________________
२३. J
श्रीपाल अभिव ।
इस प्रकार मैनासुन्दरी जब सब विद्या पढ़ चुको, तब अपने माता पितादि गुरुजनोंको यथायोग्य विनय करती हुई फलीन saranी भांति सुखसे कालक्षेप करने लगी और ज्येष्ठ पुत्रो सुरसुन्दरी ( जा शिवगुरुके पास पहनेको गई थी। भी वेद, पुराण, ज्योतिष, वैद्यक आदि संपूर्ण विद्या पढ़ चुकी । तब वह ब्राह्मण पण्डित उसे लेकर राजाके समीप उपस्थित हुआ और आशीर्वाद देकर कन्या राजाको सौंप दी। इसपर राजाने उसे उचित पुरस्कार (इनाम) देकर संतोषित किया । एक दिन राजा सुखासन से मंत्री आदि सहित बैठे कि इतने में बड़ी पुत्र आई । राजा उसे तरुणावस्था प्राप्त ये हुए देखकर पूछने लगे- हे पुत्री ! तेरा लग्न ब्याह ) कहां और किसके साथ होना चाहिए ? तुझे कौन वर पसन्द है ? तब सुरसुन्दरी बोली- पिताजी पुण्यके योगसे ही विद्या, धन, ऐश्वर्य रूप, योजनादि सब मिलता है सो तो सब आपके प्रभावसे प्राप्त है ही, और लग्नादि कार्य गृहस्थोंके मंगल कार्य हैं. इन्हीं मुखको प्राप्ति होती है यह भी ठोक है । अच्छा तो यही है कि कन्याओंके योग्य वर पितादि गुरुज नोंके द्वारा तलाश किया जाय, परन्तु यदि श्रीमान मुझसे ही पूछना चाहते हैं तो मुझे कोशांबी नगरीके राजाका पुत्र हरिवाहन जो सर्व गुण संपन्न, रूपवान तथा वन है, पसंद है उसीके साथ मेरा लग्न होना चाहिये। तब राजाने यह बात. स्वीकार को, और बड़े आनन्द व उत्साहसे सुरसुन्दरीका लग्न ( पाह) शुभ मुहर्त में उसके हरिके साथ कर दिया।
इसी प्रकार किसी एक दिन छोटी पुत्री मैनासुन्दरी जब. चैत्यालयसे आदीश्वरस्वामीको पूजा कर गंधोदक लिये हुए। पिता के पास आई तो राजाने उसे प्रेम से आओ बेटो ! आवो !! कहकर बैठनेका संकेत किया । पुत्रीने विनय सहित भेंट स्वरूप :
1