Book Title: Mugal Samrato ki Dharmik Niti
Author(s): Nina Jain
Publisher: Kashiram Saraf Shivpuri
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुगल सम्राटों की धार्मिक नीति पर जैन सन्तों (प्राचार्यो एवं मुनियों) का प्रभाव (सन् 1555 से 1658 तक ) शा लेखिका कु. नीना जैन एम. ए., पी-एच. डी. ध्याख्याता, व्ही. टी. पी. उ. मा. वि. शिवपुरी (म. प्र.) Jain Education Intemational For Perale Personal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुगल सम्राटों की धार्मिक नीति पर जैन सन्तों (श्राचार्यो एवं मुनियों) का प्रभाव ( सन् 1555 से 1658 तक ) O लेखिका कु. नीना जैन एम. ए., पी.एच. डी. स्वाख्याता, व्ही. टी. पी. उ. मा. वि. शिवपुरी (म. प्र. ) प्रकाशक श्री काशीनाथ सराक आचार्य श्री विजयेन्द्रसूरि शोध संस्थान शिवपुरी (म. प्र. ) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकाशक - श्री काशीनाथ सराक पता--- -श्रीविजय धर्म सूरि समाधि मन्दिर, शिवपुरी (म. प्र. ) 0 संस्करण - प्रथम वर्ष - विक्रम सम्वत् 2048, वीर सम्वत् 2517, आत्म सम्वत 93, बल्लभ सम्बत् 37, समुद्र सम्वत् 14, सन् 1991 0 © लेखिका प्रति-- 1000 आर्थिक सौजन्य -- पूज्य पन्यास श्री नित्यानन्द विजयज पूज्य गणि श्री सुक्स मुनिजी 0 मूल्यं - 35/- रुपये मात्र 0 पूज्य मुनि श्री चिन्दानन्द विजयर्जी, उपदेश है - प्रभात प्रिंटिंग प्रेस, हुजरात रोड, ग्वालियरफोन : 29672 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम नमू कर जोड़कर श्री पारस जिनचन्द्र श्री विजय धर्म गुरु को नमूहो मंगल आनन्द नम्र सूचन इस ग्रन्थ के अभ्यास का कार्य पूर्ण होते ही नियत समयावधि में शीघ्र वापस करने की कृपा करें. जिससे अन्य वाचकगण इसका उपयोग कर सकें. जगत्पूज्य, शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्रीमद् विजयधर्मसूरीश्वरजी महाराज Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्म, बल्लभ, समुद्र, इन्द्र सद् गुरुम्योनमः 099 1509 9000000 G09090Goid 1000000 श्रीमति काश्मीरावन्ती जैन शिवपुरी (म. प्र.), स्वर्गवास 20-6-1985 पूज्य माँ की पुण्य स्मृति में प्रकाशित Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहासतत्व महोदधि जैनाचार्य श्री विजयेन्द्रसूरिजी महाराज Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण २० वीं शताब्दी में जो जैन साहित्य एवं इतिहास को प्रकाश में लाये एवं जिनके ग्रन्थ भण्डार का मैंने पूर्ण उपयोग किया उन्हीं इतिहासवेत्ता श्री विजयेन्द्र सूरि जी को सादर समर्पित । सेविका कु. नीना जैन Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय वक्तव्य प्रस्तुत पुस्तक कु. नीना जैन द्वारा अपने शोध प्रबन्ध का ही आधार है। मेरे मन में विचार आया कि क्यों न मैं अपने पुस्तकालय का सदुपयोग करू और पी. एच. डी. कराया जाय उसी विचार को मूर्त रूप देने को कु. मीमा जैन को साहित किया जिसका प्रतिफल यह ग्रन्थ है । इस पुस्तक की विषय वस्तु आज से करीब 500 वर्ष पुराने भारत के इतिहास को प्रकट करती है । उस समय के महान मुगल शासक अकबर के साथ जैन साधुओं द्वारा जैन धर्म और अहिंसा का विचार उनके मन में बैठाया, उसी को दर्शाया गया है | वर्तमान समय में इस पुस्तक की उपयोगिता और भी बढ़ जाती हैं । पुस्तक से पाठकों को विदित होगा कि आज जिन्हें हम बहुत कट्टर और धर्मान्ध कहते हैं। उनसे जैन साधुओं ने अहिंसा धर्म के पालन में क्या कुछ कराया । • पुस्तक के प्रकाशन में जिम्होंने आर्थिक सहायता दी है। उनका मैं बहुत आभारी हूँ | छपाई में प्रभात प्रिंटिंग प्रेस के मालिक श्री श्रीचन्द राजपाल का पूर्ण सहयोग रहा उनको भी धन्यवाद देता हूँ । शिवपुरी, श्री काशीनाथ सरक Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन बयन्तु वीतरागा: बीबाल-बल्लभ • समुद्र सदगुरुभ्यो नमः विजय इन्द्रदिन्न मरि मु.पो. nnel. जि. भरार का पाय है कि त मनति की. नितान्त है। जिस करता म पले पूर्व प्रकार समें अता मानकरी करते हैं। 1 का लाभ मानते। जकी आT Gासना करते।। पान निनी जीत के जान से मापा मगलि रहने है। यह बात प्रसको के विधयों रिशेष रुपसे पति होनी जो निगा लगाओ के जीवी पीत होत उनी नारत - को निक-साहित होता रहता है। मामला र समाज समिर्मित जो नामपसलमी ब्लाक प्रस्तुत पुस्तक की जोरकानी A) नीता ने मात्र इस कमी का अनुभवहीनही कियापत्ते उसे शकाने का भी काम प्रयासी उनको मन ना साहराको ल त्म हो रहा है। निर पर सरकार भी पुका उरकुंश लगत्यसको ला ज ) CARरत पुस्तक में हमें यह जानकारी मिलतीर. yta में मेन में के प्रभारी करित्यासे' माहिर मुरादाहोंने फिराकार गि परमिन्य महासके सपासक समाज के रिक्ता मर्ग मील करारन्त सापक रहती देश मेश रिस्पा मी मलिना कि इस की अधिकाविध प्रचार पर हो पुस्तक का कलह को शाद के १ है। विनोन्द्ररिया परशुराम मंदिर रोड पर डीपरी डान गुर ६ कार जि.मनालार २० २ १८ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमार क्षत्रियोद्धारक, जैन दिवाकर आचार्य श्री विजय इन्द्रदिन्नसूरिजी महाराज Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका भारतीय इतिहास लेखन का कार्य अधिकृत एवं समसामयिक सामग्री की अनुपलब्धि के कारण अत्यधिक दुरुह माना जाता रहा है । शिलालेख, दानपत्र, सिक्के तथा विदेशी यात्रियों के विवरण प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत हे हैं तथा इनके साथ ही समसामयिक इतिहासकारों के विवरण एवं मुगल हासकों के आत्मचरित् मध्य युगीन इतिहास के प्रमाणिक स्रोत माने गये हैं। हमने इसे सैद्धान्तिक रूप से स्वीकार लिया है कि भारत में इतिहास लेखन की प्रवृत्ति ही नहीं थी, किन्तु तथ्य यह है कि भारत में राजनैतिक घटनाओं का महत्व सामाजिक प्रभाव की दृष्टि से सदैव आंका गया है तथा साहित्यिक कृतियों एवं धार्मिक अभिलेखों में भी ऐसी घटनाओं का उल्लेख मिलता है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि ऐतिहासिक इतिवृत्तों पर आधारित सर्वाधिक काध्य कृतियां जैनाचार्यों एवं जैन कबियों द्वारा लिखी गई है । धार्मिक अभिलेखों में जैन विज्ञप्ति पत्र एतिहासिक तथ्यों के प्रामाणिक आधार हैं। वीतराग आचार्यों के काव्य भाषा एवं शैली में कितने ही अलंकृत हों, किन्तु सत्य की महावतों में प्रथम गणना होने के कारण असत्य तथ्यों के वर्णन की उनमें सम्भावना ही नहीं की जा सकती। विज्ञप्ति पत्र इस कारण और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि उनमें लेखन अपने स्वयं के असत् कर्मों का उल्लेख करने में भी नहीं संकोच करता तो फिर किसी अन्य के विषय में ज्ञात तथ्यों को छुपाने में उसकी क्या रूचि हो सकती है। डाक्टर हीरानन्द शास्त्री ने जैन विज्ञप्ति पत्रों के नेकविध महत्व को निम्नांकित शब्दों में उचित ही व्यक्त किया है कि-"विज्ञप्ति पत्रों में छोटी-छोटी कहानियों और पुरानी घटनाओं से हमें देश के शासकों के बारे में जो कुछ लिखा हैं, उसका पूरा वर्णन मिलता है, जो कि इतिहास के लिए भी महत्वपूर्ण है। यह हमें कला क्राफ्ट और व्यवसाय के बारे में विस्तार से बताते हैं । सामाजिक धार्मिक रीति-रिवाजों के ज्ञान के लिए महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ मनुष्य संबंधी ज्ञान भी करवाते हैं"1 1. एंशिएंट विज्ञप्ति पत्र पृष्ठ 17 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 6 ) डॉक्टर शास्त्री के उक्त शब्दों में जैन विज्ञप्ति पत्रों के राजनैतिक सामाजिक सांस्कृतिक, कलात्मक तथा आर्थिक इतिहास की दृष्टि से विशेष महत्व को सरलता से समझा जा सकता है। जैन भण्डारों में केवल धार्मिक ग्रन्थों का ही संग्रह नहीं रहा अपितु एति. हासिक महत्व की बहुमूल्य सामग्री भी वहां उपलब्ध है, किन्तु आचार्य श्रीविजय धर्म सूरि, आचार्य श्री विजयेन्द्र सूरि, मुनि श्री पुण्य विजय जी, मुनि श्री कल्याण विजयजी, डाक्टर हीरानन्द शास्त्री, मुनि श्री जिनविजयजी, मोहनलाल दलोचन्द देसाई जैसे कुछ ही जैन विद्वानों ने ऐसी सामग्री को प्रकाश में लाने का प्रयास किया है तथापि जो कुछ सामग्री प्रकाश में आई भी है उसका एतिहासिक शोध दृष्टि से सम्यक उपयोग नहीं किया गया है। प्रायः जैन विद्वानों ने तथा इतिहा के शोधकर्ताओं ने जैन संग्रह के अनुशील की ओर सम्भवतया इस प्रचलित धारणा के कारण रूचि नहीं दिखलाई कि-"हस्तिना ताड्यमानोडपि न गच्छेज्जैन मन्दिरम्" क्योंकि पुस्तक भण्डार प्रायः जैन मन्दिरों में ही रहते हैं। इस तथ्य से भी इन्कार नहीं किया जा सकता हैं कि जैनेतर सम्प्रदाय के व्यक्तियों से जैन भण्डारों को बचाकर ही रखा गया है तथा वहां सुरक्षित समस्त पुस्तकों को धामिक पुस्तकों की भांति ही केवल संरक्षणीय, पूज्यनीय माना गया है जैन ग्रन्थ भण्डारों के महत्व को प्रकट करते हुए डाक्टर लक्ष्मनदास ने लिखा है "यह कहना आवश्यक नहीं है कि जैनियों के पास जो ग्रन्थ भण्डार हैं वे यूरोप की किसी भी जाति के पास नहीं है वे (यूरोपियन) उन्हें प्राप्त करने के लिए अत्यधिक धन व्यय करने को तत्पर रहते हैं: यह सर्वविदित है कि जर्मनी, फ्रांस एवं इंग्लैंड के विद्वान बहुत से भारतीय साहित्य को ले गये तथा उसका उपयोग वैज्ञानिक, भाषा वैज्ञानिक तथा एतिहासिक खोजों के लिए कर रहे हैं । भारतीयों ने कम से कम 20वीं सदी में इन पाश्चात्य विद्वानों के लेखों को प्रमाणिक वचन के रूप में स्वीकारा तथा उन पर किसी प्रकार से शका करने की आवश्यकता ही नहीं समझी अतः उनके द्वारी प्रस्तुत तथ्यों के खण्डन-मण्डन अथवा कुछ नवीन तथ्यों को प्रस्तुत करने का साहस भी वे नहीं जुटा सके। मेरा भारतीय इतिहास के विद्वानों से विनम्र निवेदन है कि वे अपने-अपने 1. द जैन द्या 1941 पृष्ठ 27 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 7 ) क्षेत्रों में ही विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के पास सुरक्षित सामग्री का विवेचन कर उसमें से इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण सामग्री को प्रकाश में लाने का प्रयास करें, ताकि भारतीय इतिहास की अनेक स्थलों पर टूटी हुई कड़ियां जोड़ी जा सकें एवं अधिक प्रामाणिक, ऋमिक व विस्तृत इतिहास जो भारत का इतिहास हो, हमारे सामने आ सके । इन शब्दों का सोद्देश्य प्रयोग मैंने इसलिए किया है कि वर्तमान में भारतीय इतिहास की जोपुस्तकें उपलब्ध हैं तथा अभी जैसी पुस्तकें लिखी जा रही हैं, उनमें मोहन जोदड़ों की सभ्यता का इतिहास, द्रविड सभ्यता का इतिहास, वैदिक सभ्यता का इतिहास, मौर्य साम्राज्य का इतिहास, मौर्य गुप्त साम्राज्य का इतिहास, राजपूत युग का इतिहास, मुगल सल्तनत का इतिहास, जैसे खण्डों के रूप में भारत के इतिहास को प्रस्तुत करना जैसे इतिहास लेखन की शैली में भी नहीं रहा है, क्या मोहन जोदड़ों की सभ्यता में आर्य सभ्यता की झलक नहीं मिली हुई थी ? क्या वैदिक युग में द्रविड़ तथा अन्य जातियां भारत में निवास नहीं कर रही थीं ? क्या मोयं युग में वृहत्तर भारत की कोई राजनैतिक छवि नहीं थी ? क्या गुप्त साम्राज्य में केवल वैष्णव धर्म ही भारत में सुरक्षित था ? क्या राजपूत युग में भारत को विभिन्न राज्यों के समूह के रूप में ही देखा जा सकता है ? और क्या मुगल सल्तनत का भारत आर्यों का मारत नहीं ? आदि प्रश्न हमें भारत के एतिहासिक चित्रफलक के दूसरी ओर झांकने के लिए प्रेरित करते हैं जिस ओर का भारत एक समुद्र जैसा दिखाई देता है, जिसमें अनेक जातियां, समुदायों, राजवंशों, सम्प्रदायोंकी लहरें हैं, प्राणी हैं, नदियों का जल है और न जाने क्या-क्या है किन्तु वह सब समुद्र हैं । पूरे जल का एक जैसा स्वाद है, उसकी तरंगों की एक सी ध्वनि है । वह सदा अपनी मर्यादा में रहा है । वह हिन्द महासागर है, अरब सागर या बंगाल की खाड़ी नहीं । आगे के पृष्ठों में मेरा यह विनम्र प्रयास भारत के लिखित, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास के संशोधन एवं परिवर्धन की दिशा में प्राचीन किन्तु अप्रयुक्त सामग्री आधार पर एक अभिनव प्रयास है इसकी सामग्री प्रमुखतः जैन साहित्य में से ली गई है जिसके आधार पर प्रतिष्ठित इतिहास ग्रन्थों के विवरणों का खण्डन मण्डन हुआ है । प्रयुक्त सामग्री की नवीनता के उदाहरणों का उल्लेख महां अभीष्ट होगा। जहांगीर के काल का चित्रकार शालिवाहन द्वारा लिखित मुनिविजय हर्ष का आचार्य विजयसेनसूरि के नाम एक विज्ञप्ति-पत्र में जहांगीर के दरबार के विशिष्ट व्यक्तियों का भी उल्लेख है तथा फरमान प्राप्त करने की घटना भी frieत हैं । लगभग इसी काल में जटमल नाहर ने लाहौर की गजल लिखी, जिसमें लाहौर नगर के शब्द चित्र के साथ ही वहां जहांगीर के सेना Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहित आगमन का वर्णन है । नागरिकों की वेश-भूपा, रहन-सहन, दिनचर्या, परिचय भी इस गजल में मिलता है। ये वो उदाहरण हैं जो न तो इतिहास लेखन की दृष्टि से लिखे गये और न इतिहास लेखन में इनका एतिहासिक महत्व असंदिग्ध है । ऐसी अन्य बहुत सी बिखरी हुई सामग्री को इस शोध प्रबन्ध में समेटा गया है । मुगल काल के तथा उससे सम्बन्धित अनेक रचित काव्यों में तत्कालीन भारत की राजनीतिक एवं सामाजिक अवस्था की सुस्पष्ट झलक मिलती है । अनेक महत्वपूर्ण व्यक्तियों का परिचय उनके कार्यों सहित मिला है । भानुचन्द्रगणिचरित, हीरसौभाग्य काम्य कृपारस कोष आदि ऐसे अनेक ग्रन्थ प्रकाशित भी हो चुके हैं जिनमें मुगल शासकों के कृत्यो तथा नीतियों का वर्णन है। "आइने अकबरी" अकबर के जीवन का प्रमाणिक ग्रन्थ है। उसमें मुझे उनकी सभा में अथवा किसी रूप में जिन लोगों का उनसे सम्बन्ध था, उनमें जैन साधुओं का विशेष उल्लेख है । उन्होंने अपने लड़के को जैन साधुओं से शिक्षा दिलाई। अकबर की परम्पराओं को जहांगीर ने कायम रखा जो शाहजहां के समय तक चलती रही। डा० श्रीराम शर्मा ने अपनी पुस्तक "द रिलिजियस पॉलिसी ऑफ द मुगल एम्पररस" में मुगल कालीन साहित्यकारों की बहुत लम्बी सूचियां दी है किन्तु उन साहित्यकारों की कृतियों का इस काल के इतिहास में बहुत कम उपयोग किया है । स्वयं उनकी पुस्तक में भी उन सायित्कारों की रचनाओं के सन्दर्भ नहीं दिये गए हैं। मैंने शोध प्रबन्ध में ऐसी नवीन सामग्री का प्रचुरता से उपयोग किया है। परिणामों में भले ही अधिक नवीनता न मिले किन्तु नये स्रोतों के कारण पूर्व से निकाले गये निष्कर्षों को बल तो मिलता ही है कई स्थानों पर पूर्व प्रस्थापित निष्कर्षों पर प्रश्न चिन्ह भी लग गया है जिसका निराकरण भविष्य की शोधों द्वारा ही हो सकेगा । कुछ पूर्व के निष्कर्ष पूर्वाग्रह ग्रसित भी प्रतीत होने लगे है। जिनका यथास्थान संकेत दे दिया गया है । जहां तक काव्य ग्रन्थों के वर्णनों की प्रामाणिकता का प्रश्न है उसका समाधान जहांगीर के काल में लिखे गये श्री वल्लभ उपाध्याय कृत विजयदेव सूरि महात्म्य की इन पंक्तियों से हो जाता है : Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्री वल्लभ पाठकेन कविवर व्यावणितं सर्वत श्रोतृ श्रोत सुखप्रदम सुविशदं सत्योक्तित सर्वदा:1 किसी जैन मुनि के सत्य प्रतिज्ञा के साथ लिखित वचनों की प्रामाणिकता सन्देह से परे ही समझनी चाहिये । जैन साहित्य का भण्डार बहुत विशाल हैं और बहुत से ग्रन्थ आज भी अप्रकाशित है। मुझे इस शोध प्रबन्ध के लिए उसी में से तीन महत्वपूर्ण ग्रन्थ मिले हैं : 1. लाभोदयरास 2. विजवल्लीरास-ये दोनों तो आचार्य श्री हीरविजय सूखे एवं श्री विजयसेनसूरी के जीवन चरित्र से सम्बन्धित हैं । 3. सूर्यस्तोत्र - जिसका बादशाह अकबर रोज पाठ सुना करता था, जिसके रचयिता गणि श्री हेमविजयजी हैं । मेरे. लिए इस पुस्तक को इतने कम समय में पूरा करना इसलिए सम्भव हुआ कि मुझे आचार्य श्रीविजयधर्म सूरीजी महाराज की छत्रछाया में उन्हीं के पट्टधर आचार्य श्री विजयेन्द्रसूरीजी महाराज के साहित्य संग्रह का जो विशाल भण्डार मौजूद है, शोध प्रबन्ध के लिए सारी सामग्री उसी संग्रह से प्राप्त हुई, जिसमें मुगल सम्राटों द्वारा प्रदत्त फरमानों की मूल प्रतियां भी शामिल हैं। प्रस्तुत विषय पर शोध करते हुए मेरे मन पर जो प्रभाव पड़ा उसे व्यक्त करना भी मैं उचित समझती हूं। शोध प्रबन्ध के नायक तो आचार्य श्री हीरविजय सूरीजी व बादशाह अकबर हैं। किन्तु 10वीं शताब्दी में इसी तरह के एक और जैनाचार्य श्री हेमचन्द्राचार्यजी व चालुक्यवंशीय राजा कुमारपाल का प्रसंग भी जैन धर्मोन्नति में रहा। समय समय पर समाज में ऐसे ही महापुरुष अवतरित होते हैं । जिनके कारण भारतीय संस्कृति और धर्म आज तक अक्षुण्ण रूप में चला आ रहा है। हीरविजयसूरीजी के बाद 17वीं शताब्दी में यशोविजय उपाध्यायजी जैन साहित्य के उद्धार में प्रसिद्ध हुए हैं उन्होंने किसी भी विषय को अछूता नहीं छोड़ा स्वयं रचनायें लिखने के साथ साथ टीकायें भी की। उनके बाद 19वीं शताब्दी में जैन समाज जो बिल्कुल शिथिल अवस्था में आ गया था उसे जाग्रत करने का काम शासनोद्योत कारक, नवयुग प्रवर्तक न्यायम्भोनिधी जैनाचार्य श्रीमद् विजयानन्दसूरीश्वरजी (आत्मारामजी), धर्मधुरन्धर शिरोमणी, विश्वबिन्दा 1. श्री विजयदेव माहात्म्यम् सर्ग 17 श्लोक 56 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 10 ) शास्त्रविशारद, जगत्पूज्यपाद, जैन धर्माचार्य श्रीमद्विजय धर्मसूरीश्वरजी, आचार्य श्री विजयेन्द्रसूरीजी तथा पंजाब केसरी युगहष्टा जैनाचार्य श्रीमद विजयवल्लभसूरी श्वरजी महाराज ने किया। आचार्य श्री विजयधर्मसूरीजी ने यूरोप, अमेरिका, जर्मनी आदि देशों में जैन साहित्य का प्रचार किया और जर्मनी के कई विश्वविद्यालयों में भारतीय भाषाओं (संस्कृत, हिन्दी, गुजराती) का प्रवेश करवाया। राज्याश्रय का प्रभाव होने का फायदा एक ही दृष्दांत से समझा जा सकता है-आबू के प्रसिद्ध जैन मन्दिरों में अंग्रेज लोग जूते पहनकर अन्दर तक चले जाते थे, जैन समाज इस कुप्रथा को वर्षों से बन्द कराने का प्रयत्न कर रहा था, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। आचार्य श्री विजयधर्मसूरीजी ने लन्दन के एफ. डब्ल्यू. थामस जो कि उनका मित्र था, को पत्र लिखा कि इस कुप्रथा से हम बहुत दुखी हैं, क्या आप इसे समाप्त कराने में हमारी मदद कर सकते हैं ? थामस ने अपने पत्र के साथ सूरीजी का पत्र लगाकर ब्रिटिश सरकार के सेक्रेटरी ऑफ इण्डिया ऑफिस को भेजा और छ: माह के अन्दर पॉलिटिकल ऐजेन्ट को आदेश आ गया कि आबू के जैन मन्दिरों में कोई भी जूता पहनकर प्रवेश न करे। मुझे इस विषय पर शोध करने की प्रेरणा आदरणीय श्री काशीनाथ जी सराक से जिनके संरक्षण में अब आचार्य श्री विजयेन्द्रसूरीजी का सारा भण्डार मौजूद है, मिली। इस समस्त कार्य की पूर्ति का श्रेय उन्हीं को है। उन्होंने न केवल मुझे सहायता ही दी अपितु समय-समय पर नैराशय से परिपूर्ण हृदय को नवीन आशा की किरणों से परिपूरित किया। स्वर्गीय डा0 सीतारामजी दांतरे अध्यक्ष संस्कृत विभाग आट्स एण्ड कॉमर्स कॉलेज इन्दौर का आभार व्यक्त करने की न तो मुझमें सामथ्यं है और न ही मेरे शब्दों में जिन्होंने इस पुस्तक को आद्योपांत लिखने में पूर्ण सहयोग दिया। डा० एस० आर० वर्मा अध्यक्ष इतिहास विभाम म० ल0 बा० जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर का भी उपकार नहीं चुकाया जा सकता जिन्होंने समयसमय पर अपना अमूल्य समय देकर मुझे शीध्र अतिशीघ्र इस कार्य को पूर्ण करने के लिए प्रेरित किया तथा फरमानों का हिन्दी अनुवाद, जो कि मेरे लिए असम्भव था, करने में मेरी पूर्णतया मदद की। ___डा० (श्रीमती) विजया केशव सिन्हा रीडर जीवाजी विश्व विद्यालय ग्वालियर की मुझ पर बड़ी अनुकम्पा रही जिन्होंने पुस्तक को पूर्ण करने में हृदय से मेरी मदद की। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे इस कार्य को सफल बनाने में परम श्रद्धेय पन्यास श्रीनित्यानन्द विजयजी, गणि श्री सुयश मुनि जी एवं मुनि श्री चिदानन्द विजयजी (मेरे भाई) समय-समय पर मुझे प्रोत्साहित करते रहे इसलिए उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए मैं पुलक का अनुभव कर रही हूं। इसके साथ ही प्रस्तुत ग्रन्थ में विभिन्न विद्वानों और इतिहासकारों के संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती, प्राकृत ग्रन्थों एवं पत्रिकाओं से भी मुझे असीम सहायता प्राप्त हुई है । अतः उन विद्वानों व इतिहासकारों की मैं हार्दिक आभारी हूं। कु. नीना जैन सन्त पंचमी सम्वत् 2047 सन् 1991 म सम्वत् 68 श्री खजान्चीलालजी जैन द्वारा, श्री यशपाल कीमतीलालजी जैन कपड़े के थोक विक्रेता शिवपुरी (म. प्र.) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र - पेंज नं० पंक्ति अशुद्ध 3 28 4 10 7 30 10 16 168 16 फुटनोट! 19, 20 20 7, 14 फुटनोट 29 2 ____ 11, 20 29 विमलमर्षगणि विमलहषंगणि সাল भ्रद्धालु छः कोस साठ कोसे आधार आचार. प्रतिबन्ध प्रतिबोंध ग्लाविर्भवति ग्लानिर्भवति, गीता अध्याय 4 श्लोक 7 रत्नेश्वर रत्नशेखर वही पृष्ठ 95 खरतरयच्छ बृहद् गुर्वान बली पृष्ठ 95 अनुमति अनुभूति फौजी, तुर्की फैजी, तो वही पृष्ठ 70 अकबरी दरबार पहला भाग पृष्ठ 70 कर कट "गृहस्थानां यदभूषण" "गृहस्थानां यद्भूषण तत् साधूनां दूषणम" शास्त्र शस्त्र वही आत्मा जो विज्ञाता है वही आत्मा है और जिसके द्वारा जाना जाता है, वही आत्मा हैं एषय, नैक विषय, अनेक क्या तुम शंकर को बीरबल के स्वीकार करने 22 फुटनोट : 33 33 57 18 57 38 58 59 13 13 59 6, 21 27 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 13 ) वैज में पंक्ति अशुद्ध 11, 26 163 फुटनोट 877 8819 903 93 नं. 2 ईश्वर मानते हो? पर सूरीजी ने पूछा कि (इसके बाद एक पंक्ति ईश्वर ज्ञानी है या अज्ञानी छूट गई है) __कुम्हारी तुम्हारी भानुचन्द्र, दीनदयाल भानचन्द, दानियाल गदाजी गांजी अधामधामधामेर्ध स्वचेतसि अधामधामधामेधं 'वयमेव स्वचेतसि दयाकुशलमणि दयाकुशलगणि, समझाकर सुदि तेरस समझाकर अषाढ़ सुदि तेरस जोविंड, न मरिज्जड जीविडं न मरिज्जडं संख्या है संख्या 11 है नन्दविजय नन्दिविजय अन्याय अन्यान्य खेर्वासराः रवेर्वासरा: फरवरीदीने फरवरदीन बही पृष्ठ 299 जहांगीरनामा, हिन्दी अनुवाद ब्रजरत्नदास वही पृष्ठ 286 मुगल एम्पायर इन इण्डिया एस. आर. शर्मा षष्ठ 286 रामसिंह रायसिंह किया है (इससे पहले ने विज्ञप्ति पत्र के एक पंक्ति छूट गई है) अतिरिक्त अन्य प्रमाणों के आधार पर भी स्वीकर किया है। फटनोट की पंक्ति 97 99 110 फुटनोट 1 फुटनोट 112 22, 24, 25 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेज नं0 पंक्ति शुद्ध 122 13 चिन्तन द्वारा आदम चिन्तन द्वारा/धार्मिक चिन्तन आदमी a 1268 12914 130 फुटनोट 133 नं.4 137 21 13810 1453 151 16 प्रतिगोधे प्रतिपोष वही पदं 24 विजयदेव महात्मय, सर्ग 17; पच 24 मन्दविजय नन्दिविजय चिन्तागणि चिन्तामणि शाहजहाँ शाहजादा व्यक्तित्व व्यक्तिगत (विजसेन और भानुवाद) विजयसेन और भानु चन्द्र) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका पृष्ठ संख्या 1-10 10-13 13-16 16-20 21-33 34.47 अध्याय-1 मुगल काल में जैन धर्म एवं भाचार्य परम्परा(अ) तपागच्छ के प्रमुख आचार्य (4) खरतरगच्छ के प्रमुख आचार्य (स) तत्कालीन हिन्दू समाज की स्थिति (द) प्राचीन जैनाचार्यों का सामाजिक योगदान अध्याय-2 अकबर को धार्मिक नोलि(१) धार्मिक नीति को प्रभावित करने वाले तत्व (ब) धार्मिक नीति का क्रमिक विकास अध्याय-3 अकबर का जैन आचार्यों एवं मुनियों से सम्पर्क तथा उनका प्रभाव(हौरविजयसूरि, शान्ति चन्द्रजी, भानुचन्द्रजी, सिद्धिचन्द्रजी, विजयसेनसुरि, जिनचन्द्रसूरि, जिनसिंहरि एवं अन्य जैन साधू) अध्याय-4 महामोर की धार्मिक नीतिधार्मिक नीति को प्रभावित करने वाले तत्व जहांगीर का धार्मिक दृष्टिकोण 48-108 109-116 116-119 अध्याय-5 120.135 नीर का जैन सन्तों से सम्पर्कचन्द्रजी, सिद्धिचन्द्रजी, जिनचन्द्रसूरि, मंसिहसूरि, विजयदेवपूरि, विवेकहर्ष, द, महानन्द, उदयहर्ष एवं अन्य Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 16 ) - अध्याय-6 शाहजहां की धार्मिक नीति एवं जैन धर्म 136-138 अध्याय-7 उपसंहार 139-146 परिशिष्ट 147 148 149 153-154 15: 156-151 1. महाराणा प्रताप का श्री हीरविजयसूरिजी को पत्र 2. खम्भात में विजयसेनसूरिजी की पादुकाएं वाले पत्थर का लेख सूर्यसहस्त्रनामस्तोत्रम् . "श्रमण" शब्द का पूर्ण विवरण विजयदेवसूरिजी का महाराणा जगतसिंह पर प्रभाव . कच्छ में मोटी खाखर के देरासर का शिलालेख (मुनि विवेकहर्ष का कच्छ के राजा भारमल पर प्रभाव) K जहांगीर बादशाह का विजयदेवसूरिजी के नाम पत्र 8. स्मिथ के पत्र का हिन्दी अनुवाद १./मुगल बादशाहों द्वारा जैन साधुओं को दिये गये फरमान 10. शिलालेख सन्दर्भित ग्रन्थ सूची 15: 161 161-17 176.19 193.20 श्रीमति राजाबाई कोठारी ने अपने पति स्वर्गीय श्री सौभागमल जी कोठारी की स्मृति में पुस्तक के छपाने में आर्थिक सहायता दी। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाभादयरास पृष्ठ पहला व मातम हस्तलिखित पांडुलिपि ले० पं० दयाकुशलगणि - - || श्रीकल्याणकातगुरुयोतमामरतिनितिनिरम लायाकरीएससायालेसंगालागुरामावताधाविदडवरदनुमार aमलाईनगरीनला धन्यश्रीसससाइकमाक्रतिवदतुासुरमरकर संसाधनकामदेऊनमिळाग बसुलेतानाधिकरतानसभा दावामुगदधातासमु सारदेवदाजाहामावघोल दतवानदारालमात्रधरसो ( क) मारोता प्रिनाला यापकानाकातमहकमातास लप्सकोमलनासिकामोदेविका मागगनश्चिात सकतकलागुणरागोतमसमयम जगिजायाजासतोपम२॥६श्रारुहारसदासयोगासणुएसास। रासरचरनामामालिनवनवासाचुएविनयविवक विचार मुजातिाकदारदेसरगुजराति निदाराधननयरशासघालोकतम - जयतागुरुनामासीजमनजितकाम कदरदयाशलाममासमुत्रा ||सनसदगुरुमिदासपतिश्रीलालोदयरामममा थापा Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाभोदयरास पृष्ठ-10 हस्तलिखित पांडुलिपि ले० पं० दयाकुशनगषि - - me D - - - मागारअन्दामशानडाटणाश्रीफाऊतबोनाविकाचीक यात्राणामधिलोनावालामनिवाणीतिजलासपकरसबलर|| गरोन उपाध्यायपदवाटावाjanमजमपावसावाश्शअकबरसाद || || समिणताहीयविकप्तय गरउसिंधकामापी सालदांमबार जिवजनाबत हा र सदगुरुउदगा|| यारमासकेकालापान)वमधिल ली व रसाल५५गामारतीमन यमलकीदिनबारसमारिहरदीधी १२६ उहा लागुम्मानानिमही| मागअलमदांना माहीघाधिकरवायाः एमाप्रमानवालिः || यबोलनमादीमुजाणमा सशसवमादाचा जत्राविवपतिमाही लिहीमाक्षीमूस्वामिप्रतिक्षाएदमुलि IITELधमाधवाभावकथावानय गुरुपदपानाकरसमप्रमll Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजवल्लीरास पांडुलिपि पृष्ठ-1 एनटोनमा दयादिलपखशानिनवरशतासवरीरामनाराकघगणधरा प्रसपत्यकाक्नारसमध्यावरणकमलनमासस्मतिदियाशादारविजयशरापागाउजगमाधाय सवारयातिपदवालिदचलताणाशाब्दयघरविकटालिबांध्यावविहाददश खवायरमदाताविरटालामारिदारपशिहारजाकिसकलस्राशिधासारितणावाली रदोघाधिक्छातिरामाविमनवंशपरमातएगा। बोलावलायसवतांववाहाताशयातून सिरितिनधाधोयाणंदागावजसारातुडावरजा वायभारहवांवरश्यसबलपायकदावि लक्ष्मधानाधारजनाधारणसदस्याला. शवशानाथापनाघापारडकमलाएRI रयनदरमहादलियाला रागमाल रा दिवराजसततसदरदिपाराश्यान रातसवरयस्यवद्धगजरातसहतामा स्नानसाकास्दिाश्ताणसामाणसाकरण करयकरणबदरकारपाश्तासउधाजसगखण्वदामासाध्यवसएमसुपरशुउचाततास। पावसखवलासातल्यतयालिसागलिनदिल्बराबधशतदातासतणखतमाडणारी उमबखबाडण्हाडाकातिनगमोतवनासायासमरसत्वलातासापाएनछावस्थामा वामपनलएकजबरदाualमाजवासरदाइडलचस्वासपातासयममयमलना। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजवल्लीरास पांडुलिपि पृष्ठ-12 महिजमतथिंकस्मतादानावदाईवपुरस्मातिनावटाईक्रमानदियणतीदानासदासशणमामा दिवातरादाबालासलत्राणिमनमाहनिपानिमाव्दादाईशेसाजनमुदिरनयाजमनमादिमदिरनगर चमनमाव्हायानपतिनारिनिनबन्दायामाचलननादततिादाकलालेजुजानतविसाक्षतकतम निगनिरागसतनरदिनबाडानहनबाडिकबगाउामाशीविजयासनमरमरलालमबसमाएको रिताजशकरातजवक्षणलालावल नक्कलनकाज वलनछटालनकाजश्सबजनानदस्दाबज्ञान माता बालरय रागस्पासामिपाचारसबजाऊ तारणादारविजयवरासरमांताविझुडपद रिषनमाजारिश्राविजयसतरासरगतात 'रसनाझंतपश्चरणकमलमनमधला २यतिप्ररणापमाधानारसबाशयमसागर रावारकवादिमलदरिष्कवफायशिातिवंदना वकयुगासागरपरिएलएन्धिपायावसबासकला कलानमितविकज्ञवाबाहककल्याणविजययुगमा रासामविजयमवणायपगटमलनाणवंदसानारीराधसबापंमितमविरमुनिवरसंदरनितितएत्पनामनिता यावादारविश्यमूरासराकरासपरिवारषदायारणसवासवासानएकावनबरियाविनामपुस्मिाई|| एगनमितगियामासिावलाविजयशाहीसबनबलगमसमन्दर विशशिनगासागरवानिराजश्री नारविजयवरांकचाकरजसपमजतबगाजशासबजमऊतारणइतिश्राविजवलास्मसंप्रमाब Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - "-ईमान स्वामी-सियाना योजनानां मानसा होयस्मादनियविशेषANAस्किमिलिनविशेषणं -५|| Mandalimमियाजातीचगवान्जाबकाश्रिरेखुवा पंथाः कामयतेदार्यगवानिवः ।। शिकलयामासरुध्नासंयतःमनसोबलाससमस्तंतमा स्तोमतभिशेदेयासदwell HEAनानास्वानरविपिनासबासमविश्वगः हेलिहसोहरिनानुशिलानुरक्षणतिनमापनस्ता स्वितापने:सवितायमा का किरणसिमकिरणाकतिमाक्नेगदिवस नासोदिवामलिरहालिदिननाथो दिनस्वामीदिशीतानेवादिनरनंदिवार बरनंतनोमणिः व्योमरमूनोरएसएनेवियन्नलिविहायोरममावविहायोग्य लिरुलता:मयूवोयोमहाखोगनतिगगनवनायिकैवलाकेत माने घर खरसरशीता अशा ताधिशचनासमोरिसस्तमोक्षसीमास्तमीसुद्धत मिमातडमाडितमोरातितमीहितमानमालामाहोमालीरहिमखरपुतिः खरविवं रुगधुम्भर विमः सहनदीविण दिन दशदिनमिदिवासहा दिवामिमहब रिहामिविमशातगुवरपादावरुवातिरबस्तानाखस्नः सरोधिखरश्नावर मारवरणविवरातिानाशाखरेवरवरदीन खरकेउःखस्कोतिरवस्तार कपिरितिशबालारकरपितारसमसमभररस्माकमादित्ोदीक्षिमासा यासदार्गति दिनावानुसवानबधःपादेवानहमतिविमानरुचिमानवानो विभावादावनि ज्योतिभानवधिमानोमानविमानहमणि केतमानपतिमान) म्मतवासरेवरमरीचिमालनावरहवानमामिमाननिमातलको - - - सूर्य सहस्त्रनाम स्त्रोत माग्र स्तावअरविंदसरा पोजनानिमोजिनाविनः अजिनाल कोकरवर्गसिंहस्पसबवास्तहिनेतरदाविति मालिनापार ससाकाहारमा नियुगेनरपतिसंवत्रीहारवियरा वचनेन मरवतयारवालासह विदधानिसकामसमयानाकारamll Pravesamme Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय मुगल काल में जैन धर्म एवं आचार्य परम्परा :(अ) तपागच्छ के प्रमुख आचार्य : भगवान महावीर स्वामी की पट्ट परम्परा में अनेक गच्छों का जन्म हुआ। ये गच्छ परम्परा जैन धर्म में साधना का एक सोपान थी। मत विभिन्नता के कारण गच्छ परम्परा को अनेक भागों में बांट दिया गया लेकिन प्रमुख परम्परा में दो को ही प्रमुख स्थान मिला: 1-तपागच्छ 2-खरतरगच्छ पागच्छ को उत्पत्ति : संवत 1273 (सन् 1216) से श्री जगच्चन्द्रसूरीश्वर ने बारह वर्ष पर्यन्त बॉविल तप की आराधना की इस तप के प्रताप से पृथ्वी पर कलंक का नाश हुआ हि वह तपा ऐसी ख्याति संसार में प्रकट हुई । इस तरह संवत 1285 सन् 1228) के साल से श्रीजगच्चंद्रसूरि से जगत में तपा गच्छ की प्रसिद्धि मुगलकाल में इस गच्छ में प्रमुख आचार्य विजयदानसूरि, विजयहीरसूरि, सेनसूरि और विजयदेवसूरि हुए। विषयमानसूरि : ये आनन्द विमल सूरिजी के पट्टधर थे इनका जन्म संवत 1553 496) में अहमदाबाद के जामला नामक गांव में हुआ। 9 वर्ष की उम्र ऑबिल जैनियों की एक तपस्या विशेष का नाम है, इस तपस्या के दिन केवल एक ही वक्त नीरस, घी, दूध दही, गुड़ आदि वस्तुओं से रहित भोजन किया जाता है। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 2 ) यानि संवत 1562 (सन् 1505) में आनन्दविमलसूरिजी से दीक्षा ग्रहण की। उस समय साधू समाज में बहुत शिथिलाचार प्रवेश कर गया था। जिस समय आनन्दविमलसूरिजी ने विजयदानसूरिजी को अपना पट्टधर घोषित किया तो विजयदानसूरिजी ने सर्वप्रथम साधु समुदाय को जैन साधुओं के नियमानुसार चलने के लिए एवं साधू समाज को संगठित करने के लिए अधिक परिश्रम किया। न केवल साधू समाज अपितु उस समय देश की हालत भी बहुत ही सोचनीय थी। राजा महाराजा आपस में लड़-लड़कर अपनी शक्ति को क्षीण कर रहे थे । उसी का लाभ उठाकर मुगल साम्राज्यं भारत में अपनी शक्ति बढ़ाने और पूरे भारत को अपने कब्जे में करने की कोशिश में लगा हुआ था । ऐसी परिस्थिति में जैन मंदिर और जैन पुस्तकों, भण्डारों को भी बहुत क्षति होने का डर था, जिनको सुरक्षित कराने में जैन समाज को भी उन्होंने संगठित किया और उनके संरक्षण की व्यवस्था कराई। इस तरह सूरिजी इस भू-मण्डल में अनेक जीवों को शुद्ध मार्ग को दिखाते हुए विचरते रहे । बिहार करते हुए एक समय सूरिजी अजमेरू दुर्ग पहुंचे, तो वहां के "लुका-मत" नामक कुमति के रागी लोगों ने उन्हें भूतपिशाच वाला मकान ठहरने के लिए दिखाया । सूरिजी ने अपने शिष्यों के साथ उसी में निवास किया। उस मकान में रहने वाले दुष्ट देवों ने अनेक प्रकार के वीभत्स रूपों को धारण करके साधुओं को डराना शुरू किया जब सूरिजी को यह बात पता चली तो एक रात वे निद्रा न लेकर सूरि मंत्र का ध्यान लगाकर बैठ गये उनके सामने देवता लोग आकर अनेक प्रकार की चेष्टायें करने लगे लेकिन सूरिजी अपने ध्यान से किंचित मात्र भी विचलित नहीं हुए। उन देवों को सारी चेष्टायें सरिजी के सामने व्यर्थ हो गई । जब नगरवासियों को यह विश्वास हुमा कि सूरिजी के प्रभाव से व्यंतरों का सर्वदा के लिए विघ्न दूर हो गया तो वे मुक्त कंठ से सूरिजी की प्रशंसा करने लगे। इस तरह जैन शासन को उन्नति के शिखर पर छोड़कर वैशाख सुदी बाइस संवत 1622 (सन् 1565) को बंडावली (पाटन के पास) गांव में वे स्वर्ग चले गये। आचार्य विजयदानसूरिजी की समाज को महाम वेन आचार्य हीरविजयसूरिजी जैसे रत्न को देना है जिन्होंने मुगलकाल में जैनों के लिए ही नहीं अपितु सम्पूर्ण आर्य प्रजा की रक्षा के लिए महान कार्य किये। 1. यह मत जिनप्रतिमा का शत्रु था । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. आचार्य होरविजयसूरि mymagemanaparmadesawaARITHVIT essarilalimsimatiNAS IONaren हीरविजयसूरिजी का जन्म मगशर सूदी नवमी 1583 (सन् 1526) को पालनपुर के ओसवाल परिवार में हुआ। इनके पिता कराशाह तथा माता नाथीबाई ने इनका नाम "हीरजी" रखा। 13 वर्ष की उम्र में कार्तिक वजी दून सम्वत 1596 (सन 1539) को पाटन से आपने आचार्य विजयदानसरि से दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा नाम "हीरहर्ष" रखा गया। दीक्षा के बाद सूरिजी का मन में आपको "न्यायशास्त्र" में पारंगत करने की भावना आई, गुरु की आज्ञा से धर्मसागरजी और राजविमलजी को साथ लेकर हीरहर" मनि देवगिरी (दौलताबाद) न्यायशास्त्र का अध्ययन करने गये और न्यायशास्त्र के कठिन से कठिन अन्यों का अध्ययन किया. अध्ययनपूर्ण हो जाने पर जब वापिस गुरु के पास आये तो गुरु ने हीरहर्ष की योग्यता देखकर सम्बत् 1607 (सन् 1550) में नारदपुरी (नाडलाई) मारवाड़ में पण्डित पद दिया और उसी गांव में अगले वर्ष उपाध्याय पद प्रदान किया। पौष सुदी पंचमी सम्वत 1610 (सन 1553) को सिरोही (मारवाड़) में आचार्य पद से विभूषित कर इनका नाम हीरविजयसूरि रखा (जैन साधुओं की ऐसी परम्परा है कि आचार्य पदवी मिलने के बाद नाम बदल दिया जाता। RPORANIK mammer अब हीरविजयसूरिजी ने अपने गुरु के साथ पाटन की तरफ बिहार किया। पाटन पहुंचने पर आचार्य विजयदानसूरि ने हीरविजयसूरि को अपना पट्टधर घोषित किया। इस अवसर पर वहां के सूबेदार शेरखान के मन्त्रि भंसाली समरष ने अतुल धन खर्च किया। सम्वत् 1622 (सन् 1565) में गुरुजी के काल कर जाने, से आप गच्छाधिपति बन गये मीर सारे देश में विचरण करने लगे, जिस समय बादशाह अकबर ने हीरविजयसूरिजी को अपने दरबार में आमं वित किया उस समय वे गुजरात के गंधार प्रान्त में थे। बादशाह का निमंत्रण मिलने पर उन्होंने आस-पास के शहरों के जैन संघ के प्रमुख श्रावकों से परामर्श किया और श्रीसंघ की इच्छानुसार फतेहपुर सीकरी के लिए बिहार किया। विभिन्न स्थानों पर धर्मोपदेश देते हुए उन्हें महाराणा प्रताप का भी निमंत्रण मिला था कि मेवाड़ में पधारकर धर्मोपदेश देने की कृपा करें पत्र के लिए परिशिष्ट नम्बर । देखें जिस समय सूरिजी बादशाह के दरबार में पहुंचे उस समय उनके साथ बान्तिक शिरोमणि उपाध्याय श्री विमलमर्षगणि शतावधानी, श्रीशान्तिचन्द्रगणि, पं.सहजसागरगणि, पं. सिंहविमलगणि, पं. हेमविजयगणि, व्याकरण चूड़ामणि प.लाभविजयगणि आदि तेरह साधू थे। अपनी विद्वद मंडली के साथ सूरिजी Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को आते देखकर बादशाह ने विनयपूर्वक सामने जाकर कुशल क्षेम पूछने के साथ ही सूरिजी को नमस्कार किया। सूरिजी ने "धर्मलाभ"1 देकर राजा को संतुष्ट किया। बादशाह को उपदेश देकर सूरिजी ने लोककल्याण तथा जीवदया के जो कार्य करवाये उनका विस्तृत विवरण आगे के लिए छोड़कर यहां केवल इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि उनके लोकोपकारी कार्य केवल इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि उनके लोकोपकारी कार्य केवल जैनों के लिए ही नहीं अपितु सम्पूर्ण देश की प्रजा के हितार्थ थे। सूरिजी में विनय, विवेक, समभाव और क्षमा जैसे उच्चतम गुणों का भंडार था । गुजरात जैसे परम श्रत्रालु प्रदेश को छोड़ना, अनेक प्रकार के कष्ट उठाते हुए फतेहपुर सीकरी तक जाना, चार वर्ष तक वहां रहना अकबर जैसे बादशाह को अपना भक्त बनाना और सारे साम्राज्य में छः महीने तक जीव-हिसा बन्द करवाना उनके जीवन की सार्थकता दर्शाते हैं। सूरिजी में जैसी ग्रण ग्राहकता थी वैसी ही लघुता भी थी यद्यपि अकबर ने जीव दया से सम्बन्ध रखने वाले और इसी तरह के जो काम किये थे, उन सबका श्रेय हीरविजयसूरिजी को ही है फिर भी वे हमेशा यही समझते थे कि मैंने जो कुछ किया हैं या करता हूं, यह तो मेरा कर्तव्य है। एक बार एक श्रावक ने अकबर को अभक्ष्य छुड़ाने में उनकी प्रशंसा की तो सूरिजी ने कहा कि "जगत के सब जीवों को सन्मार्ग पर लाना ही तो हमारा धर्म है, हम तो केवल उपदेश देने के अधिकारी है। हजारों को उपदेश देने पर भी लाभ तो बहुत ही कम मनुष्यों को होता है । अकबर ने जो काम किये है इसका कारण तो उसका स्वच्छ अन्तःकरण ही है । श्रेष्ठ कार्य में याचना करने वाले की अपेक्षा दान देने वाले की कीति विशेष होती है मैंने तो मांगकर अपना कर्तव्य पूरा किया और बादशाह ने देकर उदारता दिखाई, कार्य करने की अपेक्षा उदारता दिखाना अधिक श्रेष्ठ हैं।" सूरिजी के इस कथन से स्पष्ट होता है कि उनमें कितनी लधुता थी, वे निरभिमानी थे। सूरिजी ने जैसे उपदेशादि बाह्य प्रवृत्तियों से अपने जीवन को सार्थक किया था वैसे ही बाह्य प्रवृत्ति की पूर्ण सहायक-कारण आध्यात्मिक प्रवृत्ति को भी Home 1. जैन साधू जब किसी को आर्शीवाद देते हैं तो यही शब्द "धर्मलाभः" कहते हैं। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे भूले न थे । समय-समय पर एकान्त में बैठकर घन्टों ध्यान किया करते थे। रात्रि के पिछले पहर में (यह समय योगियों के ध्यान के लिए अपूर्व गिना जाता है) उठकर ध्यान तो वे नियमित रूप से लगाया ही करते थे। इस तरह आध्यात्मिक प्रवृत्ति से और उपदेशादि बाह्य प्रवृत्ति दोनों की तरह से उनका जीवन जनता के लिए आशीर्वाद रूप था। ___ इस तरह दोनों प्रवृत्तियों से जीवन को सार्थक बनाते हुए सूरिजी गुजरात में बिहार कर रहे थे कि अचानक ऊना के सम्वत् 1651 (सन् 1594) के चातुमास में वे अस्वस्थ हो गये । इसलिए चातुर्मास के बाद श्रीसंघ ने उन्हें बिहार नहीं करने दिया। श्रीसंघ के आग्रह पर भी किसी तरह की औषधि का सेवन नहीं किया उनका विचार था कि बाह्य उपचार और औषधि की अपेक्षा धर्म रूपी औषधि का ही सेवन करना चाहिये। दिन पर दिन सूरिजी की रुग्णता बढ़ती गई फिर भी सम्वत् 1652 (सन् 1595) में पyषणों में कल्पसूत्र (धार्मिक वांचन) उन्होंने ही वांचा । भादवा सुदी ग्यारस सम्वत् 1652 (सन् 1595) के दिन संध्या समय तक सूरिजी अपने ध्यान में बैठे रहे । अपना अन्त समय निकट जानकर अकस्मात आंखे खोलकर अन्तिम शब्दोच्चारण करते हुए सूरिजी ने कहा"भाईयों ! अब मैं अपने कार्य में लीन होता हूं। तुमने हिम्मत नहीं हारना । धर्म कार्य करने में वीरता दिखाना । मेरा कोई नहीं है, मैं किसी का नहीं हूँ। मेरी आत्मा, ज्ञान, दर्शन, चारित्रमय है सच्चिदानन्दमय है, शाश्वत है, मैं शाश्वत दुख का मालिक होऊ मैं आत्मा के सिवाय अन्य सब भावों का त्याग करता हूं। आहार, उपाधि और इस तुच्छ शरीर का भी त्याग करता हूं। इतना कहकर सूरिजी पदमासन में विराजमान होकर माला करने लगे। चार मालायें पूर्ण कर जैसे ही पांचवी माला फेरने को हुए कि माला उनके हाथ से गिर पड़ी, लोगों में शोक छा गया। उसी समय भारत को गुरू विरह रूपी बादलों ने आच्छादित कर लिया। जिस स्थान पर सूरिजी का अग्नि संस्कार हुआ वहां एक आश्चर्यजनक घटना घटित हुई, कि अगले दिन वहां लोगों ने आम के पेड़ों पर फल देखे । किसी पर मोर के साथ छोटे-छोटे आम थे, किसी पर जाली पड़े हुए आम तो किसी पर पके हुए। कई ऐसे पेड़ भी फलों से भरे हुए थे जिन पर कभी फल आता ही था। भादों के महीने में वृक्षों पर आम, आश्चर्य नहीं तो और क्या है ? निःसंदेह Bह्म सूरिजी के पुण्य प्रताप का फल ही कहेगें। 