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समुद्र पतन ।
गिरकर प्राण दे दूं, परन्तु आत्मघात महापाप है। यदि मुझसे सेवामें कुश कमी हो गई थी तो मुझे उसका दण्ड देते । अपने आपको क्यों दुःखसागरको डुबोया। अब बहुत देर हुई । प्रसन्न होओ और अबलाको जीवनदान दो, नहीं तो अब ये प्राण आपको न्योछावर होते है ! अब, हे प्रभो ! आपकी ही शरण है, पार कीजिये । _इस प्रकार रयनमंजूषाने घोर बिलाप किया। उसका शरीर कांतिहीन मुरझाये फूल सरीखा दिखने लगा, खानपान वट गया, शुगार भी स्वामी के साथ समुद्र में डूब गया । इस प्रकार उस संताsil दु.खस विहल देखकर सब लोग यथायोग्य धैर्य बंधाने लगे और पारो धबलसेठ शोकाकूल होकर समझाने लगा ।।
है सुन्दरी ! अब शोक छोडो ! होनी अमिट है । इस पर किसीका वश नहीं । संसारका सब स्वरूप ऐसा ही है । जो उपजता है वह नियमसे नाश होता हैं। अब व्यर्थ शोक करनेसे क्या हो सकता है ? अब यदि तुम भी उनके लिए मर आओ तो भी वे तुम्हें नहीं मिल सकते हैं। ससिको अनेक दिशाओंसे पक्षी आकर एक स्थानमें ठहरते हैं और भौर होते हो अनी २ अवधि पूरी कर अपनीर दिशाको चले नाते हैं। इस पृथ्वीपर बड़े२ चक्रवर्ती नारायणादि हो गये पर कालने सबको अपना ग्रास बना लिया, कर्मवश 'विपत्ति सत्र के उपर आती है । कविश रामचंद्र लक्ष्मणका वनवास हुआ । कर्मवश गीता पतिसे दो बार विद्रोह हुआ। कर्मवश ही भरत चक्रवर्तका मान भंग हुआ । कम वसा हो आदिनाथ लोहश्वरको छ: मास तक भोजनका अंतराय हआ। तात्पर्य -कर्मने जगजीवनको जीत लिया है इसलिए शोक छोड़ो । हम लोगोंको भी असीम दुःख हुआ है, परन्तु किससे झहें और क्या करें ? कुछ उपाय नहीं है ।