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________________ मांडोंका कृपट ! | १३३ गया, और हम लोग किसो प्रकार लकड़ी के पटियोंके सहारे कठिनता से किनारे लगे सों और सब तो मिल गये, परन्तु एक लडका नहीं मिला है। हे महाराज हो! आपके दर्शनले सम्पत्ति और संतति दोनों ही मिले। : = भांडोंके कथनको सुनकर राजा को बहुत पश्चाताप हुआ कि हाय ! मैंने बिना देखे और कुल जाति आदि बिना ही पूछे कन्या ब्याह दी। निःसन्देह यह बडा पापी है, कि जिसने अपना कुल जाति आदि रुछ प्रगट नहीं किया और मुझे धोखा दिया। फिर सोचने लगा- नहीं, इस बात में कुछ भेद अवश्य होना चाहिए, क्योंकि श्री गुरुने जिस भांति कहा था, उसी भांति यह पुरुष प्राप्त हुआ है, और हीन पुरुष कैसे ऐसे अथाह समुद्रको पार कर सकता है ? इसके सिवाय इन भांड़ोंका और इसका रंग रूप और वर्ताव भी तो बिलकूल नहीं मिलता है । देव जाने क्या भेद है ? फिर कुछ सोचकर ओोपाल से पूछने लगे- " अहो परदेशी ! तुम सत्य कहो कि तुम कौन हो ? ओर भांडोंसे तुम्हारा क्या सम्बन्ध है ?" तब श्रीपालजीने सोचायह मेरे वचनकी साक्षी क्या है ? यह बहुत और मै अकेला हूं। बिना साक्षी कहने से न कहना ही अच्छा है । यह सोचकर वह धीश्वीर निर्भय होकर बोला- महाराज ! इन लोगोंका ही कथन सत्य है । ये ही मेरे मां बाप और - स्वजन सम्बन्धी हैं । - राजाको श्रीपाल के इस कथनसे क्रोध उबल उठा, और उन्होंने तुरन्त ही बिना विचारे चांडालोंको बुलाकर इनको garपर चढ़ा देने को आशा दे दो। सत्य हैं, समय किसको कौन कर्म, उदय आकर दुःख क्यार चमत्कार दिखाता है । न जाने किस देता है, और
SR No.090465
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size3 MB
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