1. जैन श्वेताम्बर भादवा वदी बारस से भादवा सुदी चौथ तक आठ दिन धार्मिक पर्व के रूप में मानते हैं, जिन्हें पयूषण कहा जाता है । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6) बादशाह अकबर के पास भी कुछ आम भेजे गये यद्यपि सूरिजी के स्वर्गवास समाचार से बादशाह को इतना दुख पहुंचा था कि उसकी आंखों से आंसू निकल पड़े, लेकिन आम्रफलों को देखकर बादशाह को सूरिजी के पुण्य प्रताप पर बहुत अभिमान हुआ । जहाँ सूरिजी का अग्नि संस्कार हुआ था वहां उनका स्तूप बनवाने के लिए जैन संघ ने अकबर बादशाह से भूमि मांगी, जिस बगीचे में सूरिजी का अग्नि संस्कार हुआ था बादशाह ने वह बगीचा और उसके आस-पास की 22 बीघा जमीन जैनों को दे दी । बगीचे में दीवकी लाडकीबाई ने एक स्तूप बनाकर उस पर सूरि जी की पादुकायें स्थापित कर दी ' 1 निःसन्देह सूरिजी असाधारण विद्वान थे । अबुलफजल बदायूनी तथा विन्सेंट स्मिथ जैसे पाश्चात्य विद्वानों ने मुक्त कंठ से उनका यशोगान किया है । यद्यपि उनके बनाये हुए "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका" और " अन्तरिक्षपार्श्वनाथ स्तव" आदि बहुत ही थोड़े ग्रन्थ उपलब्ध हैं लेकिन उन ग्रन्थों को देखने और उनके किये कार्यो पर दृष्टि डालने से उनकी असाधारण प्रतिभा में सन्देह का स्थान नहीं रह जाता । उस समय के बड़े-बड़े अजैन विद्वानों के साथ बाद-विवाद करने में, समस्त धर्मो का तत्व शोधने में, अकबर जैसे बादशाह पर प्रभाव डालकर सफलता प्राप्त करना असाधारण विद्वान का ही काम हो सकता है । अकबर ने अपनी धर्म सभा के पांच वर्गों में से पहले वर्ग में उन्हीं लोगों को रखा था जो असाधारण विद्वान थे, यही कारण हैं कि सूरिजी भी उसी प्रथम वर्ग के सभासदों में थे । 3. आचार्य श्री विजयसेनसूरि नालाई ( मारवाड़) में फागुन सुदी पूनम संवत 1604 ( सन् 1547) को कोडमदे और पिता कूरांशाह के घर उत्तम लक्षणों वाले पुत्र का जन्म हुआ जन्म से ही बालक के मुख पर सूर्य के समान तेज चमकता था। उत्तम लक्षण ओर चेष्टायें देखकर सामुद्रिक शास्त्री लोग कहने लगे कि "यह बालक इस भूमण्डल में जीवों को मोक्षमार्ग दिखाने वाला एक धर्म गुरु होगा ।" पुत्र को उत्तम लक्षणों से विभूषित देखकर माता-पिता ने उसका नाम "जयसिंह रखा । यही जयसिंह आगे चलकर आचार्य विजयसेनसूरि" के नाम से विख्यात हुए । 1. हीरसौभाग्यकाव्य - देवविमलगणिविरचित सर्ग 17 श्लोक 192,95 1 2. आइने अकबरी - एच. ब्लॉच मैन द्वारा अनुदित पृ. 608, 1 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्येष्ठ सुदी म्यारस सम्वत् 1613 (सन् 1556) मैं सूरत में माता के साथ विजयदानसूरिजी के पास दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा का नाम "मुनिजयविमल" रखा गया। विजयदानसूरिजी ने दीक्षा देकर आपको हारविजयसूरिजी का शिष्य सोषित कर दिया। हीरविजयसरिजी के पास रहकर आपने न्याय, व्याकरण आदि बन्धों का अभ्यास किया। सम्वत् 1626 (सन् 1569) में खम्भात में आपको पडित पद दिया गया। खम्भात से गुरु के साथ बिहार कर अहमदाबाद आकर चतुर्मास किया । यहां पर फागुन सुदी सात सम्बत् 1628 (सन् 1571) को उपाध्याय एवं आचार्य पद से विभूषित कर 'आचार्य विजयसेनसूरि" नाम रखा गया। इस अवसर पर मूला सेठ और वीपापारिख ने महोत्सव किया। इसी समय एक और अभूतपूर्व बात देखने में आई कि मेघजी नामक एक विद्वान जो कि लुकामत का अधिकारी था, स्वयं शास्त्र और जिन प्रतिमा को देखकर उसके हृदय में लुकामत को दूर करने की इच्छा हुई। दोनों सूरीश्वरों के सामने मेघजी ऋषि ने अपने सत्ताइस पंडितों के साथ लुकामत को त्याग कर सूरीश्वर के सत्योपदेश को ग्रहण कर लिया। आचार्य पदवी के बाद हीरविजयसरि ने सारी व्यवस्था की देखभाल विजयसेनसूरि को सौंपकर स्वतन्त्र विहार करने की आज्ञा दे दी। वे जाव में विचरण कर धर्मोपदेश देने लगे । अनेक जगह प्रतिष्ठायें करवाई । ज्येष्ठ शुक्ला दशमी सम्वत् 1643 (सन् 1586) के दिन गंधार बंदर में “इन्द्रजी" सेठ घर में भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाई । दुसरी प्रतिष्ठा ज्येष्ठ वदी ग्यारस के दिन "धनाई" नाम की श्राविका के मन्दिर में रवाई । गधार में ही ज्येष्ठ शुक्ला बारस सम्वत् 1645 (सन् 1588) का मन्दिर में चिन्तामणि पार्श्वनाथ तथा महावीर स्वामी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा रवाई। गधार से बिहार कर अपने गुरु हीरविजयसरि के पास राधनपुर आये। बत् 1649 (सन् 1592) का चातुर्मास दोनों आचायों ने यहीं किया वहीं पर रविजयसूरिजी को बादशाह अकबर का पत्र मिला जिसमें विजयसेनसूरि को हौर भेजने के लिए लिखा हुभा था। सुरू की आज्ञानुसार मार्म सुदी तीज सम्वत् 1649 (सन् 1592) को जायसेनसूरि वे लाहौर के लिए बिहार कर दिया । मार्ग में पाटण, देलवाड़ा, निहरों के दर्शन करते हुए अपनी जन्म भूमि "नारदपुरी" पधारे यहां से मेडता, me महिमनगर होते हुए लाहौर से छः कोस दूर लुधियाना आये । यहां कजल का भाई फैजी और अनेक लोग सूरिजी के दर्शनार्थ गये । इसी दुरिजी के शिष्य नदिविजवजी ने सब लोगों के सामने अष्टावधान साधा खकर सभी आश्चर्यचकित रह गये और जाफर बादशाह से चमत्कार की Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 8 ) सराहना की। बादशाह ने नगरवासियों के साथ अपने मंत्रि वर्ग को भेजकर सरिजी का अतिशय सत्कार किया और ज्येष्ठ सुदी वारस के दिन बड़ी धूम-धाम से सुरिजी का नगर में प्रवेश कराया। हीरविजयसूरिजी की तरह विजयसेनसूरिजी ने भी बादशाह पर बहुत प्रभाव डाला । जैसे चन्द्र की विद्यमानता में आकाश सुशोभित होता है। वैसे ही विजयसेनसूरि को विद्यमानता में लाहौर शहर देदीप्यमान होता रहा। अकबर से जीवदया के कार्य करवाते हुए सूरिजी महिमनगर पधारे । संवत् 1652 (सन् 1595) में हीरविजयसूरिजी के स्वर्गवास के बाद श्री तपगच्छ का समस्त कार्य श्रीविजयसेनसूरि के सिर पर आ पड़ा । अब वे तपगच्छ रूपी आकाश में सूर्य के समान भव्य जीवों को उपदेश देते हुए विचरने लगे और दिन पर दिन श्री तपगच्छ की शोभा को बढ़ाने लगे। संवत 1659 (सन् 1602) का चातुर्मास अहमदाबाद में किया। अहमदाबाद में लोगों ने धर्मोपदेश का अपूर्व लाभ लिया • अहमदाबाद से राधनपुर होते हुए सूरिजी पाटन आये यहां लुकामत का स्वामी मुनि मेघगज सूरिजी के चरण कमल में आया सूरिजी की देशना से लुकामत का त्याग कर दिया और श्री तपगच्छ की शीतल छाया में विचरने लगे। सूरिजी के एक श्रेष्ठ शिष्य नन्दीविजयजी ने फिरगियों को जो कि दुरात्मा थे अपने कौशल से प्रसन्न कर लिया था जिससे फिरंगी लोग जिन धर्म में भक्ति रखने लगे थे इस समय पुनः फिरंगियों में जैन साधुओं से मिलने की तीव्र इच्छा हुई फिरंगियों के गुरु पादरी ने अपने हाथ से पत्र लिखकर सूरिजी को आमन्त्रित किया, मेघजी के कहने पर फिरंगियों के राजा ने भी एक पत्र लिखा जिससे सूरिजी दीव पधारे । सूरिजी व फिरंगियों के राजा के बीच में हुई धर्म वार्ता से राजा बहुत प्रसन्न हुआ। उसने आदर के साथ जैन मुनियों को दीव में रहने की सम्मति दी। जिस प्रकार कस्तूरी की सुगन्ध फैलाने की कोई आवश्यकता नहीं होती वह स्वतः ही फैल जाती है । उसी प्रकार सूरिजी के सद. कार्यों द्वारा उनकी कीति भी चारों ओर फैल गई, गांव-गांव में कई मंदिरों की प्रतिष्ठायें करवाते हुए और भव्य जीवों को उपदेश देते हुए ज्येष्ठ वदी ग्यारस संवत 1671 (सन् 1714) में खम्बात के पास अकबरपुर में सूरिजी का स्वर्गवास हो गया। 1. यह पहिले पहल लुकामत को त्याग करने वाले मेघ जी ऋषि का शिष्य था। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 9 ) अकबरपुर में जहां सूरिजी का अग्नि संस्कार हुआ वहां उनका स्तूप बनाने के लिए बादशाह ने 10 बीघा जमीन जैन श्रीसंघ को दे दी वहां खम्बात के निवासी शाहजगसी के पुत्र सोम जी शाह ने सूरिजी का स्तूप बनवाया। 4-आचार्य श्री विजयदेवसूरिजी पौष वदी तेरस संवत 1634 (सन् 1577) को (गुजरात) में माता रूपा और पिता श्रेष्ठ के घर में एक बालक का जन्म हुआ। जब बालक गर्भ में आया तो माता ने स्वप्न में सिंह देखा । समय पूरा होने पर रोहिणी योग, वुश लग्न जैसे उत्तम नक्षत्र में बालक ने जन्म लिया। बालक का नाम वासकुमार रखा गया। यही बालक आगे चलकर आचार्य विजयदेवसूरि के नाम से विख्यात हुआ। वासकुमार ने खम्भात में संवत 1643 (सन् 1586) में आचार्य विजयसेनसूरि के पास दीक्षा ग्रहण की और विद्याविजय नाम पाया । संवत 1655 (सन् 1598) में विजयसेनसूरि ने इन्हें अपना पट्टधर घोषित किया। विजयदेवसूरि ने मालवा, राजपूताना, मेवाड़, दक्षिण, पूर्व देश, पंजाब, काश्मीर आदि प्रदेशों में खूब धर्म प्रभावना की और पूर्व देश के तीर्थों का उद्धार किया । पाटन के सूबेदार को उपदेश देकर श्रीहीरविजयसरिजी के स्मारक का निर्माण कराया उसके रक्षण के लिए सूबेदार ने 100 बीघा जमीन दी वर्तमान समय में भी यह स्मारक "दादावाड़ी" के नाम से प्रसिद्ध है। बादशाह अकबर की तरह बादशाह जहांगीर भी अक्सर जैन विद्वानों के साथ "जैन दर्शन" पर वाद-विवाद किया करता था । जब जहांगीर मांडू में था, तब उसने आचार्य विजयदेवसूरि के बारे में सुना तो जैन धर्मोपदेश सुनने के लिए उन्हें आमन्त्रित किया। बादशाह का निमन्त्रण मिला सूरिजी उस समय खम्भात में थे खम्भात से बिहार कर के आश्विन शुक्ला तेरस संवत 1673 (सन् 1616) को मांडू पहुंचे । बादशाह इनके व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुआ । सूरिजी ने 'बादशाह को उपदेश देकर जीव दया के अनेक कार्य करवाये । 1. सोमजी शाह ने जो स्तूप बनवाया उसमें का अकबरपुर में कुछ भी नहीं है, लेकिन खम्भात के भोयरावाडे में शांतिनाथ का मन्दिर हैं। उसके मूल गभारे में-जहां प्रतिमा स्थापित होती है, उस स्थान में-बायें हाथ की तरफ एक पादुका वाला पत्थर हैं, उसके लेख से ज्ञात होता है कि यह वही पादुका है जो सोमजी शाह ने विजयसेनसूरिजी के स्तूप पर स्थापित की थी, शायद काल के प्रभाव से अकबरपुर की स्थिति खराब हो जाने पर यह पादुका वाला पत्थर यहां लाया गया होगा। पत्थर के पूर्ण लेख के लिए देखें परिशिष्ट नं. 2। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 10 ) / बादशाह के यहां से बिहार कर सूरिजी पाटण होते हुए ईंडर आये । ईंडर के पास साबली नामक ग्राम है, वहां के श्रावक रत्नसिंह पारख ने वहाँ Gita fear की अधिक प्रवृत्ति को देखकर सूरिजी से साबली आने की विनती की। सूरिजी साबली आये वहां के ठाकुर को प्रतिबोधितस्त कर जीव-हिंसा रुकवा दी ' । 1 यहां से ईडर, सिरोही होते हुए सूरिजी मारवाड़ पहुँचे । सूरिजी के प्रभाव से मारवाड़ का दुर्भिक्ष नष्ट हो गया, अच्छी वृष्टि हुई जिससे वह शुष्क प्रदेश भी नदी मातृक हो गया । मारवाड़ से मेवाड़ गुजरात, काठियावाड़, आदि होते हुए तैलंग देश में आये यहाँ के बादशाह ने सूरिजी के उपदेश से गोहत्या की निषेध कर दिया । इसी तरह बीजापुर के बादशाह ने सूरिजी के प्रभाव से बन्दियों को छोड़ दिया । इस भूतल पर जीव दया के अनेक कार्य करवाते हुए आषाढ़ सुदी ग्यारस संवत 1713 (सन् 1656 ) में इसका स्वर्गवास हो गया इसके बाद इनके पट्टधर आचार्य विजयप्रभसूरि हुए । (ब) खरतरगच्छ के प्रमुख आचार्य खरतरगच्छ की उत्पत्ति गुजरात की राजधानी पाटण में राजा दुर्लभसेन की राजसभा में श्री जिनेंदेवरसूरीजी पधारे। उनसे जैन साधुओं के आधार सम्बन्धि नियम जानकर राजा मैं उन्हें खरतर की पदवी दी । तभी ने खरतरगच्छ की उत्पत्ति मानी जाती है । मुगल काल में इस गच्छ के प्रमुख आचार्य श्रीजिनमाणिक्यसूरी, जिमचन्द्रसूरी, जिनसिंह सूरी एवं जिनराजसूरी हुए । 1. आचार्य श्रीजिन माणिक्यसूरिं सूरिजी का जन्म संवत 1349 (सन् 1492) को कूकड चोपड़ा गोत्रीय परिवार में हुआ । इनके माता-पिता क्रमशः रयणा देवी और राउल देव ने इनका नाम " सारंग" रखा । संवत 1560 ( सन् 1503 ) में जिनहंसजी के पास दीक्षा 1. विजयदेवसूरिन्द्रं वसन्तं तत्र साम्प्रतम् । प्रणस्य रत्नसिहो ये श्राद्धों विज्ञपयत्यथ श्री पूज्य राजसाधन्त श्रीसमाजविराजितः जीव-हिंसा प्रभूतान जायते पापभूपतः विजयदेव महात्म्यम् - श्री श्रीवल्लमपाठक - सर्ग 9 श्लोक 84,85,86 2. प्रखर बुद्धि वाला । सावलीग्राममागच्छ सर्वजीव हिताय हि वदागमनतस्तस्या निवृत्तिर्भविता चिरम Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 11 ) ग्रहण की। जिनहंसजी ने इनकी योग्यता और विद्वता को देखकर माघ शुक्ला पंचमी संवत 1582 (सन् 1525) को आचार्य पदवी देकर अपने पट्ट पर स्थापित किया । आचार्य पदवी पाकर गुर्जर, पूर्व देश, सिन्ध और मारवाड़ आदि देशों में पर्यटन किया। सिन्धु देश में शाह धनपति कृत महोत्सव से पन्च नदी के पांच पीर आदि को साधन किया। उस समय गच्छ के साधुनों में शिथिलाचार बढ़ा हुआ था । सूरिजी के मन में परिग्रह त्यागकर क्रियोद्वार करने की तीव्र इच्छा हुई । बीकानेर के मन्त्रि बच्छावत संग्राम सिंह को भी गच्छ की ऐसी स्थिति से असन्तोष था। इसलिए उसने गच्छ की रक्षा के लिए सूरिजी को बुलाया । सूरिजी ने भाव से क्रियोद्वार करके देराउर की यात्रार्थ बिहार किया। जैसलमेर की ओर जाते समय मार्ग में पानी की कमी के कारण पिपासा परीषह उत्पन्न हुआ। सूर्यास्त के बाद जल मिलने के कारण सूरिजी ने अपना व्रत भंग नहीं किया। और शुभ ध्यान में अनशन द्वारा अषाढ़ शुक्ला पंचमी संवत 1612 (सन् 1555) को स्वर्ग सिधार गये। 2. आचार्य श्रीजिनचन्द्रसूरि जोधपुर राज्य के खेतासर ग्राम में ओसवाल जाति के रोहडगोत्रीय शाह श्रीवंत अपनी पत्नी श्रिया देवी के साथ निवास करते थे, एक पुन्यवान जीव उत्तम गति से श्रियादेवी के गर्भ में आया। समय पूर्ण होने पर श्रियादेवी ने चंत्र वदी बारस सवत 15951 (सन् 1538) को कामदेव के सदृश्य रूप लावण्य वाला, सूर्य के समान तेजस्वी, शुभलक्षण युक्त पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम "सुल्तान कुमार" रखा गया। ___ सम्बत् 1604 (सन् 1547) को जिनमाणिक्य सूरिजी खेतासार ग्राम में आये । उनके वचनों से सुल्तान कुमार के मन में वैराग्य भावना जागी तो उन्होंने जिनमाणिक्य सूरिजी से दीक्षा ग्रहण कर ली । गुरु ने दीक्षा नाम "सुमतिः धीर" रखा। विलक्षण बुद्धि होने से नौ वर्ष की अल्पायु में ही सकल शास्त्रों में पारंगत हो गये । शास्त्रों में निपुण होकर गुरु के साथ सारे देश में विचरण करने लगे। 1. पट्टावली संग्रह एवं युग प्रधान श्री जिनचन्द्रमूरि में सूरिजी का जन्म सम्वत् 1595 बताया गया है तथा उम्र 9 वर्ष यानि दीक्षा सम्वत् 1604 जो उचित है लेकिन खरतरगच्छ इतिहास में इनका जन्म सम्वत् 1598 अंकित है जो उसमें दी गई दीक्षा की उम्र 1 वर्ष से मेल नहीं खाता । अत: इनका जन्म सम्वत् 1595 ही उचित प्रतीत होता है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 12 ) सम्वत 1612 (सन् 1555) में गुरू का स्वर्गवास हो जाने से " सुमति धीर" जैसलमेर आये। सूरिजी के साथ 24 शिष्य थे संयोगवश वे किसी को पट्टधर न HT सके । श्रीसंघ ने "सुमतिधीर" को ही इस पद के योग्य समझकर बेगडगच्छ के आचार्य श्री पूज्य गुणप्रभसूरिजी के हाथों भावों सुदी नवमी सम्बत 1612 ( सन् 1555) को आचार्य पदवी प्रदान कराई। आचार्य पद प्राप्त करने के बाद " सुमतिधीर" जिनचन्द्रसूरि के पद से प्रसिद्ध हुए । I अब सूरिजी ने निरन्तर सर्वत्र बिहार कर जीवों को प्रतिबोध देना प्रारम्भ किया | सम्वत 1624 (सन् 1567) नाडलाई के चतुर्मास की घटना विशेष उल्लेखनीय है कि मुगल सेनानाडलोई के बहुत ही निकट आ गई थी लूटपाट और मारकाट के भय से व्याकुल होकर जनता इधर-उधर भागने लगी । श्रीसंघ ने सूरि महाराज से भी बच निकलने के लिए कहा। सारा नगर खाली हो गया । किन्तु सूरिजी उपाश्रय में ही ध्यान लगाकर बैठे रहे उनके ध्यान बल से मुगल सेना मार्ग भूलकर अन्यत्र चली गई । सब लोग प्रसन्नता पूर्वक अपने-अपने घर आए और सूरिजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनकी प्रशंसा करने लगे । इस तरह सूरिजी ने हजारों श्रावकों पर अपने व्यक्तित्व का प्रभाव डाला । जैन दर्शन का सद्द्बोध देकर धर्म में दृढ़ किया । अनेक स्थानों में जिनालय व fafaम्बों की प्रतिष्ठायें, उपधान, व्रत, ग्रहण आदि धार्मिक कृत्य करवाये । परपक्षियों के आक्षेपों का उत्तर देने में और विद्याभिमामी पंडितों को निरुत्तर करने में सूरिजी की प्रतिभा बहुत बढ़ी चढ़ी थी । इस तरह सूरिजी की कीर्ति सर्वत्र फैलते फैलते सम्राट अकबर के वैरबार तक भी जा पहुंची। सम्राट की इच्छा सूरिजी के दर्शनों की हुई इसलिए उसमें सूरिजी को अपने दरबार में आमन्त्रित किया । अकबर और जहांगीर के दरबार में इन्होंने अच्छी ख्याति पाई । (बादशाहों के दरबार में जाकर सूरिजी ने जो सत्कार्य किये उनका वर्णन आगे यथास्थान किया जायेगा । 66 वर्षो के परिश्रम से जैन शासन का सुदृढ़ प्रचार करके आश्विन वदी दूँज सम्वत् 1670 ( सन् 1613) को सूरिजी का स्वर्गवास हो गया । 3. आचार्य श्रीजिनसिंह सूरि खेतासर ग्राम में माघ सुदी पूनम सम्वत् 1615 (सन् 1558) को माता चाम्पल (चतुरंग देवी) और पिता शाहचापसी के गोत्रीय परिवार में इनका जन्म हुआ। माता पिता ने मानसिंह नाम दिया । सम्वत् 1623 ( सन् 1566) में आचार्य जिनचन्द्रसूरि के उपदेशों से प्रभावित होकर 8 वर्ष की उम्र में हीं उनके Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 13 ) पास दीक्षा ग्रहण कर "महिमराज" नाम पाया । निर्मल वरि होने के कारण सूरिजी ने इन्हें जैसलमेर में माघ शुक्ला पंचमी सम्वत् 1640 (सन् 1583) को वाचक पद से अलंकृत किया। जिनचन्द्रसूरि ने अकबर के "दरबार में जाने से पहले महिमराज जी को भेजा था । सम्वत् 1649 (सन् 1592 ) को लाहौर में इन्हें आचार्य पद देकर "जिनसिंहसूरि" नाम रखा गया। इस अवसर पर अकबर के कर्मचन्द्र ने करोड़ों रुपया व्यय कर उत्सव मनाया। अनेकों शिलालेखों और ग्रन्थ प्रशस्तियों में इनका नाम मिलता है । मन्त्रि सम्वत् 1670 ( सन् 1613) को बेनातट चातुर्मास में गुरू ने इन्हें गच्छनायक पद प्रदान किया। गांव-गांव में विचरण करते व जीवों को भी उपदेश देते हुए पौष सुदी तेरस सम्वत् 1674 (सन् 1617) को मेडता में सूरिजी का स्वर्गवास हो गया । 4. आचार्य श्री जिनराजसूरि छत्रयोग, श्रवण नक्षत्र में वैशाख सुदी सप्तमी सम्वत् 1647 ( सन् 1590) को बोहित्थरा गोत्रीय परिवार में इनका जन्म हुआ । माता धारलदेवी और पिता शाह धर्मसी ने इनका नाम खेतसी रखा । मार्गशीर्ष शुक्ला तेरस सम्वत् 1656 (सन् 1599 ) को आचार्य जिनसिंहसूर के पास दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा का नाम "राजसिंह" रखा । आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने बड़ी दीक्षा देकर "राजसमुद्र” नाम रखा उन्होंने ही सम्वत् 1668 (सन् 1611) में आसाउल में उपाध्याय पद दया। मेडता में आचार्य जिनसिंह सूरि का स्वर्गवास हो जाने के कारण फागुन सप्तमी सम्वत् 1674 (सन् 1617 ) में इन्हें आचार्य पद देकर गच्छ का लायक बनाया गया इन्होंने अनेक मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाई। मार्गशीर्ष वदी र सम्वत् 1686 (सन् 1629 ) को सूरिजी आगरा में सम्राट शाहजहां से कमले । ये न्याय, सिद्धान्त, और साहित्य के बड़े भारी विद्वान थे । पाटण में षाढ़ शुक्ला नवमी सम्वत् 1699 ( सम्वत् 1642 ) को इनका स्वर्गवास हो या | (स) तत्कालीन हिन्दू समाज की स्थिति संसार परिवर्तनशील है । क्षण-क्षण में परिवर्तन प्रकृति का नियम है । ई वस्तु ऐसी नहीं जो हर परिस्थिति में विद्यमान रहे। जिस सूर्य को हम ही अपनी प्रखर प्रतापी किरणें फैलाते हुए उदयाचल के सिंहासन पर आरूढ़ देखते हैं, वही सन्ध्या के समय निस्तेज हो, क्रोध से लाल बन अस्ताचल की गुफा में छिपता हुआ दृष्टिगोचर होता है । संसार की परिवर्तनशीलता उदय अस्त और अस्त के बाद उदय, सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख तरह से यह संसार अनादि काल से चला आ रहा है । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 14 ) इसी तरह यदि हम भारत के प्राचीन इतिहास पर दृष्टि डालें, तो पता चलता है कि हमारा प्राचीन इतिहास कितना गौरवमय और उज्जवल है धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक सभी क्षेत्रों में इस देश का अतीत गौरव सर्वोपरि है। भारत का सामाजिक उत्कर्षण किसी भी प्रकार न्यून नहीं था सामाजिक संगठन बहुत ही सुव्यवस्थित बा । आचार-विचारों की पवित्रता आ!ि भारत की सामाजिक उन्नति का उज्जवल अतीत गौरव इतिहास के पष्ठों स्वर्णाक्षरों में अंकित है। किसी के सब दिन एक जैसे नहीं होते । भारत भी इसका शिकार हुआ कालचक्र के प्रबल झकोरों में पारस्परिक फूट आदि दुर्गुण पैदाकर इस देश के उन्नति को दिनों-दिन हीनयान करना प्रारम्भ किया और क्रमशः देश की शरि इतनी क्षीण हो गई कि पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के पश्चात् भारत की जनत निरन्तर विदेशी आक्रमणकारियों से त्रस्त होती रही । इस तरह की अनेक विपत्तियां झेलते हुए भारत ने सोलहवीं शताब्दी पदार्पण किया। अब हम देखेंगे कि इस समय हिन्दुओं की दशा कैसी थी? मुसलमान बादशाहों ने अपनी कठोर राजनीति और असहिष्णु वृत्ति भारतवासी लोगों को असह्य यन्त्रणायें देना प्रारम्भ कर ही दिया था। इस्ल धर्म की एक मात्र वृद्धि के अभिलाषी, अत्याचारी, मलेच्छों ने इस अन्याय प्रव को चरम सीमा तक पहुंचा दिया । भिन्न-भिन्न प्रान्तों के सूबेदार अपनी-अ। प्रजा को बहुत सताते थे। इस्लाम धर्म अस्वीकार करने वाले आर्यों पर न प्रकार के कर लगा दिये थे, जिनमें तीर्थ-यात्री कर और वार्षिक "जजिया" को बरबाद करने के लिए पंग-पग पर अपना भयंकर रूप धारण किये हुए थे । सामान्य अपराधियों के भी हाथ पैर काट डालने की, प्राण ले लेने की । इसी प्रकार की क्रूर सजायें दी जाती थी। जजिया भी कोई असाधारण का था नहीं। आठवी शताब्दी में मुसलमान बादशाह कासिम ने भारतीय प्रजा यह कर लगाया था पहले तो उसने आर्य प्रजा को इस्लाम स्वीकार करने विवश किया आयं प्रजा ने अटूट धन दौलत देकर अपने आर्य धर्म की रक्षा फिर हर साल ही वह प्रजा से रुपया वसूल करने लगा। प्रतिवर्ष जो धन । होता था वह जजिया था। फरिश्ता ने तो इस कर को "मृत्यु तुल्य दण्ड" की दी थी । ऐसा दण्ड लेकर भी आर्य प्रजा ने अपने धर्म की रक्षा की थी। यही सोलहवीं शताब्दी में भी मौजूद था। इस कर को न देने वाली आर्य प्रजा के प्राप ले लिए जाते थे । यद्यपि ऐसा नहीं था कि कर की रकम बहुत ज्यादा थी, यह कर केवल हिन्दुओं पर लगता था इसलिये उन्हें अपनी स्थिति मुसलमान Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 15 ) होने लगती थी। ऐसे संकटमय समय में अपने पूर्वजों के गौरव की रक्षा करना दूर रहा बहिक जीवन निर्वाह करना भी आर्य प्रजा के लिए दुष्वार हो गया था । अपने-अपने धन, कुटुम्ब और धर्म की रक्षा में ही जब वे समर्थ न हो सके तब पारस्परिक प्रेम, संगठन शिक्षा आदि बातों का हास होना स्वाभाविक है । बाल-विवाह, पर्दे की प्रथा आदि कतिपय घातक कुरीतियाँ भी इसी समय में प्रचलित हुई । करता था -- इस संकटावस्था में वास्तविक धार्मिकता मुरझा गई थी। इन कष्टों को सहन करते समय आध्यात्मिक तत्व चिन्तन का उन्हें समय ही नहीं मिलता था । इस समय तो सारा हिन्दू समाज एक स्वर से अपने-अपने इष्ट देवों से यही बिनय - "प्रभो इन दुख के दिनों को दूर करो। इस भयंकर अत्याचार को भारत से उठा लो हमारे आर्यत्व की रक्षा करो देश में शान्ति का राज्य स्थापन करो हम अन्तःकरणपूर्वक चाहते हैं कि वीर प्रसू भारत माता की कूख से, फिर से तत्काल ही एक ऐसा महानवीर पुरुष उत्पन्न हो जो देश में शीघ्रता से शान्ति का राज्य स्थापन करे और हमारे ऊपर होने वाले इस जुल्म को जड़ से खोद 1 भारत माता ! क्या तू ऐसा समय न लायेगी, कि जिसमें हम अपने दख के आंसू पोंछ डालें। और फिर जैसा कि प्रकृति का नियम है कि अवनति के पश्चात् उन्नति का होना इसी अटल नियम के अनुसार समय-समय पर विकृत परिस्थितियों को सुधारने के लिए महापुरुषों का जन्म हुआ करता है जैसे देशहित का आधार देश का राजा होता है वैसे ही सत्चरित्र विद्वान महात्मा भी हैं। विद्वान साधु महात्मा जैसे प्रजा हित के लिए उसको अनीति से दूर रखकर सन्मार्ग पर 'चलाने के प्रयत्न करते हैं। वैसे ही राजाओं को भी निर्भीकता पूर्वक उनके धर्म समझाते हैं । घनिष्ठ सम्बन्धियों और खुशामदियों का जितना प्रभाव राजा पर नहीं होता, उतना प्रभाष शुद्ध चरित्र वाले मुनियों के एक शब्द का होता है 1 इतिहास देखने पर हमें इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि राजाओं को प्रतिबोध देने में जो सफल हुए वे धर्म गुरू ही थे जैसे सम्प्रति राजा को प्रतिबोध करने का सम्मान आर्य सुहरित ने आमराजा को प्रतिबोध करने का सम्मान, बप्पभट्टी ने कुमारपाल को प्रतिबोध करने का सम्मान हेमचन्द्राचार्य ने प्राप्त किया । इसी तरह जिस युग की हम बात कर रहे हैं उस युग में भी हिन्दूओं की सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए एक सुयोग्य सम्राट के साथ-साथ महात्मा पुरुषों के अवतार की भी आवश्यकता थी । 1 शास्त्रों में कहा है कि जगत में जब-जब धर्म की कोई विशेष हानि होने Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 16 ) लगती है तब-तब उसकी परीक्षा करने के लिए अवश्य ही किसी महाज्योति युग प्रधान का अवतार होता है ।। सोलहवी शताब्दी में तत्कालीन सामाजिक स्थिति को सुधारने के लिए जैन सन्तों ने जो सहयोग दिया, इस विवेचन को आगे के लिए छोड़कर पहले हम यह देखेंगे कि प्राचीन जनाचार्यों का सामाजिक योगदान क्या रहा? (द) जैनाचार्यो का सामाजिक योगदान यदि इतिहास के पृष्ठ पलटकर देखें तो पता चलता है कि समय-समय पर विभिन्न जैनाचार्य राजाओं के पास आये और राजाओं ने भी गुरुओं के समान उन्हें सम्मान दिया । राजाओं को प्रतिबन्ध देकर तत्कालीन सामाजिक दोषों को दूर करवाने में जैनाचार्यों का विशेष योगदान रहा। देश में जीव-हिंसा, त्याग, दया, दान, सत्य और साधुता का प्रचार करने में जैन साधुओं का शलाघनीय योगदान रहा। राजपूत काल राजपूत काल का इतिहास देखने पर पता चलता है कि जैन धर्म कितना प्राचीन है । चावड वंश के संस्थापक वनराज का पालन-पोषण एक जैन सूरी ने किया था : इससे भी जैन धर्म के प्रचलन की प्राचीन स्थिति विदित होती है। गुजरात और भारत के इतिहास में सम्राट चौलुक्य कुमारपाल का चरित्र अद्वितीय है जिसे जैन हेमचन्द्राचार्य ने अपनी रचना "महावीर चरित्र" में "चालुक्य वंश" का चन्द्रमा कहा है । कुमारपाल के समय गुजरात का समाज पशु-वध, मासांहार, मद्यपान, वैश्यागमन तथा लूटपाट के बुरे परिणामों से अभिप्राप्त हो गया था। इस समय राज्य का एक अत्यन्त ही निन्दाजनक नियम था । कि राज्य के अधिकारी विना उत्तराधिकारी के मत व्यक्ति के घर की जब सभी सम्पत्ति और वस्तुओं पर अधिकार कर लेते थे तभी सब को अन्तिम संस्कार के लिए जाने देते थे। इस तरह की अनेक बुराइयों से उस समय गुजरात समाज अभिशप्त था। कुमारपाल प्रतिबोध से पता चलता है कि अपने मन्त्री के परामर्शानुसार कुमारपाल हेमचन्द्र से उपदेश ग्रहण करने लगे थे। - पहले हेमचन्द्र ने पशु वध, मांसाहार, मद्यपान, वैश्यागमन तथा लूटपाट की बुराइयों को दिखाने वाली कथाओं द्वारा कुमारपाल को उपदेश दिया उन्होंने 1. यदा यदा हि धर्मस्य ग्लाविर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधमस्य तदात्मानं सूजाभ्यहम् । 2. "इय सम्यं धम्म-सरूप-साहगो साहियो अमच्चेणं । तो हेमचन्द्र सूरि कुमर नरिंदो न मई निचं।" कुमारपाल प्रतिबोध-सोमप्रभाचार्य-पृष्ठ ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपाल को राजाज्ञा, निकालकर राज्य में इनका निषेध करने की प्रेरणा दी। जयसिंह रचित कुमारपाल चरित के पांच से लेकर दस सर्गो में उन परिस्थितियों का वर्णन किया गया है, जिनके कारण कुमारपाल जैन धर्म में दीक्षित और जैन धर्म के प्रसार-प्रचार में प्रवृत्त हो गया। आचार्य हेमचन्द्र के कहने पर उसने सर्वप्रथम अपने राज्य में मांस तथा मदिरा का त्याग किया वैसे तो प्रबन्धगत प्रमाणों से प्रतीत होता हैं कि कुमारपाल जैन धर्मानुयायी होने से पहले मांसाहार तो करता था, लेकिन मद्यपान की तरफ से उसे हमेशा घृणा रही है । अमेरिका जैसे भौतिक संस्कृति के उपासक राष्ट्र ने भी इस बीसवीं सदी में इस उन्मादक मद्यपान को रोकने के लिए राजज्ञा का उपयोग किया है। कुमारपाल ने हेमचन्द्र से श्राद्ध धर्म स्वीकार कर राज्य में पशु-हत्या पर प्रतिबन्ध लगाया था रत्नापुरी नगर के शिलालेख से पता चलता है कि विशेष तिथियों में पशु-वध निषेध की आज्ञा थी। यह आज्ञा केवल कागजों तक ही सीमित न थी वरन् इसका इतनी कठोरता से पालन होता था कि “सपादलक्ष के एक व्यापारी ने राक्षस के समान रक्त चूसने वाले एक कीड़े की हत्या कर दी तो उसे पकड़ लिया गया और यूक बिहार के शिलांयास के लिए समस्त सम्पत्ति त्याग देने के लिए बाध्य होना पड़ा। इस तरह राज्य परिवार का व्यक्ति आर्थिक दण्ड देकर तथा साधारण व्यक्ति प्राण दण्ड के लिए प्रस्तुत होकर ही निषेधाज्ञा के दिन किसी पशु की हत्या कर सकता था नवरात्रि में बकरियों का वध रोक दिया गया । और पशु-हिंसा रोकने के लिए अपने मंत्रियों को काशी भेजा। हेमचन्द्राचार्य ने अपने "महावीर चरित्र" नामक पुराण ग्रन्थ में भगवान महावीर के मुख से भविष्य कथन रूप में ये शब्द कहे हैं- "भविष्य में कुमारपाल राजा होने वाला हैं, उसकी आज्ञा से सब मनुष्य मृगया का त्याग करेंगे जिस मृगया का पांडु के सदृश्य मिष्ठ राजा भी त्याग न कर सके और न करवा सके । हिंसा का निषेध करने बाले इस राजा के समय में शिकार की बात तो दूर रही खटमल और जू जैसे जीवों को अन्त्यज जन भी दुख नहीं पहुंचा सकेंगे । इस प्रकार मृगया के विषय में निषेधाज्ञा होने पर मृग आदि पशु निर्भय होकर बाड़े में गायों की तरह चरने लगेंगे । इस प्रकार जलचर प्राणियों, पशुओं और पक्षियों के लिए वह सदा अमारि रखेगा और उसकी ऐसी आज्ञा से आजन्म मांसाहारी भी दुस्वप्न की तरह मांस को भूल जायेंगे। 1. जयसिंह रचित कुमारपाल चरित पृष्ठ 588 2. कुमारपाल चरित्र संग्रह-जिनविजयमुनि पृष्ठ 29 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 18 ) इस तरह कुमारपाल की अहिंसक नीति का ही यह परिणाम है कि वर्तमान में सबसे अहिंसक प्रजा गुजरात में ही हैं । जैन धर्म की शिक्षा का राजा पर जो सबसे बड़ा प्रभाव दिखाई देता है वह यह कि उसने निःसंतान मरने वालों की सम्पत्ति पर अधिकार करने का राजनियम वापिस ले लिया कीति कौमुदी में इसका वर्णन मिलता है। कुमारपाल चरित्र संग्रह में भी इसका वर्णन मिलता है कि प्रजा के इस दुख को राजा सहन न कर सके और उन्होंने अपने अधिकारियों से कहा-"निष्पुत्र मनुष्य की मृत्यु के बाद उसकी सम्पत्ति राज्य ले लेता है, यह अत्यन्त दारूण नियम हैं, इससे प्रजा बहुत पीड़ित होती है । इसलिए यह नियम बन्द करो, चाहे भले ही मेरे राज्य की उपज में लाख दो लाख तो क्या किन्तु करोड़ दो करोड़ का ही घाटा क्यों न आ जाये । अधिकारियों ने आज्ञा को मस्तक पर चढ़ाया और उसी क्षण सारे राज्य में इस कायदे की क्रूरता दाब दी गई जिससे प्रजा के हर्ष का पार नहीं रहा। इस तरह राजकोष में प्रतिवर्ष आने वाले करोड़ों रुपयों की परवाह न करके कुमारपाल ने इस प्रथा का निषेध कर दिया। - इस तरह दयूत की बुराईयों के बारे में कुमारपाल ने हेमचन्द्राचार्य से कई कथायें सुनी थीं स्वयं भी इसके कुपरिणाम देखे थे, अतः दयुत के दुष्परिणामों से प्रजा को बचाने के लिए दयूत निषेध की राजाज्ञा निकाली। इस तरह हेमचन्द्राचार्य के प्रतिबोध द्वारा कुमारपाल पर जो प्रभाव पड़ा उसके सार रूप में हम कह सकते हैं कि कुमारपाल की अमारि घोषणा द्वारा यज्ञों में भी पशु बलि देना बन्द हो गया। लोगों की जीव जाति पर दया बढ़ी। मांस भोजन इतना निषिद्ध हो गया कि सारे हिन्दुस्तान में एक या दुसरे प्रकार से थोड़ा बहुत भी मांस हिन्दू कहलाने वाले उपयोग लाते किन्तु गुजरात में उसकी गन्ध भी लग जाये तो उसी समय स्नान करते । ऐसी वृत्ति उस समय से लोगों की बनी हुई आज तक चली आ रही है। प्राय. गुजरात का सम्पूर्ण उच्च और शिष्ट समाज निरामिष भोजी है । गुजरात का प्रधान किसान वर्ग भी मांस त्यागी है। कुमारपाल के काल में गुजरात श्रवेताम्बर जैन धर्म का सबसे बड़ा केन्द्र था । श्रीलक्ष्मी - - 1. "सुकृतकृतर्यस्य मृत वित्तनिमुन्यतः । देवस्येव नदेवस्य युक्ताभूद मृतार्थिता।" कीर्ति कौमुदी समें 2 श्लोक 43 2. कुमारपाल चरित्रसंग्रह-जिनविजय मुनि पृष्ठ 17 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HAMARE YouTHAN MEEMBEERIA HEPUNE आचार्य हेमचन्द्र सूरि महाराजा कुमारपाल Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 19 ) शंकर व्यास लिखते हैं-"महर्षि हेमचन्द्र के काल में गुजरात में जैन धर्म की स्थिति अत्यधिक सुदृढ़ ही न हुई अपितु कुछ समय के लिए यह राजधर्म भी बन गया। सल्तनत युग यदि हम सल्तनतकालीन इतिहास पर एक दृष्टि डालें, तो पता चलता है कि तत्कालीन सुल्तानों पर भी जैनाचार्यों ने प्रभाव डाला इन सुल्तानों में मुहम्मद तुगलक, फिरोज तुगलक और अलाउद्दीन खिलजी के नाम प्रमुख हैं, और आचार्यों में जिनप्रभ सूरि, जिनदेवजिसूरि और रत्नेश्वर आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं जिस तरह ईसा की 16 वीं शताब्दी में मुगल सम्राट अकबर के दरबार में जैन जगदगुरु हीरविजयसूरि ने शाही सम्मान प्राप्त किया था उसी तरह जिनविजयसूरि ने भी 14 वीं शताब्दी में तुगलक सुल्तान मुहम्मदशाह के दरबार में बड़ा गौरव प्राप्त किया था। भारत के मुसलमान बादशाहों के दरबार में जैन धर्म का महत्व बतलाने वाले और उसका महत्व बढ़ाने वाले शायद पहले ये ही आचार्य हुए। कहा जाता हैं कि सन् 1329 में बादशाह मुहम्मद तुगलक ने अपनी सभा में पूछा कि वर्तमान समय में विशिष्ट पंडित कौन है ? जोषी धराधर द्वारा जिनप्रभसूरि का नाम बताये जाने पर बादशाह ने उन्हें सम्मानपूर्वक आमन्त्रित किया । सूरिजी के आने पर बादशाह ने उनसे एकान्त में धार्मिक चर्चायें की। बादशाह सूरिजी के तत्व ज्ञान से बहुत प्रभावित हुआ और पूछा कि मेरे लिए कोई सेवा हो तो बतायें उस समय जैन तीर्थों की जो दुर्दशा हो रही थी सूरिजी ने उनकी रक्षा के लिए कहा बादशाह ने उसी समय शत्रुन्जय, गिरनार, फ्लौधी आदि तीर्थ रक्षा का फरमान लिख दिया । तुगलकाबाद में राजमहल के आगे भगवान महावीर की प्रतिमा उल्टी रखी हुई थी, सूरिजी के मांगने पर बादशाह ने सभासदों के सामने सूरिजी को प्रतिमा सौंप दी तथा सूरिजी ने उसे श्रावकों को समर्पित कर दिया। सूरिजी ने विभिन्न तीर्थो का उद्धार कर जैन शासन की प्रभावना की। मथुरा को मुक्त कराया । ब्राह्मणों, गरीबों को दान देकर सन्तुष्ट किया* : बादशाह के दरबार में सूरिजी का विशेष प्रभाव देखकर कुछ पंडितों को सूरिजी से ईर्ष्या होने लगी एक किंवन्दन्ती है कि राधव नामक एक पंडित ने सूरिजी 1. चौलुक्य कुमारपाल-श्रीलक्ष्मीशंकर व्यास पृष्ठ 216 2. विविध तीर्थकला-जिनप्रभसूरि पृष्ठ 46 3. खरतरगच्छ बृहद गुर्वावलि-श्रीजिनविजयजी पृष्ठ 96 4. खरतरगच्छ बृहद गुर्वावलि-श्रीजिनविजयजी पृष्ठ 95 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । 20 ) को नीचा दिखाने के लिए अपने मन्त्रबल द्वारा बादशाह की ऊंगली से अंगूठी निकालकर सूरिजी के ओघे (रजोहरण) में रख दी । सूरिजी ने अपने मन्त्रबल द्वारा उसे पंडित की पगड़ी में रख दी । जब बादशाह ने अपनी अंगूठी के बारे में पूछा तो पंडित ने कहा कि सूरिजी के ओधे (रजोहरण) में है । सूरिजी ने कहा कि अंगूठी ओधे में न होकर पंडित की पगड़ी में हैं बादशाह के कहने पर जब पंडित ने पगड़ी उतारी तो उसमें अंगूठी निकली। इस घटना का विवरण खरतरगच्छ बृहमी गुर्वावलि' और जिनप्रभसूरि अने सुल्तान मुहम्मद में भी मिलता है इस तरह से अपने व्यक्तित्व द्वारा बादशाह के दरबार में सूरिजी ने अपने चमत्कारों द्वारा बादशाह को प्रभावित किया। श्री जिमपाल उपाध्याय ने बादशाह व सूरिजी के बारे में कहा है कि "विजयतां जिन सासनमज्जलं, विजयतां भवधिपल्लभा विययतां भुवि साहि महम्मदो, विजयंतां, गुरूसू रजिनप्रभ' जिनप्रभसूरिजी के अलावा जिनप्रभ. सूरि अने सुल्तान महम्मद नामक पुस्तक में कई अन्य जैनाचार्यों के नाम मिलते हैं-जिनमें गुणभद्रसूरि, मुनिभद्रसूरि, महेन्द्रसूरि, रत्नेश्वर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं इन्होंने भी अपने-अपने व्यक्तित्व द्वारा तत्कालीन बादशाहों पर प्रभाव डाला। इस तरह हम कह सकते हैं, कि जैनाचार्यों ने केवल मंगलकाल में ही नहीं अपितु प्राचीनकाल से ही तत्कालीन बादशाहों को प्रतिबोधित कर उस समय में समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर कराने में सहयोग दिया। 