________________
विद्याजोंकी सिद्धि ।
| ७१ ...- -.-=== 'सरसता हुई देखकर वह योर उठा और श्रोपालको प्रणाम व स्तुति करके कहने लगा कि धन्य हैं आपके साहस व धोरताको ' यह विद्या अब अपने पास रखिये और मुझे कृपाक र आज्ञा दीजिये कि मैं अपने घर जाऊ ।
तम् श्रीपाल जो प्रोले-भाई मुझे यह उचित नहीं हैं कि रास्ता चलते किसीको वस्तु छोन लू। पराये पुत्रसे स्त्री "पुत्र तो नहीं कहलातो है, पराये धनसे कोई नहीं धनी होता,
त्यों हो पराई विद्या व बलसे बलो होना नहीं समझना चाहिये, • और फिर मैंने किषा ही क्या है ? केवल आपके कहने से अपनी
शक्तिकी परीक्षा की है । सो आप अपनो विद्या लीजिये । ऐसा • कह वह विद्या उपो विद्याधर वोरको देकर आप अलग हो गये । तब विद्याधरने स्तुतिकर कहा- 'भो स्वामिन् ! यदि आप इसे स्वीकार नहीं करते तो ये जल-तारिणो व शत्रु निवारिणी • दो विद्यायें अवश्य हो भेट स्वरुप स्वीकार कोजिये, और मुझपर अनुग्रह कर मेरे गृहको अपने चरणकमलों से पवित्र कीजिये ।
ऐमा कहकर उक्त दोनों-जलतारिणी और शत्रु निवारिणी विद्यायं देकर बड़े आदर सहित वह थोपाल जीको स्वस्थान पर ले गया, और कुछ दिनत क अपने यहां र पछ उनको बहुत शुश्रुषा "को पश्चात् जनको इच्छानुसार विदाकर आप सानंद व्यतीत • करने लगा। इस प्रकार श्रीपाल जी ने घर से निकल कर वसनगर के विद्याधर को अपना सेवक बनाया और उससे उक्त दो विद्याय भेटस्वरूप ग्रहण कर आगेको प्रस्थान किया । ठाक है---
" स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ।" । अर्थात्-'पूणका आदर ठौर सब, राजाका निज देश" तात्पर्म-प्रत्येक पुरुपको गुणवान होने का प्रयत्न करना चाहिए, न कि द्रव्यवान् होनेका, क्योंकि गुणवान के आश्रय ही द्रव्य रहला है, इसलिये गुणवान होना हो धेयस्कर है ।