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श्रीपाल चरित्र |
नौकर बन्धु वा भामिनी, ऋणी कर्मयुत जीव । ये पांचों संसार में परवश भ्रमैं 'सदीव' ||
इस प्रकार के मंत्री लोग तथा स्वत्रन परजन सभी राजाज्ञासे विवाहोत्सव में सम्मिलित हुए, और विविध प्रकारके मंगलगान नृत्य वादित्रादि होने लगे । सभा मण्डप सुवणं और रत्नोंसे सजाया गया। जिसमें मोतियोंके बन्धनवार ( तोरण ) लटकाये गये । विवाह मण्डप हरे वांस पल्लव और पुष्पोंसे सजाया गया। सुवासन (सौभाग्यवती स्त्रियामोशि योंके चूर्ण से चौक पूरने लगी, इत्यादि यह सब कुछ होता या, परन्तु जैसे जल में रहते हुए भी कमल जलसे भिन्न हो रहता है। उसी प्रकार इन सबै उत्सव में सम्मिलित होनेवालों को दशा थी। सभी लोग राजाकी बुद्धिको मन ही मन धिक्कारते और कन्याकी दशाका विचार कर करुणार्त हो रहे थे। कहीं बाजे बजते थे और शोकागारसा बन रहा था तात्पर्य वह एक ऐसा विचित्र आश्चर्यकारक अवसर था कि नवागन्तुक पुरुष (जो इस भेदको न जानता हो) की बुद्धि बड़े गोरखधन्धे में पड जाती यो । वह यह नहीं जान सकता था, कि यह विवाहोत्सव है या कोई शोकसमारोह है ।
यद्यपि विवाहकी तैयारियां जैसी राजाओंके यहां होनी चाहिये सब वैसी ही संपूर्ण प्रकार से हुई थी. परन्तु कन्या के भक्तिव्यका विचार मन में उत्पन्न होते ही वह सब रागरंग भूल जाता था । सब लोग चिन्तित थे, परन्तु राजा पहुपालको तो यह पड़ रही थी कि कब फेरे फिर । कारण कि कहीं विघ्न न आ जावें । इसलिये वह मंत्रियोंसे बोला- मंत्रियों ! मुहूर्त आ पहुचा है । तुम लोग शीघ्र ही जाकर वरको सादर ले आओ। मेरा चित्त अत्यन्त विह्वल हो रहा है कि कब जंवाईको देखूं ? और उसकी यथाशक्ति शुश्रूषा करू ।