1. वही पृष्ठ 95 2. जिनप्रभसूरि अने सुल्तान महम्मद पृष्ठ 141, 142 3. खरतरगच्छ बृहद गुर्वावलि पृष्ठं 96 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय अकबर की धार्मिक नीति (अ) धार्मिक नीति को प्रभावित करने वाले तत्व __ 15 अक्टूबर, रविवार सन् 1542 को जिस समय हमीदा बेगम ने अमरकोट के हिन्दू राजा राणाप्रसाद के घर अकबर को जन्म दिया, उस समय अकबर के पिता हुमायू अमरकोट से 20 मील दूर एक तालाब के किनारे डेरा डालकर इहरा हुआ था । जब तारदीबेगखां ने पुत्र जन्म की बधाई दी तो पुत्र प्राप्ति के आनन्ददायक अवसर पर भी हुमायू के मुख पर उदासीनता झलकने लगी । जौहर नामक अंगरक्षक ने इसका कारण पूछा ? हुमायूने तुरन्त चेहरे पर प्रसनता लाते हुए एक मिट्टी के बर्तन में कस्तूरी का चूरा किया और सबको बांटते हुए कहा "मुझे खेद है कि इस समय मेरे पास कुछ भी नहीं है इसलिए मैं पुत्र जन्म की खुशी के प्रसंग में आप लोगों को इस कस्तूरी की खुशबू के सिवाय कुछ भी भेंट नहीं कर सकता हूं। मुझे उम्मीद है कि जिस तरह कस्तूरी की सुगन्ध से पह मण्डल सुवासित हो रहा है वैसे ही मेरे पुत्र की यश रूपी सुगन्ध से यह पृथ्वी सुवासित होगी।" जिस समय हुमायू की मृत्यु हुई, अकबर गद्दी पर बैठा, उसकी उम्र सिर्फ तेरह वर्ष की थी । तेरह वर्ष की उम्र क्या होती है ? लेकिन ईश्वर की महिमा देखो कि उसने साम्राज्य की नींव इतनी पक्की की कि पीढ़ियों तक भी वह में हिली यद्यपि वह लिखना-पढ़ना नहीं जानता था, लेकिन अपनी कीति के लेख ऐसी कलम से लिख गया कि कोलचक्र उन्हें घिस-घिस कर मिटाता है लेकिन जितना उनको घिसो उत्तना ही वे चमकते जाते है हो सकता है यदि उसके इत्तराधिकारी भी उसी मार्ग का अनुसरण करते तो आज भारत का इतिहास कुछ पौर ही होता। यद्यपि अकबर तेरह वर्ष की उम्र में हो गद्दी पर बैठ गया था, लेकिन अठारह वर्ष की उम्र तक तो शासन बरामखां के ही हाथों में रहा इसके बाद इसने राज्य की बागडोर अपने हाथों में ले ली । जब अकबर बीस वर्ष का हुआ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 22 ) यान 1562 में, तो प्रजा की असली हालत जानने के लिए उसने फकीरों और साधू सन्तों का सहवास शुरू किया। यह ठीक भी है क्योंकि साधू सन्तों या कहें कि निष्पक्ष त्यागी, फकीरों के जरिये प्रजा की असली हालत ज्यादा अच्छी तरह मालूम हो सकती है । साधुओं से मिलने में अकबर को एक और फायदा या कि वह अपनी आत्मा की उन्नति के साधनों का भी अन्वेषण करने लगा। बस वहीं से उनकी उदार नीति की शुरूआत होती है । चौदहवीं और पन्द्रहवीं शताब्दी में जहां धर्म के नाम पर अनेक अमानुषिक अत्याचार हुए वहीं अकबर ने पूर्ववर्ती सुल्तानों की संकीर्ण कट्टर धार्मिक नीति का परित्याग करके सुलह-ए-कुल की नीति अपनाई अपूर्व धार्मिक सहिष्णुता स्थापित की। सभी धर्मावलम्बियों को समान माना तथा उनके साथ निष्पक्ष व्यवहार किया । उसकी धारणा थी कि इस्लाम के सिद्धान्त संकीर्ण, एकांगी और पाषाण के समान निर्जीव नहीं अपितु व्यापक, गतिशील और जाग्रत संस्था के रूप में है जो देशकाल और परिस्थितियों के अनुसार संशोधित और परिवर्तित किये जा सकते हैं । अकबर के इस व्यापक दृष्टिकोण से मुगल राजसत्ता का स्वरूप ही बदल गया । उसने धर्म, सम्प्रदाय, नस्ल या अन्य किसी आधार पर मनुष्यों में भेद-भाव करना मानवता और नैसर्गिक सत्य धर्म के विरुद्ध समझा । उसने विधिविधानों को जो या तो साम्प्रदायिक तथा अन्य असहिष्णुता पूर्ण भेद-भावों के आधार थे, अथवा हिन्दू मुस्लिम मतभेदों को समर्थन देते थे, स्थगित कर दिया और हिन्दुओं को भी शासन के उच्च पदों पर नियुक्त किया । जब टोडरमल की पदोन्नति हुई तब मुसलमान अमीरों और पदाधिकारियों ने ईर्ष्या-द्वेष से इस निर्णय का विरोध किया और अकबर से प्रार्थना की कि टोडरमल को उसके पद से पृथक कर दिया जाये इस पर अकबर ने रुष्ट होकर कहा कि "तुम में से प्रत्येक ने अपने निवास गृह में हिन्दुओं को नियुक्त कर रखा है तो फिर मैंने एक हिन्दू को रखने में क्या गल्ती की है ।" यद्यपि प्रारम्भ में तो अकबर इतना उदार और सहिष्णु इस्लाम में अत्यधिक आस्था थी किन्तु विभिन्न परिस्थितियों और उसकी धार्मिक नीति, विचार और दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ । परिस्थितिओं का वर्णन करेंगे जिन्होंने अकबर की धार्मिक नीति को प्रभावित किया है अब हम उन 1. अलबदायूनी - डब्ल्यू. एच. लों द्वारा अनुदित भाग 2 पृ.65 नहीं था, उसे घटनाओं से Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 23 ) 1. तत्कालीन अशांति के निवारण के लिए हिन्दओं के सहयोग की जरूरत __ जब अकबर का राज्यारोहण हुआ तब सारा देश विभिन्न स्वतन्त्र राज्यों में विभक्त था । काबुल का क्षेत्र उस के सौतेले भाई मिर्जा हाकिम के नेतृत्व में लगभग स्वतन्त्र हो चुका था। बदख्शों में अकबर का चचेरा भाई सुलेमान मिर्जा स्वतन्त्र शासक था। उम्र में बड़ा होने के कारण वह स्वयं को तैमूरी राज्य का दावेदार समझता था । कन्धार सामरिक दृष्टि के महत्व का होने के कारण फारस के राजा की दृष्टि उस पर लगी हुई थी। सुलेमान मिर्जा ने काबुल आकर हकीम मिर्जा से मिलकर अकबर के विरुद्ध षड़यंत्र किया । हकीम मिर्जा का जो संरक्षक था, मुनीम खां वह अकबर के संरक्षक और प्रधानमन्त्री बैरामखां से वैमनस्य रखता था अकबर का एक प्रमुख सरदार शाह अबुलमाली खुल्लम-खुल्ला उसका विरोध कर रहा था। अकबर का प्रसिद्ध और उच्च पदाधिकारी तारदीबेग भी अकबर के संरक्षक बैरामखां से शत्रता रखता था। इस प्रकार सभी अमीर और स्वयं अकबर के प्रतिद्वन्दी ही उससे विश्वासघात कर रहे थे। जिस समय अकबर गद्दी पर बैठा उस समय उसकी आयु केवल तेरह वर्ष की थी इतनी छोटी अवस्था में उसके लिए सम्पूर्ण शासन भार को सम्भाल सकना असम्भव था । इसलिए उसे स्वामिभक्त संरक्षक की जरूरत थी। संरक्षक पद के चार दावेदार थे-~-मुनीम खां, शाह अबुलमाली, बैरामखां और तारदीबेग । इन चारों में से जब बरामखां को अकबर का संरक्षक नियुक्त कर दिया तो अन्य तीनों बैरामखों से कटुता और वैमनस्य रखने लगे । अकबर के तीन अफगान प्रतिद्वन्दी थे-सिकन्दर सूर, मुहम्मद आदिल और इब्राहीम सूर । ये तीनों दिल्ली सिंहासन के आकांक्षी थे। एक बात और भी थी कि भारत में अभी तक मुगलों को विदेशी समझकर हीनता तथा घृणा से देखा जाता था । अकबर के पूर्वज तैमूर की लूटमार, विध्वंसकारी कार्य और नशंस हत्याओं के कारण भारतीयों के दिलों में मुगलों के प्रति स्वाभाविक घृणा पैदा हो गई थी। बाबर और हुमायू ने भी कोई ऐसे लोकोपयोगी कार्य नहीं किये जिससे जनता का सौहाम्र उन्हें मिलता। गोड़वाना स्वतन्त्र राज्य था। गुजरात में मुसलमान सुल्तान मुजफ्फरशाह राज्य कर रहा था और मालवा में शुजात्त खां का उत्तराधिकारी बाजबहादुर स्वतन्त्र शासक था। इस प्रकार सारा देश स्वतन्त्र राज्यों में विभाजित था "स्मिथ का कहना अब अकबर कलानौर में तख्त पर बैठा तो यह नहीं कहा जा सकता था कि के पास कोई राज्य था। बैरामखां के नेतृत्व में जो छोटी सी सेना थी, उसका Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 24 ) कुछ डगमगाता हुआ साअधिकार पंजाब के कुछ जिलों पर था और वह सेना भी ऐसी नहीं थी जिस पर पूरा विश्वास किया जा सके । अकबर को वास्तव में सम्राट बनने के लिए यह सिद्ध करना था कि वह दूसरे उम्मीदवारों की अपेक्षा अधिक योग्य है और उसको कम से कम अपने पिता का खोया हुआ राज्य तो पुनः प्राप्त करना ही था' | आगे देश की आर्थिक स्थिति के बारे में स्मिथ ने लिखा है कि "भारतीय संकट की सबसे दुखद स्थिति एक लम्बी सूची के अनुसार भारतीय अकालों की है यह संकट दो वर्षों तक अर्थात् 1555 और 1556 में मुख्य रूप से और दिल्ली क्षेत्रों में बना रहा जहां पर सेनायें जमा की गई, वे बरबादी करने में लगी रहीं कठिन चतुर्दिक खतरों से घिरा हुआ यह चित्र था अकबर के राज्यारोहण के समय का । ऐसे समय में अकबर का भारत में टिक सकना प्रतीत होता था । अतः ऐसी परिस्थितियों में यह आवश्यक था कि वह जातियों को अपने पक्ष में करने के लिए उनके प्रति समान व्यवहार, सहिष्णुता व उदारता की धार्मिक नीति अपनाये । सभी 2. साम्राज्य को मजबूत बनाने के लिए सभी जातियों का सहयोग आवश्यक --- अकबर इस बारीकी को अच्छी तरह समझ गया था कि भारत हिन्दुओं का घर है क्योंकि इतिहास ने यह तथ्य प्रमाणित कर दिया था कि सुल्तानों में वे ही लोग अधिक सफल हुए जिन्होंने यहाँ की सभी जातियों का सहयोग, समर्थन और सहायता प्राप्त करने का प्रयास किया इसके अलावा अकबर का स्वय का विचार था कि "मुझे इस देश में ईश्वर ने बादशाह बनाकर भेजा है । यदि केवल विजय प्राप्त करना हो तब तो यह होगा कि देश को तलवार के जोर से अपने अधीन कर लिया और देशवासियों को दबाकर उजाड़ डाला जाये, घर में रहने लगू तब यह सम्भव नहीं है कि सारे लाभ और सुख तो मैं और मेरे अमीर भोगें और इस देश के निवासी दुर्दशा सहें और फिर भी मैं आराम से रह सकु । देशवासियों को बिल्कुल नष्ट और नाम शेष कर देना और भी अधिक कठिन है । किन्तु जब मैं इसी अपने विचारों से अकबर इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि इस्लाम देश का राष्ट्रीय 1. अकबर द ग्रेट 2. वही पृ. 37 3. अकबरी दरबार -- हिन्दी अनुवाद रामचन्द्र वर्मा पहला भाग पु. स्मिथ मुगल पु. 31 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' 25 ' धर्म होने के अनुपयुक्त है क्योंकि मुस्लिम राज्य की बहुसंख्यक जनता हिन्दू है । उनका धर्म उत्कृष्ट है, अतः उसका विनाश नहीं किया जा सकता । इस प्रकार हिन्दुओं को शत्रु बनाकर न तो उनको नष्ट किया जा सकता था और न ही सुदृढ़ साम्राज्य का निर्माण सम्भव था । वह ऐसा साम्राज्य स्थापित करना चाहता था जो सभी जातियों के सहयोग तथा सहायता पर शासितों की सुभेच्छा व सद्भावना पर आश्रित हों, जिसमें किसी जाति धर्म ब रंग का भेद भाव न हो, जिसमें सभी जातियों को समान रूप से अधिकार प्राप्त हों तथा समान सुरक्षा, न्याय और स्वतन्त्रता प्राप्त हो । यही कारण था कि जब उसने देश का शासन अपने हाथ में लिया, तब ऐसा ढंग निकाला जिससे साधारण भारतवासी यह न समझे कि विजातीय तुर्क और विधर्मी मुसलमान कहीं से आकर हमारा शासक बन गया है इसलिए देश के लाभ और हित पर उसने किसी प्रकार का बन्धन नहीं लगाया। सभी जातियों के सहयोग से उसका साम्राज्य एक ऐसी नदी बन गया जिसका किनारा हर जगह से घाट था । इस प्रकार राजनैतिक कारणों से प्रेरित होकर अकबर ने तलवार की नोंक पर राज्य स्थापित करने और उसे चलाने तथा इस्लाम को राज्य धर्म बनाने की भावना त्याग दी तथा सभी जातियों के प्रति समान व्यवहार तथा धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई । 3. अकबर के पूर्वजों के उदार धार्मिक विचार - - यद्यपि अकबर भारत में एक विदेशी था जैसा कि स्मिथ ने भी लिखा है कि "अकबर भारत में एक विदेशी था उसकी नसों में एक बूंद खून भी भारतीय नहीं था । फिर भी वह धार्मिक मामलों में उदार था, इसका बहुत कुछ श्रेय उसके पूर्वजों की उदार धार्मिक विचारधारा को दिया जा सकता है उसके शरीर मैं तुर्क, मंगोल और ईरानी रक्त था । मातृ पक्ष की ओर अकबर चंगेज खां के वंश से सम्बन्धित था, यद्यपि चंगेज खाँ बौद्ध धर्म को मानता था, परन्तु उसे पनी प्रजा के विभिन्न धार्मिक कृत्यों में सम्मलित होने में संकोच नहीं होता था । गेज और उसके पूर्वज परिस्थितियों के अनुसार अपने आपको बदल लेते थे । पतृ पक्ष की ओर से अकबर तैमूर के पक्ष से सम्बन्धित था और तैमूर चंगेजखां का भी सम्बन्धित था । तैमूर भी कभी सुनी तो कभी शिया हो जाता करता था । कबर का पितामह बाबर स्वयं तैमूर वंश का था । बाबर की माता चंगेजवंश के गोल यासक युनस की पुत्री थी। बाबर धर्मनिष्ठ और ईश्वर में पक्की आस्था रखने वाला व्यक्ति था यद्यपि वह सुनी था अकबर का पिता हुमायूं कट्टर धर्मांध से 1. अकबर द ग्रेट मुगल-स्मिथ - पृष्ठ 9 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 26 ) नहीं था, उसने परिस्थितिवश फारस में शिया धर्म ग्रहण कर लिया था। हुमायूँ की पत्नी हमीदाबानू बेगम जो कि फारस के शिया शेख अली अकबर जामी की पुत्री थी, हुमायूँ के समान वह भी संकीर्ण विचारों वाली नहीं थी । इस तरह अकबर के पूर्वज राजनैतिक आवश्यकताओं के कारण और अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए धार्मिक मामलों में उदार हो जाते थे । अतः वंश परम्परा से अकबर में धार्मिक कट्टरता आने के लिए कोई स्थान नहीं रह गया था । 4. अकबर के संरक्षक तथा शिक्षकों का उदार दृष्टिकोण अकबर का संरक्षक और प्रधान परामर्शदाता बेरामखां विद्वता और काव्य के गुणों से विभूषित था । लेखकों और विद्वानों का वह आश्रयदाता था, शियामत को मानने वाला था । बदायूँनी ने उसके बारे में लिखा है कि "बुद्धिमत्ता, उदारता, निष्कपटता, स्वभाव की अच्छाई, अधीनता और नम्रता में वह सबसे आगे था । वह दरवेशों का मित्र था और स्वयं बहुत धार्मिक और नेक इरादों का मनुष्य था । अकबर पर अपने संरक्षक के उदार विचारों का बहुत प्रभाव पड़ा । रामख ने ही अकबर की शिक्षा के लिए सुयोग्य, उदार विचार वाले सुसंस्कृत विद्वान अब्दुल लतीफ को नियुक्त किया । अब्दुल लतीफ अपने धार्मिक मामलों में इतना उदार था कि अपनी जन्म भूमि फारस में लोग उसे सुनी कहते थे और उत्तरी भारत में अधिकांश सुन्नी उसे शिया कहते थे। इतना महान होते हुए भी यद्यपि वह अकबर को पढ़ाने में असमर्थ रहा किन्तु उसने अकबर को जो सुलहए-कुल का पाठ पढ़ाया उसे अकबर आजीवन नहीं भूला । सुलह-ए-कुल अर्थात् सर्वजनित शान्ति के पाठ से अकबर ने समझ लिया था कि यदि साम्राज्य में शांति बनाये रखनी है तो धार्मिक विचारों को उदार बनाना होगा, धार्मिक भेद-भावों को मिटाना होगा और हिन्दुओं को भी मुसलमानों के समान साम्राज्य के उच्च पदों पर नियुक्त करना होगा । 5. राजपूत कन्याओं से विवाह और अकबर पर उनका प्रभाव राजपूतों के प्रति अकबर का व्यवहार किसी अविचारशील भावना का परिनाम नहीं था और न ही राजपूतों की धीरता, वीरता, स्वदेश भक्ति और उदारता के प्रति सम्मान का ही परिणाम था यह व्यवहार तो एक सुनिर्धारित नीति का परिणाम था और यह नीति स्वलाभ, ग्यायनीति के सिद्धान्तों पर आधारित थी । आरम्भ में ही अकबर ने यह अनुभव कर लिया था कि उसके मुसलमान अनुयायी 1. अलबदायूनी अनुदित डब्ल्यू. एच. लॉ. भाग 2 पृष्ठ 265 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 27 ) तथा कर्मचारी जो विदेशी भाड़े के टट्ट होने के कारण अपनी स्वार्थ सिद्धि से ही मुख्यतः प्रेरित होते थे, उन पर पूरी तरह से भरोसा नहीं किया जा सकता। उसे यह बात स्पष्ट हो गयी थी कि यदि उसे भारत वर्ष में अपने राज्याधिकार को सुरक्षित करना है तो उसे यहीं के प्रमुख-प्रमख राजनैतिक तत्वों का सहयोग व समर्थन प्राप्त करना आवश्यक है । इस तरह अपनी दूरदर्शिता से अकबर ने उस तथ्य को हृदयंगम कर लिया था जिसे समझने में उसके पिता और पितामह ने भूल की थी। इस नीति का अनुसरण करते हुए अकबर ने राजपूत राजकन्याओं से विवाह किये । जनवरी 1562 में अकबर फतेहपुर सीकरी से अजमेर के ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की मजार की यात्रा के लिए गया यात्रा के बाद जब वह लौटा तो सांभर में रुका यहां अजमेर के राजा भारमल (बिहारमल) ने अपनी सबसे बड़ी पुत्री हरक बाई का विवाह अकबर से कर दिया"" भारमल की देखा-देखी बीकानेर जैसलमेर, मारवाड़ तथा डूंगरपुर के राजपूत राज्यों ने भी अकबर से विवाह सम्बन्ध करके अपनी-अपनी राजकन्याओं की डोलियां मुगल रनवास में में भेजी। अकबर ने इन राजपूत रानियों को हिन्दू धर्म त्याग कर इस्लाम ग्रहण करने के लिए बाध्य नहीं किया। उसने राजमहल में हिन्दू रानियों और उनकी सहचरियों को उनके हिन्दु धर्म के अनुसार पूजा पाठ करने, मनन चिन्तन करने और धार्मिक संस्कारों को मानने की पूरी स्वतन्त्रता दे रखी थी। अकबर की प्रमुख हिन्दू रानी, हर कूबाई के लिए मुगल हरम में तुलसी का पौधा लगाया गया था। इन रानियों के प्रभाव से अकबर सूर्य की उपासना करता था। और कभी-कभी तिलक भी लगाता था । इस प्रकार राजपूत कन्याओं से विवाह करने से एक ओर तो अकबर को साम्राज्य में हिन्दुओं का सहयोग मिला तथा दूसरी ओर इन राजकन्याओं ने अकबर के धार्मिक विचारों को प्रभावित किया। 6. अकबर का स्वयं उदार दृष्टिकोण तथा आध्यात्मिक अनुभव अकबर को अपने पूर्वजों से तो उदार विचार मिले ही थे, इसके अलावा नसका स्वयं का दृष्टिकोण भी उदार था उसके उदार विचारों के कुछ कथन आइने इकबरी के "द सेइंग ऑफ हिज़ मेजेस्टी" में इस प्रकार हैं "वह जिसका कोई स्वरूप नहीं है, जिसे सोते अथवा जागते देखा नहीं जा इकता, किन्तु कल्पना की शक्ति के द्वारा प्रत्यक्ष किया जा सकता है ईश्वर के 1. अकबर द ग्रेट स्मिथ-पृष्ठ 57 पर Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 ) साक्षात् दर्शन वास्तव में इस भावना द्वारा ही हो सकते हैं । बिन्दू अर्थात् सत्यता के वर्णन करने की कोई जरूरत नहीं है जैसे कि यह असम्भव है कि प्रकृति खाली होती है । ईश्वर तो सर्वव्यापी होता है ।" प्रत्येक व्यक्ति के साथ अच्छाई बरतना मेरा कर्तव्य है चाहे वे भगवान को माने या न मानें । यदि नहीं मानते हैं तो वे मूर्ख होते हैं और मेरी दया के पात्र होते हैं। "That which is without from cannot be seen whether is sleeping or waking, but it is apprehensible by force of imagination. To behold God in vision is, in fact to be understood in the sense." There is no need to discuss the point that a vacuum itt nature is impossible. God is omnipresent. It is my duty to be in good understandiñg with all men. If they walk in the way of God's will interference with them would be in itself reprehensible and otherwise, they are under the malady of ignorance and deserve my Compassion." अकबर के हृदय में यह भाव अंकुरित हो गया था कि सभी वर्गों के धर्मों के लोगों की निःस्वार्थ सेवा से बढ़कर ईश्वर को प्रसन्न करने का कोई अन्य मार्ग नहीं है । उसकी दृढ़ धारणा थी कि सच्चा धर्म वही हैं, जिसमें वर्ग, जाति, सम्प्रदाय और रंग रूप का भेद-भाव नहीं हो उसका विश्वास था कि ईमानदारी और सच्चाई से अपने धर्म के सिद्धान्तों पर चलने वाला व्यक्ति किसी भी धर्म का मानने वाला क्यों न हो मुक्ति प्राप्त करता है । इसलिए अपने सैनिक अभियानों और युद्धों के दौरान भी अन्य मुस्लिम आक्रमणकारियों के समान मन्दिरौं और मूर्तियों को तोड़ा फोड़ा नहीं यहाँ तक कि हारे हुए राजाओं के साथ भी उदारता का व्यवहार किया। ___ इस बीच अकबर को दो एक आत्यात्मिक अनुभव हुए जिन्होंने उसे और भी अधिक उदार बना दिया । "मार्च 1578 में एक रात्रि को लाहौर के पास आखेट यात्रा से ध्यान मग्न अवस्था में अपने पड़ाव की ओर भूमि पर गिरा। इसको ईश्वर सन्देश मानकर वह स्वयं भक्ति मैं साष्टांग पड़ गया।" इस महत्व पूर्ण आध्यात्मिक जागति से अकबर धर्म में सहिष्णु और असाम्प्रदायिक हो गया। 1. आइने अकबरी एच. एस. जैरेट द्वारा अनुदित भाम 3 पृष्ठ 425, 26,30, 31. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 29 ) अन्य स्थान पर भी अबुलफजल ने लिखा है कि एक देवी आनन्द अकबर शरीर में व्याप्त हो गया और परमात्मा के साक्षात्कार की अनुमति से किरण कुटी । अकबर का ईश्वर से प्रत्यक्ष सम्पर्क हो गया और उसे एक नवीन आध्यास्मक अनुभव हुआ। भक्ति आन्दोलन और सूफी विचार धाराओं का अकबर पर प्रभाव अकबर के विचारों और धार्मिक नीति पर तत्कालीन . भक्ति आन्दोलन, विभिल सन्तों, साधुओं, फकीरों और सूफियों का विचार धाराओं का प्रभाव पड़ा हिन्दू सन्तों, भक्तों, तथा साधुओं और सूफी फकीरों तथा शेखों ने धर्म के बाह्य आडम्बर को ध्यर्थ बताया उन्होंने धार्मिक प्रथाओं और कर्मकाण्ड का खण्डन किया। जीवन और चरिम की पवित्रता तथा ईश्वर की सत्ता पर बल दिया। अकबर की राज सभा में भी सूफी विद्वान थे। जब अकबर सूफी शेख मुबारक और उसके दो प्रभावशाली पुत्र फौजी और - अबुलफजल के सम्पर्क में आया तब कट्टरता और धर्मान्धता से उन्मुक्त संसार उसके सामने आया । वह अपने धार्मिक विचारों में तो उदार या ही साथ ही साथ अन्य धर्मों के धार्मिक विचारों, विश्वासों और रीति-रिवाजों के प्रति भी सहानुभूति रखता था। फैजी स्वतन्त्र विचारों वाला प्रतिभाशाली विद्वान था इसलिए मुगल दरबार में वह धर्मान्ध कट्टर मुल्लाओं का विरोधी था । अग्रुलफजल भी मध्य युग की धर्मान्धता संकीर्णता और साम्प्रदायिकता से ऊंचा उठा हुआ था। जब अकबर की उपस्थिति में इबादतखाने में भिन्न-भिन्न धर्मों की गोष्ठियां और चाद-विवाद होते थे तो अबुलफजल इनमें सक्रिय भाग लेता था। फैजी और अबुलफजल इस्लामी शास्त्रों अपने उद्दरणों और तुर्कों से धर्मान्ध मुल्लाओं के तथ्यों और कथनों को काट हते थे और बादशाह को पृथ्वी पर खुदा का मायष बताकर मुल्लाओं के हथिबारों को कुठित कर देते थे। सूफी सिद्धान्तों ने अकबर के मस्तिष्क को उदार विचारों से भर दिया वे अकबर को इस्लाम धर्म की संकीर्णता से दूर ले गये और उसको विवश कर दिया कि वह पवित्र वास्तविकता की खोज करें। अकबर को सत्यान्वेषण की प्रवृत्ति अकबर धर्मनिष्ठ और चिन्तनशील बादशाह था वह सत्य को खोजने और ने का इच्छुक था । बदायूनी ने लिखा है कि "अपनी पूर्व की सफलता पर यवाद की भावना से या नम्र भावना से यह कई प्रातः कालों तक अकेला ही थेना तथा मनन करता रहता है। प्राचीन इमारत के एक विशाल चौड़े थर पर, जो कि निर्जन स्थान के पास पड़ा हुआ था, उस पर वह अपने सीने Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 30 ) से नीचे तक सिर झुकाकर उषा काल के सुख को प्राप्त करने के लिए बैठा रहता था। अकबर ने धर्म के क्षेत्र में बहुरूपता का अनुभव किया और विभिन्न धर्मो में सत्य को पहचानने का प्रयत्न किया । जब कभी उसे समय मिलता वह वेष बदलकर योगियों, सन्तों व सन्यासियों के पास बैठकर सभी धर्मों के सत्य को जानने का प्रयास करता था। उसके हृदय में बार-बार यह सवाल उठा करता था कि जिस धर्म के पीछे लोगों में इतना आन्दोलन हो रहा है वह धर्म क्या चीज है ? और उसका वास्तविक तत्व क्या है ? वह जीवन और मृत्यु के गूढ़ रहस्यों को भी जानने का प्रयास करता था और जानना चाहता था कि ईश्वर और मनुष्य का क्या सम्बन्ध है और इस विषय के समस्त प्रश्न क्या-क्या हैं ? वह कहा करता था कि "दर्शनशास्त्री का मुझ पर जादू का सा असर होता है कि अन्य सब बातों को छोड़कर मैं इस विचार की ओर झुक जाता हूँ चाहे मुझे आवश्यक कामों की उपेक्षा करनी पड़े"" अकबर का विचारशील मन कभी भी यह स्वीकार करने को तैयार नहीं था कि केबल इस्लाम धर्म ही सच्चा धर्म है उसकी जिज्ञासु और सत्यान्वेषण की प्रवृत्ति, गहन आध्यात्मिक चिन्तन मनन तथा नवीन विचार धाराओं ने उसे इस निष्कर्ष पर ला दिया कि प्रेम, उदारता, दया व सहिष्णुता के सिद्धान्त ही सत्य धर्म के तत्व हैं। अबुल फजल ने भी लिखा है कि जीवन भर उसकी खोजबीन का यह परिणाम हुआ कि वह विश्वास करने लग था कि सभी धर्मों में समझदार लोग होते हैं और वे स्वतन्त्र विचारक भी होते हैं जब सत्य सभी धर्मों में है तो 1. From a feeling of thankfulness for his past success he would sit many a morning alone in prayer and meditation, on a large flat stone of an old building which lay near the place in a lonely spot, with his head bent over his chest and gathering the bliss of early hours of down. 1. अलबदायूनी डब्ल्यू. एच. लॉ द्वारा अनुदित भाग 2 पृष्ठ 203 - 2. Discourses an philosophy have such a charm for me that they distract me from all else, and If forcibly restrain myself from listening to them, lost the necessary duties of the hour should be neglected. 2. आइन-ए-अकबरी एच. एस. जैरेट द्वारा अनुदित भाग 3 पृष्ठ 433 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 31 ) इसमझना भूम है कि सच्चाई सिर्फ इस्लाम धर्म तक है जबकि इस्लाम धर्म पेक्षाकृत, नवीन है जिसकी आयु केवल हजार वर्ष की ही होगी। अतः अकबर को विश्वास हो गया कि विभिन्न धर्मों तथा सम्प्रदायों से भरे हुए उसके विशाल साम्राज्य में प्रेम, उदारता व सहिष्णुता के सिद्धान्त ही शान्ति जा सकते हैं। अकबर को राजनैतिक महत्वाकांक्षाए - जिस समय अकबर गद्दी पर बैठा उस समय सारा राज्य असंगठित था। उसके पास कोई स्थायी सेना भी नहीं थी। अकबर की महत्वकांक्षा एक सुसंगठित और सुव्यवस्थित स्थाई राज्य स्थापित करने की थी। अबुलफजल के अनुसार अकबर की विजय नीति का उद्देश्य स्थानीय शासकों के निरंकुश शासन से पीड़ित प्रजा को सुख शान्ति और सुरक्षा प्रदान करना था। प्राचीन हिन्दू भादर्शों से प्रेरित होकर अकबर भी सम्पूर्ण देश को राजनैतिक दृष्टि से एक सूत्र में बांधने और प्रजाजन को सुख शान्ति तथा सुरक्षा प्रदान करने की ओर प्रयत्नशील हुआ। इसके लिए उसमै अनुभव कर लिया था कि जब तक विभिन्न धर्मो, सम्प्रदायों और वर्गों के लोगों को एक सूत्र में नहीं बांधा जायेगा, तब तक उसका राज्य पक्का और स्थायी नहीं हो सकेगा । उसे राजपूतों व अन्य हिन्दुओं के सहयोग की आवश्यकता थी। इसलिए उसने राजपूतों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये । सेना और शासन विभाग के बड़े-बड़े पद तुर्कों के समान ही हिन्दुओं को भी मिलने लगे दरबार में हिन्दू-मुसलमान. सब बराबर-बराबर दिखाई देने लगे । अतएव अकबर को राजनैतिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए ऐसी उदारतापूर्ण, गुण प्राहक, सहिष्णु नीति अपनाने के लिए बाध्य होना पड़ा जिससे किसी धर्म वा सम्प्रदाय को चोट न पहुंचे। 10. इबादतखाने में इस्लाम धर्म के कहर नेताओं और उल्माओं के पतित परिक्ष का नान प्रदर्शन और अकबर पर उनका प्रभाव सन् 1375 में अकबर ने फतेहपुर सीकरी में इमारत बनवाई और उसका माम "इबातदखामा" अथवा "पूजा घर" रखा । मुहम्मद हुसैन का कहना है कि यह वास्तव में वही कोठरी थी। जिसमें शेख सलीम चिश्ती के पुराने शिष्य और भक्त शेख अब्दुला नियाजी सरहिन्दी किसी समय एकान्तवास किया करते थे 1. अकबरी दरषार हिन्दी अनुबाद रामचन्द्र वर्मा का पहला भाय पृष्ठ 120 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 32 ) उसके चारों ओर बड़ी-बड़ी इमारतें बनाकर उसे बढ़ाया गया। प्रत्येक जुमा (शुक्रवार) की नमाज के उपरान्त शेख सलीम चिश्ती की खानकाह से आकर इसी नई खानकाह में दरबार खास होता था। बदायूंनी लिखता है कि "उसने (अकबर) सन् 1575 में फतेहपुर सोकरी में निर्मित इबादतखाने में इस्लाम के प्रसिद्ध विद्वानों, शेखों, मौलवियों, मुफ्तियों आदि को धार्मिक विचार और वाद-विवाद के लिए आमन्त्रित किया। __ बहुत बड़े-बड़े विद्वान मौलवी आदि तथा कुछ थोड़े से चुने हुए मुसाहब वहां रहते थे। उनमें मखदूम-उल-मुल्क, अब्दुन्नबी, काजी याकूब, मुल्ला, बदायूनी, हाजी इब्राहीम, शेख मुबारक, अबुलफजल, काजी जलालुद्दीन आदि प्रमुख थे। इस इबादतखाने में ईश्वर और धर्म सम्बन्धित बातें होती थी किन्तु विद्वानों की मण्डली भी कुछ अजीब हुआ करती है। वहां धार्मिक वाद-विवाद तो पीछे होंगे पहले बैठने के सम्बन्ध में ही झगड़े होने लगे कि अमुक मुझ से ऊपर क्यों बैठा है और मैं उससे नीचे क्यों बैठाया गया ? बदायूनी लिखता है कि इस सम्बन्ध में यह नियम बा कि "अमीर लोग पूर्व की ओर, · संयद लोग पश्चिम की ओर, उलेमा दक्षिण की ओर तथा शेख (त्यागी व फकीर) आदि उत्तर की ओर बैठें" । प्रत्येक शुक्रवार की रात को बादशाह इस सभा में स्वयं जाता था वह वहां के सभासदों से वार्तालाप करता था और नई-नई बातों से अपना ज्ञान-भंडार बढ़ाता था। पर बड़े दुख की बात है कि जब मस्जिदों के भूखों को बढ़िया-बढ़िया भोजन मिलने लगे और उनके हौंसले बढ़कर उनकी इज्जत होने लगी तब उनकी आंखों पर चर्बी छा गई सब आपस में झगड़ने लगे। पहले तो केबल-कोलाहल होता था फिर उपद्रव भी होने लगे । अकबर के दरबार में रहने वाला कट्टर मुसलमान बदायूनी धर्म सभा में बैठने वाले मौलवियों में जो झगड़ा होता था उसके लिए लिखता है कि "बादशाह अपना बहुत ज्यादा वक्त इबादतखाने में शेखों और विद्वानों की संगति में रहकर गुजारता था, खास तौर पर शुक्रवार की रात में, जिसमें वह रात भर जागता रहता था, किसी मुख्य तत्व या किसी अवान्तर विषय की चर्चा करने में निमग्न रहता था उस समय विद्वान और शेख 1. वही पृष्ठ 70 2. अलबदायूनी डब्ल्यू. एच. लॉ द्वारा भाग 2 पृष्ठ 204 3. अलबदायूनी डब्ल्यू. एच. लों द्वारा अनुदित भाग 2 पृष्ठ 204 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 33 ) , पारस्परिक विरूदोक्ति और मुकाविला करने की रण भूमि में अपनी जीभ रूपी सलवार का उपयोग करते थे । पक्ष समर्थनकारों में इतना वितण्डावाद खड़ा हो खाता था कि एक पक्ष वाला दूसरे पक्ष वाले को बेवकूफ और ढोंगी बताने लग जाता था इन वाद-विवाद और धार्मिक चर्चाओं के दौरान इन विद्वानों की सकीर्णता, अभद्रता तथा अंहकार का नग्न नृत्य प्रारम्भ हुआ । एक विद्वान किसी बात को हलाल कहता था तो दूसरा उसी को हराम प्रमाणित कर देता था । वे स्वयं अकबर की उपस्थिति में ही आपे से बाहर हो जाते थे और परस्पर एक दूसरे को काफिर बतलाते थे । अबुल फजल और फंजी भी आ गये थे तथा दरबार में उनके भी पक्षपाती उत्पन्न हो गये थे । ये लोग एक-दूसरे के कार्यो की पोल खोलते थे । बेइमानियों के अनेक किस्से सुनाते थे- जैसे दीन दुखियों और विद्वानों को दान में दी गई रकम के विषय में मखदूम उल मुल्क की बेईमानी, अब्दुन्नबी पर हत्या करने का आरोप आदि । प्रत्येक विद्वान की यही इच्छा थी कि जो कुछ मैं कहूं उसी को सब ब्रह्म वाक्य मानें। जो जरा भी चीं चपड़ करता था उसी के लिए काफिर होने का फतवा रखा हुआ था । कुरान की आयतें और कहावतें सबके तर्क का आधार थीं। पुराने विद्वानों के दिये हुए फतवे जो अपने मतलब के होते थे, उन्हें भी ने कुरान की आयतों के समान ही प्रमाणिक बतलाते थे ।" "विद्वानों की यह दशा थी कि जवानों की तलवारें खींच कर पिल पड़ते थे, कर मरते थे और आपस में तर्क-वितर्क तथा वाद-विवाद करके एक-दूसरे को पूरी तरह से दबाने का ही प्रयत्न करते थे । और शेख सदर मखदूम-उल-मुल्क की तो यह दशा थी कि आपस में गुत्थमगुत्था तक कर बैठते थे " " । बदायूँनी ने भी लिखा है कि वाद-विवाद के समय “एक रात उस समय उमाओं की गर्दनों की नसें फूल गयीं और एक भयानक शोरगुल और कोलाहल मच गया । सम्राट अकबर इनके अशिष्ट व्यवहार पर बड़ा ही क्रोधित हुआ ।" इन नेताओं के ऐसे संकीर्ण, कट्टरपन, स्वार्थ और पतित चरित्र से अकबर को अत्यधिक क्षोभ हुआ । उसने समझ लिया कि सत्य की खोज उनके बस की बात नहीं । धर्म की ही नींव खोदने वाले ऐसे मुल्लाओं से उसे स्वभावतः चिढ़ होने बगी और वह शिया-सुन्नी, हनफी शफी के झगड़ों से मुक्त धर्म को स्थापित करने को आतुर हो उठा ' 1. अलबदायूंनी डब्ल्यू. एच. लॉ द्वारा अनुदित भाग 2 पृष्ठ 262 2. अकबरी दरबार हिन्दी अनुवाद रामचन्द्र वर्मा 1 भाग पृष्ठ 75-76 3. अलबदायूंनी डब्ल्यू एच. लॉ द्वारा अनुदित भाग 2 पृष्ठ 205 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 34 ) (ब) धार्मिक नीति का क्रमिक विकास अकबर के प्रारम्भिक धार्मिक विचार अकबर 1556 में सिंहासन पर बैठा। सन् 1536 से 1562 तक वह सच्चे मुसलमान शासक के समान था । मौलाना मुहम्मद हुसैन लिखते हैं कि "अठारह बीस बरस तक तो उसकी यह दशा थी कि वह मुसलमानी धर्म की आशाओं को उसी प्रकार श्रद्धा पूर्वक सुमता था जिस प्रकार कोई सीधा-साधा धर्म-निष्ठ मुसलमाम सुनता है और उन सब धार्मिक आशाओं का वह सच्चे दिल से पालन करता था"" । सिंहासनारोहण के प्रारम्भ के काल में तो वह सबके साथ मिलकर नमाज पढ़ता था, स्वयं अंजान देता था, मस्जिद में अपने हाथ से झाड़ू लगाता था, मुल्ला-मौलवियों का आदर किया करता था साम्राज्य के झगड़ों का निर्णय शरअ और मुल्लाओं के फतवे के अनुसार किया करता था, फकीरों ओर शेखों के साथ बहुत ही मिष्ठापूर्वक व्यवहार करता था उनकी कृपा तथा आशीर्वाद से लाभ उठाता था । मुहम्मद हुसैन ने यह भी लिखा है कि "अजमेर में, जहां खवाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह है, अकबर प्रतिवर्ष जाया करता था । यदि कोई युद्ध अथवा और कोई कक्षा होती, या संयोगवश उस मार्ग से जामा होता तो वर्ष के बीच में भी वहां जाता था । एक पड़ाव पहले से ही पैदल चलने लगता था । कुछ मन्नतें ऐसी भी हुई जिनमें फतेहपुर या आगरे से ही अजमेर तक पैदल गया । वहाँ जाकर दरगाह में परिक्रमा करता था, हजारों लाखों रुपयों के चढ़ावे और भेटें चढ़ाता था । पहरों सच्चे दिल से ध्यान किया करता था और दिल की मुरादें मांगता था । फकीरों आदि के पास बैठता था, निष्ठापूर्वक उनके उपदेश सुनता था, ईश्वर के भजन और चर्चा में समय बिताता था । धर्म सम्बन्धित बातें सुनता था । और धार्मिक विषयों की छानबीन करता था । विद्वानों, गरीबों, फकीरों आदि को धन सामग्री और जागीरें आदि दिया करता था । जिस समय कब्बाल लोन धार्मिक गजलें गाते थे, उस समय वहाँ रुपयों और अर्शफियों आदि की वर्षा होती थी " या हादी यामुईन" का पाठ हर दम उसका जप किया करता था और सबको आज्ञा थी कि इसी का जप करते रहें । वहीं से सीखा था । तत्कालीन इतिहास लेखक बदायूँनी के अनुसार भी हमें पता चलता 1. अकबरी दरबार - हिन्दी अनुवाद - रामचन्द्र वर्मा पृष्ठ 67 2. अकबरी दरबार हिन्दी अनुवाद रामचन्द्र वर्मा भाग 1 पृष्ठ 68 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 35 ) कि "अकबर दिन में न केवल पांच बार नमाज ही पढ़ता था, बल्कि राज्य धन-दौलत और मान-प्रतिष्ठा प्रदान करने की भगवान की अपार अनु. अम्पा के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के निमित्त प्रतिदिन प्रातःकाल बर का चिन्तन करता था और "या-ह-या-हादी" का ठीक मुसलमानी ढंग से उच्चारण करता था। ___ कहने का तात्पर्य है कि व्यक्तिगत जीवन में और शासक के रूप में इस समय तक वह एक सच्चा मुसलमान ही रहा मस्जिदों का निर्माण कराया, हिन्दुओं से जजिया तथा तीर्थयात्रा कर भी वसूल किये । यद्यपि इस अवधि में अकबर मध्य युग के सच्चे मुसलमान सम्राट का प्रतिरूप था, किन्तु वह कट्टर और धर्मान्ध नहीं था और न ही उसने हिन्दुओं पर धार्मिक अत्याचार किये क्योंकि धार्मिक कट्टरता के लिए तो वह स्वभावतः प्रतिकूल था। सन् 1561 तक तो उसने कोई धामिक सुधार नहीं किये क्योंकि शासन प्रबन्ध पूर्ण रूप से बरामखां के अधीन था इसलिये वह धार्मिक कार्य करने के लिए स्वतन्त्र नहीं था जैसे-जैसे उसके साम्राज्य का विस्तार होता गया उसका धार्मिक विश्वास बढ़ता गया । शेख सलीम चिश्ती के कारण वह प्रायः फतेहपुर में रहता था। महलों से अलग पास ही एक पुरानी सी कोठी थी, उसके पास पत्थर की एक सिल पड़ी पो, वहां तारों की छांव में अकेला ही बैठा रहता था, प्रभात का समय ईश्वराराधन में लगता था, बहुत ही नम्रता और दीनता से जप करता था तथा ईश्वर से दुआएं मांगता था। लोगों के साथ भी प्रायः धार्मिकता और आस्तिकता की ही बातें करता था। यहीं से उसकी धार्मिक नीति का विकास प्रारम्भ होता है। धार्मिक नीति के विकास का क्रमिक वर्णन अकबर सत्य धर्म को जानने का इच्छुक था और सभी जातियों में भेदभाव मिटाना चाहता था इसके लिए उसने जो उदार धार्मिक नीति अपनाई उसका क्रमिक विकास इस प्रकार है1. राजपूत कन्याओं से विवाह सन् 1562 के जनवरी महीने में अकबर ख्वाजा मुइनुद्दीन की यात्रा के लिए अजमेर गया। अजमेर के राजा भारमल की पुत्री से विवाह किया। 1. His majesty spent whole nights in praising god, he conti nually occupied himself in pronouncing Ya-hawa and Ya-hadi in which he was well versed. अलबदायूनी डब्ल्यू. एच. लॉ द्वारा अनुदित भाग 2 पृष्ठ 203 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 36 ) (इस विवाह का जिक्र पिछले पृष्ठों में हो चुका है) हिन्दू लड़की के साथ यह उसका पहला विवाह था इसके बाद अन्य राजपूत राजकन्याओं से भी अंकबर के विवाह हुए । इन विवाहों से अकबर के शासन और धार्मिक नीति में परिवर्तन हुआ। धर्म, जाति और वंश के भेद-भाव को मिटाकर समस्त जातियों के बीच कटुता को दूर करने की नीति यहीं से प्रारम्भ होती है। राजपूतों और मुगलों के पारम्परिक संघर्ष का अन्त होने ही लगा था पर अकबर भी हिन्दू रामियों के प्रभाव से हिन्दू धर्म की ओर आकृष्ट हुआ उसने अपनी रामियों को धार्मिक संस्कारों, विधियों और पूजा-पाठ करने की स्वतन्त्रता दे दी। 2. आध्यात्मिक चेतना का उदय -- सन् 1562 में ही यानि जब अकबर 20 बर्ष का हआ तब प्रजा की असली हालत जानने के लिए उसने फकीरों और साधू सन्तों का सहवास करना शुरू किया यह ठीक भी है कि निष्पक्ष, त्यागी, फकीरों और सोधओं के जरिये प्रजा की असली हालत अच्छी तरह से मालुम हो सकती हैं। साधुओं से मिलकर जैसे वह प्रजा की असली हालत जानने की कोशिश करता था वैसे ही वह आत्मा की उन्नति के साधनों को भी अन्वेषण करता । अकबर ने कहा कि “जब मैं बीस वर्ष का हुआ तब मेरे अन्तःकरण में उग्र शोक का अनुभव हुआ । और मुझे इस बात का बड़ा दुख हुआ कि मैंने परलोक यात्रा के लिए धार्मिक जीवन नहीं बिताया।" बस यहीं स उसकी उदार धार्मिक नीति का शुभारम्भ होता है। इस तरह बीस वर्ष की आयु पूरी करने पर, यह सोचकर कि परलोक यात्रा के लिए धार्मिक जीवन नहीं बिताया उसे अत्यधिक दुख हुआ। इसी समय उसे एक और अध्यात्मिक अनुभव हुआ। वह कहता है कि "एक रात मेरा हृदय जिन्दगी के बोझें से चिन्तित हुआ तब अचानक सोते जागते अर्थात् ऊध-नींद में मुझे एक विचित्र दृश्य दिखाई दिया जिससे मेरी आत्मा को थोड़ा सा सुख मिला। :: RL... 1. On the Completion of my tweneieth year. I experienced and internal bitherness and from the lack of spritual provision for my last Journey, my soul was seized with exceeding sorrous. आइने अकबरी एच. एस. जैरट द्वारा अनुदित भाग 3 पेज 433 2. "One night my heart was weary of the burden of life wher suddenly between sleeping and waking a strange vision appeard to me, and my sprit was some-what Comfon ted." आइने अकबरी एच. एस. जेरेट द्वारा अनुदित भाग 3 पेज 435 - - - Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 37 ) इन विचारों से उनके हृदय में यह भाव अंकित हो गया कि जाति धर्म रहन-सहन के भेद-भाव का विचार किये बिना सभी वर्गों के लोगों की निःस्वार्थं वा से बढ़कर ईश्वर को प्रसन्न करने का अन्य कोई मार्ग नहीं है । 1. युद्ध बन्दियों को मुसलमान बनाने का निषेध - अकबर को इस नवीन भावना का प्रथम ठोस परिणाम यह हुआ कि उसने अपने बीसवें जन्मदिन 1562 को एक नवीन आज्ञा प्रसारित की जिसके अनुसार युद्ध बंदियों को गुलाम बनाने तथा उन्हें बलपूर्वक इस्लाम स्वीकार कराने की की मनाही कर दी गयी। इससे पहले विजीत सेवायें लोगों के स्त्री- बच्चों को दास बना लिया करती थी। बंदी हिन्दू सैनिकों की पत्नियां, बच्चों और सम्बन्धियों का उपयोग करने के लिए उन्हें मुस्लिम अधिकारियों को सौप दिया जाता था । यह प्रथा इस्लाम धर्मानुमोदित मानी जाती थी। बादशाह ने ईश्वर भक्ति से, दूरदर्शिता तथा सविवार से प्रेरित होकर आदेश दिया कि उसके साम्राज्य से विजयी सेना का कोई सैनिक ऐसा काम नहीं करेगा । सैनिक चाहे छोटा हो या बड़ा उसे किसी को कभी कोई दास बनाने का अधिकार नहीं होगा । अबुल फजल 'लिखता है कि "बादशाह ने समझा था कि स्त्रियों और निरपराध बच्चों को दण्ड देना अन्याय है यदि पुरुष घृष्टता का मार्ग ग्रहण करते हैं तो इसमें उनकी पत्नियों का क्या दोष है ? यदि पिता बातशाह का विरोध करते है तो उनके बच्चों ने अपराध किया है । इसके अतिरिक्त सैनिक लोग लाभ वश गावों को आक्रमण 'करके लूट लिया करते थे जब इस विषय में आदेश बन्द हुई। दिया गया तो यह प्रथा इस प्रकार युद्ध बन्दियों को स्वतन्त्रतापूर्वक अपने घर और परिवार वालों के 'पास जाने की अनुमति दे दी गयी । 4. तीर्थ यात्रा कर का निषेध 'भारत वर्ष में शासन लोग उन हिन्दुओं से करें लिया करते थे जो पवित्र स्थानों की यात्रा के लिए जाया करते यह कर यात्रियों के धन और पद के अनुसार लिया जाता था । और कर्मी कहलाता था । अबुल फजल के अनुसार इससे करोड़ों रुपयों की आमदनी होती थी । सन् 1563 में अकबर चीतों के शिकार के लिए मथुरा गया । जब बह अपने कैम्प में था तो उसे बताया गया कि जो हिन्दू यात्री यहाँ आते हैं उनसे यात्रा कर लिया जाता है और यह तीर्थ यात्रा कर 1. अकबरनामा हिन्दी अनुवाद मथुरालाल शर्मा पुष्ठ 221 पर Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 38 ) अथवा कर्मी हिन्दुओं के सभी पवित्र स्थानों पर तीर्थ यात्रियों से लिया जाता है अकबर ने अनुभव किया कि हिन्दुओं की आराधना करने के ढंग पर उनसे धन मांगना या उनकी आराधना में रुकावट डालना अनुचित है । बादशाह ने अपनी बुद्धिमता, उदारता से प्रेरित होकर यह बन्द कर दिया। उसने समझा कि इस प्रकार धन संग्रह करना पाप है। अकबर ने कहा "जो लोग अपने सृजनकर्ता ईश्वर की पूजा के लिए तीर्थ स्थानों पर एकत्रित होते हैं, उनसे कर वसूल करना ईश्वर की इच्छा के सर्वथा विरुद्ध हैं, चाहे उनकी पूजा की विधि पृथक ही क्यों न हो। फलस्वरूप अकबर ने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य में तीर्थ यात्रा कर बसूल न करने के आदेश प्रसारित कर दिये" एक अन्य स्थान पर अबुलफजल ने यह भी लिखा है कि-"बादशाह प्रायः कहा करता था कि चाहे कोई गलत धर्म के मार्ग पर चलता हो परन्तु यह कौन जानता है कि उसका मार्ग गलत ही है। ऐसे व्यक्ति के मार्ग में बाधा उत्पन्न करना उचित नहीं है ।" तीर्थ यात्रा कर की समाप्ति अकबर की धार्मिक उदारता और सहिष्णुता को ज्वलन्त उदाहरण है। करोड़ों रुपयों की आय होने पर भी बादशाह ने इसे केवल अपनी धार्मिक सहिष्णुता के कारण समाप्त कर दिया। 5. नजिया कर का उन्मूलन जजिया की उत्पत्ति भारत में कब हुई ? इसका यद्यपि निश्चित समय निर्धारित नहीं किया जा सकता तथापि कुछ विद्वानों का कहना है कि आठवीं शताब्दी में मुसलमान बादशाह कासिम ने भारतीय प्रजा पर यह कर लगाया था। पहले तो उसने आर्य प्रजा को इस्लाम ग्रहण करने के लिए विवश किया और प्रजा ने अटूट धन-दौलत देकर अपने आर्य धर्म की रक्षा की । फिर हर साल ही वह प्रजा से रुपया वसूल करने लगा, प्रतिवर्ष जो द्रव्य वसूल किया जाता था, उसका नाम जजिया था। कुछ काल पश्चात् यहां तक हुक्म जारी हो गये थे कि आय प्रजा के पास खाने-पीने के बाद जो शेष धन माल बचे वह सभी जजिया के रूप में खजाने में दाखिल करवा दिये जायें। फरिश्ता के शब्दों में कहें तो "मृत्यु तुल्य दण्ड देना ही जजिय का उद्देश्य था।"