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धवलसेठका रयन मंजूषाको बहकाना । ११३. धवलसेठका रयनमंजूषाको बहकाना धवलसेठके ये दिन बड़ी कठिनतासे जा रहे थे । इस-- लिए उसने शीघ्र हो एक दूतोको बुलाकर रयनमंजूषाको फुसलाने के लिए भेजा । सो ठीक है--
कामलुब्धे कृत्तो लज्जा, अर्थहीने कुतः क्रिया। सुरापाने कुतः शौचं, मांसाहारे कुतो दया । अर्थात्-कामीको लज्जा कहाँ ? और दरिद्र के क्रिया कहाँ ? सपायोके पवित्रता का ? और मासहरीके दया कहां, सो पापिनी दुती व्यभिचारकी खानि लोभके वश होकर शीघ्र ही रयनमंजुषाके पास गई और यहां वहां की बातें बनाकर कहने लगी
"हे पुत्री ! धैर्य रक्खो। होना था सो हुआ, गई बातका बिचार ही क्या करना है ! हो यथार्थ में तेरे दुखका ठिकाना नहीं है कि इस बालावस्था में पति वियोग हो गया । अब इस बातकी चिंता कहां तक करेगी ? अभी तो तेरी नवीन अवस्था है, इसमें कामका जीतना बड़ा कठिन हैं। सो बेटो । तू कसे उस कामके बाणोको सहेगो ? जिस कामके वशीभत होकर साधु और सात्रोने रुद्र व नारदकी उत्पति की, जिस कामसे पीडित होकर रावणने सीता हरण की, जिस कामके वशमें और तो क्या देव भो हैं, उस कामको जीतना बहता काठन है । और ठोक ही कहा हैं
घास फूसको खात है, तिनहिं सतावे काम । षट्रस भोजन जो करें, उनकी जाने राम ||