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________________ श्रीपालके भवान्तर । |१५५ भोगता है । बड़ा कोई शुलोपर चढ़ाते हैं, घाणीमें पेलते हैं, संडासीसे सुख फाडकर तांबां, सोशा गलाः गलाकर पिलाते हैं । लोहेको पुतली लाल२ गरमकर शरीरसे भिड़ा देले है, इत्यादि नाना प्रकारके दुःख भोगना पड़ते हैं। इसलिये हे स्वामिन् ! अव कोई पुण्यके उदयसे आपको अपने अशुभ कृत्योंसे पश्चात्ताप हुभा हैं, तो श्री मुनिके पास जाकर जिनव्रत लो, जिससे अशुभ कर्मोको निर्जरा हो ।' यह सुनकर राजा, रानीले कहे अनुसार जिन मंदिर में गया और प्रयम ही जिनदेवकी स्तुति की। पश्चात श्रीगुरुको नमस्कार करके बैठा और बोला- 'हे दीनदयाल प्रभो ! मैंने बड़ा पाप किया है । अब आपके शरणमें आया है सो मुझे . अब नरकमें गिरनेसे बचा लीजिये।' तब धीगरुने धर्मका स्वरुप समझाकर कहा-राजन् । तु सम्यग्दर्शनपूर्वक श्री सिद्धचक्रका व्रत पाल, इससे तेरे अशुभ कर्मका क्षय होगा, यह कहकर प्रतकी विधि बताई । सो राजाने मिथ्यात्वको त्यागकर सिद्धचक्र व्रत स्वीकार किया और सम्यक्त्व ग्रहण किया, तथा पंव अणुव्रत और सप्त सील तीन गुणवत पार शिक्षामतः) बंगोकार किये । फिर अपने स्थानको आया, और उसी समय कर्मध्यानमें सावधान हो बिधिपूर्वक प्रत पालने लगा । नित्य प्रति जिनेन्द देवकी अष्ट प्रकारसे पूजा करता, घ दान देता था। जब आठ वर्ष पूर्ण हो गये, तब उसनेः विधिपूर्वक भाव महित उद्यापन किया और अन्त समयमें सन्यास घरण कर स्वर्ग में जाकर देव हुआ, और सनी श्रीमती भी सम्बासमरण कर स्वगंमें देवी हुई। और भो सब यथायोग्य ब्रतके प्रभावसे मरणकर अपने२ कर्मानुसार उत्तम गतिको प्राप्त हुए। सो
SR No.090465
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size3 MB
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