ऐसा दण्ड लेकर भी आर्य प्रजा ने अपने धर्म की रक्षा की थी। स्मिथ ने इस बात के बारे में लिखा है कि "खलीफ उमर के द्वारा वास्तविक रूप से कर निर्धारित कर दिया मया था जो 1. अकबर द ग्रेट मुगल-स्मिथ-पृष्ठ 64.65 2. अकबर नामा हिन्दी अनुवाद मथुरालाल शर्मा पृष्ठ 242 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन ग्रेड (स्तर) 48, 24 तथा 12 दिरम के समकक्ष था"। इस्वी सन को चौदहवीं और पन्द्रवी शताब्दी मैं भी फिरोजशाह तुगलक कानून बनाया था कि ग्रहस्थों के घरों में जितने बालिग मनुष्य हों उनसे प्रति शक्ति धनियों से 40, सोमान्य स्थिति वालों से 20, और गरीबों से 10 टांक जिया प्रतिवर्ष लिया जाये । आगे भी यानि जिस सोलहवीं शताब्दी की हम बात कहना चाहते हैं उसमें भी जजिया भौजद था। यद्यपि कर की रकम कोई ज्यादा थी लेकिन यह कर हिन्दू धर्म पर इस्लाम की श्रेष्ठता को प्रदर्शित करता था जो हिन्दुओं के लिए लज्जाजनक था। सिंहासन पर बैठते ही पहले वर्ष अकबर के मन में जजिया माफ कर देने का विचार उठी थी । पर उस समय उसकी युवावस्था कम थी, कुछ तो लॉपरवाही और कछ अधिकार के अभाष के कारण उस समय यह कर समाप्त हो न सका। सन् 1562 मैं अकबर के हाथ में सर्वसत्ता आ गई थी, अतः अकबर ने सर्वस्वीकृत इस्लामी रिवाजों की उपेक्षा करके मुसलमान मन्त्रियों और पदा. धिकारियों तथा कट्टर मुस्लिम नेताओं व उल्माओं के कड़े विरोध के बावजूद 13 मार्च 1564 को जजिया कर की समाप्ति के आदेश प्रसारित कर दिये और सम्पूर्ण साम्राज्य में जजिया कर बन्द कर दिया गया। बड़े-बड़े मुल्लाओं और मौलवियों को इससे बड़ी आपत्ति हुई लेकिन अकबर ने कहा कि "प्राचीन काल में इस सम्बन्धे में जो निश्चय हुमा था, उसका कारण यह था कि उन लोगों ने अपने विरोधियों की हत्या करमा और उन्हें लूटना ही अधिक उपयुक्त समक्षा ..."इसलिए उन्होंने एक कर बाँध दिया और उसका नाम जजिया रख दिया अब हमारे प्रजापालक और उदारता आदि के कारण दुसरे धर्मों के अनुयायी भी हमारे सहधमियों की ही भांति हमारे साथ मिलकर हमारे लिए जान देने को तैयार रहते हैं। ऐसी दशा में यह कैसे हो सकता है कि हम उन्हें अपना विरोधी समझकर प्रतिष्ठित करें और उनका नाश करें"..."जजिया लेने का प्रमुख कारण था कि पहले के साम्राज्यों का प्रबन्ध करने वालों के पास धन और माँसारिक पदार्थों को कमी रहती थी और वे ऐसे उपायों से अपनी बाय की वृद्धि nuama extincoun 1. The tax had been originally institutied by the Khalif Omar, who fixed it in there grades of 48, 24 and 12 dirhams respectively. स्मिथ अकबर द ग्रेट मुगल पृष्ठ 66 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 40 ) करते थे । अब राजकोष में हजारों-लाखों रुपये पड़े हैं, बल्कि साम्राज्य का एकएक सेवक आर्थिक दृष्टि से आवश्यकता से अधिक सुखी है फिर विचारशील और न्यायी मनुष्य कोड़ी-कोड़ी चुनने के लिए अपनी नीयत क्यों बिगाड़ें। एक कल्पित लाभ के लिए प्रत्यक्ष हानि करना ठीक नहीं आदि-आदि कहकर जजिया रोका गया"" 1 इसकी समाप्ति का समाचार जब घर-घर पर पहुंचा तो सब लोग अकबर को धन्यवाद देने लगे | जरा सी बात ने लोगों के दिलों और जानों को मोल ले लिया । यदि हजारों आदमियों का रक्त बहाया जाता और लाखों आदमियों को गुलाम बनाया जाता तो भी यह बात नहीं हो सकती थी । अबुलफजल लिखता हैं - " जजिया, बन्दरगाह का महसूल, यात्री कर अनेक प्रकार के व्यवसायों पर कर, दरोगा की फीस, तहसीलदार की फीस, बाजार का महसूल, विदेश यात्रा कर, मकान के क्रय विक्रय का कर शोरा पर कर सारांश यह है कि ऐसे तमाम कर जिनको हिन्दुस्तानी लोग सैर जिहात कहते है, बन्द कर दिये गये ।" 6. गैर मुसलमानों को धार्मिक स्थान निर्मित करवाने की स्वतन्त्रता • विभिन्न अनुचित करों की समाप्ति के पश्चात् बादशाह ने पवित्र धार्मिक स्थानों पर लगे सब प्रतिबन्धों को निरस्त कर दिया । फलतः हिन्दू सामन्तों और राजपूत सरदारों ने अपने मन्दिर, देवालय तथा ईश्वर के विभिन्न अवतारों के पवित्र देव स्थान बनवाने प्रारम्भ कर दिये राजा मानसिंह ने अत्यन्त सुन्दर और भव्य भवन निर्मित करवाये एक तो वृन्दावन में गोविन्ददास का लाल पत्थर का विशाल पांच मजिला मन्दिर और दूसरा वाराणसी में । उसने सिक्खों के गुरु रामदास को एक भूमि खण्ड जीवन निर्वाह के लिए दिया । इसी भूमि खण्ड में गुरु रामदास ने जल का छोटा तालाब खुदवाया और तब से यह स्थान अमृतसर ( अमृत का तालाब ) कहा जाता है। अमृतसर में सिक्खों ने एक गुरुद्वारा भी बनवाया । हीरविजय सूरी और भानुचन्द्रजी के प्रयत्नों से बादशाह ने फरमान प्रसारित किये जिनके द्वारा जैन समाज को शासन की ओर से कुछ विशेष सुविधायें दी गई । गुजरात के सूबेदार को यह आदेश दिया गया कि उस राज्य में किसी को भी जैन मन्दिरों में हस्तक्षेप न करने दिया जाये । उनके जीर्णोद्धार में कोई बाधा न डाले तथा अर्जुन उनमें निवास नहीं करें। एक अन्य फरमान के अनुसार मालवा, गुजरात, लाहौर, मुलतान, बंगाल तथा कुछ अन्य प्रान्तों 1. अकबरी दरबार हिन्दी अनुवाद रामचन्द्र वर्मा, भाग 1 पृष्ठ 144-45 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 41 ) के सूबेदारों को यह आदेश दिया गया कि सिद्धाचल, गिरनार, तारंगा, केसRयानाथ, आबू, गिरनार और राजगिरी के जैन तीर्थ स्थानों और मन्दिरों की पहाड़ियों को तथा बिहार और बंगाल में जैनियों के तीर्थ स्थानों व इन पहाड़ियों की तलहटी के सभी स्थानों को जैनियों को सौंप दिया जाये। ईसाइयों को खम्भात, लाहौर, हुगली, और आगरा में गिरजाघर निर्मित करने की अनुमति दे दी गई । इन स्थानों पर धीरे-धीरे राजकीय व्यय से गिरजाघर बनवाये गये। 7. गैर मुसलमानों को राज्य के उच्च पदों पर नियुक्ति ____ अकबर ने इस आधारभूत सिद्धान्त को समझ लिया था कि सभी मतों और धर्मो का जनक ईश्वर है और इसलिए सारा मानव समाज ईश्वर के पुत्र के समान होने से जन्म से ही सभी मनुष्य समान अधिकार रखते हैं इन विचारों के कारण अकबर का शासन और राजस्व का सिद्धान्त उदार, सहिष्णु और व्यापक बन गया। शासन सत्ता अपने हाथ में लेते ही अर्थात् 1562 के प्रारम्भिक महीनों मैं ही टोडरमल, मानसिंह, भगवन्तदास, बेनीचन्द्र, बीरबल, जयमल, कछवाहा बादि को अकबर ने अपने राज्य की सेवा में उच्च पदों पर नियुक्त कर लिया पा। राजस्व विभाग में उसने टोडरमल के अतिरिक्त अनेक हिन्दू कर्मचारी और अधिकारी नियुक्त किये इससे दोनों के भेद-भाव की खाई घटने लगी। अकबर की बह नीति बहुत कुछ अबुलफजल के विचारों से भी प्रभावित हुई । अबुलफजल लखता है कि-"राजपद ईश्वर का एक उपहार है, और यह तब तक प्रदान नहीं किया जा सकता जब तक कि एक व्यक्ति में हजारों महान गुणों और विशेषमाओं का समन्वय न हो जाये । इस महान पद के लिए जाति, धन सम्पत्ति तथा लागों की भीड़-भाड़ ही काफी नहीं है । वह इस महान पद के लिए तब तक शोग्य नहीं हैं, जबकि वह सार्वजनिक शान्ति और सहिष्णुता पैदा न करे। यदि मानवता की सभी जातियों और धर्म सम्प्रदायों को एक आंख से नहीं देखता र कुछ लोगों के साथ माता का सा और कुछ के साथ विमाता का सा व्यवहार ता है तो वह इतने महान पद के लिए योग्य नहीं हो सकता।" उसका स्वयं भी विश्वास था कि राजा को प्रत्येक धर्म और जाति के प्रतिपूर्ण सहिष्णु चाहिए । इन्हीं विचारों से प्रेरित होकर उसने शासन में उच्च पदों पर पक्ति करने में हिन्दू मुसलमानों के विभेद को समाप्त कर दिया। यहां तक कि सबदारों में भी हिन्दू नियुक्त किये गये । एक सहस्त्र सैनिकों के 137 मनसब Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 42 ) दारों में 14 मनसबदार हिन्दू थे, 200 अश्वारोहियों के 415 मनसबदारों में 15 मनसबदार हिन्दू थे और साम्राज्य के विभिन्न प्रदेशो के 12 दीवानों में 8 दीवान हिन्दू थे । बदायूनी लिखता है कि हिन्दुओं के मुकद्दमें करने के लिए उसने (अकबर) हिन्दू न्यायाधीशों की नियुक्ति की।" बादशाह का विचार था कि राजा को न्यायप्रिय और निष्पक्ष होना चाहिये । इसलिए उसने बिना किसी भेद भाव के सभी वर्गों और सम्प्रदायों के व्यक्तियों के साथ समान न्याय और निष्पक्ष व्यवहार के सिद्धान्त को अपना लिया। अन्य जातियों पर इस्लाम के कानूनों के अनुसार शासन करने की नीति त्याग दी। 8. इस्लाम के सिद्धान्तों का प्रमाणिक ज्ञान प्राप्त करने के प्रयास एक ओर तो अकबर ने हिन्दओं पर लगे अनेक अनुचित प्रतिबन्ध हटाये और हिन्दू मुस्लिम एकता स्थापित करने का यथाशक्ति प्रयास किया, किन्तु साथ ही साथ दूसरी ओर वह सत्य धर्म की खोज में लगा ही रहा वह इस्लाम धर्म के सिद्धान्तों का प्रमाणिक ज्ञाम प्राप्त करना चाहता था । इसके लिए उसने शेख अब्दुन्नवी और मखदूम-उल-मुल्क अब्दुल्ला सुल्तानपुरी जैसे विद्वान मुल्लाओं की शागिदी की । सन् 1574 तक वह इनके प्रभाव में रहा। इस वर्ष तक वह इस्लाम के नियमों का पालन मजबूती से करता था। बदायूनी का भी मत है कि सन् 1574 तक सम्राट अकबर नियमित रूप से नमाज पढ़ता रहा और सलीम चिश्ती जैसे प्रसिद्ध मुस्लिम पीरों के मकबरों के दर्शन करने भी कई बार गया वह अपने युग के प्रसिद्ध मौलवियों का भी उचित सम्मान करता रहा अकबर ने शेख अहमद के पुत्र शेख अब्दुन्नबी को मुख्य सद्र (धर्म व दाम मन्त्री) नियुक्त किया और वह सन् 1578 तक इसी पद पर रहा । सद्र को धर्माचार दाम तथा न्याय विभाग का अध्यक्ष रखा गया। एक अन्य स्थान पर बदायूनी लिखता है कि "अकबर शेख के घर हदीस (महम्मद साहब के कथन) पर वार्सा सुनमे जाया करता था। कई बार तो सम्मान और श्रद्धा प्रकट करने के उद्देश्य से अकबर उसके सामने नंगे पांव खड़ा हुआ" | पर रूढ़िवादी सुश्री धर्म उसे पूर्ण सन्तोष नहीं दे सका अतः वह शिया धर्म की ओर उन्मुख हुआ। उसने शिय धर्म के प्रमुख मुल्ला याजदी को अपना मित्र बनाया । याजदी ने उसे शिया धम के सिद्धान्त समझाये और उसे शिया बनाने का भरसक प्रयत्न किया पर वह भी उसके उदार हृदय को आकर्षित न कर सका। इसके बाद वह सूफी मत की ओ __ 1. अलबदायूंनी डब्ल्यू. एच. लॉ द्वारा अनुदित भाग 2 पृष्ठ 206-207 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 43 ) अका । सूफी विद्वान शेख मुबारक तथा उनके दोनों पुत्रों फैजी व अबुलफजल तथा अन्य सूफी विद्वान मिर्जा सुलेमान से उसे सूफी मत से अवगत कराकर सूफी सम्प्रदाय की ओर आकर्षित किया। 9. इबादत खाने की स्थापना और इस्लाम धर्म पर वाद-विवाद समस्त सम्प्रदायों का गहन ज्ञान प्राप्त करने के लिए अकबर ने फतेहपुर सीकरी में इबादतखाना अथवा प्रार्थना ग्रह बनवाया अपने मुसलमान दरबारियों तथा उल्माओं के साथ बादशाह यहां आकर सभा करता था इस प्रकार सत्य का विकास होने लगा । धार्मिक सभायें रात-रात भर और कभी-कभी दूसरे दिन प्रातः और दोपहर तक चलती थी जिससे पता चलता था कि किसमें तर्क है ? कल्पना है ? बुद्धि है ? इन सभाओं में दर्शन, धर्म, कानून और सांसारिक सभी प्रकार के विषयों और समस्याओं पर चर्चायें होती थी। . मखदूम-उल-मुल्क की उपाधि से विभूषित शेख अब्दुला, सुल्तानपुरी काजी, याकूब, मुल्ला बदायूंनी हाजी इब्राहीम, शेख मुबारक, अबुलफजल आदि प्रमुख विद्वान इसमें भाग लेते थे । इन विचार गोष्ठियों में विशेष गुण, बुद्धि व प्रतिभा प्रदर्शित करने वालों को अकबर सोने चादी के सिक्के देकर पुरस्कृत करता था। किन्तु धीरे-धीरे इन धामिक और दार्शनिक चर्चाओं के समय शेखों, सैयदों और उल्माओं की असहनशीलता, अनुशासनहीनता, सामान्य बुद्धि का अभाव, अनुदार, साम्प्रदायिकता, धर्मान्धता, अभद्रता तथा अहकार का खुला प्रदर्शन होने लगा मखदूम उल-मुल्क और अबुन्नबी इस्लामी धर्म शास्त्र सम्बन्धित सैद्धांतिक प्रश्नों पर परस्पर लड़ बैठते थे। मल्ला अन्दुल कादिर बदायूनी ने वे सब पुस्तकें पढ़ी थीं, जिन्हें पढ़कर लोग विद्वान हो जाते हैं। जो कुछ गुरुओं ने बतला दिया था, वह सब उन्हें अक्षरशः याद था, लेकिन धर्माचार्य के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है आचार्य का काम तो होता है कि जहां कोई आयत या मन्त्र न हो, या कहीं किसी प्रकार का पन्देह हो, या किसी अर्थ के सम्बन्ध में मतभेद हो, वहां वह बुद्धि से काम लेकर निर्णय करें, लेकिन मुल्ला बदायूनी में ये सब बातें नहीं थी इसी तरह शेख अबुलफजल की झोली में तर्को की क्या कमी थी और उनकी ईश्वरदत्त प्रतिभा के सामने किसी की क्या सामर्थ्य ? जिस तर्क को चाहा चुटकी में उड़ा दिया विद्वानों विरोध का मार्ग तो खुल ही गया था। थोड़े ही दिनों में यह नौबत आ गई धामिक सिद्धांत तो दूर रहे जिन सिद्धांतों का सम्बन्ध केवल विश्वास से था सन पर भी आक्षेप होने लगे और हर बात में तुर्रा यह कि साथ में कोई तर्क और Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 44 ) प्रमाण भी हो । यदि तुम अमुक बात को मानते हो तो इसका कारण क्या है ? इस तरह अविश्वास बढ़ते-बढ़ते इबादत खाने में तीन विरोधी दल हो गये। एक मख-दूम-उल-मुल्क की उपाधि से विभूषित शेख अब्दुल्ला सुल्तानपुरी के निर्देशन में और दूसरा अब्दुन्नबी के नेतृत्व में । ये कट्टर सुन्नी मुसलमानों के दल थे। उल्माओं के ये दोनों नेता आपस में एक-दूसरे को बुरा भला कहकर झगड़ते थे । मखदुम-उल-मुल्क ने अब्दुन्नबी पर खिजखां सरवानी और मीरबख्श को उनके धार्मिक विश्वासों के लिए अन्याय से मरवा डालने का आरोप लगाया। तीसरा दल इब्राहीम शेख मुबारक और उसके पुत्र फैजी व अबुल फजल तथा नवीन लोगों का था । ये तीनों भी परस्पर कुफ्र और बेइज्जती की बातें करते थे। धमन्धि शुन्नियों ने शेख मुबारक पर धर्म भ्रष्ट होने और नवीन धार्मिक पद्धति चलाने का दोषारोपण कर उसे मृत्यु दण्ड दे दिया गया पर वह बच कर भाग गया। इस पर अबुल फजल ने इन सुन्नियों के गुट की भ्रांतियां, उनकी कथनी करनी में भेद आदि को उदाहरणों से स्पष्ट किया और अब्दुन्नबी की पोल खोलना शुरू किया। उसने बताया कि अब्दुन्नबी ने हाजियों को दिया जाने वाला धन स्वयं ले लिया और यह फतवा दिया कि हज करने से पुण्य के स्थान पर पाप होगा, क्योंकि मक्का जाने के दोनों मार्ग संकट ग्रस्त हैं इन सभाओं में एक दूसरे को नीचा दिखाने के विलक्षण प्रश्न किये जाते थे । मौलाना मुहम्मद हुसैन लिखते हैं कि "हाजी इब्राहीम सरहिन्दी बड़े झगडालू और चकमा देने वाले व्यक्ति थे उन्होंने एक दिन सभा में मिर्जा मुफलिस से पूछा कि "मूसा" शब्द का "सीगा" (क्रिया का वचन पुरुष आदि) क्या है ? और इसकी व्युत्पत्ति क्या है ? मिर्जा यद्यपि विद्या और बुद्धि की सम्पत्ति से बहुत सम्पन्न थे, पर इस प्रश्न के उत्तर में मुफलिस ही निकले बस फिर क्या था सारे शहर में धूम मच गई कि हाजी ने मिर्जा से ऐसा प्रश्न किया जिसका वे कोई उत्तर ही न दे सके और हाजी ही बहुत बड़े विद्वान हैं। उसी अवसर पर एक दिन काजीजादा लश्कर से कहा कि तुम रात को सभा में नहीं आते ? उसने निवेदन किया कि हुजूर आऊ तो सही पर वहां हाजी जी मुझसे पूछ बैठे कि ईसा का "सीगा' क्या है तो मैं क्या जबाब दूंगा । यह दिल्लगी बादशाह को बहुत पसन्द आई थी। 1. इसमें असम्बद्धता यह है कि सीगा केवल क्रिया में होता है, संज्ञा में नहीं __होता और “मूसा" संज्ञा है। 2. अकबरी दरबार रामचन्द्र वर्मा पहला भाग पृष्ठ 72-73 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 45 ) तात्पर्य यह है कि इस प्रकार के विरोध, झगड़े और आत्माभिमान आदि की कृपा से बहुत से तमाशे देखने में आये । इसी प्रकार की एक अन्य घटना बदायूनी लिखता है कि "यह सुनने पर कि हाजी इब्राहीम ने पीली और लाल रंग की पोशाकें पहनने को न्याय संगत घोषित करते हुए फतवा दिया है। मीर आदिल सैयद मुहम्मद की उपस्थिति में उसे धूर्त मक्कार कहा और उसे मारने के लिए अपना डन्डा उठा भी लिया"1 । इस प्रकार के झगड़ों से कट्टर इस्लाम में बादशाह का विश्वास हिल गया। इस्लाम धर्म के प्रति अकबर का दृष्टिकोण इबादतखाने में ऐसे अशिष्ट, संकीर्ण, धर्मान्ध, उद्दण्ड और उत्तरदायित्वहीन व्यवहार तथा झगड़ों से अकबर बहुत ही खिन्न हुआ । सन् 1578-79 के बाद 'अकबर के मन में इन उल्माओं के चरित्र और धर्म के प्रति किंचित भी श्रद्धा नहीं रही थी। उसने अनुभव किया कि इन उल्माओं में जिन पर कि बुद्धि का सिर्फ कलेवर ही है, सत्य को खोजने और जानने की पिपासा नहीं है उसने इस्लाम के विद्वानों में ही भेद-भाव, संकीर्णता और कटुता पाई अतः धीरे-धीरे इस्लाम पर से उसका विश्वास उठने लगा। अतः बादशाह ने स्वयं को कट्टर धन्धि मुल्लाओं के हानिकारक प्रभाव से स्वतन्त्र करने का निश्चय किया। इसके लिए उसने दो ठोस कदम उठाये एक तो खुतबा पढ़ना । और दूसरा अभ्रान्त आज्ञा पत्र अथवा महार प्रसारित करना। शुक्रवार 22 जून 1579 को फतेहपुर सीकरी की प्रमुख मस्जिद की वेदी पर चढ़कर अकबर के कवि फजी द्वारा कविता में रचित खुतबा पढ़ा जिसके अन्त में "अल्ला-हु-अकबर" शब्द थे । इस शब्द के दो अर्थ निकलते हैं एक तो यह कि अल्लाह सबसे बड़ा है और दूसरा अकबर ही अल्लाह है बादशाह के विरोधियों ने दूसरे अर्थ को ही सही मानकर कट्टर मुसलमानों को बादशाह के विरुद्ध भड़काना प्रारम्भ कर दिया। सितम्बर 1579 में बादशाह ने महजर अथवा अभ्रान्त आज्ञा पत्र पढ़ा इस पत्र से अकबर को यह अधिकार प्राप्त हो गया कि वह मुस्लिम धर्मशास्त्रियों 1. अलबदायूनी डब्ल्यू. एच. लॉ द्वारा अनुदित भाग 2 पृष्ठ 214 2. अलबदायूनी डब्ल्यू. एच. लॉ. द्वारा अनुदित भाग 2 पृष्ठ 277 3. वही पृष्ठ 279-80 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 46 ) के विरोधी मतों में से किसी एक को स्वीकार करे तथा मतभेद विहीन मामलों पर किसी भी नीति को निर्धारित करे बशर्ते कि वह कुरान विहित न हो । इस प्रकार अब अकबर ने स्वयं वह अधिकार प्राप्त कर लिये जो अब तक उलेमाओं के माने जाते थे इससे उत्माओं ने अपना असन्तोष प्रकट किया और अकबर पर fafभन्न आरोप लगाये । बदायूँनी ने तो यहां तक लिखा है कि "अकबर ने नमाज वर्जित कर दी थी उसने दरबार में नमाज पढ़ना निषिद्ध कर दिया था । दरबार-ए-आम में अजान बन्द करवा दी थी, जो कि पाँच समय पढ़ी जाती थी । उसने लोगों को अपने स्वयं तथा अपने बच्चों के लिए मुहम्मद और अहमद नाम रखने की मनाही कर दी थी। क्योंकि वह मुहम्मद के नाम से घृणा करने लगा था इसलिए जहां-जहां पैगम्बर मुहम्मद का नाम आता था । वहां-वहां उसने नाम परिवर्तित कर दिये " " । इस तरह के अनेक आरोप बदायूँनी ने लगाये । यद्यपि उनमें से कुछ तो बिल्कुल ही निराधार है । बदायूंनी कट्टर मुसलमान था हो सकता है उसने अकबर की आलोचना के लिए ऐसा fara दिया हो । लेकिन इतना निश्चित है कि कट्टर इस्लाम में बादशाह का विश्वास हिल गया था। इसलिए तो उसने इबादतखाने के द्वार सब धर्मो के विद्वानों के लिए खोल दिया था । विभिन्न धर्माचार्यों से अकबर का सम्पर्क और उनका प्रभाव - बादशाह ने इबादतखाने का द्वार सन् 1578 से दूसरे धर्म सम्प्रदायों जैसे हिन्दू, पारसी, ईसाई के लिए भी खोल दिया । यद्यपि इबादतखाने में विचार विमर्श होते ही रहे किन्तु अकबर ने अन्य मतों और सम्प्रदायों के विद्वानों को बुलाकर निजी बैठकें आयोजित करनी आरम्भ कर दी। मौलाना मुहम्मद हुसैन लिखते हैं कि "बादशाह अपने दिल में यहीं चाहता था कि किसी प्रकार मुझे धार्मिक तत्व की बातें मालूम हों, बल्कि वह उनकी छोटी-छोटी बातों का भी पूरा पता लगाना चाहता था इसलिए वह प्रत्येक धर्म के विद्वानों को एकत्र करता था । और उनसे सब बातों का पता लगाया करता था । इन बैठकों में विद्वान लोग बड़ी गम्भीरता और शान्ति से धर्म चर्चा करते थे इससे बादशाह को बहुत आनन्द होता था अबुलफजल लिखता है - "शहंशाह का दरबार सातों प्रदेशों ( पृथ्वी के भागों ) के पूछताछ करने वालों का घर तथा प्रत्येक धर्म व सम्प्रदाय के विद्वानों का सभा कक्ष बन गया था । 1. अलबदायूंनी डब्ल्यू. एच. लाँ द्वारा अनुदित भाग 2 पृष्ठ 324 2. अकबरी दरबार हिन्दी अनुवाद रामचन्द्र वर्मा पृष्ठ 76 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 47 ) हिन्दू, जैन, ईसाई, सिक्ख आदि धर्माचार्यों ने बादशाह के सामने अपनेपने धर्म के श्रेष्ठ सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया किन्तु विद्वानों में पुरुषोत्तम हार देवी प्रमुख थे । इनके प्रभाव से बादशाह आत्मा के आवागमन में विश्वास करने लगा । बदायूँनी लिखता है "सात नक्षत्र सप्ताह के प्रत्येक दिन से सम्बन्धित होते हैं इन नक्षत्रों में से प्रत्येक के रंग के अनुसार अकबर ने उस दिन के पहिनने क लिए अपनी वेश-भूषा बनवाई थी "" । पारसी धर्माचायं मेहरजीराणा ने सूर्य और अग्नि की उपासना को श्रेष्ठ बताया। ईसाइयों के प्रभाव से गिरजाघर में जाकर घुटने टेककर व हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगा । जैन धर्माचाय और मुनियों आचार्य हीरविजयसूरी, विजयसेनसूरि जिनचन्द्रसूरि, जिनसिंहसूरि, भानुचन्द्र उपाध्याय, सिद्धिचन्द्र उपाध्याय आदि ने बादशाह पर स्थायी प्रभाव डालकर जनहित धर्म रक्षा व जीव दया के अनेक कार्य करवाये । जैन धर्म का बादशाह पर जो प्रभाव पड़ा। यह बताना ही हमारे विषय का प्रमुख लक्ष्य है। जिसका विस्तृत विवेचन अगले अध्याय में किया जायेगा | 1. अलबदायूंनी डब्ल्यू. एच. लॉ: द्वारा अनुदित भाग 2 पृष्ठ 268 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय अकबर का जैन आचार्यों एवं मुनियों से सम्पर्क तथा उनका प्रभाव शिया और सुनियों के पारस्परिक वाद-विवाद, आरोप-प्रत्यारोप तथा द्वेष पूर्ण संघर्ष के कारण इस्लाम धर्म पर से अकबर की रूचि हट गयी। पर फिर भी वह, यही चाहता था कि किसी प्रकार से उसे धार्मिक तत्व की बातें मालूम हों, फलतः उसने 3 अक्टूबर 1578 को हिन्दू, जैन, ईसाई, यहूदी, सूफी, पारसी विद्वानों एवं सन्तों के लिए इबादतखाने का द्वार खोल दिया । अकबर ने इबादतखाने में अपनी सभा के सदस्यों को पांच भागों में विभक्त किया था"। उनमें कुल मिलाकर 140 सदस्य थे" प्रथम वर्ग में वे लोग थे, जो कि दोनों लोकों का रहस्य जानते थे । दूसरे वर्ग में मन और हृदय के ज्ञाता थे, तीसरे वर्ग में धर्म और दर्शन शास्त्र के ज्ञाता चौथे वर्ग में दार्शनिक तथा पांचवे वर्ग में वे लोग थे, जो कि परीक्षणों तथा पर्यालोचनों पर आश्रित विज्ञान के जानने वाले थे । इन सम्पूर्ण वर्गों में अबुलफजल ने तीन जैन विद्वानों के नाम गिनाये है : , आचार्य श्री हीरविजय सूरि । 2 विजयसेन सूरि । 3. भानूचन्द्र उपाध्याय । प्रथम वर्ग के 16 वें स्थान पर हरिजी सूरि नाम अंकित है ये हरिजी सूरि को ही हीरविजय सूरि के नाम से जाना जाता है, (जिनका विवेचन हम अगले पृष्ठों में करेंगे।) 1. होरविजय सूरि (पहले हम यह देखेंगे कि अकबर आचार्य हीरविजय मूरि जी के सम्पर्क में कैसे आया।) 1. सूरीश्वर और सम्राट विद्या-विजयजी हिन्दी अनुवादक कृष्णलाल वर्मा पृष्ठ 78 2. आइने अकबरी एच, ब्लाँचमेन द्वारा अनुदित पृष्ठ 607-617 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 49 > जबाव मिला कि यह श्राविका सुन्दर वस्त्र सम्पूर्ण जैन साहित्य में इस घटना का विवरण मिलता है; कि अकबर राजमहल में बैठा मन्त्रियों से विचार-विमर्श कर रहा था, उसी समय सामने से महीरविजयसूरिजी की जय हो" के नारे लगाता हुआ एक जुलूस निकला अकबर आश्चर्य से टोडरमल से इस बारे में पूछा तो उसे जुलूस जैन धर्म वालों का है जिसमें चम्पा) नाम की एक धारण कर पालकी में बैठ भगवान के दर्शन के लिए मन्दिर में जा रही है । उसने 6 महीने के उपवास किये है जिनमें केवल गर्म जल पीने के सिवाय कुछ भी नहीं खाया और वह गर्म जल भी केवल दिन में ही पीती है रात्रि में तो मुंह में कुछ भी नहीं डालती उसके उपवास का यह 5 वां मास हैं। आज जैन धर्म का कोई विशेष पर्व होने के कारण वह उत्सव के साथ मन्दिर जा रही है । बादशाह को भला इतनी कठोर तपस्या पर कैसे विश्वास आ सकता था • अपने सन्देह की पुष्टि के लिए अपने अनुचरों को पालकी ऊपर ले जाने की आजादी बादशाह की आज्ञा से जैन समुदाय भयभीत होने लग गया लेकिन कर क्या सकता था ? आखिर पालकी को ऊपर ले जाया गया । बादशाह ने कुतूहलता से चम्पा बहन की आकृति की परीक्षा की । यद्यपि उसके तेजस्वी मुख को देखकर तपस्या के विषय में काफी कुछ सत्यता प्रतीत होने पर भी उसकी पूरी परीक्षा करने के लिए एक मास तक अपने एकान्त महल में रहने की आज्ञा दी और अपने सेवकों को उसकी सारी दिनचर्या का बड़ी सावधानी से अवलोकन करने को कहा । चम्पा बहन के लिए एक मास निकालना कौन सी बड़ी बात थी ? समय निकला, सेवकों की दृष्टि में उसका निर्मल आचरण सामने आया । सेवकों द्वारा जब बादशाह को चम्पा बहन के पवित्र आचरण का पता चलता तो बादशाह आश्चर्य चकित हो गया। उसने स्वयं चम्पा बहन से पूछा कि तुम इतनी कठोर तपस्या क्यों और किसके प्रभाव से करती हो ? उसने जबाव दिया कि तप आत्म कल्याण के लिए और आत्मज्ञानी तपागच्छ नायक श्री हीरविजयसूरि बुरुदेव के अनुग्रह से करती हूँ बस यहीं से अकबर के मन में हीरविजयसूरि के वनों की जिज्ञासा हुई । सूरिजी के बारे में फकीर हैं, वे हमेशा पैदल अकबर ने गुजरात प्रदेश में रह चुके एतमादखां से पूछा तो उसने जबाब दिया "हां हुजूर जानता हूं, वे एक सच्चे इक्का, नाड़ी, घोड़ा आदि किसी भी सवारी में नहीं बैठते है । वे ही एक गांव से दूसरे गांव जाते हैं। पैसा नहीं रखते, औरतों से बिल्कुल दूर रहते हैं और अपना सारा समय खुदा की बन्दगी में और लोगों को धर्मोपदेश देने में गुजारते है। इस तरह एतमादखां से सूरिजी की प्रशंसा सुनकर जैसे 1. सूरीश्वर और सम्राट कृष्णलाल वर्मा पृष्ठ 81 पर Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 50 ) कोक पक्षी सूर्य को चाहते हैं ऐसे ही अकबर को हीरविजयसूरिजी से मिलने की बड़ी ही तमन्ना हुई। 'अकबर ने स्वयं हीरविजयसूरिजी को एक विनती पत्र लिखा, एक आदेश पुत्र गुजरात के सूबेदार साहब खां को भी लिखा कि सूरिजी को ससम्मान यहां लाया जाळे और दो जैन श्रावकों को बुलाकर उनसे सूरिजी को विनीत पत्र लिखने को कहा। यह पत्र देकर उसने दो मेवाओं (मोदी और कमाल) को गुजरात सूबेदार साहबखां के पास अहमदाबाद भेजा। साहबखां ने अहमदाबाद के प्रसिद्ध नेता जैन समाज के गहस्थों को बुलवाया और उन्हें बादशाह का पत्र दिया तथा अपना पत्र पढ़कर सुनाया अपना मन्तव्य व्यक्त' करते हुए साहबखो ने कहा शहंशाह जब इतनी इज्जत के साथ श्री हीरविजयसूरिजी को बुला रहा है तब उन्हें जरूर जाना चाहिये तुम्हें भी खास तरह से उन्हें आगरा जाने के लिए अर्ज करना चाहिए यह ऐसी इज्जत हैं कि जैसी आज तक बादशाह की तरफ से किसी को भी नहीं मिली है । सूरीश्वर जी के वहां जाने से तुम्हारे धर्म का गौरव बढ़ गा और तुम्हारे यश में भी अभिवृद्धि होगी। इतना ही नहीं हीरविजयसूरि की शिष्य परम्परा के लिए भी उनका यह प्राथमिक प्रवेश बहुत ही लाभदायक रहेगा। इसलिए किसी तरह की हां ना किये बिना हीरविजयसूरि को बादशाह के पास जाने के लिए आग्रह के साथ विनति करो। मुझे आशा है कि वे जाकर बादशाह पर अपना प्रभाव डालेंगे और 'बादशाह से अच्छे-अच्छे काम करवायेगें" अहमदाबाद के श्रावक साहबखां की बात सुनकर और उसे यह आश्वासन देकर कि सूरिजी को हम गान्धार से यहाँ ले जाते हैं, चले गये। अहमदाबाद के श्री संघ ने खम्भात के श्रीसंघ को सूचना दी। खम्भीत के श्रीसंघ ने अपनी तरफ से संघवी उदयकरण, पारिखें सजिश, राजा श्रीमल्ल आदि को गन्धार भेजाखिम्भात, अहमदाबाद और गन्धार के मुख्य मुख्य श्रावक तथा 1. इन मेवाड़ाओं के बारे में अबुलफजल ने लिखा है कि "वे मेवात के रहने वाले हैं और दोड़ने वाले के नाम से प्रसिद्ध है । जिस चीज की जरूरत होती है, वे बड़े 'दूरे से उत्साह के साथ ले आते है। वे उत्तम जासूस हैं । वे बड़े बड़े जटिल काम भी कर दिया करते हैं । ऐसे एक हजार हैं जो हर समय आज्ञा पालने के लिए तत्पर रहते हैं। आइन-ए-अकबरी एच. ब्लाँच मैन द्वारा अनुदित पृष्ठ 262 2. सूरीश्वर और सम्राट कृष्णलाल वर्मा द्वारा अनुदित पृष्ठ 86-87 3. वही पृष्ठ 87 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 1 ) पूरिजी, विमल हर्ष उपाध्याय और अन्य प्रधान मुनिः विचार विमर्श के लिए इकट्ठे हुए । अहमदाबाद के श्रीसंघ ने बादशाह का पत्र जो साहबखों के नाम भाया था, और आगरे के जैन श्रीसंघ का पत्र सरिजी को दिया एवं सभी समाचारों से अवगत कराया। सभी एकत्रित श्रावक, आचार्य एवं मुनियों के बीच बादशाह के द्वारा भेजे प्रये हीरविजयसूरिजी के आमन्त्रण, पर विचार-विमर्श प्रारम्भ हुआ कि सूरिजी को बादशाह के निमन्त्रण पर फतेहपुर सीकरी स्वयं जाना उचित है या बादशाह को धर्मोपदेश लाभ के लिए स्वयं यहीं आना , चाहिये । किसी भी विषय पर सभी की सम्मति एक हो, यह बात त आज तक हुई है, न होती है और न ही होगी। यही समस्या इस समय भी खड़ी थी सभी ने अपने-अपने मत दिये विभिन्न मतभेद होने पर सूरिजी ने अपना निर्णायक मत इस प्रकार दिया ... “महानुभावों मैंने अब तक आप सबके विचार सुने । जहां तक मैं समझता हैं, अपने विचार प्रकट करने में किसी का आशय खराब नहीं है। सबने लाभ ध्येय को सामने रखकर ही अपने विचार प्रकट किये हैं अब मैं अपना विचार प्रकट करता हूं। अपने पूर्वाचार्यों ने मान अपमान की कुछ भी परवाह न कर राज दरबार में अपना पर जमाया था और राजाश्चों को प्रतिबोध दिया था, इतना ही क्यों ? उनसे शासन हित के बड़े बड़े कार्य भी करवाये थे। इस बात को हरेक जानता है कि आर्य महागिरी,ने सम्प्रति राजा को, बप्पभट्टी ने आमराजा को, सिद्धसेन दिवाकर ने विक्रमादित्य राजा को और कलिकाल सर्वज्ञ प्रभु श्री हेमचन्द्राचार्य ने कुमारपाल राजा को, इस तरह अनेक पूर्वाचार्यों ने अनेक राजाओं को प्रतिबोध किया था। उसी का परिणाम है कि इस समय भी हम जैन धर्म की जाहोजलाली देखते हैं भाईयों, यद्यपि मुझमें उन महान आचार्यों के समान शक्ति नहीं है मैं तो केवल उन पूज्य पुरुषों की पदधूलि के समान हूं तथापि उन पूज्य पुरुषों के पुण्य प्रताप से "यावद बुद्धि बलोदयं" इस नियम के अनुसार शासन सेवा के लिए जितना हो सके उतना प्रयत्न करने को मैं अपना कर्तव्य समझता हूं अपने पूज्य पुरुषों को तो राज्य दरबार में प्रवेश करने में तो बहुत सी कठिनाईयां झेलनी पड़ी थीं लेकिन हमें तो. सम्राट स्वयं बुला रहा है। इसलिए उसके आमंत्रणे को अस्वीकार करना मुझे अनुचित जान पड़ता है। तुम इस बात को भली प्रकार समझते हो कि हजारों बल्कि लाखों मनुष्यों को उपदेश देने में जो लाभ होता हैं । उसकी अपेक्षा कई गुना ज्यादा लाभ एक राजा को, सम्राट को उपदेश देने में है कारण गुरु की कृपा से सम्राट के हृदय में यदि एक बात भी बैठ जाती है तो हजारों ही नहीं बल्कि लाखों मनुष्य उसका अनसरण करने लग जाते हैं। यह ख्याल भी Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 52 ) ठीक नहीं है कि जिसको गरज होगी वह हमारे यहाँ आयेगा, यह विचार शासन के लिए हितकर नहीं है । संसार में ऐसे लोग बहुत ही कम हैं जो अपने आप धर्म करते हैं उत्तोमोत्तम कार्य करते हैं । धर्म इस समय लंगड़ा है, लोगों को समझा-समझाकर युक्तियों से धर्म साधन की उपयोगिता उनके हृदयों में जमा जमाकर, यदि उनसे धर्म कार्य कराये जाते है तो वे करते हैं। इसलिए हमें शासन सेवा की भावना को सामने रखकर प्रत्येक कार्य करना चाहिए। शासन सेवा के लिए हमें जहां जाना पडे वहीं निःसंकोच होकर जाना चाहिए। परमात्मा महावीर के अकाटय सिलानों का घर-घर जाकर पवार किराये सभी वास्तविक शासन सेवा होगी। "सवी जीवकरूं' शासन रसी" (संसार के समस्त जीवों को शासन के रसिक बनाऊ) इस भावना का मूल उद्देश्य क्या है ? हर तरह से मनुष्यों को धर्म का, अहिंसा धर्म का अनुरागी बनाने का प्रयत्न करना इसलिए तुम लोग अन्यान्य प्रकार के विचार छोड़कर मुझे अकबर के पास जाने की सम्मति दो, यही मेरी इच्छा है ।''1 । सन्तों महात्माओं से विचार विमर्श करने के उपरान्त जैन मुनि हीरविजयसूरि ने बादशाह सलामत के दरबार में जाना स्वीकार किया। यह भी परिलक्षित होता है कि मूर्धन्य विद्वान सन्त स्वेच्छाचारी नहीं थे यद्यपि वे अपनी रूचि अनुसार ही राजदरवार गये किन्तु जैन सघ में विचार विमर्श करने के उपरान्त अपना मत दिया। . (जैन सन्तों पर राजाश्रय का पूर्वकाल से ही प्रभाव मिलता है यहां भी सन्त मुनि धर्म के प्रसार के उद्देश्य से राजा के निमन्त्रण को स्वीकार करते हैं ।) सूरिजी के उपदेश को सुनकर सभी ने उन्हें हर्ष पूर्वक जाने की अनुमति दे दी। Pandu . RUPHASHAre सूरिजी मार्ग शीर्ष कृष्णा सप्तमी सम्वत 1638(सन् 1581) को गन्धार से बिहार कर अहमदाबाद आये अहमदाबाद पहुंचने पर वहां के सूबेदार माहब खो में सम्राट द्वारा लिखे गये पत्र के आदेशानुसार उन्हें वे सभी चीजे भेंट करनी चाही लेकिन मूरिजी ने जैन धर्म के अपरिग्रह व्रत के नियमानुसार मी...कुन ग्रहण करने से इन्कार कर दिया। कुछ दिन अहमदाबाद में रुककर फतेहपुर सीकरी की ओर बिहार कर दिया । फतेहपुर सीकरी पहुंचने से पहले सूरिजी सांगानेर के उपाश्रय में ठहरे। उनके साथ के प्रमुख मुनियों ने सूरिजी को वहीं छोड़कर, बादशाह का मन्तव्य जानने के लिए सीकरी की ओर बिहार किया और वहां पहुंचकर यह सन्देश दिया कि सूरिजी बादशाह के आमन्त्रण पर RecemenXSARighwa jTAINGINE awaraveena - 1. सूरीश्वर और सम्राट कृष्णलाल वर्मा द्वारा अनुदित पृष्ठ 90-91 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 53 ) सागानेर पधार चुके हैं । बादशाह ने मुनियों का स्वागत कर उनके साधू-स्वभाव एव त्यागी होने का कारण पूछा । यथेष्ठ उत्तर मिलने पर बादशाह सन्तुष्ट हुआ और उनके गुरु हीरविजयसूरिजी से मिलने की इच्छा और भी तीव्र हो गई । बादशाह का मन्तव्य जानकर मुनियों ने कुछ श्रावकों को सूरिज़ी के पास भेजा कि बादशाह सूरिजी के दर्शन और धर्मोपदेश सुनने के लिए चातक पक्षी की तरह आतुर है कोई अन्य कार्य नहीं है । ज्येष्ठ सूदी तेरस सम्वत् 1639 (सन् 1582) को सूरिजी फतेहपुर सीकरी पहेचे । अब सूरिजी सिंह द्वार पर थे अबुलफजल ने बादशाह को यह शुभ समाचार सुनाया कि सभी तक सय जिनमे मिलने की उत्कण्ठा में थे, वे ही आज पधार चुके है। लेकिन शायद कुछ कार्य व्यवस्था या अन्य किसी कारण से अकबर ने उस समय सूरिजी से भेंट करने में असमर्थता जाहिर की। उस दिन की सूरिजी की सारी व्यवस्था की जिम्मेदारी अबुलफजल को सौंप दी गई ।... यहां एक प्रश्न उतना स्वाभाविक है कि जिनसे मिलने के लिए अकबर तक पक्षी की तरह आतुर था बही जब फतेहपुर में सिंह द्वार तक आ जाते ते हैं तो बादशाह कार्य व्यस्तता का बहाना कर मिलने से इन्कार कर देता है खिर ऐसा क्या कारण हो सकता है ? ऐसा लगता है कि यह बादशाह के दरा ब्यसन का परिणाम था क्योंकि इसी व्यसन के कारण अनेक अविवेकी वहार हो जाते हैं और बादशाह में यह दुर्गुण था कि जब उसे मदिरापान की छा होती थी तब वह महत्वपूर्ण कार्यों को छोड़ देता था, यहां तक कि चाहे तनी भी ऊंची श्रेणी के मनुष्य को मिलने के लिए बुलाया होता तो उससे भी मिलकर अपनी शराब पीने की इच्छा को पूर्ण करता था। इसलिए उस दिन दशाह सूरिजी से न मिल सके स्मिथ ने लिखा है-"बादशाह को उनसे रविजयसूरिजी से) वार्तालाप करने का अवकाश मिला तब तक बे अब्लफजल के । बैठाये गये थे" Ans भव्यानन्दजी का कहना है अबुलफजल ने सूरिजी से कुशल क्षेम पूछने गद धर्म सम्बन्धी अनेक बातें पूछी। कुरान और खुदो के विषय में नाना र के जबाव सवाल किये जिनका उत्तर सूरिजी ने बड़ी गम्भीरता से युक्ति 8. “The weary traveller was received with all the pomp of imperial pageantry, and was made over to the care of Abul Fazl until the sovereign found leisure to converse with him." Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Micot .. ... (54) संगत प्रभाणों द्वारा खण्डन-मंडन करते हुए दिया । सूरिजी के विचारों से अबुलफजल बहुत प्रभावित हुआ" भानुचन्द्र गणिचारित से भी इस बात का विवरण मिलता है कि अकबर से पहले सूरिजी की भेंट अबुल फजल से हुई । "मृतों का पुनरुत्थान" और "मुक्ति" इन दो प्रश्नों पर दोनों में चर्चा हुई। सूरिजी, ने ईश्वर, का वास्तविक स्वरूप बताया और कहा कि सुख दुख का देने वाला ईश्वर नहीं बल्कि जीव में कम है। अबुलफजल सरिजी के विद्वतापूर्ण तों से बहुत प्रभावित हुआ। बादशाह ने अपने काम से निवृत हो दरबार में आते ही सूरिजी को अबुलफजल द्वारा बुलवाया सिरिजी अपने तेरह साधुओं के साथ दरबार में पधारे । अद्भत फकीर के रूप में आते हुए गुरुदेव को देखते ही बादशाह ने सविनय सिर झुकाकर नमन पूर्वक शिष्टाचार के साथ गुरुराज के पीछे अपने दरबार में जाने के लिए कदम उठाया । महल में जाने पर बादेशाह ने रत्नजड़ित सिंहासन प्ररा सूरिंजी से बैठने की प्रार्थना का इस पर सुरिजा ने कहा कि प्रायः इक ना कोई चीटी आदि सूक्ष्म जीव हो तो वजन से मर न जाये, इसलिए जैन शास्त्रों में केवली सर्वज्ञों ने हिसावादियों के लिए वस्त्राच्छादित जगह पर पांव रखने की भी मनाही की है। हमारा आचार है कि चलना हो, बैठना हो तो अपनी नजर से देखकर चलना बैठना जिसमें त्रिी जीव को दुख न हो । धर्मशास्त्र भी फरमाते हैं "दृष्टि पूतं समेत पांटम" NCERTerma Mist Homemiergamesus a RHAADM I NILIPuntantan मनुस्मृति में भी लिखा है कि "शरीर पीड़ित होने पर भी दिन में व रात्रि में जीवों की रक्षा के लिए सदा भूमि देखकर चलना चाहिए"3 बादशाह सूरिजी की जीवों के प्रति ऐसी दया देखकर आश्चर्य चकित हुआ और मन ही मन हंसा भी कि यहां रोज सफाई होने पर इसके नीचे जीव कैसे आ सकते हैं ? ऐसा विचार करते ही गलीचे को एक तरफ से थोड़ा उठाया। तो बहुत सी चींटियां दिखाई दीं उन्हें देखते ही बादशाह घोर आश्चर्यचकित रह गया । उसके बाद स्वर्णमयी कुर्सी पर बैठने के लिए आग्रह किया तो सुरिजी ने 1. जगदगुरु हीर-मुमुक्षु भव्यानन्दजी पृष्ठ-52 2. भानुचन्द्र गणिचरित भूमि का लेखक अमरचन्द्र भंवरलाल नाहट पृष्ठ 6 3. संरक्षणार्थ जन्तूनां रात्रावहनि वा सदा। शरीरस्थास्थये चैव समीक्ष्य वसुधांचरेत । मनुस्मृति संस्कृत टीका पं. रामेश्वर भट्ट अध्याय 6 श्लोक 68 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... .. ... ( 55 ) तर दिया कि त्यागियों के लिए धातु का स्पर्श करना सस्त मना है । अब बाद. हि असमंजस में पड़ गया कि सूरिजी को कहीं बिठाये कि इतने में सूरिजी wो अपना ऊनी 'आसन बिछाकर शिष्यों सहित बैंठ गर्थे । बादशाह भी सूरिजी सामने ही यथोचित आसन पर बैठ गया। कुशलक्षेम पूछने के पश्चात् बादशाह रा पूछे जाने पर सूरिजी ने जैन धर्म के बड़े-बड़े 'तीर्थी के नाम शत्रुत्जय, मिरनार, बू सम्मेत शिखर और अष्टापद आदि बताये अब अकबर ने जिस उद्देश्य सूरिजी को बुलाया था यानि धर्मोपदेश के लिए, उन्हें चित्रशाला के कमरे & गया। सामान्य उपदेश के बाद बादशाह ने सूरिजी' से 'ईश्वर और खुदा भेद पूछा । सूरिजी ने बताया कि ईश्वर और खुदा में नाम मात्र के अलावा तविक कोई भेद नहीं है । और वास्तव में देखा जाये तो यह भेद भी जीवों कल्याण के लिए ही है क्योंकि विचित्र रूपा खलु चित्त वृत्तयः अर्थात् जीवों की उत्तवृत्तियां अनेक प्रकार की हैं। कोई किसी नाम से खुश रहता है तो. कोई सी नाम से । इसी तरह महापुरुषों के भी अनेक नाम हैं । देव, महादेव, शिव कर, हरि, ब्रह्मा, परमेष्टी, स्वयंभू, त्रिकालविंद, भगवान, तीर्थकर, केवली, निश्वर, अशरीरी, वीतराग आदि ईश्वर के अनेक नाम हैं इन नामों के अर्थ तो किसी को विवाद नहीं सिर्फ नामों में ही विवाद है ईश्वर 18 दूषणों से हत होता है, ईश्वर प्रणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान; या, लोभ, राग, द्वेश, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, रति अरति, परपरिवार, यामषावाद, मिथ्यात्वशल्य, इन अठारह दूषणों में से एक भी दूषण होने पर उसे हवर नहीं कहा जायेगा। अन्त में सूरिजी ने ईश्वर का संक्षिप्त स्वरूप इस र बताया कि__ "जिसमें क्लेश उत्पन्न करने वाला “राग" नहीं है शांति रूपी काष्ट को ने वाली अग्नि के सम्मान "वैष" नहीं है। शुद्ध सम्यम् ज्ञान को नाश करने it और अशुभ आचरणों को बढ़ाने वाला “मोह" नहीं है और तीन लोक में जो मामय है वही "महादेव" है, जो सर्वज्ञ है, शाश्वत सुख का भोक्ता है और हुने सब तरह के कर्मों को भय करके मुक्ति पाई है तथा परमात्म पद को किया है वही "महादेव" अथवा "ईश्वर" है । दूसरे शब्दों में कहें तो ईश्वर होता है जो जन्म, और मृत्यु से रहित होता है जिसके रूप, रस गधि और नहीं होते है और जो अनन्त सुख का उपयोग करता है"। बादशाह के पूछने पर कि ईश्वर एक है या अनेक ? सूरिजी ने बताया कि 1. सूरीश्वर और सम्राट-कृष्णलाल वर्मा द्वारा अनूदित पृष्ठ 116-117 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 56 ) ईश्वर एक भी है और अनेक भी । संसार से जो व्यक्ति कर्मों का क्षय करके मुक्ति में जाते हैं वह व्यक्ति रूप जाने से ईश्वर अनेक है जब संसार से मुक्त होने पर वे सभी आत्मायें स्वरूप से एक हो जाती हैं तो उस दृष्टि से ईश्वर एक है । ईश्वर का स्वरूप जान लेने से स्पष्ट है कि ईश्वर पुनः संसार में जन्म नहीं लेते क्योंकि उनके सारे कर्म छूट जाते हैं जब सब कर्म छूट जाते हैं तभी यह आत्मा ईश्वर बनती है, ईश्वर की कोई इच्छा नहीं होती, जब इच्छा नहीं होती तो किसी कार्य में प्रवृत्ति भी नहीं हो सकती। इसलिए जैन धर्म के सिद्धान्त के अनुसार ईश्वर किसी चीज को बनाते नहीं किसी को सुख-दुख नहीं देते । संसार के जीव जो सुख दुख भोग रहे हैं। वे अपने कर्मों के अनुसार भोगते हैं। यद्यपि ईश्वर की किसी काम में प्रवृत्ति नहीं होती फिर भी उसके उपसिना करना परम आवश्यक है । उपासना उसकी करना चाहिए जो इस संसार से मुक्त हो गया हो, फल प्राप्ति का आधार देना लेना नहीं हैं, जिसे सरह दान देने वाला जिसे दान देता है उससे फल नहीं पाता, किन्तु दान देने के समय उसकी सद्भावना ही फल होती है, उसी तरह ईश्वर की उपासना करने, के समय जो हमारा अन्त करण शुद्ध होता है, वही उत्तम फल है, इसलिए, ईश्वर की उपासना करना चाहिए । ईश्वर का स्वरूप बताने के बाद सूरिजी ने "गुरू" का स्वरूप इस प्रकार बताया "गुरू वे ही होते हैं जो पांच महाव्रतों-हिंसा, सत्य, अस्तया ब्रह्मच्य और अपरिग्रह का पालन करते हैं, भिक्षावृत्ति से अपना जीवन निर्वाह करते हैं, जो स्वभाव रूप सामायिक में हमेशा स्थिर रहते हैं और जो लोगों को धर्म का उपदेश देते हैं गुरू के इन संक्षिप्त लक्षणों का जितना विस्तृत अर्थ करना हो, हो सकता है अर्थात् साधू के आचार्य, विचारों और व्यवहारों का समावेश उपर्युक्त पांच बातों में हो जाता है । गुरू में दो बातें जो सबसे बड़ी हैं-तो होनी ही चाहिए 1-स्त्री संसर्ग का अभाव । 2-मूर्छा का त्याग। जिसमें ये दो बातें न हो वह गुरू होने या मानने योग्य नहीं होता। इन बातों की रक्षा करते हुए गुरू को अपने भाचार व्यवहार पालने चाहिए गुरू लिए और भी बातें कही गई है वह अच्छे स्वादु और गरिष्ठ भोजन का बार-बा उपयोग न करें, दुस्सह कष्ट को भी शान्ति के साथ सहे, इबका गाड़ी, घोड़ा, ऊ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाथी, और रथ आदि किसी भी तरह के वाहन की सवारी न करे। सत, वचन और काम से किसी जीव को कष्ट न दे, पांचों इन्द्रियां वश में रखे, मान अपमान की परवाह न करे, स्त्री पशु और नपुंसक के सहवास से दूर रहे, एकान्त स्थान में स्त्री के साथ वार्तालाप न करे, शरीर सजाने की ओर प्रवृत्त न हो, यथाशक्ति सदेव, तपस्या करता रहें, चलते फिरते उठते बैठते और खाते पीते, प्रत्येक क्रिया में उपयोग रखे रात में भोजन न करें, मन्त्र, यन्त्रादि से दूर रहें और अफीम वगैरह के व्यंजनों से दूर रहें। ये और इसी तरह अनेक दूसरे आचार साधू और गुरू को पालने चाहिए। थोड़े शब्दों में कहें तो "गृहस्थानां यदभूषणं " ( ग्रहस्थों के लिए जो भषण है साधुओं के लिए वही दूषण रूप है) । इस तरह देव, गुरू का स्वरूप जानने के बाद धर्म की उत्पत्ति और धर्म के लक्षण के विषय में पूछा । सूरिजी ने बताया कि जैन धर्म का सिद्धान्त कहता हैं कि धर्म की कभी उत्पत्ति नहीं होती, धर्म तो अनादि काल से चला आया है । धर्म तो धर्मी में उसी प्रकार रहता है जैसे गुण गुणी में रहता है । शास्त्रों के अनुसार "बस्थ सहाको धम्मो" अर्थात् जिस वस्तु का जो स्वभाव है, वही उसका धर्म है जैसे अग्नि का स्वभाव उष्णता है तो वही अग्नि का धर्म है, पानी का स्वभाव शीतलता है तो वही पानी का धर्म है । इसी प्रकार सच्चिदानन्दमयता अथवा ज्ञान, दर्शन और चरित्र । आत्मा का धर्म है संसार की ऐसी कोई भी चीज जिससे हृदय शुद्ध हो, एवं पवित्रता हो, कमों का क्षय हो, आत्मा का विकास हो वह सब धर्म है। दान देना ब्रह्मचर्य पालन करना दूसरे की सेवा करना, अहिंसा और संयम का पालन करना यह सब धर्म है । सार रूप में सूरिजी ने धर्म का लक्षण इस प्रकार बताया "संसार में अज्ञानी मनुष्य जिस धर्म का नाम लेकर क्लेश करते हैं, जिस धर्म के द्वारा मनुष्य मुक्त बनना और सुख लाभ करना चाहते हैं उस धर्म में क्लेष नहीं हो सकता है । वास्तव में धर्म वह है जिससे अन्तःकरण की शुद्धि होती है (अन्तःकरण शुद्धत्वं धर्मत्वम्) वह शुद्धि चाहे किन्ही कारणों से हो । दूसरे शब्दों में कहें तो धर्धं वह है जिससे विषय वासना से निवृत्ति होती है । ( विषय निवृत्तित्वम् ) यह धर्म का लक्षण है दूसरे, इसमें क्लेश को कहां अवकाश है ? इन लक्षणों वाले धर्म को मानने से क्या कोई इन्कार कर सकता है ? कदापि नहीं । संसार में असली धर्म यही है और इसी से इच्छित सुख मुक्ति सुख प्राप्त हो सकता है। 28 1. सूरीश्वर और सम्राट कृष्णलाल वर्मा पृष्ठ 117 118 2. सूरीश्वर और सम्राट कृष्णलाल वर्मा पृष्ठ 118-119 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 58 ) प्रथम दिन की भेंट के अन्त में सूरिजी ने बादशाह को आत्मा के स्वरूप के बारे में बताया कि "आत्मा एक शाश्वत स्वतन्त्र द्रव्य है उपादान के अभाव में इसकी उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती, जिसकी उत्पत्ति नहीं उसका विनाश भी नहीं है । गीता में कृष्ण ने कहा है जो नहीं है, वह पैदा नहीं हो सकता । जो है उसका नाश नहीं हो सकता तस्वदशियों में असत् और सत् का यही हार्द माना है । आत्मा का मुख्य लक्षण ज्ञान है । वह किसी भी योनि में ज्ञान व अनुभूति शून्य नहीं होती । ज्ञान एक ऐसा लक्षण है जो इसे जड़ पदार्थों से सर्वथा पृथककर देता है । अपने ही अर्जित कर्मों के अनुसार वह जम्म और मृत्यु की परम्परा में चलती हुई नाना योनियों में वास करती है वह सदैव अमर है उसे कोई नष्ट नहीं कर सकता जैसा कि कृष्ण ने भी कहा हैं-- "जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को उतारकर नवीन वस्त्रों को धारण करता है उसी प्रकार ( आत्मा ) जीणं शरीर छोड़ती है और नये शरीरों को प्राप्त करती है। आत्मा को शास्त्र नहीं छेव सकते, न उसे अग्नि ही जला सकती है । न उस पर पानी का असर होता है और न ही हवा का अर्थात् पानी उसे आम्र नहीं कर सकता और हवा उसे सुखा नहीं सकती ? आत्मा तो अपने ही पुरुषार्थ से कर्म परम्परा का उच्छेद कर सिद्धावस्था को प्राप्त कर लेती है जहाँ उसका चिन्मय स्वरूप प्रकट हो जाता है। आत्मा संकोच विको स्वभाव वाली होती है। उसके असंख्य प्रदेश होते हैं जो सूक्ष्म से सूक्ष्म स्थान में भी समा जाते हैं और फैलने पर सारे विश्व को भी भर सकते हैं । सकर्म आत्मायें शरीर परिमाण आकाश का अवगाहन करती है । हाथी और चींटी की आत्मा समान है अतर केवल इतना ही है कि यह हाथी के शरीर में व्याप्त है और वह चींटी के शरीर में । मृत्यु के बाद हाथी की आत्मा 1. नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः श्रीमद्भगवद् गीता अध्याय 2 श्लोक 16 2. वासंसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहाति मराडपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देहि || मैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः म चैनं क्लेदयमापो न शोषयति मारुतः । श्रीमद्भगवद् गीता ध्याय 2 श्लोक 22-23 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 59 ) यदि चींटी की योनि में आती है तो सकोच स्वभाव से उसके शरीर में पूरी पूरी समा जाती है उसका कोई अंश की नहीं रह जाता। इसी प्रकार मच चींटी की आत्मा हाथी का भव धारण करती है तो उसकी आत्मा हाथी के शरीर मैं पूरी तरह व्याप्त हो जाती है । शरीर कहीं खासी नहीं रहता। प्रत्येक आत्मा कृत कर्मों का नाश कर परमात्मा बन सकती है। समस्त आत्मायें अपने आप में स्वतन्त्र हैं वे किसी अखण्ड सत्ता की अंश रूप नहीं है। जन्म मरण शील संसार के उस पार पहुंचना उसका ध्येय है । यह शरीर एक नाव है, जीव नाविक और संसार समुद्र । इसी संसार समुद्र को महर्षिजन पार करते हैं। बादशाह के पूछने पर कि कर्म मुक्त आत्मा कैसे संस्थान करती है ? सूरिजी ने कहा जब आत्मा कर्मों का क्षय कर सर्वथा मल रहित होकर सिद्धि को पा लेती है तब लोक के अंग्रभाग पर स्थित होकर वह शाश्वत सिद्ध हो जाती है । जैनागमों में कहा गया हैं "जो आत्मा है वही विज्ञाता है, वही आत्मा है जो इसे स्वीकार करता है वह पण्डित है, वह आत्मवादी है।" बादशाह ने पूछा कि सुख दुख क्यों होते हैं ? सूरिजी ने बताया सप्रयुक्त और दुष्प्रयुक्त आत्मा अपने आप ही सुख दुख का कर्ता और विकर्ता है, और अपने आप ही मित्र और अपने आप ही अमित्र है। अयत्नपूर्वक बोलता हुआ जीव प्राणी और भूतों की हिंसा करता है और पाप कर्म बांधता है उसका फल उसे कटु मिलता है। आत्मा, जीव, चेतन सब एक ही शब्द हैं। आत्मा का मूल स्वरूप सच्चिदानन्दमय हैं । आत्मा ईश्वर की तरह अरूपी है लेकिन ईश्वर और आत्मा में इतना ही फर्क है कि ईश्वर निरावरण है और आत्मा आवरण सहित । इन मावरणों को जैन शास्त्र में कर्म कहते हैं । आत्मा के ऊपर कर्म चिपके होने से यह आत्मा नीचे रहती है। जैसे तुबे का स्वभाव तो पानी में तैरने का है यदि उसके ऊपर मिट्टी और कपड़े का लेप कर उसे खूब वजनदार बना दिया जाये तो वही तुबा पानी में तैरने के बजाय डूब जायेगा, ठीक यही दशा इस . आत्मा की है। आत्मा के साथ कर्मों का बन्धन होने से ही आत्मा को परिभ्रमण करना 1. ऐ आया से विनाया । जे विनाया से आया। जेण विजाणति से आया तंपडुच्च परिसंखायए एस आयावादी समियाए परियाए वियाहितेत्तिबेमि आचारांग सत्रम श्रुतस्कन्ध प्रथम पृष्ठ 84-85 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 60 ) पड़ता है। जैन धर्म के अनुसार आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि काल से है । अनादिकाल से आत्मा के साथ राग-द्व ेष लगा हुआ है, लेकिन जिस प्रकार खाम में माटी और सोना मिले होने पर भी उसे प्रयोगों द्वारा अलग-अलग किया जा सकता हैं । कर्म और आत्मा अलग होने से आत्मा अपने असली शुद्ध स्वरूप में आ जाती है । इस तरह बादशाह ने सूरिजी के मुख से देव, गुरु, धर्म और आत्मा के विषय में ज्ञान प्राप्त कर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की । अगले दिन बादशाह ने अहिंसा और दया पर सूरिजी से चर्चा की अहिंसा के बारे में बताते हुए सूरिजी ने कहा अहिंसा जैन धर्म का मूल तत्व है जो कोई प्राणी हिंसा करता है, वह नरक में पड़ता हैं । चार कारणों से जीव नरक योग्य कर्म बांधता है | महारम्भ, महापरिग्रह, पंचेन्द्रिय वध और मांसाहार | हिंसा अथवा मांसाहार तो दूर उससे सम्बन्धित पुरुष भी जैन शास्त्रों में पाप का भोगी बताया गया है । मारने वाला, मांस खाने वाला, पकाने वाला, बेचने वाला, खरीदने वाला, अनुमति देने वाला तथा दाता ये सभी घातक हैं । मनुस्मृति में भी लिखा है कि "सम्मति देने वाला, काटने वाला, मारने बाला, मोल लेने और बेचने वाला, पकाने वाला, लाने वाला और खाने वाला ये घातक होते हैं अतः हे राजन् मन वचन और काया में से किसी एक के द्वारा भी किसी प्रकार के जीवों की हिंसा न हो ऐसा व्यवहार ही संयमी जीवन है । नित्य अहिंसा व्यापार बर्तना उचित है। ज्ञानी के ज्ञान का सार यह है कि वह किसी की हिंसा नहीं करता । " एक यह भी विचार करने की बात है कि एक पक्षी को मारने वाला एक ही जीव का हिंसक नहीं हैं किन्तु नेक जीवों का हिंसक है, क्योंकि जिस पक्षी की मृत्यु हुई है यदि वह स्त्री जाति हैं और उसके छोटे छोटे बच्चे हैं तो वे मां के मर जाने से क्या जिन्दा रह सकते हैं, कभी नहीं । एक और सोचने की बात है कि खुदा दुनियां का पिता है तब दुनियां के बकरी, ऊंट, गौ वगैरह सभी प्राणियों का वह पिता हुआ तो फिर वह खुदा अपने किसी पुत्र के मारने में खुश किस तरह होगा ? अगर हो तो उसे पिता कहना उचित नहीं । इसलिए बकरा, ईद के रोज जो मुसलमान लोग हिंसा करते हैं, कितना अत्याचार करते हैं। "2 1. अनुमन्ता विशसिता निहन्ता, क्रय विक्रयी । संस्कर्ता, चोपहर्ता, च खादकश्चेति घातकः मनुस्मृति - पण्डित रामेश्वर भट्ट अध्याय 5 श्लोक 51 2. जेंगदगुरूहीर - मुमुख भव्यानन्द विजय पेज 73 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री हीरविजयसूरिजी बादशाह अकबर को धर्मोपदेश देते हुए . Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 61 ) "क्योंकि जो पुरुष अपने सुख की इच्छा से अहिंसक प्राणियों को मारता है जीता हुआ और मरा हुआ कहीं भी सुख नहीं पाता है ।"" " महाभारत के अनुशासन पर्व में शंकरजी पार्वती की शंका का समाधान ते हुए कहते है" कि "जो पराये मांस से अपने मांस को बढ़ाना चाहता है वह कहीं भी जन्म लेता है वहीं उद्वेग में पड़ा रहता है ।" मनुष्य विविध प्राणों की हिंसा में अपना अनिष्ट देख सकने में समर्थ है र उसका त्याग करने में समर्थ है । जो मनुष्य अपने दुख को जानता है वह हर के दुख को भी जानता है, जो बाहर का दुख जानता है वह अपने दुख को जानता है । शांति प्राप्त संयमी असंयमी जीवन की इच्छा नहीं करते। वे तो किा विचार कर पाप को दूर से ही इस तरह छोड़ देते हैं जिस तरह मृगादि बी में विचरने वाले जीव सिंह से सदा भयभीत रहते हुए एकान्त में चरते हैं । त के हर प्राणी को अपने समान ही समझना चाहिए। आचारांग सूत्र में भी है - हे पुरुष । जिसे तू मारने की इच्छा करता है वह तेरे ही जैसा सुख-दुख अनुभव करने वाला प्राणी है जिस पर हुकुमत करने की इच्छा करता है, वार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है, जिसे दुख देने का विचार करता है, वार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है, जिसके प्राण लेने की वारकर, वह तेरे जैसा ही प्राणी है । इच्छा करता है, सत्पुरुष इसी तरह विवेक रखता हुआ, जीवन बिताता है, न किसी को रता है और न किसी का घात करता है। जो हिंसा करता है, उसका फल वैसा ही पीछे भोगना पड़ता है, अतः वह सी भी प्राणी की हिंसा करने की कामना न करे" 8 1. यो हिसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुसे च्छ्षा स जीवश्च मृतश्चैव न क्वचित्सुखमेधते ॥ मनुस्मृति पण्डित रामेश्वर भट्ट उपाध्याय 5 श्लोक 45 2. स्वमांस परमांसेन, यो वर्ध यतुमिच्छति, उद्विग्नवांस लभते लभते यत्र यत्रोपजायते महाभारत- - भाग 6 अनुशासन पर्व पृष्ठ 5990 3. तुमंस नाम तचेव, जं हतध्वंति मनसि । तुमसि नाम तं चेत जाँ अज्जावेव्वति मन्नसि । तुमंसि नामत चेव, जं परितावेयव्वंति मनसि । तुमंसि नाम तंचैव जं परिधेतव्यंति मन्नसि । एवं तुमंस नाम तंचेव, ज उद्दवेति मनसि । अंजू' चेयपडिबुद्धजीवी तम्हा हंता, विधाए, अणुसंवेयण - मप्पाणेणं, जं जंतन्वं णाभिपत्थए । आचारांग सूत्रम् श्रुतस्कंध प्रथम पृष्ठ 84 पर Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 62 ) इन विचारों की पुष्टि महाभारत से भी होती है "जैसे अपने मांस काटना अपने लिए पीडाजनक होता है, उसी तरह दूसरे का मांस काटने पर ज भी पीड़ा होती है । यह प्रत्येक विज्ञपुरुष को समझना चाहिए"1 वैसे भी देखा जाये तो जितने मांसाहारी प्राणी हैं उन सभी के स्वभाव ओं मनुष्य जाति के स्वभाव में बहुत अन्तर है। सिंह, बाघ, कुत्त आदि मांसाहा प्राणी हैं ये अब जीभ द्वारा पानी पीते हैं, क्या मनुष्य भी इस प्रकार पानी पीना हैं ? नहीं। मांसाहारी प्राणियों के दांत स्वाभाविक ही टेढ़े वक्र के होते हैं जबकि मनुष्य के दांत वैसे नहीं होते। मांसाहारी प्राणियों की जठराग्नि इतनी ते होती है कि उनको मांस का पाचन हो जाता है, मनुष्यों की जठाराग्नि वैसी नह होती। सच बात तो यह है कि मांस खाने वाले मनुष्यों का पेट, पेट नहीं है किन्त एक प्रकार का कब्रिस्तान है । मरे हुए जीवों को पेट में डालना इसका नाम कत्रि स्तान नहीं तो और क्या है ? । आइये, जरा एक नजर इस पर भी डालें कि क्या इस तरह के मांसाहारी धर्म क्रिया करने के योग्य हो सकते हैं ? तात्विक दृष्टि से देखा जाये, तो मांसाहार करने वाला मनुष्य इतना अपवित्र होता है कि वह किसी प्रकार की धर्मक्रिया करने के योग्य हो ही नहीं सकता क्योंकि सभी दर्शनकारों का धर्मानुयायिओं का यह नियम हैं कि जब तक शरीर में अपवित्रता हो तब तक उससे किसी प्रकार की धमकिया नहीं हो सकती पातक विचार जो कि सब धर्म वालों को मान्य है उसका यह नियम है कि यदि धर्म स्थान के नजदीक किसी जानवर का कलेवर पड़ा हो तो उस धर्म स्थान में भी तब तक धर्म क्रिया नहीं हो सकती जब तक उस सृत कलेवर को वहां से न हटाया जाये । ऐसी स्थिति में यह विचारणीय है कि जो मनुष्य मांस भक्षण करते हैं वे प्रभु भक्ति या अन्य किसी प्रकार की धर्म क्रिया करने का अधिकार कैसे रख सकते हैं शास्त्रकारों का तो कथन है कि-"मृत स्प्रशेत् स्नानमाचरेत् ।" मुर्दे को छुओ तो स्नान करो । अब जो मनुष्य मांस खाता है वह मुर्दे को ही पे में डालता है, तब फिर वह स्नान कैसे करेगा? और स्नान करने से उसकी शुनि भी कैसे होगी ? यदि पवित्रता न होगी तो ईश्वर भक्ति, संध्या, जप, अर्था धार्मिक क्रियायें कैसे करेगा ? इस बात को गुरुनानक साहब ने भी 'गुरु ग्रंथ साहब 1. संछेदन स्वामांसस्य यथा संजनयेद् रूजम । तव परमांसेऽपि वेदतिव्यं विजानता ।। महाभारत भाग 6 अनुशासन पर्व पुष्ठ 5990 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 63 ) इस प्रकार कहा है कि "कपड़े पर खून का दाग पड़ने से शरीर अपवित्र माना ला है तो यही खून पेट में जाने से चित्त निर्मल कैसे हो सकता है।" बाहर “अपवित्रता, खून का दाग तो पानी से भी दूर हो सकता है, परन्तु हृदय की वित्रता पानी से दूर नहीं हो सकती । अतः आत्मकल्याण चाहने बालों को तो साहार से सर्वथा दूर ही रहना चाहिए। यह कथन न केवल हिन्दुओं अथवा मुसलमानों के लिए अपितु समस्त मांसा. रयों के लिए हैं क्योंकि प्रायः सभी धर्म वाले अपने-अपने शास्त्रों में दिखलायी धर्मक्रिया करते ही हैं। मुसलमान नमाज पढ़ने के समय कपड़े शुद्ध रखते हैं, पर धोते हैं इस प्रकार बाहर की शुद्धि तो हो जाती है, किन्तु मांस के आहार अन्तःकरण की शुद्धि कैसे हो? जरा इस पर भी विचार करके देखें। __ इस तरह सूरिजी ने अहिंसा के बारे में विस्तार से वर्णन किया तथा अकबर कई जगह अपनी शंकाओं का समाधान भी किया । अन्त में अहिंसा का सार जाते हुए सूरिजी ने बताया कि अहिंसा सब प्राणियों का हित करने वाली माता समान है और अहिंसा ही सार रूप मरू देश में अमृत की नाली के तुल्य है ा दुख रूप दावानल को शान्त करने के लिए वर्षाकाल की मेघ पंक्ति के समान और भव भ्रमण रूप महारोग से दुखी जीवों के लिए परम औषधि की तरह है हसा समस्त व्रतों में भी मुकुट के समान हैं। अहिंसा के फल का वर्णन करने में जुबां तो समर्थ हो ही नहीं सकती। भारत में भी कहा है--"हे कुरुपुंगव ! अहिंसा के फल का कहां-तक वर्णन 4. यदि कोई मनुष्य सौ वर्ष तक उसका वर्णन करे तो भी सम्पूर्ण रीति से वह न के लिए समर्थ नहीं हो सकता। आगे जैन धर्म में क्या के महत्व को बताते हुए सूरिजी ने बताया कि स्त जननी क्या"धर्म की माता दया हैं । सूरिजी ने अहिंसा और दया में अन्तर करते हुए बादशाह को कहा कि "किसी को तकलीफ नहीं देवा, मारना मताना नहीं, उसके दिल में चोट पहुंचाया नहीं, यह अहिंसा है लेकिन इस Minainain a maintainia LADA 1. जे रत्त लग्गे कपड़े, जामा होय पलीत्त जो रत्त पीवें मानसा, तिन किमो मिर्मल चित्त गुरु मेन्थ साहब-पृष्ठ 140 2. एतत् फलमूहिसाया भूयञ्च कुरुपुगव न ही क्या गुणा वक्त मपि वर्षशतैरपि। महाभारत-भाग 6 अनुशासन पर्व पृष्ठ 5862 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 64 ) अहिंसा का पालन कौन करेगा ? जिसके हृदय में दया होगी वहीं । इसलिए दय यह अन्तःकरण के भावों का नाम है । दुखी को देखकर के अपने हृदय में होना, यह दया है । अथवा मेरे इन शब्दों पर दूसरों को दुख होगा ऐसा विचा होना उसी का नाम दया है । इस तरह अहिंसा और दया पर सूरिर्ज के विचार सुनकर बादशाह उनके प्रति जन्म-जन्मान्तर के लिए आभार हो गया । तत्पश्चात् बादशाह और सूरीजी के बीच धार्मिक चर्चा हुई जिसका विस्तृत विवरण हीर सौभाग्य काव्य के सर्ग 13 एवं 14 में मिलता है । इस चर्चा से बादशाह बादशाह को विश्वास हो गया कि सूरिजी कोई असाधारण महापुरुष हैं इसलिए उसने सूरिजी से पूछा - "मेरी मीन राशि में शनिचर की दशा बैठी है लोगों का कहना है कि यह दशा बहुत कष्ट देने वाली होती है आप ऐसी कृपा करें जिससे यह दशा मिट जाये । इस पर सूरि जी ने कहा यह ज्योतिष का विषय है जबकि मेरा विषय धर्म है इसलिए मैं इस विषय में कुछ भी कहने में असमर्थ हू बादशाह ने कहा मेरा ज्योतिष के साथ सम्बन्ध नहीं है आप मुझे कोई ऐसा ताबीज, यन्त्र मन्त्र दो जिससे मुझे इस ग्रह से शान्ति मिले, सूरिजी ने कहा, वो भी हमारा काम नहीं है । आप सब जीवों पर रहम नज़र कर अभयदान दोगे तो आपका भला होगा निसर्ग का नियम है कि दूसरे की भलाई करने वालों क अपनी भलाई होती है । इस तरह बहुत अनुनय, विनय करने पर भी जब सूरिजी अपने आचार के विपरीत कार्य करने को तैयार न हुए तो बादशाह बहुर प्रसन्न हुआ । सूरिजी के चरित्र और पांडित्य का बादशाह पर गहरा प्रभाव पड़ा । बाद शाह के पास पदमसुन्दर नामक साधु का ग्रन्थालय था उसने सूरिजी से उ पुस्तकों को ग्रहण करने की प्रार्थना की । सूरिजी ने मना किया मगर बादशा के बहुत आग्रह करने पर पुस्तकें लेकर अकबर के नाम से आगरा में पुस्तकालभ की स्थापना कर उन पुस्तकों को वहां रख दिया" सूरिजी ने कहा जब ह पुस्तकों की जरूरत होगी, तब हम पुस्तकें मंगवा लेगें। सूरीवर जी का ऐसा त्या! देखकर बादशाह के मन पर बहुत प्रभाव पड़ा । इस तरह बादशाह और सूरिजी की प्रथम भेंट समाप्त हुई, तत्पश्चा सूरिजी चातुर्मास के लिए आगरा पधारें । पर्युषण के दिन निकट आ 1. विजयप्रशस्ति काव्य-पण्डित हेमविजयगणि सर्ग 9 श्लोक 42 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 65 ) आगरा प्रमुख श्रावक सूरिजी की सम्मति ले पर्युषणों में जीव हिंसा बन्द के लिए बादशाह के पास गये । बादशाह ने पूछा कि सूरिजी ने मेरे लिए आज्ञा दी है तो श्रावकों ने कहा कि बादशाह ने पर्युषणों में जीव हिंसा बन्द के लिए निवेदन किया है । बादशाह ने आठ दिन तक हिंसा बन्द रहे इस का फरमान लिख दिया । सम्वत् 1639 (सन् 1582 ) के पर्युषण के आठ के लिए यह घोषणा हुई थी' हीर सौभाग्य काव्य और जगद्गुरु काव्य में उल्लेख नहीं है । कल्याण विजयजी की तपागच्छ पट्टावली में इन आठ दिनों विवरण मिलता है 2 इस सम्वत् 1639 (सन् 1582) का चतुर्मास पूर्ण होने पर सूरिजी शौरीपुर की यात्रा करके पुनः आगरा गये । इसी समय की भेंट में बादशाह ने सूरिजी से अपने कल्याण के लिए कोई सेवा याचना की । सूरिजी जो उद्देश्य लेकर गन्धार से चले थे उसे पूरा करने के लिए हमेशा अवसर की तलाश में रहते थे । समय भी सुअवसर देखकर सूरिजी ने बादशाह से पिंजड़ों में बन्द पक्षियों को मुक्त करने के लिए कहा। बाहशाह ने सूरिजी के इस अनुरोध का पालन किया और साथ ही फतेहपुर सीकरी के डाबर तालाब में मछलियां न पकड़ने का हक्म जारी किया | इस बात का उल्लेख "हीर विजय सूरिरास, भानुचन्द्र गणिचरित और जैन एतिहासिक गुर्जर काव्य संचय में भी मिलता है हीरसौभाग्य काव्य में देवविमल गणि ने भी इसकी सालाब जो अनेक प्रकार की मछलियों से भरा हुआ था, निषेध कर दिया पुष्टि की है कि डाबर मछलियां पकड़ने का किन्तु हीरसोभाग्य में इस पद्म की टीका में श्रीदेव विमलजी ने ही प्रेरणा स्वरूप श्री शान्तिचन्द्र जी का नाम लिखा है, स्वयं शान्तिचन्द्र मुनि ने अपने "कृपारस कोष” नामक काव्य में श्री हीरविजयसूरि जी की प्रेरणा से किये गये 1. सूरीश्वर और सम्राट - कृष्णलाल वर्मा पृष्ठ 123 2. तपागच्छ पट्टावली - कल्याण विजयजी पृष्ठ 232 3. हीरविजयसूरिरास - प. ऋषभदास पृष्ठ भानुचन्द्रगणिचरित - भूमिका लेखक पृष्ठ 72 जैन एतिहासिक गुर्जर काव्य संचय श्री जैन आत्मानन्द सभा भावनगर पृष्ठ 201 4. हीरसौभाग्य काव्य सर्ग 14, श्लोक 195 128, ढाल पांचवी, अगरचन्द्र भंवरलाल नाहटा Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dt.issnase and ey ( 66 ) अकबर के सत्कार्यो की गणना प्रसंग में ही डाबर सरोवर में मीनों के अभयदान का वर्णन किया है। इसी समय अवसर पाकर सूरिजी ने बादशाह को पयूषणों के आठ दिनों में सारे राज्य में जीव हिसा बन्द करने का फरमान निकालने का उपदेश दिया । सूरिजी के उपदेश से बादशाह ने अपने कल्याण के लिए उनमें चार दिन और जोड़कर (भादवा वदी दसमी से भादवा सुदी छठ तक) बारह..दिन के लिए फरमान लिख दिया, इस फरमान की छ: नकलें करवाकर इस प्रकार भेजी 1-गुजरात और सौराष्ट्र 2-दिल्ली, फतेहपुर आदि 3-अजमेर, नागौर आदि 4-मालवा और दक्षिण देश 5-लाहौर और मुल्तान 6-सूरिजी को सौंपी गई हीरविजय सूरिरास और जगद्गुरु हीर में भी इसका वर्णन मिलता है। 'फरमान देते हुए अकबर ने सूरिजी से कहा कि मेरे अनुचर मांसाहार और मद्यपान के प्रेमी हैं, उन्हें जीव हत्या बन्द करने की बात एकदम से रूचिकर नहीं लगेगी, इसलिए मैं धीरे-धीरे बन्द कराने की कोशिश करूंगा। पहले की तरह मैं भी शिकार नहीं करूंगा और ऐसा प्रबन्ध कर दूंगा कि प्राणीमात्र को किसी तरह की तकलीफ न हो। सूरिजी के विवेक पर बादशाह इतना मुग्ध हुआ कि उसने सोचा कि ये तो जैन गुरू न होकर जगद्गुरू हैं अतः उसने सारी प्रजा के समक्ष मुरूदेव को जगद्गुरू की पदवी दे दी । इस समय बादशाह ने महान उत्सव मनाया। एक दिन बीरबल के हृदय में सरिजी की ज्ञान शक्ति मापने की इच्छा हुई । बादशाह की रजा लेकर उसने सूरिजी से पूछा कि क्या शंकर सगुण हैं ? सूरिजी ने जबाव दिया- हां शंकर तो संगण है बीरबल ने कहा मैं तो शंकर को निगण मानता हूँ । इस पर सूरिजी ने पूछा क्या तुम शकर को ईश्वर मानते हो? बीरबल द्वारा ज्ञानी बताये जाने पर सरिजी नै फिर प्रश्न किया कि ज्ञानी का मतलब क्या है ? बीरबल ने बताया ज्ञानी का मतलब ज्ञान वाला है। सूरिजी ने कहा 1. कृपारस कोष - शान्तिचन्द्रगणि श्लोक 110 2. सूरिश्वर और सम्राट-कृष्णलाल वर्मा पेज 128 3. हीरविजयसूरिरास पेज 128, जगद्गुरुहीर पृष्ठ 83.84 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 67 ) को गुण बताते हो ? बीरबल ने कहा ज्ञान को तो मैं गुण ही मानता हूं। तो रिजी ने कहा जब तुम ज्ञान को गुण मानते हो तो तुम्हारी मान्यतानुसार ही यह शुद्ध हो जाता है कि ईश्वर "सगुण" है। w o mastamaARAMAIHDINA A samme . anSANDARADAINNERISTIANSam a kosinterest जगद्गुरू श्री मद्विजय हीरसूरिजी महाराज ने अकबर के अत्याग्रह से सम्वत 1640 (सन 1583) का चातुर्मास फतेहपुर सीकरी में ही किया। बर्मापदेश द्वारा जनता को सर्चत किया। सारजी के उपका में प र भर बादशाह ने सारे राज्य में अहिंसा पलाने की घोषणा कर दी दस से जैन धर्म की करुणा का प्रवाह सब दिशाओं में फैल गया। चातुर्मास के बाद अकबर के आग्रह से उपाध्याय शान्तिचन्द्र जी को वहीं छोड़कर सूरिजी बिहार करके आगरा होते हुए मथुरा के प्राचीन जन स्तूपों की यात्रा करते हुए ग्वालियर पहुंचे । नाथूराम प्रेमी ने हीरविजय सूरिजी के बारे में लिखा है कि "मुगल बादशाह अकबर के समय हीरविजयसूरि नाम के एक सुप्रसिद्ध श्वेताम्बराचार्य हुए हैं। अकबर उन्हें गुरूवत् मानता था । सस्कृत और गुजराती में उनके सम्बन्ध में बीसों ग्रन्थ लिखे गये हैं इन ग्रन्थों में लिखा है कि हीरविजयजी ने मथुरा से लौटते हुए गोपाचल (ग्वालियर) की बावनगजी भव्याकृति मूर्ति के दर्शन किये।" और यह मूर्ति दिगम्बर सम्प्रदाय की है, इसमें कोई सन्देह नहीं। इससे मालूम होता है कि बादशाह अकबर के समय तक भी दोनों सम्प्रदायों में मूर्ति सम्बन्धी विरोध जीव नहीं था। उस समय श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्य तक नग्न मूर्तियों के दर्शन किया करते थे। mammicromaNaIMIRMAawanSHARRAININisa k sehimmatwwinninia'. बरवाNLY सम्वत् 1641 (सन् 1584) का चातुर्मास अभिरामाबाद करने के बाद भव्य जीवा को प्रतिबोध देते हुए गांव-गांव घूमते हुए सूरिजी पुनः आगरा आये । श्री संघ के आग्रह पर सम्बत् 1642 सन 185) का चातुर्मास आगरा में ही किया । बादशाह आगरी में जगद्गुरू के दर्शन करने गया वहां जनता की बढ़ती हुई सद्भावना देखकर अत्यन्त हर्षित हुआ । इसी समय सूरिजी ने बादशाह से "जजिया" कर बन्द करने का अनुरोध किया । यद्यपि अकबर ने गद्दी पर बैठने के नौ वर्ष बाद ही अपने राज्य में "जजिया" कर लेना बन्द कर दिया था लेकिन अभी गुजरात में यह कर लिया जाता था क्योंकि गुजरात उस समय अकबर के अधिकार में नहीं था रिमाक अनुरोध करने पर बादशाह ने इस कर को उसी समयः बन्द कर दिया। हीरसौभाग्यकाव्य की टीका से भी यह बात सिद्ध होती है । इसी पुस्तक के 14 वें सर्ग के 271 वें श्लोक की टीका में लिखा है कि AyrapaHARKHER: ___1. जैन साहित्य और इतिहास-नाथूराम प्रेमी पृष्ठ 246 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 68 ) "जेजियाकाख्यो गोर्जर कर विशेष:"I अर्थात् गुजरात का विशेष कर जजिया ।। ___ इससे यह सिद्ध होता है कि सूरिजी के उपदेश से बादशाह ने जजिया बन्द करने का जो फरमान दिया, वह गुजरात के लिए था। जैन एतिहासिक गुर्जर काव्य संचय में भी शत्रुन्जय व गिरनार में "जजिया" तीर्थयात्री कर बन्द करने का उल्लेख है। जब गुजरात के पवित्र बड़े-बड़े तीर्थ स्थानों की रक्षा के लिए सरिजी ने बादशाह से अनुनय किया तो इस बारे में जगद्गुरू हीर के लेखक लिखते हैं कि "इस प्रकार जगद्गुरू के दयामय वचन सुनकर तुरन्त ही बादशाह ने अपने फरमान में गुजरात के शत्रुन्जय, पावापुरी, गिरनार, सम्मेतशिखर और केसरियाजी आदि जो जैन सम्प्रदाय के पवित्र तीर्थ हैं उनमें से किसी तीर्थ पर कोई भी मनुष्य अपनी दखल गिरी न करे और कोई जानबूझकर किसी जानवर की भी हिंसा न करे । ये सब तीर्थ स्थान जगद्गुरू श्रीमद्विजय हीरसूरिजी महाराज को सौंपे गये हैं। ऐसा फरमान अकबर ने लिखकर सूरिजी के कर कमलों में सादर सविनय समर्पण कर दिया इस तरह सूरिजी के उपदेश स बादशाह ने अपने व जगत के कल्याणार्थ अनेक कार्य किये । बादशाह जो पांच पांच सौ चिड़ियों की जीमें नित्य प्रति खाता था । सरिजी के उपदेश से मांसाहार से नफरत करने लगा । मेड़ता के रास्ते पर बादशाह ने जो हजीरे बनवाये थे, हरेक हजीरे पर हरिणों के पांच-पांच सौ सींग लगवाये थे स्वयं बादशाह के शब्दों में"-- "देखे हजीरे हमारे तुम्ह, एक सौ चऊद कीए वे हम्म । अकेके सिंग पंच से पंच पातिग करता नहीं खलखंच ॥ बदायूनी ने भी लिखा हैं "प्रतिवर्ष बादशाह अपनी अत्यन्त भक्ति के कारण उस नमर (अजमेर) जाता था और इसीलिए उसने आगरे और अजमेर के बीच में स्थान-स्थान पर जहां-जहां मुकाम होते थे महल और एक-एक कोस की दूरी पर एक कुआ और एक स्तम्भ (हजीरा) बनवाया था PanauraswoNHAAR mammeena 1. हीरसौभाग्य काव्य-पण्डित देवविमलगणि सगं 14, श्लोक 271 2. जैन एतिहासिक गुर्जर काव्य संचय-श्री जैनात्मानन्द सभा भावनगर पृष्ठ 201 3. जगद्गुरू हीर मुमुक्षु भव्यानन्द जी पृष्ठ 89 4. हीरविजय सूरिरास पण्डित ऋषभदास पृष्ठ 131 5. अलबदायूनी डब्ल्यू. एच. लों द्वारा अनुदित भाग 2 पृष्ठ 176 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 69 ) इस हिसाब से भी अकबर द्वारा हजीरे बनवाने का ऋषभदास का कथन सत्य प्रतीत होता है। इस तरह शिकार करके अनेक जीवों को मारने वाले बाद. शाह ने सूरिजी के वचनामृत से पाप कार्य करने छोड़ दिये । इतना ही नहीं, बादशाह ने चित्तौड़ की लड़ाई में जो घोर नरसंहार किया उसका पश्चाताप करते हुए कहा कि "मैंने ऐसे पाप किये हैं ऐसे आज तक किसी से नहीं किये होंगे जब मैंने चित्तौड़गढ़ जीत लिया उस समय राणा के मनुष्य, हाथी, घोड़े मारे थे इतना ही नहीं चित्तौड़ के एक कुत्ते को भी नहीं छोड़ा था। ऐसे पाप से मैंने बहुत से किल्ले जीते हैं लेकिन अब मैं भविष्य में इस तरह के दुष्काय न करने की प्रतिज्ञा करता हूं। सूरिजी ने जो उद्देश्य लेकर गन्धार से बिहार किया था, उसमें उन्हें पूर्ण सफलता मिली अतः अब उन्होंने बिहार करने का निश्चय किया वैसे भी साधुओं को ज्यादा समय तक एक स्थान पर नहीं रहना चाहिए क्योंकि एक कवि ने बहता पानी, निर्मला बन्धा सो गन्दा होय । साधू तो रमता भला, धाग न लागे कोय । हीरविजय सूरिरास में ऋषभदास ने भी लिखा है स्त्री पीहर, नरसासरे, संयमियां थिरवास । ऐ प्रणये अलखामणा, जो मन्डे घिरवास ।' अतः सूरिजी ने बादशाह के सामने बिहार करने की इच्छा प्रकट की बादTह ने धर्मोपदेश के लिए सूरिजी को और समय देने का आग्रह किया लेकिन रिजी के दृढ़ निश्चय के सामने बादशाह को उन्हें गुजरात की ओर बिहार करने अनुमति देनी ही पड़ी। बादशाह ने सूरिजी से अन्तिम अर्ज किया कि समयमय पर मेरे योग्य सेवा कार्य फरमाते रहें और आप जैसे गुरूदेव का भी फर्ज कि मेरे जैसे अद्यम सेवक को न भूलें। आचार्य हीरविजयसूरिजी अपने कार्यों द्वारा भारतीय इतिहास में अमर हैं। का जीवन स्फिटिक जैसा उज्जवल और उनका त्याग, तप, अखण्ड ब्रह्मचर्य, डित्य सूर्य की किरणों जैसा जाज्वल्यमान हैं उन्होंने अकबर को ही नहीं अपितु रात, काठियाबाड़ तथा राजस्थान के अन्य राजाओं को भी ओजस्वी वाणी रा बहुत प्रभावित किया। 1. हीरविजय सूरिरास -- पण्डित ऋषभदास पृष्ठ 141 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 70 ) 2. उपाध्याय शान्तिचन्द्र जो सम्वत् 1642 (सन् 1585) का चातुर्मास पूर्ण होते ही आचार्य हीर विजयसूरि गुजरात की ओर बिहार कर गये लेकिन बादशाह के आग्रह पर अपने विद्वान शिष्य शान्तिचन्द्र जी को नवपल्लवित पौधे की रक्षा के लिए नहीं छोः गये। शांतिचन्द्र जी जगदगुरू के विरह से खिन्न प्राणियों को अपने उपदेशामृत द्वारा सान्तवना देने लगे। और बादशाह से भी विद्वदगोष्ठी करने लगे । एक किंवदन्ती है कि एक समय अकबर बादशाह और उपाध्याय शांतिचन्द्र जी परस्पर विनोद की बातें कर रहे थे उस वक्त अकबर ने कहा कि महाराज.। कुछ चमत्कार तो दिखलाओं उत्तर में उपाध्याय जी ने कहा कि चमत्कार देखता चाहते हैं ,तो मेरे साथ आपके बगीचे में घलिये । तुरन्त ही अकबर और उपाध्याय बगीचे में गये वहां पर उपाध्याय जी ने अकबर को उसके पिता हुमायू आदि सात दाद-प्रदादाओं के दर्शन करवाये । अकबर बड़े आश्चर्य में पड़ गया और उसके हृदय में जैन धर्म के प्रति अटल श्रद्धा हो गई। निःसन्देह शांन्तिचन्द्र जी बड़े भारी विद्वान और एक साथ एक सौ आर अवधान करने की अद्भुत शक्तिः धारण करने वाले अप्रतिम प्रतिभावान थे सूरिजी के बिहार के बाद शान्तिचन्द्र जी निरन्तर बादशाह के पास जाने लगे और विविध प्रकार का सदपदेश देने लगे। बादशाह उनकी विद्यवता से बड़ खुश हुआ और उन पर अनुरक्त होता गया । बादशाह के सौहार्द एवं औदार्य प्रसन्न होकर शान्तिचन्द्र जी ने अकबर की प्रशंसा में "कृपारस कोष" की रचन की। बादशाह ने जो दया के कार्य किये थे । इस कोष में उन्हीं का वर्णन है य काव्य वे बादशाह को सुनाते थे । अकबर इस "कृपारस कोष" का श्रवण द्वार पान कर बहुत तप्त हुआ इस ग्रन्थ के अन्त के 126-27 के पद्यों में स्पो लिखा है-"बादशाह ने जो जजिया कर माफ किया, उद्धत मुगलों से ज मन्दिरों का छुटकारा हुआ, कैद में पड़े हुए कैदी जो बन्धन रहित हुए, साधार राजगण भी मुनियों का जो सत्कार करने लगा, साल भर में छः महीने तक जीवों को अभयदान मिला और विशेष कर गायें, भैसे, बैल और पांडे आ जो पशु कसाई की प्राणनाशक छुरि से निर्भय हुए" इत्यादि शासन की उम्र 1. जगदगरू हीर-मुमुक्षुभवयानन्द-जी पृष्ठ 92 पर Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 71 ) जगत प्रसिद्ध जो-जो कार्य हुए उन सब का कारण यहीं ग्रन्थ ( कृपारस है बादशाह जब लाहौर में था तब शान्तिचन्द्र जी भी वहीं थे “ईद” स्योहार एक दिन पहले वे बादशाह के पास गये और वहाँ से बिहार करने की इजाजत [गी बादशाह द्वारा कारण पूछे जाने पर शान्तिचन्द्र जी से कहा कि कल "ई" दिन लाखों जीवों का वध होगा जिसका ऋदन सुन नहीं सकूंगा, इसलिए मैं ना चाहता हूं। साथ ही अवसर का लाभ उठाते हुए शान्तिचन्द्र जी ने उसी समय बादशाह को कुरान शरीफ की कई आयतें ऐसी बताई जिनका अभिप्राय था हर जीव पर दया रखनी चाहिये । शान्तिचन्द्र जी ने बताया कि बकरा ईद तथा ऐसे ही अन्य प्रसंगों में प्राणियों की हिंसा करना खुदा के फरमान के बिल्कुल विपरीत है। कुरान शरीफ मैं ऐसा वर्णन हैं कि खुदा सभी जीवों का जन्मदाता है, जो जन्म देता है वह अपनी ही आज्ञा से क्यों मस्वायेगा ? खुदा ने तो सब जीवों पर रहम रखने का फिर्मान दिया है जैसा कि कुरान शरीफ के शुरू में ही कहा गया है कि बिस्मिल्लाह रहिमान्नुर रहीम" जिसका तात्पर्य है कि सब जीवों पर रहम खो । यदि जीवों की कुर्बानी उचित होती तो धर्म स्थानों और तीर्थ स्थानों में उसकी मनाही की जाती ? कुरान शरीफ में कहा गया हैं कि "मक्का में की हद तक किसी को किसी जानवर को नहीं मारना चाहिये और अगर कोई भूल से मारे, तो उसके बदले में अपना पाला हुआ जानवर छोड़ना चाहिए; थवा दो समझदार मनुष्य जो उसकी कीमत ठहरावें, उतनी कीमत का खाना रीबों को खिलाया जाये । 1. बज्जीजिआकर निवारण मेष चक्रे या मुक्ति दुर्दमदरले वः । यद्धन्दिन्धन महाकुरुते कृपाडणे । यह करोत्यवमराज यमो यतीन्दान ॥26॥ बज्जन्तुजातमभवं प्रतिभाषटक यच्चाजनिष्ट विभयः सुरभीसमूहः । इत्यादिशासन मुर्तिकारणेषु । ग्रन्थोडयमेव भषति स्म परं निमित्रम् 112711 पारस कोष उपाध्याय शान्तिचन्द्र जी श्लोक 126-27 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 72 ) कुरान शरीफ में तो यहां तक कहा गया है कि मक्का शरीफ की यात्रा को जब से जाओ तब से जब तक वापिस न लौटो तब तक रोजा रखो । जानवरों को मारो मत और धर्म के जो खास-खास दिन गिनाये गये हैं उन दिनों मांस मत खाओ। यदि जीवों का संहार करने में धर्म होता तो धर्म ग्रन्थ कुर्बानी करने की क्यों मनाही करते ? कुरान शरीफ में स्पष्ट लिखा है कि "खुदा तक न गोश्त पहुंचता है और न खून बल्कि उस समय तक कुम्हारी परहेजगारी पहुंचती है। कुरान के सूरए-अनआम में लिखा है कि "जमीन में जो चलने फिरने वाला (हैवान) या दो पैरों से उड़ने वाला जानवर है। उनकी भी तुम लोगों की तरह जमायतें हैं।" शान्तिचन्द्र जी ने बताया कि अन्जाने में किसी जीव की हिंसा हो जाये तो ईश्वर माफ कर देगा लेकिन जानबूझ कर गलत काम करने वालों को कभी माफ नहीं किया जाता जैसा कि कुरान में भी लिखा है "खुदा उन्हीं लोगों की तौबा कबूल फरमाता है । जो नादानी से बुरी हरकत कर बैठते हैं फिर जल्द तौबा कर लेते हैं ऐसे लोगों पर खुदा मेहरबानी करता है। वह सब कुछ जानता है और हिकमत वाला है । ऐसे लोगों की तौबा कबूल नहीं होती । जो (सारी उम्र) बुरे काम करते है यहां तक कि जब उनमें से किसी की मौत आ मौजूद हो तो उस वक्त कहने लगे कि अब मैं तौबा कबूल करता हैं। ये प्रमाण हमें यही दिखला रहे हैं कि सब जीवों पर रहम दृष्टि रखो। किंवदन्ती है कि एक समय काबुल के अमीर हिन्दुस्तान की यात्रा को आये । उस समय "ईद" का त्यौहार मनाने वे देहली पधारे। वहां के मुसलमानों ने उनके हाथ से कुर्बानी कराने के लिए कई गायें इकट्ठी की। मुसलमान समझते थे कि अमीर साहब हम पर प्रसन्न होंगे किन्तु अमीर साहब ने मुसलमानों की इस तैयारी को देखकर कहा कि कुरान में तो गायों की कुर्बानी की आज्ञा है ही नहीं। गौ-वध इस ख्याल से भी नहीं करना चाहिए क्योंकि हिन्दू हमारे पड़ोसी हैं और गौ-वध से उनके दिल में दुख होगा जबकि कुरान में स्पष्ट फर्मान है कि अपने पड़ोसियों के साथ हिल मिल कर रहो फिर मैं गौ-वध करके कुरान की आज्ञा का उल्लंघन क्यों करूं। 1. कुरान-शरीफ-सूर-ए-अल-हज्ज आयत 37 2. वही सूर-ए-अनआम आयत 38 3. करान-शरीफ-सूर-ए-निशा आयत 17-18 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 73 ) इसी तरह सुबुक्तगीन के स्वप्न की बात भी सर्वविदित है कि वह एक धारण स्थिति का मुसलमान था, किन्तु था बड़ा दयालु । खुद दरिद्र होते हुए किसी को दुखी देखकर उसकी सहायता करने को तैयार रहता था । एक दिन घोड़े पर चढ़कर जंगल में घूमने गया। वहां उसने एक हिरन के बच्चे को तो उसे अपने घोड़े पर ले लिया। बच्चे की मां कुछ ही दूरी पर घास खा थी । जब उसने देखा कि मेरे बच्चे को एक आदमी लिये जा रहा है तो वह के पीछे-पीछे चलने लगी । बच्चे के वियोग में उसका चेहरा उतर गया । बुक्तगीन को उसके दर्द का अहसास हुआ । उसने सोचा अगर यह हिरनी बोल सकती होती तो जरूर बच्चे को छोड़ने की प्रार्थना करती । मूक पशु के दर्द को समझते ही उसने बच्चे को धीरे से नीचे रख दिया । हिरनी बड़े आनन्द पूर्वक बच्चे को प्यार करने लगी इस दृश्य को देखकर सुबुक्तगीन को लगा कि यह हिरनी मझे आशीर्वाद दे रही है । इसी रात सुबुक्तगीन ने एक स्वप्न देखा । स्वप्न में खुद उसके पास जाकर कह रहे हैं कि सुबुक्तगीन तूने आज बच्चे पर जो दया दिखाई है इससे खुदा तेरे पर बहुत प्रसन्न हुए हैं, उनकी इच्छा तू राजा होगा । और जब तू राजा हो तब भी तू दुखियों पर उसी प्रकार दया करना, वैसा करने में खुदा तेरे पर हमेशा खुश रहेंगे । सचमुच कुछ दिन के बाद हुबुक्तगीन राजा हआ । मे मानो हजरत मुहम्मद हिरनी और उसके मुसलमानों में दया सम्बन्धित इतने प्रमाण मिलने के बावजूद भी क्या कारण है कि उनमें बकरे, भेड़िये एवं ऊंट वगैरह की कुर्बानी दी जाती है ? आइये, एक नजर इसकी मूल उत्पत्ति पर डालकर देखें तो हमें क्या रहस्य मालूम ता है इब्राहीम पैगम्बर जब इमान में आये तब उनके इमान की परीक्षा करने लिए अल्लाहताला ने उनको कहां कि "तुम अपनी प्यारी से प्यारी चीज की र्वानी दो" तो इब्राहीम पैगम्बर ने अपने इकलौते पुत्र इस्माइल को मारने के ए तैयार किया और अपनी आंखों पर पट्टी बांधकर छुरी से जैसे ही उसे मारने गते हैं, वैसे ही अल्लाहताला की कुदरत से लड़के के स्थान पर एक भेड़ (दुम्बा ) कर खड़ा हो गया । वह कट गया और लड़का बच गया। बाद में अल्लाहताला उस दुबे को भी जिन्दा कर दिया । इस कथा से हमें यह नहीं समझ लेना चाहिये कि इब्राहीम पैगम्बर ने ने लड़के के बदले दुम्बे को मारा तो दुम्बे अथवा बकरे की बलि देना उचित Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 74 ) है। कथा का आशय तो यह है कि अल्लाहताला ने इब्राहीम पैगम्बर की परीक्षा लेने के लिए इस प्रकार का प्रयत्न किया था। अब क्या अल्लाहताला ने हुक्म दिया है जैसा कि इब्राहीम पैगम्बर को दिया था। यदि ऐसा है तो इब्राही पैगम्बर की तरह ही अपने पुत्र की बलि देने को तैयार होना चाहिए बाद में अल्लाहताला की मरजी उस लड़के को हटाकर बकरा अथवा दुम्बा जो चीज रखने की होगी, रख लेंगे । शुरू में क्यों निर्दोष एवं मूक पशुओं को कुर्बानी के लिए तैयार कर दिया जाये। यद्यपि हीरविजयसूरिजी से मिलमे के बाद बादशाह इस बात से परिचित था कि जीव हिंसा से घोर पाप होता है कुरान शरीफ में जीव हिंसा की आज्ञा नहीं है फिर भी शान्तिचन्द्र जी के उपदेश से बादशाह ने लाहौर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि कल ईद के दिन कोई आदमी किसी जीव को न मारे । इस तरह बादशाह के इस फरमान से करोड़ों जीवों के प्राण बच गये · भानुचन्द्र गणिचरित में जीव हिंसा निषेध के जो दिन गिनाये गये हैं उनमें भी ईद का दिन शामिल है। सूरिजी की तरह शांतिचन्द्र जी को भी बादशाह बहुत मानता था, इसलिए उनके आग्रह से बादशाह ने एक ऐसा फरमान निकाला जिसकी सह से, बादशाह का जन्म जिस महीने में हुआ था, उस सारे महीने में, रविवार के दिनों में, संक्रान्ति के दिनों में और नवरोज के दिनों में कोई भी व्यक्ति जीव हिंसा नहीं कर सकता थाहीरसौभाग्य काव्य में भी इन दिनों का वर्णन मिलता है। इस तरह सब मिलाकर एक वर्ष में छ: महीने, छ: दिन के लिए अकबर ने अपने सारे राज्य में जीव हिंसा नहीं होने के फरमान निकाले थे इन फरमानों के अलावा जिया बन्द करने का फरमान भी ले लिया जगद्गुरू हीर में भी वर्णन मिलता है कि शान्तिचन्द्र जी के कथनानुसार जजिया कर, मत द्रव्य ग्रहण करना कतई बन्द कर दिया और अकबर गाय, भैस, बकरा आदि पशुओं को कसाई की छुरी से बचाने के लिए साल भर में छ: महीने तक सभी जीवों को अभय Ramanand 1. भानुचन्द्रगणिचरित भूमिका का लेखक-अगरचन्द्र भंवरलाल नाहटा पृष्ठ 8 2. सूरीश्वर सम्राट-कृष्णलाल वर्मा द्वारा अनुदित पृष्ठ 145 3. हीरसौभाग्य काव्य-देवविमलगणि सर्ग 14, श्लोक 273-274 4. सूरीश्वर सम्राट-कृष्णलाल वर्मा द्वारा अनुदित पृष्ठ 147 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 75 ) देकर अहिंसा का परम पुजारी बन गया ' बादशाह के ये सब कार्य कर देने पर सूरिजी को इनकी खुशखबर देने लिए शान्तिचन्द्र जी ने अकबर से गुजरात जाने की इजाजत मांगी। जाजत मिलने पर गुजरात की ओर बिहार किया। पट्टन पहुंचकर गुरुजी दर्शन कर उन्हें बादशाह के उन सब सुकृत्यों का हाल कह सुनाया और फरमान पत्र भी उनके चरणों में भेंट किये जिनमें "जजिया" कर के उठा देने का तथा वर्ष भर में छः महीने जितने दिनों तक जीव-वध के न किये जाने का हाल और हुक्म था । शान्तिचन्द्र जी के इन कार्यों से सूरिजी उन पर बहुत प्रसन्न हुए । 3. उपाध्याय भानुचन्द्र जो अकबर ने इबादतखाने में अपनी सभा के सदस्यों को पांच भागों में विभक्त किया था । पांचवे भाग के अन्तिम स्थान पर भानुचन्द्र नाम अंकित है । ये भानचन्द्र को ही भानुचन्द्र के नाम से जाना जाता है । 2 भानुचन्द्र जी की प्रखर बुद्धि देखकर हीरविजयसूरिजी ने उन्हें अकबर के बार में भेजा उन्हें आशा थी कि ये अपनी बुद्धि के बल पर अकबर को प्रभाव्रत करके जैन संघ को लाभ पहुंचायेंगे । सूरिजी की आज्ञा से भानुचन्द्र लाभपुर जाहीर) गये । वहां के जैन ग्रहस्थों ने उनका बहुत आदर किया और उन्हें एक पाश्रय में ठहरा दिया। यहां से अकबर के मन्त्रि अबुल फजल ने भानुचन्द्र जी अपने साथ राज दरबार में ले जाकर अकबर से भेंट कराई । भानुचन्द्र जी के चीत करने के ढंग तथा बुद्धिमतापूर्ण उत्तरों से बादशाह बहुत प्रभावित हुआ। 1 कबर ने भानुचन्द्र जी से प्रतिदिन दरबार में आने की प्रार्थना की । बादशाह प्रार्थना स्वीकार कर भानुचन्द्र जी प्रतिदिन दरबार में आने लगे वहां उन्हें चित सम्मान दिया जाता था । बादशाह जब कभी आगरा या फतेहपुर छोड जाता तो भानुचन्द्र जी को भी साथ ले जाता था । अकबर के समय में जो तिष्ठा इन्होंने प्राप्त की वह जहांगीर के काल में भी निरन्तर बनी रही जिसका मन आगे यथास्थान किया जायेगा । अकबर ने भानुचन्द्र जी को अपने राजकुमारों सलीम और दीनदयाल की क्षा के लिए नियुक्त किया था । 1. जगद्गुरु हीर- मुमुक्षुभध्यानन्द जी पृष्ठ 94-95 2. आइने अकबरी - एच. ब्लॉचमैन द्वारा अनुदित पृष्ठ 617 3. जैनों का उपासना करने का स्थान Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 76 ) हीरविजय सूरिरास में कवि ऋषभदास लिखते हैं "जांगीरसा मे दानिआर, भणे जैन शास्त्र तिहां सार कहे अकबर गदाजी, मीर, भाणचन्द ते अवल फकीर "" स्वयं अकबर भी भानुचन्द्र जी से पढ़ा करता था -- इसका उल्लेख सिद्धचन उपाध्याय विरचित "भानुचन्द्र गणिचरित में मिलता है। है एक बार बीरबल ने अकबर से कहा "मनुष्य के काम आने वाले फल-फूल, घास, पात आदि सब पदार्थ सूर्य ही के प्रताप से उत्पन्न होते हैं, अन्धकार को दूर कर जगत में प्रकाश फैलाने वाला भी सूर्य इसलिए आपको सूर्य की आराधना करनी चाहिये ' बीरबल के अनुरोध से बादशाह सूर्य की पूजा करने लगा । बदायूनी ने भी लिखा है "दूसरा हुक्म ये दिया गया था कि सबैरे, शाम दोपहर और मध्य रात्रि में इस प्रकार दिन में चार बार सूर्य की पूजा होनी चाहिये ।” बादशाह ने भी सूर्य के एक हजार एक नाम जाने थे और सूर्याभिमुख होकर भक्ति पूर्वक उन नामों को बोलता था इसी तरह कई लेखकों ने लिखा है। कि बादशाह को यह नाम किसने सिखाये थे ? भानुचन्द्र गणिचरित में इस बात का वर्णन इस तरह से हैं- "एक बार अकबर ने दरबार में रहने वाले ब्राह्मणों से सूर्य के सहस्त्र नाम मांगे, परन्तु कहीं प्राप्त नहीं हो रहे थे । भाग्यवशात् किसी बुद्धिमान ने उन्हें वै नाम दे दिये और उन्होंने वे नाम अकबर के सम्मुख प्रस्तुत किये 1 अकबर उन्हें देखकर बहुत ही प्रसन्न हुआ उसने ब्राह्मणों से ऐसे व्यक्ति की मांग की जो इन नामों को उसे समझा सके । ब्राह्मणों ने उत्तर दियाकि इन नामों को ऐसा व्यक्ति ही समझा सकता है जिसने वासनाओं का दमम कर लिया हो, भूशायी हो तथा ब्रह्मचारी हो तब अकबर की दृष्टि मानुचन्द्र की की ओर गई, उसने कहा कि ऐसे व्यक्ति तो आप ही हैं, मुझे इन नामों को पढ़ाया कीजिये इस प्रकार भानुचन्द्र जी उन्हें प्रतिदिन सूर्य सहस्त्रनाम पढ़ाने जाया करते थे । कवि ऋषभदास अपने हीरविजयसूरि रास में लिखते हैं बादशाह अपने 1. हौरविजयसूरिरास - पण्डित ऋषभदास पृष्ठ 180 2. सूरीश्वर और सम्राट - कृष्णलाल वर्मा पृष्ठ 148 3. अलबदायूँनी डब्ल्यू. एच. लाँ द्वारा अनुदित भाग 2 पृष्ठ 332 4. भानुचन्द्रगणिचरित - भूमिका लेखक अगरचन्द्र भंवरलाल माहदा पृष्ठ 30 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 1 ) काश्मीर प्रवास में भी भानुचन्द्र जी से सूर्यसहस्त्र नाम सुनने के लिए ही साथ र गये थे। दूसरा सबल प्रमाण यह भी है कि सूर्यसहस्त्रनामा की एकहस्तलिखित प्रति पूज्यपाद गुरुवर्य शास्त्र विशारद जैनाचार्य श्री विजयधर्म सूरिश्वर जी महाराज के पुस्तक भण्डार शिवपुरी में हैं । इससे स्पष्ट होता हैं कि बादशाह सूर्य के सहस्त्र नाम जरूर सुनता था और सुनाते थे भानुचन्द्र जी । सूर्यसहस्त्र नाम के लिये देखिये परिशिष्ट नं. 31 एक दिन अवसर पाकर भानुचन्द्र जी ने बादशाह से कहा कि सौराष्ट्र में जो युद्धबन्दी हैं उन्हें मुक्त कर दिया जाये । बादशाह पहले तो हिचकिचाया लेकिन बाद मैं कैदियों को मुक्त करने का आदेश दे दिया और एक फरमान लिखकर भानुचन्द्र जी को दे दिया जिसे उन्होंने गुजरात भेज दिया' उन दिनों लाहौर किले में जैन साधुओं के निवास के लिए कोई उपाश्रय नहीं था । भानुचन्द्र उपाध्याय की भी यह इच्छा थी कि किसी प्रकार कोई उपाश्रय यहां बनाना चाहिये पर उसके लिए स्थान प्राप्त करना अति दुष्कर कार्य था क्योंकि मसलमान तथा अर्जन लोग जैन धर्म से द्वेष रखते थे। तो भी भानुचन्द्रजी ने एक युक्ति सोची और उसके अनुसार वे एक दिन अकबर को पढ़ाने देर से गये । अकबर ने इसका कारण पूछा तो भानुचन्द्रजी ने इसका उत्तर दिया कि मेरे पास कोई उपयुक्त स्थान नहीं है, जो है वह अत्यन्त सकीर्ण है और दूर है इसलिये राजदरबार में आने में कठिनाई होती हैं । अकबर ने उनके निवास के लिए अपने प्रासाद में स्थान देना चाहा पर वह भानुचन्द्र जी के अभिप्राय के अनुकुल न था, इसलिये अकबर ने उन्हें भूमि का एक टुकड़ा दे दिया। वहां स्थानीय श्रावकों ने एक उपाश्रय बनवाया तथा वहां शान्तिनाथ स्वामी का एक चैत्य भी बनवा दिया। इस बात का उल्लेख हीरविजय सूरिरास में मिलता है । बादशाह के पुत्र शहजादा सलीम के एक पुत्री मूल नक्षत्र के प्रथम चरण में उत्पन्न हुई थी, जो अत्यन्त अनिष्टकारी थी। इस अनिष्ट का परिहार करने के लिए सम्राट की इच्छानुसार सम्वत् 1648 (सन् 1591) चैत्र शुक्ला पूर्णिमा को 1. हीरविजयसूरिरास-पण्डित ऋषभदास, पेज 182 2. वही पेज 182 3. भानुचन्द्र जी गणिचरित-भूमिका लेखक अगरचन्द्र भंवरलाल नाहटा पेज 30 4. हीरविजयसूरिरास पण्डित ऋषभदास श्लोक 36-37 पेज 182 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 78 ) भानुचन्द्र जी के कहने से अष्ठोवरी शान्ति स्नान करवाया जिसमें लगभग एक लक्ष्य रुपया व्यय हुआ । इस घटना का विवरण भानुचन्द्र गणिचरित और हीरविजय सूरिरास में मिलता है । बादशाह के दरबार में रहकर उपाध्याय श्री भानुचन्द्रजी ने शत्रुन्जय के यात्रियों पर से " जजिया" कर हटवा दिया । " हीरसौभाग्यकाव्य में इसका वर्णन मिलता है । " ग्वालियर (गोपाचल ) के किले में जो जैन मूर्तियां आक्रांताओं और दुष्टजनों द्वारा विकृत कर दी गई थी उनका जीर्णोद्धार आपने अकबर को कहकर उसी के राजकोष से करवाया । * ग्वालियर के किले में जैन मूर्तियों के होने का समर्थन हीरसौभाग्यकाव्य से भी होता है ।" आज भी किले के अन्दर और बाहर हजारों मूर्तियां खण्डितावस्था में पड़ी हैं । किले में वर्ष में एक बार दिगम्बर जैनों का मेला भी लगता है । 1 यद्यपि भानुचन्द्र जी स्त्रयं जैन श्वेताम्बर थे, परन्तु उन्होंने दिगम्बर जैन मूर्तियों के प्रति कोई पक्षपात नहीं प्रदर्शित किया । इससे उनकी उदार प्रवृत्ति का परिचय प्राप्त होता है । श्वेताम्बरों का दिगम्बरों के प्रति इस प्रकार के व्यवहार का यह हमें प्रथम ही उदाहरण प्राप्त हुआ है । भानुचन्द्र श्वेताम्बर जैन एवं तपागच्छ के थे तथा जहांगीर ने उन्हें "तपागच्छ के प्रमुख लिखा है "" भानुचन्द्रमणिचरित से यह भी ज्ञात होता हैं कि शेख अबुलफजल ने भानुचन्द्र से " षड़दर्शन समुच्चय" पढ़ने की इच्छा प्रकट की थी जिसे स्वीकार करके भानुचन्द्र ने शेख को नियमित रूप से शिक्षा देनी प्रारम्भ कर दी । शेख अबुलफजल पढ़ने समय भानुचन्द्र जी के वचनों को लिपिबद्ध करते जाते थे । आइने अकबरी में जहां अबुलफजल ने भारत में प्रचलित धर्मो का वर्णन किया है वहां जैन श्वेताम्बर धर्म के सम्बन्ध में उसने लिखा हैं कि श्वेताम्बर जैन धर्म 1. भानुचन्द्र गणिचरित भूमिका लेखक अगरचन्द्र भंवरलाल पेज 30-32, हीरविजय सूरिरास पेज 183, श्लोक 38 2. भानुचन्द्र गणिचरित पृष्ठ 25 तृतीय प्रकाश, श्लोक 36-42 3. हीरसोभाग्य काव्य श्लोक 284 सगँ 14 4. भानुचन्द्र गणिचरित चतुर्थ प्रकाश, श्लोक 123-29 5. हरिसौभाग्यकाव्य सगँ 14, श्लोक 251-252 6. द तुजुक ए. जहांगीरी ओर मैमोरीज ऑफ जहांगीर पृष्ठ 7. भानुचन्द्र गणिचरित द्वितीय प्रकाश, श्लोक 58-60 437.454 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । 79 ) 7 ज्ञान उसे श्वेताम्बर जैन साधू से ही प्राप्त हुआ है । उपर्युक्त प्रमाण के अनुसार ये जैन साधू भानुचन्द्र उपाध्याय ही सम्भव है । यह भी एक आश्चर्य का विषय है । कि अबुल फजल ने जैन धर्म पर एक आध स्थल को छोड़कर इतने सुन्दर हुग से लिखा है कि विरले ही लेखक इस प्रकार लिखने में सफल हो सकते हैं। एक बार बादशाह के सिर में असहनीय दर्द उठा । वैयों को इलाज व अन्य सभी प्रकार के प्रयत्न करने के बावजूद भी ठीक न हुआ। उसने भानु चन्द्र जी को बुलाकर उनका हाथ अपने सिर पर रखा। भानुचन्द्र जी के “पार्श्व मन्त्र' सुनाने से बादशाह को बड़ा आराम मिला। बादशाह को तो पहले ही भानुचन्द्र जी पर विश्वास था लेकिन इस घटना से उनका विश्वास अल हो गया। बादशाह के स्वस्थ होने की खुशी में उमरावों ने 500 गायें खुदा को भेंट चढ़ाने के लिए एकत्रित की । जब बादशाह को इस बात का पता चला तो उसने उसी समय गायों को मुक्त करने का आदेश दिया जिससे भानुचन्द्र जी को अत्यन्त प्रसन्नता हुई । स्वस्थ होने की खुशी में बादशाह ने भानुचन्द्र से कुछ भी मांगने को कहा तो भानुचन्द्र जी ने निवेदन किया कि "अजिया" कर हटा दिया जाये और गाय, बैल, भैस सब जीवों की रक्षा की जाये । बादशाह ने उसी समय ऐसा फरमान लिख दिया। इस घटना का विवरण हीरविजयसूरिरास और भानुचन्द्रगणिचरित में मिलता है । भानुचन्द्र जी को "उपाध्याय" पद अकबर के प्राग्रह से दिया गया था। अकबर ने एक बार भानुचन्द्र जी के वार्तालाप से प्रसन्न होकर यह पूछा कि जैन समाज में सबसे बड़ा पद कौन सा है ? भानुचन्द्र जी ने उत्तर दिया--कि सबसे बड़ा पद आचामं है और उससे छोटा उपाध्याय है। अकबर ने उन्हें आचार्य पद से विभूषित करना चाहा पर भानुचन्द्र जी ने कहा कि इस पद के मैं अभी योग्य नहीं हूँ। वर्तमान समय में इस पद के योग्य आचार्य श्री हीरविजयसूरि हैं । अबुल फजल के परामर्श पर अकबर ने उन्हें "उपाध्याय पद्र देना चाहा तो जैन समाज के किसी प्रमुख व्यक्ति ने उन्हें सुझाया कि इसके लिए हमारे समाज के आचार्य की अनुमति आवश्यक है, आप वह हीरविजयसूरिजी मंगा लें। अबुलफजल ने एक पत्र द्वारा हीरविजयसूरिजी से अनुमति मंगवाई। हारविजयसूरिजी ने अनुमति के साथ वासक्षेप भी भेजा इस प्रकार भानुचन्द्र उपाध्याय पद से विभूषित किये गये ।। 1. आइने अकबरी एच. एस. जैरेट द्वारा अनुदित भाग 3 पृष्ठ 210 2. हीरविजयसूरीरास पेज 180-81, भानुचन्द्रगणि धरित पेज 59-60 3. भानुचन्द्रगणिचरित द्वितीय श्लोक 169-186 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 80 ) इस घटना का समर्थन हीरविजयमूरिरास और हीरसौभाग्य काव्य में भी होता है । 4. उपाध्याय सिद्धिचन्द्र जो जब आचार्य हीरविजयसूरिजी ने भानुचन्द्रजी को अकबर के दरबार में भेजा । तब उनके साथ सुयोग्य शिष्य सिद्धिचन्द्र जी भी थे। बादशाह उनका भी बहुत आदर करता था। ये संस्कृत और फारसी के बड़े विद्वान थे अपनी योग्यता के बल पर अकबर के दरबार में अच्छी ख्याति पाई। उन्होंने अपने व्यक्तित्व के प्रभाव से बादशाह से कई कार्य करवाये जिनमें से कुछ का उल्लेख हम यहाँ करेंगे । आगरा में कुछ अजैनों ने जैनियों के विरुद्ध सम्राट के दिमाग में भरा। सम्राट ने एक आदेश द्वारा, वहां जो जैनियों का चिन्तामणि पार्श्वनाथ का मन्दिर बन रहा था, रुकवा दिया, मन्दिर लगभग आधा बन चुका था । तब सिद्धिचन्द्र जी ने अपने व्यक्तिगत प्रभाव से सम्राट द्वारा उस आदेश को निरस्त करवाया जिससे कुछ ही समय में मन्दिर का कार्य पूर्ण हुआ । 2 एक बार बुरहानपुर में बत्तीस चोर मारे जाने थे । उस समय दया भाव से प्रेरित होकर सिद्धिचन्द्र जी बादशाह की आज्ञा लेकर स्वयं वहां गये और उन चोरों को छुड़ाया था जयदास जपो नाम का एक लाड बनिया हाथी तले कुचल कर मारा जाना था उसको भी उन्होंने छुड़ाया हीरविजयसूरिशस में भी इसका वर्णन मिलता है * सौराष्ट्र में अजीज को-का के पुत्र खुर्रम शत्रुन्जय पहाड़ के नीचे जैन मन्दिर को नष्ट कर दिया पहाड़ी पर जो मन्दिर बना था उसे कुछ दुष्ट लोगों ने घेरकर उसे जलाने के लिए चारों ओर लकड़ियां लगा दी । विजयसेन सूरि ने सिद्धिचन्द्र जी को इस बात की सूचना दी। सिद्धिचन्द्र जी तुरन्त: सम्राट के पास पहुंचे और सारी स्थिति से अवगत कराया । सम्राट ने इसे रोकने के लिए शाही फरमान दिया, जिसे तुरन्त सौराष्ट्र भेज दिया गया । इस तरह से 1. हीरविजयसूरिरास पेज 183-84, हीरसौभाग्य काव्य सगं 14 श्लोक 285-86 2. भानुचन्द्र गणिचरित - भूमिका लेखक अगरचन्द्र भंवरलाल नाहटा पृष्ठ 43 3. सूरीश्वर और सम्राट - कृष्णलाल वर्मा पेज 157 4. ही रविजयसूरिरास - पण्डित ऋषभदास पेज 185 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 81 ) दिचन्द्र जी ने अपनी योग्यता से तीर्य की रक्षा की' जब सलीम गुजरात का वायसराय बना तो अकबर ने उसके कार्यों में दखल बन्द कर दिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि वहां अनेक कठिनाइयां पैदा गई (पशु वध और जजिया कर आदि लिये जाने लगे) जब सिद्धिचन्द्र जी के म इस तरह का समाचार आया तो वे सम्राट के पास पहुंचे और संम्राट का तन इस ओर आकर्षित किया कि गुजरात का वायसराय किस निर्दयता से लोगों दबा रहा है जिसे सुनकर सम्राट दुखी हुआ और इनके निषेध के लिए एक खित फरमान दिया । इस तरह से सिद्धचन्द्र जी के प्रयत्नों द्वारा गुजरात के गों को अत्याचारों से मुक्ति मिली बादशाह ने सिद्धिचन्द्रजी के साधू धर्म की परीक्षा के लिये पहले तो धन पत्ति का लोभ दिखाया जब वे लुब्ध न हुए तब उन्हें कत्ल करा देने की धमकी परन्त सिद्धिचन्द्र जी अपने धर्म में अटल रहे उन्होंने लोभ और धमकी का तर जिन शब्दों में दिया उसे कवि ऋषभदास ने लिखा है, "इस का लक्ष्मी का और सुख सामग्रियों का मझे क्या लोभ दिखाते हो, अगर आप रा राज्य देने को तैयार होंगे तो भी मैं लेने को तैयार न होऊंगा मको तुच्छ हेय समझकर छोड़ दिया उसे पुनः ग्रहण करना थूके को निगलना इन्सान ऐसा नहीं कर सकता और मौत का डर तो मुझे अपने चरित्र से डिगा सकता। आज या दस दिन बाद नष्ट होने वाला यह शरीर मुझे से बढ़कर प्यारा नहीं हैं सिद्धिचन्द्र जी के उत्तर से बादशाह बहुत प्रभावित इस तरह सिद्धिचन्द्र जी ने बादशाह को बहुत प्रभावित किया क्योंकि बे होने के साथ-साथ शतावधानी भी थे इसलिए बादशाह उनसे बहुत प्रसन्न था, इन्होंने वाण भट्ट की कादम्बरी (उत्तरार्ध) की टीक है उनकी योग्यता से होकर ही बादशाह ने उन्हें खुशफहम (तीव्र बुद्धि का व्यक्ति) की पदवी से षत किय. बादशाह अकबर के समय में ये 'गणि' थे इन्हें बादशाह जहांगीर मय में 'उपाध्याय' पद दिया गया। 1. भानुचन्द्र गणिचरित-भूमिका लेखक अगरचन्द्र भंवरलाल नाहटा पेज 46 2. वही पेज 46-47 3. हीरविजयमूरिरास-पण्डित ऋषभदास पृष्ठ 85-86 4. सूरीश्वर और सम्राट पेज 157, भानुचन्द्रगणिचरित पेज 9 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 82 ) 5. आचार्य विजयसेन सूरि हम पहले कह आये हैं कि अकबर ने इबादतखाने में अपभी सभी सदस्यों को पांच भागों में विभक्त किया था । पांचवे वर्ग के 139 वें स्थान प विजयसेन नाम अकित है । ये विजयसेन को ही विजयसेनसूरि के नाम से जाना जाता है । जिस समय हीरविजयसूरिजी ने फतेहपुर सीकरी से बिहार किया था तो बादशाह के अनुरोध पर सूरिजी ने यह वचन दिया था कि वे विजयसेन (अपन प्रधान शिष्य) को अवश्य भेजेगें । हीरविजयसूरिजी के बिहार के बाद शान्तिचन्द्रजी भानुचन्द्रजी और सिद्धिचन्द्रजी बादशाह के पास रहे । भानुचन्द्रजी और सिद्धिच जी प्रायः विजसेनसूरि की तारीफ किया करते थे इसके अलावा बादशाह को भी हीरविजयसूरिजी का दिया हुआ वचन याद था । अतः संवत् 1649 (सन् 1595 में जब हीरविजयसूरि राधनपुर में थे तो बादशाह ने विजयसेनसूरि को बुलाने के लिए एक पत्र भेजा जिसका वर्णन कवि ऋषभदास ने इस प्रकार किया है 1 " यद्यपि आप विरागी हैं, परन्तु मैं रागी हूं। आपने संसार के सारे पदार्था का मोह मोड़ छोड़ दिया है इसलिए सम्भव है कि आपने मेरा मोह भी छोड़ दिया हो, परन्तु महाराज मैं आपको नहीं भूला । समय-समय पर आप मुझे कोई सेवा कार्य अवश्य बताते रहे, इससे मैं समझू गा कि मुझ पर गुरुजी की कृपा, अब भा वैसी ही है और यह समझ मुझे बहुत आनन्ददायक होगी। आपको स्मरण होगा कि रवाना होते समय आपने मुझे विजयसेन सूरि को यहां भेजने का वचन दिया था, आशा है कि आप उन्हें यहां भेजकर मुझे विशेष उपकृत करेंगे: यद्यपि अपनी वृद्धावस्था के कारण सूरिजी की इच्छा विजयसेनसूरि अपने पास से अलग करने की नहीं थी लेकिन बादशाह को दिये वचन के अनु उन्होंने अपने शिष्य को आज्ञा दी जिसे शिरोधार्य कर विजयसेन सूरि सम्वत् 16 मगसर सुदी तीज (सन् 1592) के दिन बिहार कर सम्वत् 1650 ज्येष्ठ बारस (सन् 1593) के दिन लाहौर पहुंचे । विजयसेनसूरि ने अकबर के दरबार में आते ही अपनी प्रखर प्रतिभा पांडित्य से अनेक पण्डितों को शास्त्रार्थ में हराया जिससे ब्राह्मण पण्डितों को हुई तो उन्होंने अकबर के कान भरना शुरू कर दिये । पण्डितों ने आरोप रु कि जैन लोग ईश्वर को नहीं मानते फिर भी आप इन्हें (विजयसेनसूरि को) 1. आइने अकबरी एच. ब्लॉचमैन द्वारा अनुदित पृष्ठ 617 2. हीरविजयसूरिशस - पण्डित ऋषभदास 989, टाल 22, 23, 24 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 83 ) म्मान देते हो । जैन अनिश्वरवादी हैं और ऐसे अनिश्वरवादी लोगों के सिद्धान्तों र चलना आप जैसे सम्राटों को शोभा नहीं देता । इस प्रकार की बातों से कुपित कर लेकिन क्रोध को छिपाकर बादशाह ने सूरिजी से कहा कि आप इन पंण्डितों तर्कों का खण्डन कर ऐसे सिद्धान्त प्रतिपादित करें जिससे इनका गर्ने चूर्ण हो सके। इस पर सूरिजी ने कहा - " हे शहंशाह | अठारह दूषणों से रहित देव को हम मानते हैं अठारह दूषण ये हैं- दानान्तराय, लाभान्तराय, वीर्यान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगांतराय, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, काम, मिथ्यात्व, अज्ञान, निद्रा, अविरति, राग और द्व ेष इन अठारह दूषणों का ईश्वर में अभाव है' सूरिजी ने कहा जो तीनों काल का प्रकशिक है, उसके प्रकाश के सामने सूर्य भी फीका पड़ जाता है । जो जन्म मरण आदि से रहित है, ऐसे परमेश्वर को हम लोग मन, वचन, कार्यों से मानते हैं अब आप स्वयं ही aris कि हम अनिश्वरवादी कैसे हैं ? इसकी पुष्टि में सूरिजी ने अपना प्रमाण प्रस्तुत किया "परमात्मा को शैव लोग "शिव" कह करके उपासना करते लोग "ब्रह्मा" शब्द से । जैन शासन में रत जैन लोग "अंहनं" ताकि लोग "र्ता" शब्द से व्यवहार करते हैं वही त्रैलोक्य परमात्मा तुम लोगों को वांछित फल देने वाला है ।' 1"2 सचमुच कहा जाये तो इस प्रमाण से स्पष्ट प्रतीत होता है कि जैन ईश्वर को मानते ही हैं । जब ब्राह्मण पण्डित इस तर्क से पराजित हुए तो उन्होंने दूसरा आरोप लगाया कि जैन सूर्य एवं गंगा को नहीं मानते । इन आरोपों का खण्डन हैं । वेदान्ती शब्द से तथा का स्वामी 1. अन्तराया दान- लाभ-वीर्य-भोगोपभोगगाः । हासो रत्यरति भीतिजु गुप्सा - शोक एव च ॥ कामो मिथ्यात्वज्ञानं निद्राच विरतिस्तथा । रागो द्वेषश्च नो दोपास्तेषामष्टादशप्यमी । विजयप्रशस्तिसार - मुनिराज विद्याविजयजी पेज 54 2. ये शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मति वेदान्तिनो । atar: बुद्ध इति प्रणाम पटवः कर्मेति मिमांसकाः ॥ अर्हन्नित्यथ जैन शासनरताः कर्तेति नैयायिकाः । सोवोविद्धाछित फलं त्रैलोक्य नाथो हरिः ॥ विजय प्रशारित काव्य पण्डित हेमविजयगणि सगं 12, श्लोक 178 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 84 ) सूरिजी ने अपने तर्कों से किया और बादशाह ने कहा कि जन सूर्य के दर्शन क बिना पानी भी नहीं पीते और सूर्य अस्त होने के बाद अन्न जल तब तक ग्रहण नहीं करते जब तक कि अगले दिन पुनः सूर्य के दर्शन न कर लें। सूर्य को मानने के पक्ष में सूरिजी ने यह कहा कि जब कोई व्यक्ति मर जाता है तो उसके सम्बन्धी या राजा मर जाये तो प्रजा तब तक भोजन नहीं करती जब तक उसका अग्नि संस्कार न कर दिया जाये इसलिए जो सूर्य अस्त होने पर (रात्रि में ) भोजन करते मानने का दावा करते हैं उनकी यह बात कहां तक उचित है ? बुद्धिमान व्यक्ति सहज ही समझ सकता है । गंगा को मानने के सम्बन्ध में सूरिजी ने कहा जो गंगा को पवित्र मानने का दावा करते हैं वे उसके अन्दर नहाते हैं, कुल्ला करते हैं, क्या इस तरह वे गंगा मा का बहुमान करते हैं । इसी तरह वे उसे मानते हैं ? जैन तो गंगाजल का उपयोग fare प्रतिष्ठादि शुभ कार्यों में करते है। इस पर कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति विचार कर सकता है । कि गंगाजी का सच्चा बहुमान जोनी करते हैं या ये शास्त्रार्थ करने बाले पण्डित ? सूरिजी के तर्कों से सारी सभा चकित रह गई पण्डित निरुतर हो गये । बादशाह ने प्रसन्न होकर सूरिजी को " सूरसवाई" की पदवी से विभूषित कर दिया हैं और सूर्य को उसे कोई भी उसके बाद सूरिजी ने बादशाह को उपदेश देकर जीवदया के अनेक कार्य करवाये । सूरिजी ने अकबर से कहा कि आपके राज्य में गो, वृषभ, महीष, महिषी की जो हिंसा होती है वह आप जैसे जगत उपकारी राजा को शोभा नहीं देती इसके अलावा मृत मनुष्य का द्रव्य ग्रहण करना तथा कैदी मनुष्यों का द्रव्य लेना भी आपकी कीर्ति के योग्य नहीं हैं । आपने तो जब " जजिया" जैसे कर को बन्द कर दिया तो उन वार्यो में आपको क्या हानि हो सकती है ? सूरिजी के इन प्रभाव पूर्ण वचनों से बादशाह ने उसी समय अपने अधिकारी देशों में उपर्युक्त छः कार्य बन्द करने की सूचना के आज्ञा पत्र सम्पूर्ण राज्य में भिजवा दिये । 1. " अधाम धामधामेधं स्वचेतसि यस्यास्तव्यसने प्राप्ते त्यजायो भोजभोदक | श्री तपागच्छ पट्टावली - कल्याणविजयजी पृष्ठ 243 2, श्री सेन प्रश्न सार संग्रह - पण्डित शुभविजयगणि विरचित पृष्ठ 20 3. सूरीश्वर और सम्राट - पेज 164 तपागच्छ पट्टावली पृष्ठ 243 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 85 ) अलबदायूनी में गाय, भैंस, भेड़, घोड़ा और ऊंट के मांस निषेध का वर्णन मिलता है। जगद्गरू हीर में भी वर्णन मिलता है कि बादशाह ने मृत मनुष्य का द्रव्य कर के रूप में लेना निषेध कर दिया था पण्डित दयाकुशलमणि ने भी “लाभेदव रास" नामक ग्रन्थ में सूरिजी के उपदेश से बादशाह ने जो जीवदया के कार्य किये उनका वर्णन इस प्रकार किया है "अकबर सहगुरू बकसई, ते सुणता ही अडविकसई । नगर ठठउ सिन्धु कच्छ, पाणि बहुला जिहां मल्छि । जिहां हुँनां बहुत सिंहार, ध्यन-ध्यन सहूं गुरू उपगार । च्यार मास को जाल न धालइ, विसेषईवली वर सालइ ।। गाय, बलद, भीसि, महिष जेह, कटी को ए न मारइ तेह । गुरू वनि को बन्दि न झालइ, मृतक केर कर टालइ ॥' "भानुचन्द्रगणिचरित में इस प्रकार उल्लेख मिलता है" दूसरे अवसर पर सूरिजी ने बादशाह को गायों, बैलों, भेंसों की हत्या को रोकने की आवश्यकता को बताया और गलत कानूनों को समाप्त करने का जो कि राज्यों को उन लोगों की सम्पत्ति हड़प करने के लिए बनाये गये थे जिनका कोई भी उत्तराधिकारी नहीं था तथा अपराधियों को सशर्त पकड़ने का अधिकार दिया गया था इस प्रकार के अनुचित कार्यों को न करने के लिए कहा सम्राट ने इन अनुचित कार्यों को रोकने के लिए फरमान जारी कर दिये 1. अलबबायूनी-डब्ल्यू. एच. लॉ द्वारा अनुदित भाग 2 पृष्ठ 388 2 जगद्गुरू हीर-मुमुक्षुभव्यानन्द जी पृष्ठ 111 3. लाभोदयरास-पण्डित दयाकुशलगणि (प्रेस-कापी) ढाल 127, 128, 129 4. "On another occasion the suri Convinced the emperror bf the necessity of prohibition of the slaughter of cows, bulls. She buffaloes and he buffaloes, and of repealing the unedifying law which empouered the state to confiscate the property of those persons who died here less, and of capturing prisoners as hostages. Convinced of the harmful nature of these things, the emperor issued firmans prohibiting all these things. भानु वन्द्रगणिचरित-भूमिका लेखक अगरचन्द्र भंवरलाल नाहटा पृष्ठ 10 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 86 } बादशाह द्वारा सूरिजी के उपदेश से किये गए जीव दया के कार्यों विवरण विजयप्रशस्ति काव्य में भी मिलता है' 6. श्री जिनचन्द्रसूरि अभी तक हमने जिन साधुओं का उल्लेख किया है वे जैन श्वेताम्ब तपागच्छ से सम्बन्धित है, अब हम जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ के प्रसिद्ध आचा जिनचन्द्रसूरिजी का वर्णन करेंगे। पहले हम यह देखेंगे कि अकबर सूरि जी सम्पर्क में कैसे आया ? सं. 1648 (सन् 1591) में लाहौर में अकबर ने जिनचन्द्र सूरिजी की बड़ी प्रशंसा पुनी । उसने अपने मन्त्रि कर्मचन्द्र जो कि खरतरगच्छ से सम्बन्धित था, से सूरिजी के बारे में सारी जानकारी प्राप्त की और शीघ्र ही दरबार में बुलाने के लिए कहा लेकिन ग्रीष्म ऋतु में सूरिजी की वृद्धावस्था के कारण खम्भात से शीघ्र बिहोस् करना मुश्किल था । अतः सम्राट ने उनके शिष्यों को बुलाने की इच्छा प्रकट की । तब तक मन्त्रि कर्मचन्द्र ने मानसिंह (महिमराज) को बुलाने के लिए सूरिजी क विनति पत्र लिखकर शाही दूत को भेजा विनति पत्र को पढ़ते ही सूरिजी न महिमराज को गणिसमय सुन्दर आदि छः साधुओं के साथ बादशाह के पास भेजा । बादशाह उनके दर्शन से इतना प्रभावित हुआ कि सूरिजी से मिलने की उत्कण्ठा और भी तीव्र हो गई लेकिन चातुर्मास निकट आ रहा था और चातुर्मास में सूरिजी का बिहार हो नहीं सकता था । इधर बादशाह की तीव्र इच्छा को देखकर और सूरिजी के आने से जैन धर्म की उन्नति का विचार कर कर्मचन्द्र ने सूरिजी को आग्रह पूर्वक विनति पत्र लिखकर लाहौर आने के लिए शीघ्रगामी मेवड़ा दूतों के साथ खम्भात भेज दिया । पत्र पढ़कर सूरिजी के मन में जो विचार आये उन्हें अगरचन्द्र, भंवरलाल नाहटा ने इस प्रकार लिखा है- "मुझे अवश्य लाहौर जाना चाहिए, क्योंकि सम्राट अकबर धर्म जिज्ञासु है, यदि वह जैन धर्म का अनुकरण करने लग जायेगा तो “यथा राजा तथा प्रजा" के नियमानुसार जैन धर्म की 1. विजयप्रशस्ति काव्य -- - हेमविजयगणि सर्ग 12 श्लोक 227-228 2. चातुर्मास में निष्प्रयोजन साधुओं को बिहार न करके एक ही स्थान पर रहने की जिनाशा है लेकिन विशेष धर्म प्रभावना और अनिष्टकारक संयोग होने से आवायं, गीतार्थादि महानुभावों को देश-काल भाव विचार कर बिहार करने की भी अपवाद मार्ग से जिनाज्ञा है । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 87 ) बहत उन्नति होगी। जब भारतवर्ष के राजा जैन धर्मावलम्बी थे, तब जैनों की या भी बहुत थी और सर्वत्र शान्ति विराजमान थी । अब भी यदि गुरूदेव की कृपा से अकबर के हृदय में जैन धर्म के सिद्धांत बैठ जायेंगे तो वर्तमान समय में आर्य प्रजा पर होने वाले अत्याचारों का विनाश हो जायेगा । area a जाकर सम्राट को जैन धर्म के सूक्ष्म तत्वों का दिग्दर्शन कराना अति उपयोगी होगा ' खम्भात श्रीसंघ के मना करने पर सूरिजी उन्हें समझाकर सुदी तेरस सम्वत् 1648 (सन् 1591) के दिन अहमदाबाद पहुंचे। यहां फिर उन्हें दो शाही फरमान मिले, जिसमें कर्मचन्द्र ने भी आग्रहपूर्वक वर्षाकाल और लोकापवाद की ओर ध्यान न देते हुए शीघ्र ही पहुंचने के लिए लिखा था सब सूरिजी ने संघ की अनुमति से वहां से बिहार किया और सिरोही में पयूषणों के आठ दिन बिताकर जालौन पहुंचे । वर्षाकाल जलौन में रहकर वहां से बिहार करें फाल्गुन शुक्ला वारस के दिन लाहौर नगर में प्रवेश किया । इस समय सूरिजी के साथ महोपाध्याय जयसोम, वाचनाचार्य कनकसोम, वाचन रत्न निधान और पण्डित गुणविनय प्रभृति आदि 31 साधू थे मन्त्रि कर्मचन्द्र ने जैसे ही बादशाह को सूरिजी के आने की सूचना दी बादशाह ने तुरन्त आकर सूरिजी को प्रसन्नतापूर्वक वन्दन कर कहा - "हे भगवन । आपको खम्भात से यहां आने में मार्ग श्रम तो हुआ ही होगा किन्तु मैंने भविष्य में जीवदया के प्रचार हेतु ही यहां आपको बुलाया है । अब आपने यहां पर पधार कर मेरे पर असीम कृपा की है। मैं अब आप से जैन धर्म का विशेष बोध प्राप्त कर जीवों को अभय दानादि देकर आपका खेद ( मार्ग श्रम) दूर करूंगा 3 सूरिजी तो अपना कर्तव्य पालन करने अर्थात् अहिंसा का पूर्ण रूप से पालन करते हुए विश्व में स्नेह की नदियां बढ़ाने की भावना लेकर ही शहुशाह को उपदेश देने आये थे अतः अकबर की धर्म जिज्ञासुता देखकर सूरिजी को परम आनन्द हुआ । षे जिस उद्देश्य को लेकर खम्भात से चले थे उसे पूरा करने के लिए वादग्राह को ओजस्वी शब्दों में उपदेश देना प्रारम्भ किया। सूरिजी ने कहा आत्मा एक सत्य सनातन पदार्थ है, चैतन्य उसका लक्षण है । जब तक आत्मा अपने सद्गुणों में लीन रहती है तब तक उसमें अति शुद्धता बनी रहती है । जब 1. युग प्रधान जिनचन्द्रसूरि -- अगरचन्द्र भंवरलाल माहटा पृष्ठ 66-67 2. युग प्रधान गुर्वावलि - खरतरगच्छ का इतिहास पृष्ठ 193 3. युग प्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि - अगरचन्द्र भंवरलाल नाहटा पृष्ठ 77 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 88 ) उसका सम्बन्ध काम, क्रोध, मोह, अज्ञान आदि से हो जाता है तो उसके साथ कर्मो के कारण ही कभी मनुष्य बनता है तो कभी पशु-पक्षी आदि। अपने कि पुण्य पाप के कारण ही कभी राजा बनता है तो कभी रक । सार रूप में मनुष्य अपने कर्मों के कारण ही सूख दुख का अनुभव करता है। कर्मों का विनाश हो जाने से आत्मा का शुद्ध स्वभाव प्रकट हो जाता है आत्मा की अवस्था को ही जैन दर्शन में परमात्मा या ईश्वर कहते हैं । प्रत्येक प्राणो का कर्तव्य है कि वह परमात्मा बनने के कारणों को समझकर उनके अनुकूल बर्ताव करें । सूरिजी ने आत्मा के बारे में ओबाची प्राणी द्वारा प्रभावशाली शब्दों में बादशाह को जो उपदेश दिया उनका सार इस प्रकार है-- "मात्मा न पुरुष है न स्त्री, न निर्बल है न सबल, न धनी है न रंक क्योंकि ये सब अवस्थायें तो कर्मजनित हैं । आत्मा तो शुद्ध सच्चिदानन्द है सभी आत्मायें सत्ता, द्रव्य, गुण और शक्ति की अपेक्षा से समान हैं इसलिए सभी जीव प्रेम के पात्र हैं। जैसे अपने को जीवन प्यारा है। वैसे सभी जीवों को अपना जीवन प्यारा है । और मरण भयावह है । अतः उन सबको सुख पूर्वक जीने देना आत्मा का प्रथम कर्तव्य है। आगे अहिंसा क अर्थ बताते हुए सूरिजी ने कहा "अहिंसा सकलो धर्मों" अर्थात् अहिंसा ही पूर्ण धर्म है। जैसे हमको सुख प्रिय है और हम जीना चाहते हैं उसी प्रकार जगत के समस्त जीव सुख चाहते हैं, और जीना चाहते हैं । कहा भी गया है "सब्बे जीवा वि इच्छंति जोविंड, न मरिज्जड" सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहते । सारे जगत का कल्याण हो, सुखी हो, कोई भी दुखी न रहे इस प्रकार से सबका हित चाहने की इच्छा वृत्ति को ही हिंसा कहते हैं । जिस व्यक्ति में यह भावना आ जाती है उसमें कई गुण स्वतः ही आ जाते हैं। किसी प्राणी का अहित सोचना ही जन दर्शन में "हिंसा" नाम से सम्बन्धित किया गया है । संसार में जहां हिंसा की भावना होती है वहां अशांति और कलह अपना डेरा डाले रहते हैं । झूठ, चोरी आदि विकृति भाव छाये रहते हैं किन्तु जहां अहिंसा रूपी सद्गुण का निवास होता है, वहां ये दुर्गुण फटकने भी नहीं पाते । जब एक सत्ता प्राप्त प्राणी एक निर्बल और क्षुद्र जीव को सताता है तब वह अपने आप ही दूसरे को, अपने को सताने के लिए माह्वान करता हैं उसके मन की कठोर वृत्तियां उसे पाप कर्म की ओर झुकाती है। दूसरे को सताकर कोई सुखी नहीं रह सकता इसलिए मनुष्य को विश्व प्रेम द्वारा सब जीवों के कल्याण का ध्यान रखना चाहिए। 1. विचक्षण वाणी-प्रवचनकार श्री विचक्षण श्री जी पृष्ठ 99.100 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 89 ) अन्त में राजा के कर्तव्य बताते हुए सूरिजी ने बादशाह को कहा कि गजनीति में प्रजा पर वात्सल्य रखना और उसे सुख शान्ति से रहने देना ही लापालक का धर्म कहा गया है। मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी भी जो अपने राज्य में हते हैं, वे भी प्रजा ही है उन्हें प्राण रहित करना राजनीति कदापि नहीं हो किती। अतः उन्हें भी निर्भीक रहने देना चाहिए धर्म के साथ आत्मा का पूर्ण सम्बन्ध है किसी को अपने धर्म से छुड़ाना और धर्म पालन में बाधा देकर धार्मिक आघात पहुंचाना भी प्रजा को विद्रोह बनाना है अतः शासक को सहिष्णुता का गुण अवश्य धारण करना चाहिये । शासक का प्रजावात्सल्य ही एक मात्र प्रजा के हृदय सम्राट बनने का हेतु है । अतएव सर्वदा उदार वृत्ति और हृदय निर्मल पवित्र रखना चाहिए हृदय निर्मल रखने के लिए सात व्यसनों का अवश्य त्याग करना चाहिए । जैसे जुआ, मांस भक्षण, मदिरापान, शिकार, प्राणी, हिंसा, चोरी करना और परस्त्री गमन इन्हें त्यागने वालों की सदा जय होती हैं और कीति फैलती है अहिंसा रूपी सद्गुण धारण करने से सतत् श्रीवृद्धि होती है, लाखों प्राणियों का आशीर्वाद मिलता है। सूरिजी के अमृतमय उपदेश सुनकर सम्राट के हृदय में अत्यन्त प्रभाव पड़ा और करुणा का बीज परिपुष्ट हुआ। सूरिजी के उपदेश से बादशाह ने जीव दया के अनेक कार्य किये। एक दिन सूरिजी ने सुना कि नौरंगखान के द्वारिका के निकट जैन मन्दिरों को नष्ट कर दिया है । सूरिजी ने जैन मन्दिरों की रक्षा के लिए सम्राट से कहा । सम्राट ने उसी समय शत्रुन्जय और अन्य जैन मन्दिरों की रक्षा के लिए फरमान लिखकर मन्त्रि कर्मचन्द्र को दे दिया। इसी तरह एक फरमान लिखकर शाही मोहर लगाकर आजम खान, खाने आजम और मिर्जा अजीज कोका को भेजा गया जब बादशाह काश्मीर विजय करने गया तब जाने से पहले उसने सूरिजी के दर्शन किये क्योंकि उसे सूरिजी पर अपार श्रद्धा थी। उस समय सूरिजी ने बादशाह को जो अहिंसात्मक उपदेश दिये उसे सुनकर बादशाह ने अषाढ़ शुक्ला नवमी से पूर्णिमा तक 12 मूबों में समस्त जीवों को अभयदान देने के लिए 1. युग प्रधान श्री जिनचन्द्र सूरि पृष्ठ 80 2. भानुचन्द्र गणिचरित~भूमिका लेखक अगरचन्द्र भंवरलाल नाहटा पष्ठ 11 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 90 ) 12 शाही फरमान (अमारि घोषणा) लिखकर भेजे इन सात दिनों का वणन सूरीश्वर और सम्राट तथा भानुचन्द्र गणिचरित में भी मिलता हैं लेकिन दोनों में सूबों की संख्या है। (युग प्रधान जिनचन्द्रसूरि के लेखक का कहना है कि मुलतान के सूबे का फरमान पत्र खो जाने से उसकी पुनरावृत्ति बाद में हुई शायद इसलिए सूरीश्वर और सम्राट तथा भानुचन्द्रगणिचरित में सूबों की संख्या 11 है ) सम्राट के अमारि फरमान प्रकाशित करने के अन्य राजाओं पर बहुत प्रभाव पड़ा उन्होंने भी अपने-अपने राज्य में किसी ने 15 दिन, किसी ने 20, किसी ने 25, किसी ने एक मास तो किसी ने दो मास की अमारि पालने का हुक्म दिया । इस तरह अपने उपदेशों से सम्राट को प्रभावित कर तीर्थों की रक्षा एवं अहिंसा प्रचार के लिए आषाढ़ी अष्टान्हिका एवं स्तम्भतीर्थीय जलचर रक्षक आदि कई फरमान प्राप्त किये: सूरिजी की योग्यता से प्रभावित होकर सम्राट मे उन्हें "युग प्रधान" पद से विभूषित किया । इन कार्यों के अलावा सम्राट मे जो और महत्व के कार्य किये वे इस प्रकार हैं--- 1-प्रतिवर्ष में सब मिलाकर छः महीने पर्यन्त अपने समरस राज्य में जीव __हिंसा निषेध । 