषाके पास और देवसे दंड। [११७ अबला उसे सन्मुख आते देखकर अत्यन्त ही भय और लज्जासे मुरझाये फलकी नाई हो गई, और अपना मुंह वस्त्रसे ढोक लिया और मनमें सोचने लगी कि हा देव ! तु क्या क्या खेल दिखाता है ? एक तो मेरे प्राणवल्लभ भारका वियोग हुआ। दूसरे यह दुर्बुद्धि मेरा शील भंग करनेके लिए सन्मुख आ रहा हैं । हो न हो, मेरे पति को इस पापीने ही समुद्र में गिराया होगा। हाय ! एक दुःखका तो अन्त नहीं हुआ, और दूसरा सामने आया। क्या करू' । इस समय मेरा कौन सहायो होगा ? वह दासी भी इसी पापीने भेजो होंगी । इन जहाजोंमें मेरा कोई हितू नहीं दिखता हैं । हे जिनदेव ! अब आपहीका मारण है । मझे किसी प्रकार पार उतारिये, लज्जा रखिये, तुम अशरणके शरणाघार और निरपेक्ष बन्धु हो । इस प्रकार सोच रही थी कि वह पापी निकट आकर बैठ गया। और विषलपेटी छुरीके समान मीठे शब्दों में हंस हसकर कहने लगा-- हे प्रिये स्थनमंजूषे! तुम भय मत करो। सुनों, में तुमसे धीपालकी बात कहता हूं। वह दास था, उसको मैंने मोल' लिया था। वह कुलहोन और वंशहोन था। बड़ा प्रपंची, झूठा और निर्दयीचित्त था । ऐसे पुरुषका मर जाना ही अच्छा है । तुम व्यर्थ उसके लिए इतना शोक कर रही हो, अब उसका डर भी नहीं रहा है, क्योंकि उसको गिरे हुए कई दिन भी हो चुके हैं सो जलचरोंने उसके मृतक शरीर तकको खा लिया होगा। इसलिये नि:शंक होओ। जब कांटा निकल जाता है, तब दुःख नहीं रहता । मुझे ससके साथ तुमको रहते हुए देखकर दुःख होता था कि क्या
SR No.090465
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy