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श्रीपाल चरित्र ।
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हुये थे । अतएव उन्हें क्या चाहे किसीका बुरा हो या भला, अपने कौतुकसे काम उस समय वहां इतनी भीड़ हुई कि आकाश धूल से आच्छादित हो जानेसे सूर्यका प्रकाश भी ढंक गया, मानो, कि सूर्य लज्जा से ही छिप गया हो, किसीका कुछ भी भाव हो, परन्तु श्रीपाल के आनन्दका तो ठिकाना नहीं था सो ठीक ही हैं ।
जिस ही उनके लिए संपात करके तन, धन और प्राणोंका नाश कर बैठते हैं, यदि वहीं स्त्रीरत्न ऐसो अस्वस्थ अवस्था में भी बिना प्रयास प्राप्त हो जाके तो फिर भला क्यों न हर्ष हो? होना ही चाहिये । इस प्रकार शुभ मुहूर्त में गृहस्थाचार्यने विधिपूर्वक पंचपरमेष्ठी, अग्नि और पंत्र आदिकी साक्षीपूर्वक दोनोंका पाणीग्रहण कर दिया । जब विवाहकी विधि हो चुकी, तब मैंनासुन्दरी अपनें पतिके साथ उनके आश्रम को पहुचाई गई। जो लोग भी पहुँचाने गये थे, उन सबके चेहरे से उस समय तक भी शोक भय, लज्जा आदि भाव प्रवशित होते थे । प्रथम तो पुत्रोको विदाई ( जुदाई ) ही दुःखदाई होती है, तिस पर उसको ऐसे दुनिवार दुःखका होना ।
इसीसे सब लोगोंकी आखोंसे अश्रुगन हो रहे थे ऐसा मालूम होता था कि मानों श्रावण भादोंकी वर्षाको झड़ी हो लग रही हो । राजा पहुं पाल स्वयं चित्तमें बहुत खेदित और लज्जित हुए, परन्तु क्या करें ? कर्मकी रेखा पर मेख मारने की किसका सामर्थ्य है ? किसीके मुंहसे शब्द नहीं निकलता था। चारो ओर हा, हा खेदकी ध्वनि हो रही थी। रानो मैना सुन्दरीको माता) तथा बड़ी बहिन मैनासुन्दरो के गले के लिपटकर जोर जोरसे रुदन करके कहने लगों -
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