2-शत्रुन्जय तीर्थ का कर मोचन । 3- सर्वत्र गौ रक्षा का प्रचार।। सूरिजी के उपदेश से बादशाह द्वारा किये गये जीव दया के कार्यों के बारे में नर्मदा शंकर बकराम भट्ट भी लिखते हैं कि 'जिमचन्द्रसूरजी के (धर्मोपदेश से प्रसन्न होकर अकबर ने आषाढ़ अष्टान्हिका अमारि फरमान निकाला और खम्भात के समुद्रों में एक वर्ष तक कोई व्यक्ति जल चर आदि जीवों की हत्या म करें, फरमान निकाला 1. युग प्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि पेज 91.92 2. सूरीश्वर और सम्राट-कृष्णलाल वर्मा पेज 155-56 भानुचन्द्र गणिचरित पृष्ठ 11 3. जैन साहित्यनों सक्षिप्त इतिहास- मोहन लाल दलीचन्द पृष्ठ 575 4. युग प्रधान गुर्वावलि खरतरगच्छ का इतिहास पृष्ठ 193 5. युग प्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि पृष्ठ 113 6. खम्भात नो प्राचीन जैन इतिहास-नर्मदाशंकर त्रम्बकराम पृष्ठ 14-13 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (91) बाबूपूरण चन्द्र जी नाहर एम. ए. बी. एल.एम. आर. ए. एस. महोदय के प्रहस्थ एक गुटके में प्राचीन कवित्त का भावार्थ इस प्रकार है-"सूरिजी को लन्दनार्थ सम्राट सामने गये उनके साथ उनकी प्रजा और अनुगामी अमीर उमराव भी थे । गुरू के चरणों में सम्राट ने दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया। उनके उपदेश से सम्राट जैन धर्म का इतना आदर करने लगा कि उसके फलस्वरूप जिस किल्ले में गायें, कत्ल होती थीं, मर्गे, हिटले आदि जानवर मारे जाते थे अब उनका कत्ल होना बन्द हो गया। इतना ही नहीं सम्राट ने मांस-भक्षण जो पहले करता था, उसका त्याग कर दिया बादशाह पर सूरिजी के प्रभाव का विवरण प्राचीन जैन लेख संग्रह में भी मिलता है। बादशाह के दरबार में सूरिजी का इतना प्रभाव देखकर कुछ मौलवियों को ईष्र्या हुई इसीलिये उन्होंने कई बार ऐसे प्रसंग उपस्थिति किये । सूरिजी को नीचा दिखाया जा सके लेकिन सूरिजी ने हमेशा अपने चरित्र और बुद्धि वैभव द्वारा जैन शासन की रक्षा की । ऐसी कई चमत्कारिक घटनाओं में एक मुख्य घटना जिसका विवरण प्रायः सम्पूर्ण खरतरगच्छ साहित्य में मिलता है कि सूरिजी का एक शिष्य आहार के लिए जा रहा था। रास्ते में एक मौलवी के तिथि पूछने पर उसने भूल से अमावस्या के बदले पूणिमा बता दी। मौलवी ने कहा महाराज ! सुना है कि जैन साधू झूठ नहीं बोलते लेकिन यह तो सरासर झूठ है अब देखेंगे कि पूर्णिमा का चांद कैसे प्रकाशमान होगा, बाद में साधू को भी अपनी भूल का अहसास हुआ इसलिए उन्होंने उपाश्रय में जाकर सूरिजी को सारा वृत्तान्त बता दिया। इधर मौलवी ने भी सब जगह जहाँ तक कि सम्राट के दरबार तक में भी यह खबर पहुंचा दी कि जैन साधुओं के अनुसार आज पूर्णिमा का चांद उदय होगा । जैन शासन की अवहेलना न हो, इसलिए 1. युग प्रधान-श्री जिनचन्द्रसूरि-अगरचन्द्र भंवरलाल नाहटा पृष्ठ 116-117 2. श्री अकबरसाहिप्रदत्तयुग प्रधान पद प्रवरैः प्रतिवर्षासाठी याष्टाहिकादिषा मासिकामारिप्रवर्तकः श्री पन्त (9) तीर्थोदीध मीनादि जीव रक्षक': श्री शत्रुन्जयादि तीर्थ करमोचकैः । सर्वत्र गोरक्षाकारकैः पंचनदीपीर साधकः युग प्रधान श्री जिनचन्द्र सूरिमिः । प्राचीन जैन लेख संग्रह, भाग 2, पृष्ठ 270 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 92 ) सुरिजी मे एक श्रावक के यहां से स्वर्णथाल मंगवाकर उसे आकाश में उड़ा दिया। सूरिजी के प्रताप से वह थाल पूर्णिमा के चन्द्रमा की भांति सर्वत्र प्रकाश करने लगा। सम्राट ने इसकी जांच करने के लिए बारह-बारह कोस तक घुड़ सवार भेजें । किन्तु सब जगह प्रकाश हुआ । सुनकर सम्राट आश्चर्य चकित रह गया। 7. श्री जिनसिंह सरि अकबर के आमन्त्रण को स्वीकार कर जिनचन्द्रसूरिजी ने जिन महिमराज को गणिसमय सुन्दर आदि छः साधुओं के साथ अपने से पूर्व ही लाहौर भेजा था । ये महिमराज मानसिंह ही जिनसिंह सूरि के नाम से विख्यात हुए। सम्वत् 1649 (सन् 1593) में अपने कामीर प्रवास में भी धर्म गोष्ठि, धर्म चर्चा होती रहे, दया धर्म का प्रचार हो इसलिए मन्त्रि कर्मचन्द्र से मानसिंहजी को साथ ले जाने की इच्छा व्यक्त की । यद्यपि उस अनायं देश में मानसिंह जी को आहार पानी की असुविधा थी फिर भी उस देश में बिहार करने से दया धर्म के प्रचार का महान लाभ और जैन धर्म की प्रभावना का विचार कर उन्होंने जाना स्वीकार कर लिया। रास्ते में समय-समय पर धर्मगोष्ठि कर बादशाह ने मानसिंह जी के उपदेश से कई जगह तालाबों के जल-चर जीवों की हिंसा बन्द कराई । महिमरामजी की अभिलाषानुसार गजनी, गोलकुण्डा और काबुल तक अमारि उद्घोषणा बनाई। मानसिंहजी के कहने से बादशाह जब काश्मीर विजय कर वापिस आया तो आठ दिन तक अमारि उद्घोषणा की। मानसिंहजी के चारित्रिक गुणों से प्रभावित होकर सम्राट अकबर ने आचार्य श्री को निवेदन कर बड़े ही उत्सव के साथ सम्वत् 1649 फाल्गुन कृष्णा दशमी (सन 1592, 16 फरवरी) के दिन आचार्य श्री के . ही कर कमलों से आचार्य पद प्रदान करवाकर जिनसिंह सूरि नाम रखवाया श्रीमोहनलाल देसाई ने यह तिथि फाल्गुन शुक्ला 2 सम्वत 1649 (23 फरवरी 1593) मानी है। विद्याविजयजी लिखते हैं "मानसिंह को आचार्य पदवी दी इसकी खुशी में बादशाह ने खम्भात के बन्दरों में जो हिंसा होती थी उसको बन्द कराई थी। लाहौर में भी कोई एक दिन के लिए जीव हिंसा न करे इस बात का प्रबन्ध 1. युग प्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि--अगरचन्द्र भंवरलाल नाहटा पेज 195 2. युग प्रधान गुर्वावलि-खरतरगच्छ का इतिहास पेज 195 3. वही फेज 195 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 93 ) यो थाः' इसके विषय में भानुचन्द्र गणिचरित में लिखा है 1 खम्भात में एक वर्ष क मछलियां व जानबरों का वध और लाहौर में उस पर्व के दिन जानवरों के घकी मनाही थी. अषाढ़ी अष्टान्हिका फरमान जो आचार्य जिनचन्द्रसूरिजी ने अकबर से भया था उसके खो जाने से जिनसिंह सूरिजी ने पुनः सम्वत् 1660 (सन् 1603) उसे अकबर से प्राप्त किया। अकबर के दरबार में अन्य जैन साधू पदमसुन्दर--- हीरविजयसूरिजी से मिलने से पहले सम्राट अकबर नागापुरीय तपागच्छ के पदमसुन्दर गणिजी से मिला। जिन्हें अकबर बहुत आदर देता था। जब अकबर हीरविजय सूरिजी से मिला तो पदमसुन्दरजी के बारे में इस तरह विचार प्रकट किये" कुछ समय पहले पदमसुन्दर नामक विद्वान पुरुष यहां रहते थि। वह मेरे प्रिय मित्र थे। उन्होंने बनारस में अध्ययन किया था। एक बार एक ब्राह्मण पण्डित ने गर्व में स्वयं को पण्डित राज बताया उसे पदमसुन्दर - चुनौती देकर वाद-विवाद में हरा दिया। दुर्भाग्यवश कुछ समय बाद मुझे दुख में छोड़कर ने काल कर गये। मैंने उनकी सब लिपियाँ सम्भालकर महल रखी हुई है। क्योंकि मैंने पाया कि उनका कोई शिष्य इन्हें सम्भालने क योग्य नहीं है। यह मेरी इच्छा है कि आप इस संकलन को मेरी पट समझकर स्वीकार करें : इस घटना की जानकारी हीरसौभाग्यकाव्य में भी मिलती है। नन्दविजय ये विजयसैन सरि के शिष्य थे जब सरिजी ने अकबर के दरबार से बिहार कया तब नन्दविजयजी उनके दरबार में रहे। ये अष्टावधान साधते थे। विद्याविजयजी लिखते हैं कि "उन्होंने एक बार बादशाह की सभा में अष्टावधान 1 सूरीश्वर और सम्राट-कृष्णलाल वर्मा द्वारा अनुदित पेज 156 2. भानुचन्द्र गणिचरित- अगरचन्द्र भवरलाल माहटा पेज 11 3. तपागच्छ पट्टावली-कल्याणविजयजी पृष्ठ 231 4. सम्भवतया ये तैलंग ब्राह्मण पण्डित राज जगन्नाथ थे, जो अकबर के समकालीन होने के साथ ही कुछ समय उनके दरबार में भी रहे थे । 5. भानुचन्द्रगणिचरित-अगरचन्द, भंवरलाल माहटा पेज 12 6. हीरसौभाग्यकाव्य-पण्डित देव विमलगणि सर्ग 14 श्लोक 91-97 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 94 ) साधा। उस समय बादशाह के सिवाय मारवाड़ के राजा मालदेव का पुत्र उदय. सिंह, जयपुर के राजा मानसिंह कछवाहा, खानखाना, अबुल फजल, आजमख जालौर का राजा गजनीखां और अन्याय राजा महाराजा एवं राजपुरुष वहाँ उपस्थित थे। इन सबके बीच उन्होंने अष्टावधान साधा था। नन्दिविजयजी का इस प्रकार का बुद्धि कौशल देख कर बादशाह ने उनको "खुश-फहम" की पदवी से विभूषित किया "जैन साहित्यनों इतिहास में भी वर्णन मिलता है कि नन्दिविजयजी के अष्टावधान साधने पर बादशाह ने प्रसन्न होकर "खुश-फहम” नामक पर्द दिया: श्री सेनप्रश्नसार संग्रह में भी इसका विवरण मिलता हैं: नन्दिविजयजी के अष्टावधान साधने का विवरण विजयप्रशस्तिकाव्य में भी है । राजा ने प्रसन्न होकर "खुश फहम" की पदवी दीः' 3. कविवर समय सुन्दरजी ये जिनचन्द्रसरिजी के शिष्य थे। जब अकबर काश्मीर यात्रा के लिए गया तो प्रथम प्रयाण सम्वत् 1649, श्रावण शुक्ला त्रयोदशी (22 जुलाई 1592) को राजा श्री रामदास की वाटिका में किया । उसी शाम वहां एक सभा हुई। जिसमें जिनचन्द्र सुरिजी को अपने शिष्य मण्डल के साथ सम्मानपूर्वक आमन्त्रित किया गया। इस सभा में समयसुन्दरजी ने अपने "अष्टलक्ष्मी" ग्रन्थ को पढ़कर सुनाया। यह ग्रन्थ उन्होंने "राजानो ददते सौख्यम" संस्कृत के इस छोटे से वाक्य पर लिखा था, जिसके आठ लाख अर्थ किये थे जब सम्राट को इस ग्रन्थ निर्माण की सूचना मिली तो उसने इस ग्रन्थ को देखने और सुनने की इच्छा प्रकट की। इस सभा में सम्राट ने कविवर समय सुन्दरजी से इस ग्रन्थ को पढ़कर सुनाने का आग्रह किया । इस अद्भुत ग्रन्थ को सुनकर सम्राट और उपस्थित विद्वानों को बड़ा कौतूहल हुआ । बादशाह ने प्रसन्न होकर इस ग्रन्थ की प्रशंसा की और उसे 1. सूरीश्वर और सम्राट-कृष्णलाल वर्मा द्वारा अनुदित पृष्ठ 160 2. जैन साहित्य नो इतिहास-मोहनलाल दलीचन्द देसाई पृष्ठ 551 3. श्री सेनप्रश्नसार संग्रह-पण्डित शुभविजय गणिविरचित पृष्ठ 19 4. विजयप्रशस्तिकाव्य-पण्डित हेमविजयगणि सर्ग 12, श्लोक 133 34, 35 5. भानुचन्द्रगणिचरित-भूमिका लेखक अगरचन्द, भंवरलाल नाहट पृष्ठ 13 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७ ) ल कराकर प्रचार करने को कहाः " जब सम्राट ने जिनचन्द्रसूरिजी को "युग प्रधान" की उपाधि दी तब इन्हें ध्याय पद दिया गया. अगरचन्द्र भी लिखते हैं कि इन्हें लेबेरे में उपाध्याय पर गया जय सोम ये भी खरतरगच्छ के थे। इन्होंने अकबर के दरबार में एक बार वादमें विजय पाई । जिस दिन अकबर ने जिनचन्द्रसूरिजी को "युग-प्रधान" पदवी और मानसिह को आचार्य पदवी दी उसी दिन जबसोम को भी यानि वत् 1649 फागुन सुदी दूज (23 फरवरी 1593) के दिन पाठक पदवी दी । ये पदवी दिये जाने का उल्लेख "श्री जैन सत्यप्रकाश एव युग प्रधान "श्री चन्द्रसूरि में भी हैं: * महोपाध्याय साधुकीर्ति - ये भी अकबर की राजसभा में गये । एक बार अकबर के दरबार में लोगों की उपस्थिति में पोषध के विषय पर वाद-विवाद हुआ जिसमें साधुति ने भाग लेकर विजय पाई | इससे प्रसन्न होकर सम्राट ने इन्हें "वादीन्द्र " उपाधि प्रदान की: * कर्ष 1 जैन साधुओं ने बादशाह पर प्रभाव डालकर जन कल्याग व धर्म रक्षा आदि क कार्य करवाये । तीर्थों की रक्षा, गुजरात से जजिया उठवाना युद्धे बन्दी, और पिंजड़े में बन्द पक्षियों को छुड़ाना आदि बादशाह के जीव दया के की प्रेरणा में जैन मुनियों के उपदेश ही हेतु रहे हैं। जैन साधुओं बादशाह पर जो प्रभाव पड़ा। उसके विषय में प्राचीन ग्रन्थों के कुछ मत यहाँ घृत हैं । बादशाह ने प्रजी को अनुचित करों से मुक्त किया और प्रजाहित के लिए सुकृत किये उनके बारे में कृपारस कोष" के रचयिता लिखते हैं कि 1. युग प्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि -- अगरखन्द्र, भंवरलाल नाहटा पृष्ठ 96 2. श्री जैन सत्यप्रकाश वर्ष 10, अंक 12, पृष्ठ 284 3. युग प्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि - अगरचन्द, भंवरलाल नाहटा पृष्ठ 176 4. श्री जैन सत्य प्रकाश वर्ष 10 अंक 12, पृष्ठ 284, और बुग प्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि पृष्ठ 198 5. श्री जैन सत्य प्रकाश वर्ष 10, अंक 12 पृष्ठ 284 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 96 ) अव इस "पहले मृतक के धन को राजा कुमारपाल ने छोड़ा था और समय अकबर बादशाह ने कर सम्बन्धित धन को छोड़ दिया है पहले गायों बन्धन मुक्त अर्जुन ने किया था, और इस समय वध-मुक्त अकबर ने किया "1 इर कोष में आगे लिखते हैं कि "सब प्रकार से जिन्द्य ऐसी मुदिरा का इस बादशाह ने निषेध कर दिया बादशाह ने जुआ खेलना बन्द कर दिया । शिकार खेलना भी छोड दिया: वीर पुरुषों को यह प्रतिज्ञा होती है कि- जो अपराधी शस्त्र उठाकर बड़ा अपराध करता है उसी पर वे अपना शस्त्र चलाते हैं, औरों पर नहीं, तब मैं शूरवीरों में शिरोमणि कहलाकर इन निरपराध और भयाकुल पशुओं पर कैसे अपना शस्त्र चलाऊ ? यह विचार कर बादशाह सभी प्राणियों पर रहम करता है | 3 अकबर द्वारा जीव हिंसा का निषेध और मांसाहार में उसकी अरुचि का उल्लेख कितने ही स्थलों पर मिलता है पट्टावली समुच्चय में लिखा है— "छ: महीने अमारि घोषणा की. 4 1. "मृतस्वमोक्ता तु कुमारपाल: 2. शुल्कस्तवमोक्ता तु फतेपुरेशः । पुरा गवां बन्दिमपचकार 4. धनन्जयः साम्प्रतमेष एवं || कृपारस कोष - शान्तिचन्द्रजी श्लोक 98 पृष्ठ 16 "मयं सर्वनिद्य न्यतेधत् । दयुतं स्वदेशे व्यसनं न्यषेधत् । वनेन तस्मान्मुमुचे भृगव्यम् । कृपारस कोष शांतिचन्द्रजी श्लोक 102, 106, 107 3. शस्त्रग्रहेण धरिलब्धसमन्तुताके शस्त्रं विमोच्यमिति वीरजनप्रतिज्ञा । जन्तुनन्तुदरितान् किहं निहन्मि वीरावतंस इति धीरनुकम्पते सौ ॥ कृपारसकोष - श्री शांतिचन्द्रजी श्लोक 108 "षाणमासिका अमारि प्रवर्तनं । महोपाध्याय श्री धर्म सागर गणिविरचित श्री पट्टावली समुच्चय Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (97) प्राचीन जैन लेख संग्रह में भी ऐसा ही विवरण मिलता है। कृपारस कोष के रचयिता का कहना हैं कि श्री हीरविजय सूरिश्वर को इस राजा ने जो अमारि शासन, जीवों के वध के निषेध का शाही फरमान दिया है उसके पुण्य का प्रमाण केवल सर्वज्ञ ही जान सकता है और नहीं हीरसौभाग्यकाव्य में छः महीने अहिंसा पालने के दिन इस प्रकार से गिनाये गये हैं-"प'षणों के दिन, समस्त रविवार, सोफीयान का दिन सूर्य संक्रमण का दिन, बादशाह का जन्म जिस महीने में हुआ वह पूरा महीना, बादशाह के सुत्रों का जन्म दिन, रजवमास, नवरोज का दिन, और बादशाह के गद्दी पर बैठने का दिन गुरूवार जगद्गुरूहीर में भव्यानन्द जी ने छः महीने इस प्रकार बिताये हैं । "पर्युषण पर्व के 12 दिन, सर्व रविवार के दिन सोफियान एवं ईद के दिन संक्रांति की सर्व तिथियां, अकबर का जन्म का पूरा मास, मिहिर और नवरोज के दिन, सम्राट के तीनों पुत्रों का जन्म मास और रजब (मोहर्रम) के दिन 1. “षाणमासिका यदुक्त्योच्चरमारिपटह पटु" प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-2 आलेख संख्या 450, पृष्ठ 285 2. श्रीयक्त हीरविजयाभिधसूरिराजां तेषां विशेषसुकृताय सहायभाजाम् । जन्तुष्वमारिमदिशद्ययं दया स्तत्पुण्यमानमधिगच्छति सर्ववेदी । कृपारस कोष-शान्तिचन्द्र उपाध्याय श्लोक 123 3. श्रीमत्प!षणादिना रविमिताः सर्वे खेर्वासराः सोफीयानदिना अपीददिवसाः संक्रांतिघस्त्राः पुनः मासः स्वीयजनेदिनाश्च मिहिरस्यानान्येडपि भूमीन्दुसा हिन्दुम्लेच्छमहीषु तेन विहिताः कारूण्यपण्यापणा: तेननवरोजदिवसास्तनुजजनू रजबमासद्रिव्वसाश्य । विहिता अमारिसहिताः सलतास्तखो धनेनेव ।। गुरूवचसा नृपदत्ता साधिकषण्मास्यमारिर भवदिति । तनुर्जेरपि दत्ताधिकवृद्धि व्रततिद्भेजे ॥ हीरसौभाग्यकाव्य-देवविमलगणि सर्ग 14, श्लोक 273, 74, 75 __ 4. जगद्गुरूहीन-मुमुछुभव्यानन्दजी पृष्ठ 95 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 98 ) चिमनलाल डाहया भाई ने झफ्ते लेख (हीरविजयसूरि और द जै टीचर्स एट द कोर्ट ऑफ अकबर) में छ: महीने इस प्रकार बताये हैं"पयूषणों के दिन, समस्त रविवार, सोफीयान का दिन, ईद, बादशाह के जर का महीना, मिहिर और नवरोज का दिन, रजवमास, और उसके पुत्रों जन्म विन: इसी लेख में जैन सन्तों के प्रभाव के बारे में आगे लिखते हैं कि-"इसके अलावा गायों, बैलों, भैसों, नर, मावा, दोनों ही प्रकार के जानवरों को कसाईधर नहीं ले जाया जाता था मृतक कर पूर्णतः समाप्त कर दिया, तथा कैदी भी नहीं बनाये जाते थे। मोहनलाल दलीचन्द्र देसाई का कहना है कि "अकबर सत्य का शाधक था। जहां से सत्य मिलता था। वहीं से ग्रहण कर देता था। जैन धर्म में से प्राणी वध त्याग, जीवित प्राणियों के प्रति क्या, मांसाहार, के प्रति अरुचि, पुनर्जन्म की मान्यता, कर्म सिद्धान्त इन वस्तुओं को स्वीकार किया जैव धर्म के तीर्थों को उनके अनुयायियों को सौंप दिया। उनके आचार्यों एवं साधुओं के प्रति उदारता बताई यह जैन सन्तों का ही प्रभाव था कि अकबर ने अपने राज्य में एक वर्ष में छ: महीने, छ: दित तक जीव-हिंसा का निषेध किया था । यद्यपि इन दिनों का ठीक-ठीक गिनती करना कठिन है क्योंकि उनमें कई महीने सुसलमासी त्यौहारों के होने से यह निर्णय होना कठिन है कि उन महीनों के कितने-कितने दिन गिनने चाहिये लेकिन इतना निश्चित है कि जो महोते गिनाये गये हैं उनमें व 1. The days of Rurshanda all sundays, clays of sofiam, Ida equinox, month of his birth, days of Mihira and Navroz month of Rajab and the birth days of his sons. जैन शासन दिवाली अंक, बीर सम्बत् 24३६ पृष्ठ 122 2. More over that cows and bulls and buffaloes, both male and female should never be lad to the house of death, that the whole tax upon the dead should be remitted and that prisoners also should not be made. जैन शासन बिवाली अंक, वीर सम्वत् 2438 पृष्ठ 128 3. जैन साहित्य नो इतिहास-सोहनलाल वलीचरद देसाई पष्ठ 357 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 99 ) नमें से अमुक अमुक दिनों में बादशाह ने अपने समस्त राज्य में जीव-हिंसा का नषेध किया था और स्वयं भी इन दिनों मांसाहार नहीं करता था । न केवल जैन पितु जैनेतर लेखकों ने भी इस बात को स्वीकार किया हैं। अकबर का सर्वस्व गना जाने वाला शेख अबुल फजल लिखता है ___ "सम्राट अपने ज्ञान के कारण मांस से बहुत कम अभिरुचि रखता है, हा और बहुधा मोतियों से भरी हुई जुबान से कहीं करता है कि यद्यपि मनुष्य के लिए भांति-भांति के व्यंजन विद्यमान हैं तथापि वह अपनी अज्ञानता और निर्दयता से प्राणियों के सताने में मन लगाता है तथा उनकी हत्या करने और खाने से हाथ नहीं खींचता। कोई व्यक्तिं पशुओं के न सताने की खूबी पर अपनी 'आंखें नहीं खोलता वरन अपने को जानवरों की कन्न बनाता है। यदि उसके कन्धों पर संसार का बोझ न होता तो एक दम मांस खाना छोड़ देता, तथापि उसका विचार यह है कि शनैः शने उसे नितान्त त्याग दे। कुछ दिनों तक वह अपने समय के लोगों की चाल पर चलता रहा, परन्तु बाद को उसने पहले कुछ शुक्रवारों को मांस खाना बन्द किया और फिर रविवारों को। किन्तु अव प्रत्येक और मांस की प्रतिपदा रविवार, सूर्य और चन्द्र ग्रहण के दिन, संयम वाले दो दिवसों के बीच का दिन रजवमास के सोमवार, हरइलाही महीने के उत्सव का दिन फरवरीदीन का पूरा महीना और समस्त आबान मास जो कि सम्राट का जन्म मास है । संयम के दो दिनों में और बढ़ा दिये गये हैं । आबान मास के लिए यह निश्चय हुआ था कि सम्राट की अवस्था के जितने साल हों, उतने दिन वह उक्त महीने में मांस न खाये, परन्तु-अब उसकी अवस्था के साल आबान मास के दिनों से अधिक हो गये हैं, इसलिए आजुर महीने के भी कुछ दिनों में उसने व्रत रखा परन्तु इस समय उक्त मांस के सभी दिन सूफियाना (सयमवाले) हो गये । ईश चिन्तन की अधिकता के कारण उनमें प्रतिवर्ष वृद्धि होती जा रही हैं और वह पांच दिन से कम नहीं होती। अकबर द्वारा राज्याभिषेक के पूरे महीने मांसाहार निषेध का जो वर्णन न ग्रन्थों में मिलता है उसकी पुष्टि आइने अकबरी से भी होती है, अकबर कहा करता था "मेरे राज्याभिषेक की तारीख के दिन, प्रतिवर्ष ईश्वर का उपकार जानने के लिए किसी भी मनुष्य को मांस नहीं खाना चाहिये, जिससे सारा वर्ष 1. आइने अकबरी हिन्दी अनुवादक-रामलाल पाण्डेय अंक 20 पृष्ठ 123.124 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द के साथ निकले: 1 ( 100 ) अकबर कहा करता था कि यह उचित नहीं है कि एक आदमी अपने पेट को पशुओं की कब्र बनाये : इसी तरह एक अन्य स्थान पर अकबर ने कहा है कि "यदि मेरा शरीर इतना बड़ा होता कि मांसाहारी जीव सिर्फ मेरे शरीर को खाकर ही तृप्त हो जाते और दूसरे जौंवों के भक्षण से दूर रहते तो मेरे लिए यह बात बड़े सुख की होती । या मैं अपने शरीर का एक अंश काटकर मांसाहारियों को खिला देता और फिर से वह अंश प्राप्त हो जाता, तो मैं बड़ा प्रसन्न होता 3 " अकबर के उपरोक्त विचारों से उसके दया संबंधित विचारों का पता चलता है मांसाहारियों को अपना शरीर खिलाकर तृप्त करने और दूसरे जीवों को बचाने की भावना उच्चकोटि की दयालु वृत्ति रखने वाले व्यक्ति ही कर सकते हैं, यह सब जैन सन्तों का ही प्रभाव था। जैन सन्तों के इस महत्व को अकबर के दरबार में रहने वाला कट्टर मुसलमान बदायूँ नी भी स्वीकार करता है अकबर की मांस और पशु-वेध में अरूचि के सम्बन्ध में उसने लिखा है कि "इस समय बादशाह ने अपने कुछ नवीन प्रिय सिद्धान्तों का प्रचार किया था । सप्ताह के पहले दिन में प्राणी वध निषेध की कठोर आज्ञा थी कारण कि यह सूर्य पूजा का दिन है। फरवरदीन महीने के पहले 18 दिनों में आबान के पूरे महीने में (जिसमें बादशाह का 1. Men should annually refrain from eating meat on the anniversary of the month of my accassion as a thanks giving to the almighty, in order that the year may pass in prosperity. आइने अकबरी – एच. एस. जेरेट भाग 3 पृष्ठ 446 2. It is not right that a man should make his stomach the grave of animals. आइने अकबरी एच. एस. जैरेट: भाग 3 पृष्ठ 443 3. Would that my body were so vigorous as to be of service to eaters of meat who would this forego other animal life, or that as I cut of a piece for their mourishment, It night he replaced by another. आइने अकबरी अनुदित एच. एस. जैरेट भाग 3 पृष्ठ 445-46 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101 ) न्म हुआ था) और हिन्दूओं को प्रसन्न करने के लिए और भी कई दिनों प्राणी व का निषेध किया था । यह हुक्म सारे राज्य में जारी किया गया था इस हुक्म क विरुद्ध चलने वाले को सजा दी जाती थी । इससे अनेक कुटुम्ब बर्बाद हो गये थे और उनकी मिल्कियतें जब्त कर ली गई थीं। इन उपवासों के दिनों मैं बादशाह ने धार्मिक तपश्चरण की भांति मांसाहार का सर्वथा त्याग किया था । :- शनैः वर्ष में छः महीने और उससे भी ज्यादा दिन तक उपवास करने का अभ्यास वह इसलिए करता गया कि अन्त मांसाहार का वह सर्वथा त्याग कर सके 2 ( एक अन्य स्थान पर बदायूनी ने यह भी लिखा हैं कि "यदि कोई कसाई के साथ बैठकर खाता था तो उसका हाथ काट लिया जाता था और यदि कोई कसाई के साथ सम्बन्ध रखता था तो उसकी केवल छोटी ऊँगली काटी जाती थी: " जैन श्रमणों (साधुओं) के महत्व को बदायूनी ने इस प्रकार भी स्वीकार किया है कि "सम्राट अन्य सम्प्रदायों की अपेक्षा श्रमणों और ब्राह्मणों से एकान्त में विशेष रूप से मिलता था। से नैतिक शारीरिक धार्मिक और आध्यात्मिक शास्त्रों में, धर्मोन्नति की प्रगति में और मनुष्य जीवन की सम्पूर्णता प्राप्त करने में दूसरे (समस्त सम्प्रदायों) विद्वानों और पण्डित पुरुषों की अपेक्षा हर हरह से उन्नत थे । वे अपने मत की सत्यता और हमारे (मुसलमान) धर्म के दोष बताने के लिए बुद्धिपूर्वक परम्परागत प्रमाण देते थे वे ऐसी दृढ़ता और युक्ति से अपने का समर्थन करते थे कि उनका कल्पना तुल्य मत स्वतः सिद्ध प्रतीत ाता था । उसकी सत्यता के विरुद्ध नास्तिक भी कोई शंका नहीं उठा कता था . इस तरह जैन लेखकों के कथन की सत्यता : अबुलफजल और बदायूनी 1. बदायूनी ने जो हिन्दू शब्द का उपयोग किया है उसे जैन ही समझना • चाहिये क्योंकि बादशाह को उपदेश देकर पशु-वध निषेध, मांसाहार, त्याग और जीव दया सम्बन्धित कार्य करवाने में यदि कोई प्रयत्नशील हुए तो वे जैन साधु ही है । 2. अलबदायूनी - डब्ल्यू. एच. लाँ द्वारा अनुदित भाग 2 पृष्ठ 331 3. वही पृष्ठ 388 4. वही पृष्ठ 264 'श्रमणों' शब्द के पूर्ण विवरण के लिए देखिये परिशिष्ट नं. 4 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 102 ) के कथनों से पक्की होती है। जैन लेखकों ने बादशाह के छः महीने तक मांसहार त्याग की और छ। महीने छः दिन तक समस्त देश में जीव-हिंसा निषेध के जो दिन गिनाये हैं। लगभगं वे ही दिन अबुलफजल और बदायूनी ने भी गिनाये हैं। आइने अकबरी के भाषान्तरकार पण्डित रामलाल पाण्डेय ने अपने लेख - "अकबर की धार्मिक नीति" में लिखा है कि "सम्राट ने पशुओं और पक्षियों कों बन्दि से मुक्त कर दिया था। सम्राट की नीति में अहिंसा और दया का जो पुट है उसका विशेष श्रेय इन्हीं जैन महात्माओं को है:1 जैन सस्तों के प्रभाव से अकबर ने वर्ष में छ: महीने छः दिन तक जीव हिंसा का निषेध ही नहीं किया था बल्कि जीव-हिंसा करने वाले को दण्ड देने का भी विधान था। इस बात को तो बदायूनी ने भी स्वीकार किया है। (जैसा कि हम पहले कह चुके हैं) और रामलाल पाण्डेय ने भी अपने लेख में लिखा है कि "गौ-वध तो बराबर बन्द रहता था ही पर उसके बधिक के लिए प्राण दण्ड तक की सजा थी।" यह राजाज्ञा शब्दों तक ही सीमित नहीं थी, वरन उसे कार्य रूप में परिणित करके दिखलाया गया। "महाभारत" के भाषान्तरकार शेख सुल्तान थानेसुरी ने जब गौ हत्या की तो थानेश्वर के हिन्दुओं की शिकायत पर उसे देश-निर्वासन दण्ड दिया गया था उसकी महान विद्यता और प्रभाव उसे: इस दण्ड से न बचा सके: बादशाह पर जैन सन्तों के प्रभाव के बारे में ए. एल. श्रीवास्तव लिखते हैं किः"जैन मुनियों के उपदेशों को अकबर के जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा। उसने शिकार खेलना जिसका कि वह बेहद शौकीन रहा था। बन्द कर दिया और मांस खाना भी लगभग बन्द कर दिया। साल के आधे दिनों में तो उसने जानवरों और पक्षियों की हत्या करना तो बिल्कुल बन्द करवा दिया। निषेध दिनों पर पशु-पक्षियों को मारने काटने पर मौत की सजा देने का विधान था। इन आज्ञाओं का कठोरतापूर्वक पालन करने के लिए सभी प्रान्तों, गवर्नरों और स्थानीय अधिकारियों के नाम "फरमान" जारी कर दिये गये थे। प्रोफेसर ईश्वरीप्रसाद का कहना है "वे जैन गरू जिनके विषय में किम्वदन्त 1. विश्ववाणी 1942 नवम्बर दिसम्बर संयुक्त अंक पृष्ठ 346 2. वही पृष्ठ 349 3. द मुगल एम्पायर-आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव पृष्ठ 171 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 103 ) कि उन्होंने सम्राट के धार्मिक विचारों पर भारी प्रभाव डाला, हीरविजयसूरि; वजयसेन, भानुचन्द्र उपाध्याय और जिनचन्द्र थे। सन् 1578 के बाद एक का दो जन गुरू सम्राट की राजसभा में सदेन रहा करते थे। प्रारम्भ में उसने अर्थात् सम्राट अकबर ने) जैन सिद्धान्तों की शिक्षा फलेहपुर सीकरी में प्राप्त की थी और जैन गुरूओं का बह अत्यन्त श्रद्धा और आदर के साथ स्वागत करता था जयचन्द्र विद्यालंकार लिखते हैं-"जैन और हिन्दुओं के प्रभाव से उसने सम्राट ने) गौ-हत्या की मुमानियत कर दी, विशेष अवसरों पर उसने कैदियों को छोडना शुरू कियाः बक्रिम चन्द्र लाहिडी ने अपने सम्राट अकबर" नामक ग्रन्थ में लिखा है कि “सम्राट रविवार में दिन, चन्द्र और सूर्य प्रहण के दिन और अन्यं भी कई त्यौहारों के दिनों में किसी प्रकार का मांस नहीं खाता। रविवार तथा त्योहारों के दिनों में पशु-हत्या की खास मनाही करवा दी थी। न केवल भारतीय लेखकों ने अपितु अंग्रेजी लेखकों वे भी अकबर पर जैन सन्तों के प्रभाव को स्वीकार किया। सुप्रसिद्ध इतिहासकार विन्सेन्ट सिष में स्पष्ट लिखा है कि "अकबर का लगभग पूर्ण रूप से मांस का परित्याग करना एवं अशोक के समान क्षुद्र जीव हिंसा का निषेध करने के लिए सस्त आज्ञाओं का जारी करना अपने जैन गुरूओं के सिद्धान्त के अनुसार साबरम करने के ही परिणाम थे: एक अन्य स्थान पर भी स्मिथ ने लिखा है "मांसाहार पर वारशाह की बिल्कुल रूचि नहीं थी। और अपनी पिछली जिन्दगी में तो जब से वह 1. ए शॉर्ड हिस्ट्री ऑफ मुस्लिम रूप इन इण्डिया-ईश्वरीप्रसाद पृष्ठ 406 2. इतिहास प्रवेश- श्रीजमचन्द्र विद्यालंकार पृष्ठ 353 3. सम्राट अकबर गुजराती अनुवाद पृष्ठ 274 4. Akbar's action in abstaining almost wholly from eating meat and issuing stringent prohibitions, resembling those of Ashoka, restricting to the narrwrest possible limits the destruction of animal life, certainly was taken in obedience to the doctrine of his Jain teachers. अकबर द ग्रेट मुगल-विन्सेंट-ए-स्मिथ पृष्ठ 168 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 104 ) जैनों के समागम में आया। तभी से उसने इसका सर्वया ही त्याग कर दिया: ' steer हॉनेस क्लाट बर्लिन ने अपने लेख में लिखा है कि होरविजयसूरि ने अकबर को जैन बनाया: उपरोक्त विवरण के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं, कि बादशाह से जीवदया के कार्य करवाने में और मांसाहार छुड़वाने में जैन साधुओं के धर्मोपदेश ही महत्वपूर्ण सिद्ध हुए। जिस गौ वध को बन्द करने में आज सारा भारत त्राहि-त्राहि कर रहा है फिर भी उसमें सफलता नहीं मिल रही उमी पशु वध को मुगल बादशाह अकबर ने जैन सन्तो के प्रभाव से वर्ष में छः महीने के लिए पूर्णतः बन्द कर दिया था । बादशाह पर जैन धर्म का इतना अधिक प्रभाव देखकर कुछ लोग तो उसे जैनी समझने लग गये थे, यहाँ तक कि कई विदेशी मुसाफिर जो उस समर अकबर के दरबार में आये, उसका आचरण देखकर उसे जैनी समझने लगे । इसका एक प्रमाण हमें स्मिथ की " अकबर" नामक पुस्तक से मिलता है । स्मिथ ने इस पुस्तक में पिनहरो नाम के एक पोटुगीज पादरी के पत्र के उस अंश को उद्धृत किया है जिससे इस कथन की प्रमाणिकता सिद्ध होती है पत्र में पादरी ने लिखा है- "वह जैन मत का अनुयायी है 8 इस तरह विदेशियों को भी अकबर के व्यवहार से लगा कि वह जैन सिद्धांतों का अनुयायी है । अन्त में अकबर द्वारा स्वयं मांसाहार का त्याग और सारे राज्य में जीवहिंसा निषेध की पुष्टि के लिए हम यहां वैराट के शिला लेख को उद्धृत करेंगे । राजस्थान में दिल्ली से 105 मील दक्षिण-पश्चिम तथा जयपुर से 41 मील उत्तर में वैराट नामक एक ग्राम है, इस ग्राम में पार्श्व नाथ का एक मन्दिर है । इस मन्दिर के कम्पाउण्ड की दीवाल में शक सम्वत् 1509 ( ईसवी सन् 1587 ) 1. He Cared little for flesh food and gave up the use of it almost entirely in the later years of his life, when he came under Jain influence. अकबर द ग्रेट मृगल - विन्सेन्ट -ए-स्मिथ पृष्ठ 335 2. जैन गुर्जर कवियों भाग 2 - मोहनलाल दलीचन्द देसाई पृष्ठ 725 3. अकबर द ग्रेट मुगल - स्मिथ पेज 262 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 105 ) का एक शिलालेख हैं, जो हमारे विचारों की पुष्टि करता है । उस शिलालेख का मूल पाठ इस प्रकार है1. द.॥ श्री हीरविजय सूरीश्वर गुरुभ्यो नमः।। स्वस्ति श्री मन्त्रट........ 2. शाके 1509 प्रवर्तमाने फाल्गुन शुक्ल द्वितीयां 2 (वी).... 3. अखिल प्रतिपक्षमापाल चक्रवालतमोजालरूचितर चरण कम (ल)........ प्रसरतिलकित प्रम्रीभूत भूपाल भाल प्रबलबल प्राक्रम कृत चतुर्विंग (विजय)......... न्यायक धुराधरण धुरीण दुरपासर मदिरादिव्यसन निराकरण प्रवीण.. ण गोचरीकृत प्राक्तन नल नरेन्द्र रामचन्द्र धुष्टिर विक्रमादित्य प्रमूति मही महे (न्द्र)::".... 7. कीति मौमुदी निस्तन्द्र चन्द्र श्री हीरविजय सूरीन्द्र चन्द्रः चातुरी चंचुर चतुर निरा निर्वच (नी)...... न प्रोदभूत प्रभूत तर दयार्द्रता परिगणि प्रणीतात्यीय समग्र देश प्रतिवर्ष पर्यषणा पर्व........ जन्म मास 40, रविवार 48, सम्बन्धित षडाधिकशतदिनावीध सर्वजन्तु जाता अभयदान फुर (मान)........... बली वर्ण्यमान प्रधान पीयूष........देदीप्यमान विशदतम निरपवाद शोवाद धर्मकृत्य........ 11. श्री अकबर विजयमान राज्ये उद्येह श्री वइराट नगरे । पांडुपुत्रीय विविधावदात श्रवण. 12. भायनेक गौरिक खानिनिधानी भूत समग्रसागरांबरे श्रीमाल ज्ञातीय राक्याणा गोत्रीय संनालहा........ 13. श्री देल्हीपुत्र सं. ईसर भार्या पुत्र स. रतनपाल भार्या मेदाई पुत्र स. देवदत्त भार्या धम्मपुत्र पातस........ 14. टोडरमल सबहुमान प्रदत्त सुबहुग्राम स्वाधिपत्याधिकारी कृत स्वप्रजापाल नानेक प्रकार सं. भारमल्ल भा........ 15. इन्द्रराज नम्ना प्रथम भार्या जयवन्ती द्वितीय भार्या दमा तत्पुत्र सं. चूहडमल्ल । स्व प्रथम लघु भातृ सं. अज (यराज)...... Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 106 ) 16. रीना पुत्र सं. विमलदास द्वितीय भार्या नगीनो स्त्र द्वितीय लघु भातृ सं. स्वामीवास भार्या........ 17. का. पुत्र स. जगजीवन भार्या मोतां पुत्र स. कचरा स्व. द्वितीय पुत्र स. चतुर्भुज प्रभृति समस्त कुटुंबयु........(ब) इराट दंग स्वाधिपत्याधिकारं बिभ्रता स्वपितृनाम प्राप्त शैलमय श्रीपार्श्वनाथ ? रीरीभय स्वनाम धारित श्री श्री........ 19. चन्द्रप्रभं 2 भ्रातृ अजयराज नाम धारित श्री ऋषवदेव 3 प्रभृति प्रतिमालं कृतं मूलनायक श्री विमलनाथ बिबि 20. स्व. श्रेयसे कारित बहुलतम वित्तव्ययेन कारिते श्री इन्द्र बिहारा पर नाम्नि महोदय प्रसादे स्व. प्रतिष्टा (ष्टा) यां 21. प्रतिष्टि (ष्टि) तं च श्री तपागच्छे श्री हेमविमल सूरि तत्पट्टलक्ष्मीकमला श्री कण्ठस्थलालंकार हारकृत स्व. गुर्वाज्ञाप्ति........ 22. सहकृत कुमार्ग पारावारपतज्जंतु समुदरण कणधाराकार सुविहित साधुमार्ग क्रियोद्वार श्री आणंद........ विमलसूरि पट्ट प्रकृष्टतम महामुकुट मण्डन चुडामणीयमान श्रीविजयदानसूरि तत्पट्टपूर्वांचल तटीय........ 25. ........करण सहस्त्र किरणानुमारिभि स्वकीय वचन चातुरी चमत्कृत कृत काश्मीर कामरूपस्ता (न) काबिल बदकता दिल्ली मरूस्थली गुर्जर त्रामालय मण्डल प्रभृतिकाने के जनपद........ आचरण नैक मण्डलाधिपति चतुर्दशच्छत्रपति संसेव्यमान चरण हमाउ नन्दन जलालु... 28. दीनपातसहिं श्री अकबर सुरत्राण प्रदत्त पूर्वोपवर्णितामारि फुरमानं पुस्तक भांडागार प्रदान बन्दि........ 29. .........दि बहमान सर्वदोपगीयमानं सर्वत्र प्रख्यात जगद्गुरू विरूदधारिभिः । प्रशांतता निःस्प्रहता 30. ........तांसंविज्ञता युग प्रधानता ध्येनगुण गणानुकृत प्राक्तन व्रज स्वाम्यादि सुरभिः सुवि31. (हितसिरोम) णिमुग्रहीत नामध्येय भट्टारक पुरन्दर परमगुरु मच्छाधिराज श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 107 ) 32. श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री (हीरविजय) य मूरिभिः स्वशिष्ट सौभाग्य भाग्य वैराग्य........ 33 (औदार्य) प्रभृति गुण ग्राम........हनीयमहामणिगुण रोहण क्षोणी34. (तलमण्ड) ण गुर्वाज्ञा पालनक........वनीकृतानेक मण्डल महाडम्बर पुरस्सर............प्रतिष्ठा, प्रतिष्ठा पृष्ठ............क्षी वशीकर कार्मण प्राज्य प्रवृज्या प्रदा........कर्म निर्माण................माणभव्य जनमन पवित्र क्षैम ओधिबीजवपन प्रधान..........तिरस्कृत सुधार सबांखिलास राजमान तत्तदेशीय दर्शनस्प्रहया........मनोरथ प्रथा प्रतिथ कल्पलता प्रबर्दन सुपर्व पर्वतायमान विबुध जन39. ........कीति........पुरन्दर महोपाध्याय श्री 5 श्री कल्याण विजयगणि परिवृतै40. .......श्री इन्द्र बिहार प्रसाद प्रशस्तिः पण्डित लाभविजयगणि कृता लिखिता पण्डित सोमकुशल (ग. णिना) 41. भइरव पुत्र मसरफ भगतू महवाल 2 यह शिलालेख 1 फुट, 71 इन्च लम्बे और 1 फुट 71 इन्च चौड़े पत्थर पर उत्कीर्ण हैं । दाहिने ओर के ऊपर के पत्थर के टूट जाने से और नीचे के भाग के बायीं ओर के भाग के अक्षर नष्ट हो जाने के कारण अब यह खण्डित रूप में ही हमें उपलब्ध है। इसकी प्रथम पंक्ति के नष्ट भाग में विक्रम सम्वत् दिया था, दूसरी पंक्ति में शक सम्वत् 1509 दिया है, इससे यह शिलालेख वि. सम्वत् 1644 का निश्चित होता है। इस शिलालेख में तीसरी से दसवीं पंक्ति तक तत्कालीन बादशाह अकबर की प्रशंसा की गई है। इस प्रशंसा में अकबर से श्रीहीरविजयसूरि की भेंट से लेकर अकबर द्वारा जीव-रक्षा के लिए निकाले गये फरमानों तक का उल्लेख है। नवीं पंक्ति से ज्ञात होता है कि अकबर ने वर्ष में 106 दिन जीव-हिंसा न करने की आज्ञा निकाली थी। इनमें 40 दिन बादशाह के जन्ममास सम्बन्धि, 48 दिन रविवार के और 12 दिन पयूषण पर्व के हैं । