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श्रीपाल चरित्र । इस प्रकार सबने समझा कर रपनमंज्याको धैर्य दिया है. तब वह भी संसारफे स्वरूपका विचार कर किसी प्रकार धैर्य धारण कर सोचने लगी यथार्थमें शोक करनेसे असाताः वेदनो मादि अशुभ कर्मोका बंध होता है । सो यदि इतने ही समयमें जितने में शोक कर रही हूं श्री पंचपरमेष्ठीका आराधन करूंगो तो अशुभ कर्मी निर्जरा होगी और यह भी आशा हैं कि उससे कदाचित् प्राणपतिका भी मिलाप हो जाय । क्योंकि सीताको इसो परमेष्ठी मन्त्रको आराधनासे पतिका मिलाप और अग्निका जल हो गया था । ____ अंजनाको इसी मंत्र प्रभावसे उसके प्राणप्रिय प्रतिको भेंट हुई थी। आर तो क्या पशु और पक्षियों को भी इसी मन्त्रके प्रभावसे शुभ गति हो गई है, सो मेरे मो इस अशुभ कर्मका अन्त इसीकी आराधनासे आवेगा । और कदाचित् . इसी मंत्रकी आराधना करते हुए मरण भी हो गया तो भी इस पर्यायसे छुटकारा मिलते ही सद्गति प्राप्त हो जायगो ।
वास्तव में यह महामंत्र तोन लोकमें अपराजित हैं अनादि-. निधन है, मंगलरूप हैं, लोक में उत्तम हैं और शरणाधार है। अब मुझे-इसोका शरण लेना योग्य हैं। बस, वह सतो इसो विचारमें मग्न हो गई। अर्थात् मनमें पंचपरमेष्ठी मन्त्रको आराधना करने लगी । उसे खानपानको भो सुध न रहीं । . दो चार दिन यों ही बीत गये। स्नान, विलेपन और वस्त्राभूषणका ध्यान ही किसे था? वह किसी से बात भी नहीं करती थी, न किसोकी ओर देखती थी। नोंद, भख प्यास, तो उसके पास ही नहीं रहे थे। उसको मात्र पंचपरमेष्ठीका स्मरण और पतिका ध्यान था।
वह पतिव्रता उन जहाजों में इस प्रकार रहती थी जैसे जलमें कमल भिन्न रहता है। वह परम वियोगिनी इस प्रकार काल व्यतीत करने लगी ।