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श्रीपाल चरित्र । - =--- - - --- ---- -- - ९.फोस चौड़ा पा । बहुत दूर २ तफ राजाको आज्ञा मानी जाती पी । वहां कोई दुःखी, दरिद्री नहीं देख पड़ते पे । बागबगीचे, कोट, खाई. सरोवर आदिसे मारकी शोमा अवर्णनीय हो रही थी । राजा यहां निपुणसुन्दरी पट्टरानी मादि बहुतसी रानियां थी । पट्टरानो निपुणसुन्दरोके गर्भसे दो कन्याय हुई ।
एकका नाम सुरसुन्दरी और दूसरी का नाम मैना सुन्दरी था । प्रथम कन्या सुरसुन्दरी केवल संसारी विषयमोगोंकी आकांक्षा करनेवाली और कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्रको सेवन करने वाली विवेकहीन किन्तु रूपवती थो, और द्वितीय कन्या मनासुन्दरी जैसी उपवती थी, वैसी हो गुणवत्ता और परम विवेक जनधर्ममें अत्यन्त लवलीन थी। इसका चित्त सरल और दयालु था । वचन मधुर नम्र और सत्यरूप निकलते थे, इसासे यह सबको प्रिय थी ।
एक दिन राजाने रानोसे सम्मति मिलाकर दोनों पुत्रियोंको पढ़ाने का विचार किया, सो प्रथम हो सुरसुन्दरीको बुलाकर पूछा-हे बाले ! तुम कौनसे गुरुके पास पढना चाहती हो? तब सुरसुन्दरीने कहा, कि शैव गुरुके पास पढूगी । यह सुनकर राजाने तुरन्त ही एक शेवगुरुको बुलाकर उसे सब प्रकार संतोषित कर कन्या सोंप दी तब वह ब्राह्मण (शैवमुरु) राजाको शुभाशीर्वाद देकर मुरसुन्दरीको अनेक प्रकार कला चतुराई और विद्याए सिखाने लगा ।
फिर राजाने द्वितीय कन्याको बुलाकर पूछा-ऐ बाले ! तम किस गुरुके पास पढ़ना चाहती हो ? तब मैनासुन्दराने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया--हे तात ! मैं जिनचैत्यालयमें श्री जिनमती आयिकाके पास पढ़ना चाहती हूं । यह सुनकर
मा रानी अनि प्रसन्न हा, और कन्याको लेकर स्वयं अप्ट