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श्रीपालका गुणमालासे पाह । १२७ पया करके जो यह कन्यारत्म मुझे दिया, और सब तरहसे मेरा उपकार किया है सो मैं भूल नहीं सकता, सदैव आपकी सेवा करने को तैयार हूं राजा इस प्रकारका उत्तर सुनकर प्रसन्न हुआ और श्रीपालजी भी वहाँ गुणमाला सहित सुखसे समय बिताने लगे, परन्तु जब भी कभी रयनमंजूषा व मनासुन्दरीकी सुध आ जाती तो चिन्तित हो जाते थे।
एक दिन श्रीपालजी इसी विचार में बैठे थे कि वहां -गुणमाला आ गई, और बातों ही बातोंमें पूछने लगी-- प्राणनाथ ! आपका कुछ वंश जाति आदिका वर्णन तथा यहां तक पहुँचानेका कारण भी सुनना चाहती हूँ, सो कृपाकर कहीं ।
यह बात सुनकर श्रीपालको हंसी आ गई, और मनमें सोचने लगे कि अपना वृत्तांत इससे कहूँ तो इसको उसका निश्चय कसे होगा ? ऐसा चुप रहे । तब गुणमालाकी यह इच्छा और भी बढ़ गई । इसलिए वह और भी आग्रहपूर्वक पूछने लगी कि प्रभो ! बताईये तो सही, राज्य आदि विभति क्यों छोडा ? और समुद्र में कैसे गिरे ? और मगरमच्छादि जीबोंसे बचकर किस प्रकार ग्रहातक आये ? आपका चरित्र बहुत विचित्र मालूम होता है, इसीसे सुननेको इच्छा बढ़ रही है ।
तब श्रीपालजी बोले प्रिये ! पानी मेरा पिता, कीचड़ मेरी माता, बडवानल मेरे भाई, और तरगे मेरा परिवार है, सो उनको छोड़कर तुम्हारे पास तक मिलनेको चला आया हैं। बस यही मेरा चरित्र हैं, क्योंकि इससे अधिक और जो मैं कहूँ तो बिना साक्षी यहां कौन मानेगा ? यह