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________________ श्रीपालका कुष्ट रोग दूर होना । [४३ श्रीपालका कुष्ट रोग दूर होना जबसे श्रोपाल नी मैनासुन्दरीको विदा कराकर घर लिवालाये तशी तरको सोलाको विकार होने लो-ठीक हैशीलवान् नर जहाँ जहाँ जाय, तहां तहां मंगल होत बनाय । मौनासुन्दरी तन, मन वचन से ग्लानि रहित होकर पति सेवामें लीन हो गई 1 वह पतिपरायणा अपने हाथोंसे पीफ रुधिर इत्यादि धोती, पट्टी बांधती, स्नान कराती, उबटन लगाती, लेप करता, कोमल शय्या बिछाती, वस्त्र बदलाती, प्रकृति और रुचिके अनुसार पथ्य भोजन कराती और श्रीजीसे निरन्तर रोगकी निवृत्ति के लिए प्रार्थना करती थी। नित्यप्रति अतिथियोंको भोजन कराने के पश्चात् पतिको भोजन कराकर पीछे आप भोजन करती। रात्रिको भी जागरण कर पतिसेवा में लत्पर रहती । इस प्रकार जब वह कोमलांगी दिन-रात कठिन परिश्रमपूर्वक पतिसेवा किया करती थी, तब उसे इस प्रकार उद्यमवंत देखकर एक दिन श्रीपालजी बोले प्रिये ! कहां तो तुम अत्यन्त कोमलांगी निर्मल शीलादि गुणों और सुरुपको खानि हो कि तुम्हारे मुखको देखकर चन्द्रमा भी शर्मा जाता है । तुम्हारे मधुर शब्द कोयलको भी मोहित करनेवाले हैं। तुम्हारी ग्रीवा मोरसे भी अधिक शोभा दे रही है, नेत्र मृगी से भी अधिक भोलापन प्रगट करते हैं । कपोल विकसित गुलाबको कलीको शोभाको हरने वाले हैं। नासिका तोतेकी चोंचके समान, होठ अरूण कुसुमकी नाई शोभा देते हैं । दातोकी पंक्ति मोतियों कैसी आमा प्रकट करती है कुछ सुवर्ण कलशोंकी उपमाको धारण करते हैं कटि केहरीके समान कृश ,जधा केले के स्तम्भ समान कोमल चाल हंसनी.
SR No.090465
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size3 MB
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