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विद्याओंको सिद्धि ।
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विद्याओंकी सिद्धि श्रीपालजी गरसे प्रस्थान कर अपने साथ चन्द्रहास खङ्ग और चमर आदि सम्पूर्ण आयुध साथ लिए हुए अति शीघ्रतासे अनेक वन, पर्वत, गुफा, सरोवर, खाई, नदी पुर. पदनादिकों उल्लंघन करते हुए पांव यादे चलते चलते वत्सनगर में आये। और मगरकी शोभा देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुये क्योंकि उस नगर में नाना प्रकारके चित्रोंसे चित्रित बड़े२ उत्तंग महल यथाकमसे बने हुये थे। द्वारपर सुवर्ण कलश स्थापित थे। ___ नगर में चतुर्वर्णके नरनारो अपने योग्य स्थानों में निवास करते थे । बाग बगीचोंसे नगर सुसज्जित हो रहा था। उसी नगरके निकट नन्दन वनके समान एक सहारमणोक उपवन दिखाई पडा । सो श्रीपालजीने उसको स्वाभाविक सुन्दरता देखने की इच्छासे उसमें प्रवेश किया। म स्थानकी शोधाको देखते और मन्द सुगन्ध पवनसे चित्तको प्रसन्न करते हुए जब वे बहां फिर रहे थे कि उन्होंने उसी (पक) वन में एक वृक्ष के नीचे किसी कोर पुरुषको वस्त्राभुपणसे अलंकृत, क्षीण शरीर और फ्लेशयुक्त होकर मंत्र जपते हुए देखा ।
वे उसे देखकर सोचने लगे कि इतना क्लेश उठानेपर। भी मालूम हुआ है कि इसे मंत्र सिद्ध नहीं हुआ है। कदाचित् इसोसे उसका चित्त उदास हो गया होगा । तब . श्रोपालने उसके निकट जाकर पूछा___ "हे मित्र ! तुम कौन से मंत्रकी आराधना कर रहे हो कि जिससे तुम्हारे चित्तको एकाग्रता नहीं होती है ?" यह वचन सुनकर वह वीर चौंक उठा, और इनका रूप देखकर हषित हो बहुत आदरपूर्वक विनयसहित बोला--'हे पथिक ! मुझे मेरे गुरुन् विद्याका मात्र दिया था, सो मैं उसोका जाप कर रहा है।