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मैनासुन्दरीका वणन ।
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प्रकार द्रव्य संजोकर जिन छत्यालय पधारे 1 वहां जाकर प्रथम ही श्रीजिनेन्द्रको भक्तिभावसे पूजा करके फिर वहाँ पधारे हुए श्रीगुरुको नमस्कार किया । गुरुने धर्मवृद्धि दी। तब राजा और रानीने विनती की-हे स्वामिन् ! इस बालिकाकी इच्छा विद्याभ्यास करनेकी है, इसलिए कृपाकर इसे विद्यादान दीजिये । मनासुन्दरी भी कर जोड़ प्रार्थना की-हे कृपासिन्धु ! धर्मावतार ! मुझे विद्यादान दीजिये । तब श्रीमुनि बोले कि इस बालिकाको आर्थिकाके पास पढ़ानेको बिठावों। तब राजाने गुरुकी आज्ञानुसार पुत्रीको आयिकाजीकी शरण में छोड़ दिया और रानी सहित स्वगृहको प्रयाण किया । आयिकाज ने प्रथम हो उसे कार जो समस्त द्वादशांगका सार है पढ़ाया
मंगमलय मंगल करन, उराम शरणाधार । ॐकार संसारमें, पार उतारन हार ॥ ज्ञायक लोकलोकका, द्वादशांगको सार । गर्मित पंचपरमेोष्ठि अरु कर्म भर्म क्षयकार ।।
इस प्रकार कार से आरम्भ करके यो परम तपस्विनी "आयिकाजीने थोडे ही दिनों में इस कुमारिकाको शास्त्र, पुराण, संगात, ज्योतिष, वैद्यक, तर्कशास्त्र, सामुद्रिक, छन्द, आगम, आध्यात्मिक, नृत्य, नाटक इत्यादि सर्न विद्या और मुख्य २ भाषाओंका ज्ञान करा दिया । जब वह सम्पूर्ण कलाओं में 'निपुण हो गई, तब श्रीगुरुके निकट निश्रय और व्यवहार धर्म, दो प्रकारका चरित्र, पार च्यान, षोडशकारण, दशलक्षण, जत्दीश्वर- रत्नत्रयादि प्रोंका स्वरूप समझा।