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कुलका भाग
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वजनदार पत्थरोंको उसमें रख दिया । जब सीका आधी दूर आया, तब सन्यासी उसे काटकर चलता बना। चारुदत्तकी जान बच गयी। उसने घनदत्तका बड़ा उपकार माना और कहा- " मिश्र बाज तुमने मुझे जीवनदान दिया है, जिस " उस लिये मैं जन्म-जन्मांतर तक तुम्हारा ऋणी रहूँगा ! कु एसे निकलनेका उपाय पूछनेपर चनदरा बोला - " यहां रस पीने प्रतिदिन एक गोह आया करती है, जो आज चली गई, कल फिर आवेगी, सो तुम पूंछ पकड़कर निकल जाना।' इतना कहते कहते उसका गला रुक गया और प्राण संकटमें पड़ गये । अपने उपकारीको कुछ भी सेवा करने में स्वयंको असमर्थ पा उसने धनदत्तको उत्तम गति में जानेके लिये पवित्र जिनधर्मका उपदेश देकर पंचनमस्कार मंत्र सुनाया और साथ ही सन्यास भी लिवा दिया ।
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सवेरा होते ही सदाकी तरह उस दिन भी गोह रस पीने आयी । रस पी कर जाते समय चारुदत्तने उसकी पूछ पकड़ ली और उसके सहारे बहार निकल आया। तमाम जंगल पार करनेपर रास्ते में उसकी रुद्रदत्तसे भेंट हो गई । वहांसे वे दोनों अपने मनोरथकी सिद्धि के लिये रत्नद्वीप गये । रत्नद्वीप जानेके लिये पहले एक पर्वतपर जाना पडता था । पर्वत पर जानेका रास्ता बहुत संकीर्ण था । इसलिये वहां जाने के लिये इन्होंने दो बकरे खरोदे और उनपर सवार होकर सकुशल पर्वत पर पहुंच गये। वहां जाकर चारुदत्त साथीने सोचा कि इन दोनों बकरोंको मारकर दो चमड़ेकी थैलियां बनानी चाहिये और उलट कर उनके भीतर घुस दोनोंका मुंह-सी देना चाहिये । मांसके लोभसे यहां सदा भैरुण्ड पक्षी आया करते हैं । वे अपने को उठाकर उसपार रत्नद्वीप ले जायेंगे | वहां थैलियोंको फाड़कर हम बाहर हो जायेंगे ।