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 108 ) उपरोक्त विवरण के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि अकबर पर जैन सन्तों का इतना प्रभाव प्रकट हो जाने के बाद इस विषय में किसी को सन्देह नहीं रह जाता कि यद्यपि अकबर ने कभी अपने आपको जैन कहकर नहीं पुकार था, तो भी वह आचरण से जैनी जरूर था । जो व्यक्ति जन्म से मांसाहारी रहा था जिसका प्रत्येक अवयव बाल्यावस्था हो से मांसाहार से परिपुष्ट हुआ था, उसी व्यक्ति ने जैन साधुओं के सहवास में आकर जैन साधुओं के उपदेशानुसार और खास “ईद” के दिन भी पशु हिंसा बन्द कर दी थीं, मांसाहार त्याग दिया था और वर्ष भर में छः महीने छः दिन तक पशु-हिंसा नहीं करने का ढिढोरा पिटवा दिया था, उस शख्स के लिए जैन होने में शंका करना स्वयं को जैन धर्म से अजान जाहिर करना है जैन धर्म का मूल सिद्धान्त " अहिंसा धर्म" जो व्यक्ति पालता ही नहीं था । बल्कि औरों से भी अपनी सत्ता के आधार पर पलवाता था । उसको जैनी सिद्ध करने के लिए शायद अब और किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय जहांगीर की धार्मिक नीति (अ) जहांगीर को नीतियों को प्रभावित करने वाले तत्व विरासत-- जहांगीर धार्मिक सहिष्णुता के प्रतीक अकबर महान का पुत्र था । अतः के प्रति सम्मान की भावना रखते हुए दरबार में अकबर के द्वारा स्थापित पराओं को मान्यता देते हुए गुण ग्राहिता के स्वभाव के कारण जहांगीर मे त धार्मिक सम्प्रदायों तथा उनके आचार्यों के प्रति सम्मान का भाव पूर्ववत् पे रखा । जहाँगीर की धमनियों में हिन्दू माता का रक्त प्रवाहित था जिसके नुगत संस्कारों से वह अप्रभावित नहीं रह सकता था । अतः अपने दरबार सने हिन्दू मनसबदारों के प्रति पूर्ववत् विश्वास व सहानुभूति का भाव रखा। सम्प्रदायों के पूजा-स्थलों के रख-रखाव तीर्थयात्रा कर की माफी, पशु-वध ध जैसे अकबर के आदेशों को जहांगीर ने यथावत् जारी रखी । अकबर के न काल में जहांगीर उसके अनुकूल व्यवहार नहीं कर सका किन्तु अकबर वृत्यु के पश्चात् नीतियों के पालन में वह अकबर के प्रतिकूल भी नहीं जा जैसा कि मांसाहार व जीव-हिसा निषेध के बारे में अकबर के समय से 'आ रही है कि "रविवार तथा वृहस्पतिवार को कोई पशु न मारे जायें न हम मांस खायें । विशेषकर सूर्यवार को इसलिए कि हमारे आदरणीय | का उस दिन पर इतना सम्मान था कि उस दिन बे मांस खाने में अरूचि । थे । और उन्होंने किसी जीव की हत्या करने को मना कर दिया था। के सूर्यवार की रात्रि को उनका जन्म हुआ था। यह कहा करते थे कि वह अच्छा रहता है कि लोगों को हत्याकारिणी प्रकृति से सभी पशुओं को कष्ट टकारा मिल जाता हैं । वृहस्पतिवार हमारी राजगद्दी का दिन है इस दिन के हमने आज्ञा दे दी कि जीव हत्या न की जाये"1 1. जहांगीरनामा-हिन्दी अनुवाद ब्रजरत्नदास पृष्ठ 254 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 110) इसी तरह तुलादान प्रथा के बारे में लिखा है कि सम्राट अकबर जो तथा उदारता के प्रकट करने के स्रोत थे, इस प्रथा के समर्थक थे वर्ष में दो अनेक प्रकार के धातु, सोना, चांदी तथा अन्य मूज्यवान वस्तुओं से तुलाद करते थे, एक बार सौर तथा एक बार चान्द्र के अनुमार और कुल मूल्य को एक लाख रुपये होता था। फकीरों तथा दीनों में बंटवा दिया करते थे । हम यह वाषिक प्रथा पालन करते है । और उसी प्रकार तौलवाते तथा फकीरों बंट वा देते हैं: यह जहांगीर का सौभाग्य का कि उसे एक शान्त एवं समृद्ध शासन राज करने के गिए मिला था। डॉक्टर एस. आर. शर्मा के शब्दों में-"इसको सम्मि लित करते हुए यह कहना चाहिए कि राजा अकबर ने जो शान्ति व वैभव अप उत्तराधिकारी को समर्पित किया वह हम जहांगीर के जीवन को देखते हुए पू तरह जान सकते हैं: (ब) शिक्षा अन्य धर्मों के प्रति उदारदृष्टिकोण बनाये रखने के लिए जहांमीर के अब्दुल रहीम खान का भी कम महत्व नहीं है । अब्दुल रहीम अरबी, फारस तुर्की, संस्कृत तथा हिन्दी के बहुत अच्छे विद्वान थे तथा साहित्यिक अभिरुचि व्यक्ति थे। डॉक्टर एस. आर. शर्मा ने उन्हें अपने युग के श्रेष्ठ विद्वानों में मानों अपनी किशोरावस्था में सलीम (जहांगीर) ने अब्दल रहीम के चरित्र एवं बुद्धि परिष्कार पायाः (स) पत्नी जिस राजपूत घराने की जहांगीर की माता थी उसी घराने की उसे पा भी प्राप्त हुई । परिणामतः हिन्दू धर्म उसके जहन तथा हरम दोनों में प्रय कर गया था। इस आम्बेर की राजकुमारी मानबाई के अलावा जहांगीर 1. वही पृष्ठ 299 2. Add to this, the lagary of peace and wealth that Aka had bequeathed to his immediate successor and have a fairly complete picture of the favouri auspices under which Jahangir opened his prosper Career. मुगल एम्पायर इन एण्डिया-श्रीराम शर्मा पृष्ठ 264 3. मुगल एम्पायर इन इण्डिया-एस. आर. शर्मा पृष्ठ 265 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 111 ) उदयसिंह की पुत्री जोधाबाई तथा कुछ अन्य हिन्दू स्त्रियों से विवाह किया था हिन्दू राजकुमारियों ने जहांगीर के हृदय से हिन्दू मसलमान के भेद को या था तथा परिणामस्वरूप उसके दरबार में कई हिन्दू मनसबदारों को पदो* भी प्राप्त हुई । ओरछा वीरसिंह बुन्दैला को 3000 घुड़सवारों का सेनाक बनाया गया किन्तु जहांगीर की एक पत्नी ने ही उसके इस उदारवादी मक दृष्टिकोण को परिवर्तित भी किया और वह थी बेगम नूरजहां । नूरजहाँ पूर्जा गियास बेग, जो बाद में एसमादुद्दौला के नाम से विख्यात हुए, की पुत्री थी था इसने जहांगीर के जीवन में आकर उसके धार्मिक दृष्टिकोण को सनकी बना या इसके विषय में डॉक्टर एस. आर. शर्मा लिखते हैं कि “जहांगीर के सिन की कोई घटमा इतनी आकर्षित नहीं है। जितनी कि नूरजहां से दी के इलियट एण्ड डाउसन ने इकबाल नामा-ई-जहांगीरी का हवाला देते ए लिखा है । कि "बेगम नूरजहां के प्रभाव में जहांगीर इतना अधिक था कि पनी राजसत्ता उसने यर्थाथ में नूरजहां को ही सौंप दी थी। तथा वह स्वयं विल नाम-मात्र का बादशाह रह गया था: बेगम नूरजहां दयालु हृदय की तथा इस्लाम का पालन करते हुए उसने बहुत से दयालुता के कार्य किये ब वाये। ) मुस्लिम मनसबदार. अकबर के शासनकाल में ही बहुत से कट्टर पन्थी मुस्लिम मनसबदार उसकी मिक उदारता की नीति से प्रसन्न नहीं थे तथा उसकी मृत्यु के पश्चात् दरबार धार्मिक दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने के अवसर की प्रतीक्षा में थे । उस समय एक बड़े इस्लामी नेता मुल्लाशाह अहमद ने दरवार के कई मनसबदारों को त्र द्वारा प्रेरित किया था कि जहांगीर के शासनकाल के प्रारम्भिक काल में ही स्लाम को राज्य धर्म घोषित कराया जाये १) धर्म गुरुओं से सम्पर्क: अकबर की भांति जहाँगीर की भी भारत में प्रचलित विभिन्न धमी बै म्प्रदायों के आचार्यों से सम्पर्क रहा। दोनों के स्वभाष व रूचिओं में भेद था। ___ 1. वही पृष्ठ.286. 2. द हिस्ट्री ऑफ इण्डिया एज टोल्ड बाहे इट्स ऑन हिस्टोरियन्स - इलियट एण्डडाउसन पृष्ठ 402 3. द रिलिनियस पॉलिसी ऑफ मृगल एम्पररस-आर. एस. शर्मा 61 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 112 ) अतः इस सम्पर्क में भी विशेष अन्तर यह देखा जा सकता है कि अकबर म गुरूओं को अपने दरबार में स्वयं आमन्त्रित करता था तथा अनेक धर्म तय सम्प्रदाय की अच्छी बातें जानने के लिए उत्सुक रहता था, जबकि जहांगीर भेंट करने के लिए विभिन्न सम्प्रदायों के आचार्य एव गुरू उत्सुक रहते थे तारि वे भारत में अपने धर्म या सम्प्रदाय के लिए राजकीय संरक्षण प्राप्त कर सके और कम से कम उसे राजकीय प्रकोप से बचा सकें क्योंकि जहांगीर पर कट्टर पन्थ मुसलमानों का प्रभाव सुविदित हो गया था। ईसाइयों के जहांगीर से मैत्री सम्बन्ध बहुत प्रगाढ़ थे अकबर के दरबार प्रथम ईसाई प्रतिनिधि मण्डल के नेता फादर रिडोल्फो एक्वाविकी ने जहांगीर से मित्रता स्थापित कर ली थी जहांगीर · ईसाइयत से इतना प्रभावित हो गया था। कि उसने ईसाई प्रतीकों को अपने गले में पहिन रखा था। तथा अपने पत्रों पर भी अंकित करता था। ईसाइयों के प्रति पक्षपात के लिए स्पेन के राजा फिलिप ततीय ने जहांगीर को धन्यवाद का एक पत्र भी लिखा थाः इसके विपरीत सिख गुरू अर्जुनदेव के साथ जहांगीर के सम्बन्ध कटुता के थे, जिसका मूल कारण विद्रोही शहजादा खुसरो की सहायता थी इस राजनैतिव कारण ने जहांगीर की धार्मिक सम्मान व सहिष्णुता की भावना को दबा दिया। तथा उसने “गुरू ग्रन्थ साहब" से ऐसे पदों को हटाने का आदेश दिया । जिनमें हिन्दू अथवा इस्लाम धर्म की मान्यताओं के विपरीत बातें हों। जैन आचार्यों के प्रति सन्देह तथा कुटिल दृष्टि का कारण भी खुसरो हो । जैन मानसिंह ने इस समय बीकानेर के राजा रामसिंह को भविष्यवाणी के रूप सूचित किया कि जहांगीर दो वर्ष पश्चात् दुनियां से विदा हो जायेगा इस निर्भय होकर राजारामसिंह ने शहजादा खुसरो की मदद की किन्तु न केवा रामसिंह व मानसिंह अपितु जैन सम्प्रदाय के दुर्भाग्य से जहांगीर ने लम्बी उ पाई थी तथा राजनैतिक दखलंदाजी के लिए उसने मानसिंह को तो दण्डि किया ही साथ ही अन्य जैन आचार्यों को भी सन्देह की दृष्टि से देखने लगा विरोधी कट्टरपन्थियों को जहांगीर के कान भरने का अच्छा अवसर मिल गय तथा उसे समझाया गया कि जैन मन्दिर राजनीतिक षडयन्त्र के केन्द्र हैं। जै मुनियों का दिगम्बर रहना सामाजिक मर्यादा के विपरीत हैं । सम्राट के । ___1. मुगल एम्पायर इन इण्डिया-एस. आर. शर्मा पृष्ठ 307 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 113 ) विचारों से जैन सम्प्रदाय पर विपरीत प्रभाव पड़ा कुछ लोगों ने तो मानसिंह को सम्प्रदाय का नेता मानने से इन्कार कर दियाः श्रीराम शर्मा ने तुजुक-ए जहांगीरी का हवाला देते हुए लिखा है कि सम्राट ने जैनियों को राज्य की सरहद से बाहर जनकल जाने के आदेश दिये थे परिणामस्वरूप इस काल में जैनियों ने राजपूताने में राजपूत राजाओं के आश्रम में शरण प्राप्त की: किन्तु अन्य किसी स्रोत से इस तथ्य की पुष्टि नहीं होती इसके विपरीत जिस समय (जहांगीर के अभिषेक के 12 वें वर्ष) इस प्रकार के आदेश दिये जाने की बात कही गई है उस समय जहांगीर के यहां मुनि सिद्धिचन्द्र जी का निवास था जिसे सम्राट ने "खुशफहम" की उपाधि दी थी। यहां यह उल्लेखनीय है श्री चिमनलाल डाहया भाई दलाल ने अपने एक लेख हीरविजयसूरि और "द जैन एट द कोर्ट ऑफ अकबर" में सम्राट अकबर द्वारा मुनि सिद्धचन्द्र को "खुशफहम" की उपाधि से विभूषित किया गया बतलाया है "महामहोपाध्याय सिद्धिचन्द्र ने कादम्बरी उत्तरार्थ की टीका की जिस पर राजा अकबर ने उन्हें "खुश-फहम" की उपाधि दी वह उनके एक सौ आठ बातों (अष्टावधान) एक समय में करने से बहुत प्रसन्न हुआः जबकि डाक्टर हीरानन्द शास्त्री ने एन्शिएन्ट विज्ञप्ति पत्र की प्रस्तावना में जहांगीर द्वारा सिद्धिचन्द्र को “खुशफहम" नादर जमा" उपाधि दिये जाने का उल्लेख है तथा इसकी पुष्टि डाक्टर बेनीप्रसाद ने भी की है-"यह वस्तुतः अब भी विवाद का विषय है क्योंकि दोनों पक्षों से सम्बन्धित अभिलेखीय प्रमाण है मालपुर के चन्द्रप्रभ मन्दिर के मकराना पत्थर के शिलालेख में उस मन्दिर हेतु भूमि प्राप्त करने के सिद्धिचन्द्र के प्रयास के आलेख के साथ लिखा है "श्री अकबर प्रदत्त खुशफहमादिनाम्बां पण्डित सिद्धिचन्द्राण्य इस उपाधि से साफ जाहिर होता है कि बादशाह अकबर मुनि सिद्धिचन्द्र जी के व्यक्तित्व से बहुत अधिक प्रभावित था बादशाह पर जैन मुनियों के प्रभाव को डॉ. हीरानन्द शास्त्री 1. द शिलिजियस पॉलिसी ऑफ मुगल एम्परर-एस. आर. शर्मा पृष्ठ 67 2. वही पृष्ठ 67 3. “Thus ends the Commentary of the latter half of Kada. nbary composed by Mahamahopadhyaya Siddhichandra on whom the title of khushfahm was conferved by the emperor Akabar, who was pleased with him by his feats of performing 108 thing at a time. जैन शासन दीवाली नो खास अंक पृष्ठ 122-23 4. एन्शिएन्ट विज्ञप्ति पत्र पृष्ठ 20 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 114 ) किया है" जैन साधुओं का राजा पर बहुत अधिक प्रभाव था जिसका कारण उपदेशों के साथ प्रमाण भी थे.1 यह विज्ञप्ति पत्र 1610 ईशवी में लिखा गया था तथा इसके अनुसार आचार्य विजयदेवसूरि के दो शिष्यों विवेक हर्ष एवं उदयहर्ष ने राजा रामदास के साथ सम्राट जहांगीर से भेंट की तथा पर्युषण पर्व के दिनों में पशु वध निषेध का फरमान निकलवाने में समर्थ हुए: इस वर्णन से यह प्रतीत होता है कि अकबर की मृत्यु के पश्चात् उसकी धार्मिक नीतियों की मुस्लिम लोग अवहेलना करने लगे थे, अतः पुराने आदेशों के नवीनीकरण अथवा नये सिरे से निकलवाने की आवश्यकता महसूस की गयी। जिस प्रकार मुनि सिद्धिचन्द्रजी ने सम्राट जहांगीर को अपने व्यक्तित्व से प्रभावित किया था उसी प्रकार विजयदेवसूरिजी ने अपने तप से श्री विजयसेनसूरिजी के कारण से सम्राट ने आचार्य विजयदेवसूरिजी का पट्टाभिषेक कराया था तथा सम्राट ने उन्हें महातपा की उपाधि से सम्मानित किया था श्री विजयदेव जी ने अनेक स्थानों पर मन्दिरों का निर्माण करवाया तथा उनमें जिन प्रतिमायें प्रतिष्ठित करायी थी: सम्राट जहांगीर जैन आचार्यों को आमन्त्रित कर उनसे धामिक विषय 1. That there were Jain teacher who exercised considerable imfluence on Jahagir is demonstrated not only by this epistle but by other evidences as well. एन्शिएन्ट विज्ञप्ति पत्र पृष्ठ 20 2. वही पृष्ठ 23 3. अय श्री विजयदेवसूरयाडहम्मदावादे प्रतिष्ठाद्वयं, पत्तने प्रतिष्ठाँचतुष्टयं स्तम्भतीर्यों प्रतिष्ठात्रयं बहुद्रध्यव्ययपूर्वकं कृत्वा स्वजन्म भूमौ श्रीइलादुग चतुर्मासी चक्रः । ततोडन्यदा श्रीमण्डपाचले श्री अकबरपातिशाहिपुत्रा जिहांगारिश्रसिलेमशाहिः श्रीसूरीन स्तम्भतीर्थतः सबहुमानमाकार्य गुरूणा मूर्ति रूपस्फूर्ति च वीक्ष्य वचनागोचरं चमत्कारमावान् । बिजयदेव माहात्म्यम्-श्री वल्लभपाठक पृष्ठ 131 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र वार्तालाप करता था रता था: 1 ( 115 ) तथा जैन साधुओं को यथोचित सम्मान प्रदान ईसाई लोग जहांगीर के पास धार्मिक संरक्षण के लिए उतना ही नहीं जितना 'लैंड अथवा पुर्तगाल के व्यवसाय को प्राप्त करने के लिए गये थे । इन दोनों ही शों में भारत में व्यावसायिक केन्द्र स्थापित करने की स्पर्धा थीं । पुर्तगाली लोग अग्रेजों से पहले ही गोआ में जम चुके थे अंग्रेजों ने गुजरात में सूरत को चुना था । जहांगीर के काल में इन कार्य हेतु इंग्लैंड से विलियम हॉकिन्स गये थे, जिसने जहां गीर से मित्रता कर सूरत में अपना मुख्यालय कायम करने की इजाजत प्राप्त की थी हॉकिन्स की जहांगीर से मुलाकात के बारे में एच. जी. रॉबिन्स ने लिखा हैराजा बिल्कुल शान्त दिखाई देता था उसने अपने हाकिम और दरबारियों को एक सील बन्द पत्र लिखकर सूरत में भेजा जिसका जिकर हमें मुकराबखान का अंग्रेजों के प्रति व्यवहार प्रदर्शित करता है: 2 किन्तु हॉकिन्स अधिक समय तक बादशाह का कृपापात्र न रह सका । गोआ के पुर्तगालियों ने जहांगीर के दरबार में ऊंचे पद के लोगों से मित्रता कर रखी थी तथा वे सदा अग्रेजों के प्रति ईर्ष्यालु रहते थे इन लोगों ने अवसर पाकर हॉकिन्स की शिकायत कर दी तथा उसे जहांगीर का कोपभाजन बनकर देश छोड़ना पड़ा । किन्तु यह मामला युद्ध व्यावसायिक था । इसमें धार्मिक प्रेरणा कतई नहीं थी । दूसरी ओर डाक्टर शर्मा पाश्चात्य लेखकों के हवाले से लिखते हैं कि"बादशाह जहांगीर की ओर से ईसाई पादरियों को तीन से सात रुपये तक 1. ततः समये श्रीगुरूभिः समं धर्मगोष्ठीक्ष्ण विचित्रधर्मवाताः पृष्ठा साक्षाद गुरूस्वरूपं निरूपम द्रष्टा च स्वपक्षीयैः परै प्राक् किन्चिद व्युदग्राहितडपि शाहिस्तदा तत्पुण्य प्रकर्षेण हर्षितःसन श्रीहीरसूरीणां श्री विजयसेन सूरीणां च पट्ट े एत एव पट्टधराः सर्वाधिपत्यभाजो भवन्तु, विजयदेव माहात्म्यम् --- श्रीवल्लभपाठक पृष्ठ 131 2. "The king now seemed quite won over. He gave Hawkings his commission, written under his golde. Seal to be sent to Surat, together with a stinging reprorf to Mukarrable Khan for his bad behaviour to the English." सम नोटस ऑन विलियम हॉकिन्स - आर. जी. भण्डारकर कममरेटिव ऐस्सेज पृष्ठ 285 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 116 ) प्रतिदिन भत्ता दिया जाता था तथा उनके धार्मिक पर्वी पर विशेष राशि स्वीकृत की जाती थी। एक ईसाई गरीब को जहांगीर ने पचास रुपये मासिक की अनुग्रह राशि स्वीकार की थी। यह अन्तिम तथ्य तो जहांगीर के हृदय की उदारता एवं कोमलता है, इससे कोई धार्मिक पक्षपात प्रभावित नहीं होता। (ब) जहांगीर का धार्मिक दृष्टिकोण - जहांगीर के काल में भारत में हिन्दू धर्म तथा इस्लाम का तो प्रमुख रूप से प्रसार हो ही रहा था। दिल्ली में आगरा तथा राजस्थान होकर गुजरात तक जैन मत का भी बहुत प्रचार हो चुका था तथा इस क्षेत्र में अनेक जैन आचार्य चातुर्मास व्यतीत करते हुए जैन धर्म के लोगों को दीक्षित कर रहे थे । उधर उत्तर में गुरू अर्जुन देव के द्वारा सिख धर्म का जोरों से प्रचार किया जा रहा था। सूफी सन्त भी धार्मिक उदारता के साथ लोगों को अपनी ओर आकृष्ट कर रहे थे । यह सब अकबर की उदार धार्मिक नीति का ही परिणाम नहीं था अपितु यह समाज में धार्मिक चेतना का प्रतीक प्रमाण भी था । जहांगीर मन से भी अकबर से ज्यादा धार्मिक था तथा धर्म गुरूओं की आध्यात्मिक शक्तियों पर भी विश्वास करता किंतु इस चतुर्दिक धार्मिक चेतना की प्रतिक्रिया से वह बच न सका । जहां शंकालु स्वभाव का व्यक्ति था वह सभी धर्म गुरूओं को प्रसन्न भी रखना चाहता था वह इन धर्म गुरूओं को अपने पक्ष में रखने के लिए उनके तथा उनके सम्प्रदाय के प्रति विशेष उदारता भी प्रकट करता था। उसकी इन शंकाओं के पीछे राजनीतिक कारण थे। स्वयं सत्ता प्राप्त करने के लिए उसका हृदय साफ नहीं रहा था तथा उसके उत्तराधि. कारियों में भी यही भावना रही थी। अत: वह अपने को तथा अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने के लिए धर्म गुरूओं का सहारा लिया करता था जब वह इलाहा. बाद में सूबेदार की हैसियत से रह रहा था उस समय उसने बनारस में हिन्दू मन्दिरों के निर्माण को प्रोत्साहन दिया। उसके गद्दी सम्भालने पर उसके मित्र वीरसिंह बुन्देला ने मथरा में मन्दिर बनवाया उसने ईसाइयों को भी सूरत तथा अन्य स्थानों पर गिरजाघरों का निर्माण की अनुमति दी लाहौर एवं आगरा में उसने ईसाइयों के कब्रिस्तान भी सुरक्षित घोषित किये । सभी धर्मो के सार्वजनिक उत्सवों को मनाये जाने की जहांगीर ने खुली इजाजत दे रखी थी। किन्तु जहां. गीर के कुछ मनसबदार असहिष्णु स्वभाव के भी थे । वे मन्दिरों को तुड़वाकर मस्जिद बनवा देने में अपनी शक्ति की सार्थकता मानते थे । राज्याभिषेक के 8 वर्ष में जहांगीर के अजमेर जाने पर वहां स्थित वराह मन्दिर को उसकी सेना ने Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 117 ) बाड़ दिया था जहांगीर स्वयं दूसरों के धर्म में दखलंदाजी अच्छी नहीं मानता था लिया उसने धर्म परिवर्तन कराने के खिलाफ फरमान जारी किया था फिर भी वह स्वयं एक सच्चा मुसलमान रहना चाहता था | वह इस्लाम की विनम्रता का पक्षधर था । अतः धार्मिक श्रेष्ठता के बल पर अपने को बहुत ऊंचा बतलाने वाले काजी मुल्लाओं को दण्डित करने में नहीं हिंच किचाता था । राज्य पर आसीन होने के प्रारम्भिक दिनों में जहाँगीर ने अकबर के काल से चली आ रही इबादतखाना में धार्मिक चर्चा की प्रथा को कायम रखा। इसमें हिन्दू, ईसाई, जैन तथा मुस्लिम सभी आमन्त्रित रहते थे । किन्तु जैसा कि वर्णन में मिलता है जहांगीर के अतिरिक्त कई मुसलमान इस चर्चा में भाग नहीं लेता था । तुजुक ए-जहांगीरी के अनुसार उसने गुजरात के सूबेदार को पत्र लिखकर वाजिदुद्दीन के पुत्र से खुदा के नामों की सूची मंगवाई थी जिनकी वह जांच कर सके: मथुरा में जहांगीर ने वैष्णव महन्त जदरूप से भेंटकर वेदान्त का परिचय प्राप्त किया तथा उसे सूफी विचारों के अनुसार ही माना। इस सम्बन्ध में जहांगीर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है - "इस समय गोसाई जदरूप ने मथुरा में निवास स्थान बनाया था हम उसके सत्संग के महत्व को समझते थे इसलिए उससे मिलने गये और बहुत देर तक उसके सत्संग का लाभ उठाया सत्यतः उसका अस्तित्व हमारे लिए बड़े लाभ का हैं : * 4 सम्राट किसी भी धार्मिक सम्प्रदाय को कमजोर नहीं देखना चाहता था । वाचार्य हीरविजयसूरिजी के पश्चात् उनके प्रधान शिष्य मुनिविजयसेन सुरिजी ने आचार्य पद प्राप्त किया तथा उनके पश्चात् मुनिविजयदेवजी ने । किन्तु मुनिविजयदेवजी की धामिक मान्यतायें आचार्य श्रीहीरविजयजी से कुछ भिन्न थी अतः सम्प्रदाय के अन्य मुनियों ने आचार्य मानना स्वीकार न करते हुए मुनिविजय तिलकजी को आचार्य बना दिया । सम्प्रदाय के अनुयायियों के इस प्रकार दो भागों मे बंट जाने पर धर्म प्रचार को आघात् लगाना स्वाभाविक था । जब बादशाह को 1. द रिलिजीमय पोलिसी ऑफ द मुगल एम्पायर - एस. आर. शर्मा पृष्ठ 62 2. वही पृष्ठ 62 3. तुजुक -ए-जहांगीरी - अनुवाद डॉ. बेनीप्रसाद पृष्ठ 243 4. जांगीरनामा - अनुवादक ब्रजरत्नदास पृष्ठ 615 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 118 ) ह विदित हुआ तो उसने अहमदाबाद से दोनों आचार्यों को बुलाकर उनका लतफहमी दूर करने तथा सहिष्णुता का व्यवहार करने का परामर्श दिया निजिनविजयजी ने जहांगीर द्वारा आचार्य विजयदेवसुरिजी से भेंट की घटना गडू में बतलाई है: तथा बेचरदासजी ने दिल्ली में: मनिभानुचन्द्र पूर्व से ही सम्राट के सम्पर्क में थे, विजयदेवमूरिजी के ठोरतप के साथ सुन्दर स्वास्थ्य को देखकर बादशाह ने उन्हें महातपा को 'पाधि दी बादशाह ने स्वयं आचार्य विजयदेव से तर्क करते हुए कहा कि गुरूजनों को विद्यता में सन्देह न करना तथा उनके सिद्धान्तों का अनुसरण एवं पालन राष्य का प्रथम कर्तव्य है। इसके विपरीत आचरण होने पर वे स्वयं अपनी व खोद रहे हैं इस प्रकार दोनों सम्प्रदायों को एक करने में बादशाह ने अत्यधिक चि ली। इसी प्रकार गुजरात में खरतरगच्छ सम्प्रदाय के साधुओं का प्रभाव बढ़ने र बादशाह ने आचार्य हीरविजयजी तथा भानुचन्द्रजी के तपागच्छ सम्प्रदाय को वशेष संरक्षण देने के लिए गुजरात के सूबेदार को आदेशित किया । स्कृतिक एकता धार्मिक भेद रखते हुए भी जहांगीर भारतीय जनता में सांस्कृतिक एकता बनाये रखना चाहता था । दशहरा जैसे सांस्कृतिक उत्सवों में वह स्वयं शाही अमले के साथ शामिल होता था । दीपावली उत्सव में अपने सामने जुआ खेले जाने में उसे आपत्ति नहीं होती थी। सम्राट के इस रुख के कारण बहुत से मुसलमान 'हन्दू त्योहारों में शरीक हुआ करते थे। मुसलमानों को हिन्दू धर्म का परिचय कराने तथा इस प्रकार दोनों सम्प्र. दायों को समीप लाने की दृष्टि से जहांगीर ने भी हिन्दुओं की धार्मिक पुस्तकों का फारसी में अनुवाद कराया । बाल्मीकीय रामायण का अनुवाद राम नाम के शीर्षक से किया गया: ईसाई पादरियों ने जहांगीर की प्रेरणा से बाइबल के अरबी तथा फारसी में अनुवाद किये थे जहांगीर के गुरू अब्दुल रहीम खान खाना ने हिन्दू-मुस्लिम एकता कायम करने का महत्वपूर्ण तथा सफल प्रयास किया । सूरसागर का संकलन भी जहांगीर के समय ही तैयार हुआ था। डॉ. शर्मा ने यह माना है कि सूरदास के प्रत्येक पद के लिए बादशाह उन्हें एक स्वर्ण मुद्रा देता था। 1. देवानन्द महाकाव्य प्रास्ताविक 3 2. वही पृष्ठ 14 3. स्टडीज इन मेडीवल इण्डियन हिस्ट्री Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 119 ) जहाँगीर ने अपने राज्य में धार्मिक भेद-भाव को कतई पसन्द नहीं किया तथा हिन्दुओं को भी बड़े और ऊचे मनसब दिये इससे बहुत से मुसलमान नाराज रहते थे किन्तु वह किसी धर्म की बुराई भी सहन नहीं करता था । सती प्रथा उसने एकदम बन्द कर दी थी। मादक द्रव्यों की खुलेआम बिक्री रोक दी गई थी धर्म परिवर्तन कराने को भी उसने अपराध घोषित किया था। साम्राज्य विस्तार में हिन्दू सामन्तों का योगदान जहांगीर को विश्वस्त एवं बहादुर हिन्दू सामन्त मिले थे, जो केवल राज्य संचालन में ही उचित परामर्श नहीं देते थे अपितु उसके मनचाहे साम्राज्य विस्तार में भी सहयोगी बन गये थे । मेवाड़ के युद्ध में राजा वसु अहमद नगर के युद्ध में राजा मानसिंह ने उसको सहयोग दिया था । उत्तर पूर्व पंजाब की विजय जहांगीर को राजा विक्रमजीत ने ही दिलाई थी। राजा टोडरमल के पुत्र राजा कल्याण ने उड़ीसा को बादशाह के साम्राज्य में शामिल कराया था। राजा विक्रमजीतसिंह ने कच्छ प्रदेश की जन-जातियों के विप्लव को दबाकर वहां बादशाह का राज्य कायम कराया था। राजा विक्रमजीत का राजा विक्रमार्क के नाम से भी उल्लेख मिलता है। ये अकबर के काल में गजशाला के अध्यक्ष थे, किन्तु चित्तौड़ तथा बंगाल की विजय में अकबर का साथ देने के कारण उनको पांच हजार सेना देकर राजा की उपाधि दे दी गई थी । तुजुक-ए जहांगीर के अनुसार इनका मूल नाम पत्रदास था जिसे अकबर ने राम-रामा की उपाधि दी थी तथा जहांगीर ने ही राजा विक्रमाजीत की उपाधि से विभूषित किया था । रत्नमणि राव ने जाति से खत्री इन राजा विक्रमजीत को ओसवाल जैन माना है तथा उन्हें कुनपाल अथवा उनके भाई सोनपाल से अभिन्न माना है:1 सम्राट अकबर तथा जहांगीर दोनों के दरबार में मुस्लिम से भिन्न सम्प्रदायों के भी बहुत से मन्त्री तथा अन्य उच्च पदों पर आसीन व्यक्ति थे, जैन सम्प्रदाय के मन्त्री कर्मचन्द्र का जितना प्रभाव सम्राट अकबर पर था उतना ही सम्राट जहांगीर पर भी। इनके कारण अनेक जैन आचार्यो, जिनका उल्लेख अगले अध्याय में किया जायेगा, जहांगीर से सम्पर्क करने का अवसर प्राप्त किया था। 1. जैन साहित्य संशोधक खण्ड 3, अंक 4 पृष्ठ 393 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्याय जहाँगीर का जैन सन्तों से सम्पर्क 1. उपाध्याय भानुचन्द्रजी भानुचन्द्रजी जब से अकबर के सम्पर्क में आये लगातार उसके दरबार में रहे इस कारण जहांगीर उनसे परिचित था ही। अकबर के देहान्त के बाद भानुचन्द्र जी आगरा गये और जहांगीर से उन परवानों का, जो अकबर से लिए थे, अमल कायम रखने के लिए हुक्म लिया था। जब बादशाह जहांगीर मांडवगढ़ गया उस समय वहां विजयसे नसूरि के शिष्य नन्दिविजय थे, वे जहांगीर से मिलने गये उन्हें देखकर जहांगीर को भानुचन्द्र जी का स्मरण हो आया उन्होंने नन्दिविजयजी से भानुचन्द्रजी को बुलाने का निवेदन किया और स्वयं एक मेवडा को फरमान देकर अहमदाबाद के सूबेदार मकरूबखां के पास भेजा। भानुचन्द्रजी उस समय सिरोही में थे, जैसे ही उन्हें बादशाह के निमन्त्रण की सूचना मिली तो उन्होंने मांडवगढ़ के लिये बिहार कर दिया। भानुचन्द्रजी को देखते ही बादशाह बहुत प्रसन्न हुए उनका यथोचित सत्कार कर अपने पुत्र क पढ़ाने का निवेदन किया: 1. मिल्या भूपनई भूप आनन्द पाया, मलइ तुमे भलई अहीं भाणचन्द आया, तुम पसिथिई मोहि सुख बहूत होवइ, सहरिआर भणवा तुम वाट जोवइ । पढावो अहम पूतकु धर्मवात जिउ अवल सुणता तुझ पासितात भाणचन्द कहीम तुमे हो हमारे ___ सबही थकी तुझ हो हम्महि प्या श्रीविजयतिलक सूरिरास-पन्यास दर्शन विजय (एतिहासिक रा संग्रह) श्लोक नं. 1309, 1310 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 121) इस तरह जहाँगीर के कहने पर भानुचन्द्र जी शहरयार को नियमित रूप से बढाने लगे। बादशाह ने भानुचन्द्र जी से पूछा कि मेरे लायक कोई सेवा हो तो बतायें। इस पर भानुचन्द्र जी से कहा-"आपके पिताजी के पास हीरविजयसूरि आये थे सन्हें "जगद्गुरू" की पदवी से विभूषित किया था, उनके पीछे विजयसेनसूरि आये सन्होंने मोहवश विजय देवसूरि को आचार्य पद दे दिया वे गुरू वचन को खोकर सागर शाखा में मिल गये, वे बहुत क्लेश कर रहे हैं, गुरू के वचनों को नहीं मानते और मनमानी करते हैं, इसलिए हमने उनको छोड़कर दूसरा आचार्य बना लिया हि किन्तु वे पूर्वाचार्यो की निन्दा न करें आप ऐसा प्रयत्न करें।"1 बादशाह ने शिश्वासन देकर अहमदाबाद, सूरत, बड़ौदा. आदि सभी स्थानों पर साधुओं को समझाकर पत्र लिखे बादशाह के प्रभाव से सब ठीक हो गया । जहांगीर के शासन काल में भी भानुचन्द्रजी ने वैसी ही प्रतिष्ठा पाई जैसी कि अकबर के शासनकाल इम पाई थी। १. उपाध्याय सिद्धिचन्द्रजी भानुचन्द्रजी के साथ सिद्धिचन्द्रजी भी 23 वर्ष तक के लम्बे समय तक शाही दरबार में रहे। विजयसेनरिजी के सम्मान में सिद्धिचन्द्रजी अहमदाबाद से खंभात माये फिर सूरिजी के आदेश से वापिस अहमदाबाद चातुर्मास करने गये वहां उपाश्रम में गवर्नर विक्रमर्क ने सिद्धिचन्द्रजी के साथ बड़े जोर शोर से भगवान पूजा की और सम्पूर्ण राज्य में पशु-वध निषेध का फरमान निकाला । अहमदादि चातुर्मास के बाद सिद्धिचन्द्रजी पाटन आये जब जहांगीर को सिद्धिचन्द्रजी पाटन पहुंचने का समाचार मिला जो उसकी इच्छा सिद्धिचन्द्रजी को आगरा लाने की हुई इसलिए वहां के गवर्नर ने अपने अंगरक्षक माधवदास को शाही माचार के साथ सिद्धिचन्द्रजी के पास भेजा। सिद्धिचन्द्रजी ने अपनी लम्बी त्रा की और रास्ते में धर्मोपदेश देते हुए शाही दरबार में पहुंचे। जहांगीर ने का यथोचित सत्कार किया और उनके तेजस्वी चेहरे से प्रभावित होकर प्रतिन कुछ समय के लिए दरबार में आने को कहा बादशाह की प्रार्थनानुसार सिद्धिदजी प्रतिदिन दरबार में आने लगे जिससे बादशाह उनके उपदेश सुनकर बहुत मावित हुआ। इस तरह सिद्धिचन्द्रजी के लगातार बादशाह से मिलते रहने के रण उनका यश चारों ओर फैल गया। एक दिन बादशाह ने सिद्धिचन्द्रजी की सुन्दरता पर मुग्ध होकर सोचा कि 1. एतिहासिक रास संग्रह पृष्ठ 74 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 122 ) उनकी स्थिति तो इस तरह की है जैसे कोई पुस कोयल जंगल में आम के पेड़ पा धार्मिक तपस्या कर रही हो इसलिए उसने सिद्धिचन्द्रजी से कहा कि आप तो अभी युवा हो और राजा बनने के योग्य हो तब तुम अपने को तपस्या रूपी रेगिस्तान क्यों बर्बाद कर रहे हो ? इस पर सिद्धिचन्द्रजी ने जबाव दिया कि अमृत पीने में बुद्धिमान कभी दे नहीं करते, कौनसी उम्र तपस्या के लिए होती है जवानी अथवा बुढ़ापा ? मस के लिए तो जवान अथवा वद्ध एक समान हैं। ओ राजा। वृद्धावस्था में त इतनी शक्ति नहीं होती इसलिए तपस्या कैसे पूरी होगी ? धर्मरूपी तपस्या त सारे शत्रुओं का नाश कर देती है, पूर्वजन्म के अनगिनत दुष्कर्मों के साथ-सा! वर्तमान जीवन के दुष्कर्मो का भी नाश हो जाता हैं । बादशाह ने पूछा तुम अप दिमाग को इस उम्र में कैसे स्थिर रख लेते हो जबकि इस उम्र में तो गस्सा बह जल्दी आ जाता है ? सिद्धिचन्द्र ने जबाव दिया-"ज्ञान के साधनों द्वारा"। ज्ञा आता है धार्मिक चिन्तन द्वारा आदमी को स्वयं की प्रकृति समझना सिखाता है इससे दिमाग ऐसे नियन्त्रित हो जाता है जैसे हाथी को हक (चाबुक) से नियन्त्रि किया जाता है। सिद्धिचन्द्र जी का इस तरह जबाव सुनकर बादशाह ने क्रोधित होकर का कि ज्ञान के बिना जो कुछ आप कह रहे हैं मैं इसे कैसे समझ सकता हूं। सिद्धि चन्द्र जी ने कहा इसे समझने के लिए ज्ञान की जरूरत नहीं जैसे आपको जि चीज में आनन्द मिलता है एक ब्राह्मण को उसमें नहीं मिल सकता उसी तर हमारा दिमाग सांसारिक खुशियों की ओर नहीं झुकता क्योंकि हमने कभी उन स्वाद नहीं लिया । लोग जानते हैं कि एक औरत जो अपने मृत पति की चिर में गिरने के लिए उसका पीछा करती है, अन्य सारे रिश्तों से और समस सांसारिक वस्तुओं से मुक्त होती है उसी तरह एक तपस्वी जो तपस्या का अभ्या करता है सांसारिक खुशियों से अप्रभावित रहता है.तपस्वी हमेशा आत्मिक विचा की उन्नति में डूबे रहते हैं । राजा भी उन्हें भयभीत नहीं कर सकते वे तो.इ तरह आजाद और प्रसन्न रहते हैं जैसे मछलियां समुद्र में । सत्कार्यों में लगे रह हैं अधिकारों के लालच के दास नहीं होते। नियमों के पालन के साहसी होते हैं और सदा स्वतन्त्र होते हैं। बादशाह ने सिद्धिचन्द्र के विद्वतापूर्ण तों से प्रभावित होकर उन "नादिरा जमां" (युग के बेजोड़, अद्वितीय) और "जहांगीर पसन्द" उपाधियों विभूषित किया: 1. भानुचन्द्र गणिचरित-भूमिका अमरचन्द भंवरलाल नाहटा पृष्ठ 65 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 123 ) आगे राजाओं का वास्तविक धर्म बताते हुए सिद्धिचन्द्रजी ने बादशाह से कहा कि राजन । राजा-महाराजाओं के ऊपर प्रजा के रक्षण का उत्तरदायित्व हाता है उनमें कितनी दयालुता, न्यायप्रियता और उदारता होनी चाहिए सहज म ही समझा जा सकता है । यदि राजा लोग शिकार आदि व्यर्थ के कामों में समय नष्ट करे तो वे प्रजा का रक्षण क्या करेंगे। मनुस्मृति में राजाओं के धर्म का वर्णन करते हुए कहा गया है कि __ "राजा अपनी इन्द्रियों को बस में रखे, जिस राजा का अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण होगा, वही अपनी प्रजा को नियन्त्रण में रख पायेगा राजा को काम से उत्पन्न होने वाले 10 और क्रोध से उत्पन्न होने वाले 8 व्यसनों को यत्नपूर्ण छोड़ देना चाहिए। काम जन्य व्यसनों में आसक्त रहने वाला राजा धर्म और अर्थ से हीन होता है, और क्रोध जन्य व्यसनों से जीवन का भी नाश हो जाता है । काम जन्य दस व्यसन इस प्रकार गिनाये हैं -शिकार करना, जुआ खेलना, दिन में सोना, दूसरे का अवगुण देखना, स्त्रियों में आसक्त रहना, नशा करना, बजाना, नाचना, गाना और आकरणं घूमते रहना। क्रोध से उत्पन्न आठ व्यसन इस प्रकार हैं-चुगली, दुःसाहस, द्रोह, ईर्ष्या, दूसरे के गुणों में दोष निकालना, दूसरे के द्रव्यं छीन लेना, कटु वचन बोलना, निर्दोष व्यक्तियों को प्रताड़ित करना: 1. भानुचन्द्र गणिचरित-भूमिका अगरचन्द्र भंवरलाल नाहटा पृष्ठ 65 2. इन्द्रियाणां जये योगं समाजिष्ठेदिवा निशम् । जितेन्द्रियों हि शन्कैति वशे स्थापयित प्रजाः ।। दश कामसमुत्थानि तथाष्टी क्रोधजानि च । व्यसनानि दुरन्तानि प्रयत्नेन विवर्जयेत् ।। कामजेषु प्रसक्तो हिव्यसनेषु महीपतिः। वियुज्यतेऽर्थधर्माभ्यां क्रोधजेष्वात्मनैव तु ।। मृगयाक्षो दिवास्वप्नः परिवादः स्त्रियों मदः । तौर्यत्रिकं वृथाटया च कामजो दशको गणः ।। पैशुन्यं साहसं द्रोह ईर्ष्यासूयार्थदूषणम् । वाग्दण्डजं च पारूष्यं कोधजोऽपि गणोऽष्टकः ।। मनुस्मृति अध्याय 7, श्लोक 44, 45, 46, 47, 48 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 124 ) इन व्यसनों से सहज ही जान सकते है कि ये व्यसन सामान्य मनुष्य का भी महान अनर्थकारी हो सकते हैं तो फिर राजा जैसे महान व्यक्ति जिन पर लाखों मनुष्यों की प्रजा की जिम्मेदारी हो उसके लिए अनर्थकारी हो, तो इसमें आश्चर्य ही क्या ? इन व्यसनों में आसक्त रहने वाला राजा कभी भी अपनी प्रजा के अयवा राज्य के रक्षण करने में समर्थ नहीं हो सकता । इसलिए शास्त्र कारों के वचनों को ध्यान में रखकर राजा को इन व्यसनों से दूर ही रहना चाहिए। ___ सिद्धचन्द्रजी के उपदेशों का बादशाह पर इतना प्रभाव पड़ा कि उसने अक. बर के समय से चली आ रही परम्पराओं को जारी रखा। 3. आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरिजी-. ___ आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरिजी जिस समय लाहौर में अनबर के दरबार में गये थे शहजादा सलीम उसी समय उनका भक्त हो गया था । अकबर की मृत्यु के बाद सलीम "नूरुद्दीन जहांगीर" के नाम से गद्दी पर बैठा तब भी सूरिजी को पूर्ववत् सम्मान की दृष्टि से देखता था। जहांगीर का चारित्रिक दोष था कि वह अत्यधिक मद्यपान के साथ-साथ अति क्रोधी स्वभाव का था। यही कारण था कि मद्य के नशे में कई बार वह ऐसे आदेश प्रसारित कर देता था कि निर्दोष लोग भी उसकी चपेट में आ जाते थे। सम्वत् 1668 (सन् 1611) में एक शिथिलाचारी वेषधारी दर्शनी को अनाचार करते हुए देखकर सम्राट ने उसे तो देश निकाला दिया ही, साथ ही साथ सब यति साधुओं के चरित्र के विषय में शंकित होकर यह हुवम जारी कर दिया कि राज्य में जहां कहीं दर्शनी सेवडे हैं या तो वे ग्रहस्थ वेश धारक बन जायें या राज्य से बाहर निकल जायें। जहांगीर ने अपनी आत्म कथा में लिखा है-"हमने आज्ञा दी कि ये सेवडे निकाल दिये जायें और हमने फरमान, भी चारों ओर भेज दिये, सेवडें जहां भी हों वहां से हमारे साम्राज्य के बाहर निकाल दिये जायें:" इस घटना का विवरण विजय तिलक सूरिरास में भी मिलता है: - 1. जहांगीर नामा-हिन्दी अनुवाद ब्रजरत्नदास पेज 500 2. "गच्छनायकना बोल उथापि निजमत परूपई आपो आपि । एहवई पृथ्वीपति जहांगीर, दोषी वचने लागो वीर ॥ वेषधारी ऊपर कोपियो, मुतकलनई देसोटो दियो। मलेछ न जाणई तेह विचार, आचारी मोकल अणगार ॥ विजयतिलकसूरि रास-पन्यास दर्शन विजयजी पृष्ठ 33 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 125 ) इस कठोर आज्ञा को सुनकर दर्शनी लोग इधर उधर भागने लगे, कुछ तलहरों में छिप गये यानि जैसी जिसे सुविधा मिली उसने वैसा ही कर लिया। जिन्हें कोई ठिकाना न मिला उन्हें यवनों ने पकड़कर काल कोठरी में बन्द कर दिया यहां उन्हें अन्न जल भी नहीं मिलता था। इस घटना का विस्तृत विवरण युग धान निर्वाण रास में मिलता है:1 जिस समय बादशाह ने इस प्रकार की अन्यायपूर्ण आज्ञा निकाली उस समय पानि सन 1611 में सूरिजी का चातुर्मास पाटण में था। इस प्रकार की विकट रिस्थितियों में आगरा श्रीसंघ ने सूरिजी को. विज्ञप्ति पत्र लिखकर संकट निवा. रण की विनती की। चातुर्मास पूर्ण होते ही सूरिजी ने आगरा की ओर बिहार कर दिया। शीघ्र ही बिहार करते हुए अपनी शिष्य मण्डली के साथ सम्वत् 1669 (सन् 1612) में आगरा पहुचे । सूरिजी के दर्शन मात्र से ही बादशाह का क्रोध शान्त हो गया । उसने सूरिजी से पाटण से अचानक ही आने का कारण पूछा, इस पर सूरिजी जिस समस्या को सुलझाने आये थे, बादशाह को बताकर साधू. बिहार को मुक्त करने के लिए कहा । बादशाह का कहना था कि भुक्त भोगी होकर साधू बनना निरापद होता है । इस पर सूरिजी ने बड़े ही सुन्दर शब्दों में बादशाह को सम्बोधित कर कहा ब्रह्मचर्य को जैन दर्शन में बहुत ही ऊंचा स्थान दिया गया है, उसके पालन गर रक्षा के हेतु नौ कड़ी आज्ञायें शास्त्रकारों ने बतला दी हैं जिनसे सुखपूर्वक विधनतया ब्रह्मचर्य व्रत स्थिर रह सके वे इस प्रकार हैं (1) जहाँ स्त्री-पुरुष, पशु और नपुंसक निवास करते हों, उस स्थान में नहीं रहना। विषय विकारों को जागृति और अभिवृद्धि करने वाली वार्ताएं न करना और न सुनना। (3) जहां स्त्री बैठी हो उस स्थान वे उस आसन पर दो घड़ी तकन बैठना। (4) दीवाल की ओट में भी जहां स्त्री-पुरुष काम-क्रीड़ा और प्रेम वार्ता करते हों वहां न ठहरना और न उसे सुनना । (5) पूर्वावस्था के मुक्त भोगों को स्मरण तक न करना । 1. एतिहासिक जैन काव्य संग्रह-युग प्रधान निर्वाण रास-अगरचन्द नाहटा पृष्ठ 81-82 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 126 ) ( 6 ) सरस स्निग्ध भोजन और कामोद्दीपक पदार्थों का उपभोग नही करना । (7) ( 8 ) स्त्री-पुरुष किसी को भी सराग दृष्टि से न देखना । सर्वदा आवश्यकता से भी कम भोजन करना जिससे आलस्य ओ विकार उत्पन्न न हों । ( 9 ) शरीर पर किसी भी प्रकार से श्रंगार या शोभा न करना ताकि सराम दशा जाग्रत न हो । सब तुम स्वयं विचार कर देखो कि इन प्रतिज्ञाओं को निभाने वाला किस प्रकार आचारच्युत हो सकता हैं हां जो भृष्ट हुए हैं वे इन नियमों को यथावत पालन न करने के कारण ही जैन शासन उन्हें किसी भी हालत में उपादेय नहीं समझता और न सहानुभूति ही रखता है । अतः समस्त साधुओं पर अश्रद्धा लाकर उन्हें कष्ट पहुंचाना तुम्हारे जैसे विचारशील, न्यायवान, और प्रजा हितेच्छु सम्राट के लिए उचित नहीं कहां जा सकता: " सूरिजी के मुखारविन्द से इस प्रकार धर्मोपदेश सुनकर बादशाह ने बेरोकटोक साधू बिहार करने का फरमान जारी कर दिया। इससे श्रीसंघ को अपार खुशी हुई । श्रीसंघ के कहने से सूरिजी ने सम्वत् 1669 ( सन् 1612 ) का चातुर्मास आगरा में ही किया । इस प्रकार सूरिजी ने सम्राट को प्रतिबोधित कर साधू बिहार प्रतिबन्धक हुक्म का उन्मूलन करवाके साधू संघ की महान रक्षा के साथ जैन शासन की अपूर्व सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त किया । वास्तव में सम्राट का एक व्यक्ति के अनाचार से सारे साधू संघ को अनाचारी मान सबको देश निर्वासन का हुक्म देना सूरिजी ने सम्राट को उसकी इस गहरी भूल का एहसास का जो गौरव प्राप्त किया और भानुचन्द्रगणिचरित में भी मिलता है शिलालेखों में भी इसकी पुष्टि अन्यायपूर्ण था । करवाकर उस उसका विवरण रद्द करवाने अन्यायपूर्ण हुक्म को एतिहासिक जैन काव्य संग्रह * 1. युग प्रधान श्री जिनवन्द्र सूरि- अगरचन्द भंवरलाल नाहटा पृष्ठ 148 149 2. एतिहासिक जैन काव्य संग्रह - अगरचन्द भंवरलाल नाहटा पृष्ठ 179 3. भानुचन्द्रगणिचरित-भूमिका लेखक अगरचन्द भंवरलाल नाहटा पृष्ठ 20 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ती है।। जैन शासन की प्रभावना के कारण सूरिजी की प्रसिद्धि सवाई यग प्रधान नाम से हुई । खरतरगच्छ पट्टावली में भी इसका विवरण मिलता है। इसी मय एक विद्वान ने बादशाह के दरबार में आकर गर्वपूर्वक शास्त्रार्थ करने की उद्घोषणा की। बादशाह ने सूरिजी को समर्थ समझकर शास्त्रार्थ करने के लिए कहा । सूरिजी ने असाधारण प्रतिभा द्वारा शास्त्रार्थ में भट्ट को पराजित कर युग प्रधान भट्टारक पद की ख्याति प्राप्त की। इस तरह हम कह सकते हैं कि नहांगीर ने भी अपने पिता की तरह ही आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरिजी को सम्मानित किया और सूरिजी ने भी अकबर की तरह ही जहांगीर पर भी अलौकिक प्रभाव डाला। 4. आचार्य श्री जिनसिंह सूरिजी अकबर अपने काश्मीर प्रवास के समय मानसिंह (आचार्य जिनसिंह सूरि) को धर्मोपदेश के लिए साथ ले गया था। शाहजादा सलीम भी साथ ही था इसलिए वह जिनसिंहसूरि से अच्छी तरह से परिचित था। सूरिजी ने भी जिस तरह अकबर को प्रतिबोधित कर जीव दया के कार्य करवाये थे उसी तरह जहांगीर को भी अपनी अलौकिक प्रतिभा से प्रतिबोधित किया था। बादशाह को धर्मोपदेश देकर अभयदान का पटह बजवाया था । एतिहासिक जैन काध्य संग्रह में विवरण मिलता है : बादशाह सूरिजी के गुणों से इतना प्रभावित हुआ कि मुकरबखान को भेजकर श्रीसंघ द्वारा उन्हें "युग प्रधान" की पदवी प्रदान कराई: 1. श्री साहि सलेम राज्ये ताद्यकृत श्री जिनशासन मालियन्तः श्रीसाधू विहारो निषिद्धः साहितना : तश्रावसरे श्री उग्रसेनपुरे गत्वा साहि प्रतिबोध्य च साधूनां बिहारः स्थिरीकृतः । तदा लब्धः सवाई युग प्रधान बड़ागुरू रितिबिरूदो येन गुरुणा। प्राचीन जैन लेख संग्रह-सम्पादक जिनविजयजी, भाग 2, लेखांक 17 पृष्ठ 20 2. खरतरगच्छ पट्टावली-सम्पादक जिनविजयजी पृष्ठ 56 3. "वचन चातुरी गुरू प्रतिबूझवि साहि "सलेम" नरिंदो जी अभयदान नउ पडहो वजाघिउ, श्री जिनसिंह सूरिंदो जी ॥ एतिहासिक जैन काध्य सह-सम्पादक जिनविजयजी पृष्ठ 132 श्रीसंघ रे युग प्रधान पदवी लही, आया मुकरबखान रे । साजन मन चित्या हुआ, मल्या दुरजन माण रे ।। एतिहासिक जैन काव्य संग्रह-सम्पादक जिनविजयजी पृष्ठ 132 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 128 ) सूरिजी को युग प्रधान पद दिये जानने का विवरण शिलालेखों में भी मिलता है। सूरिजी को युग प्रधान पद दिये जाने का वर्णन तो भानुचन्द्रगणिचरित में भी मिलता है । लेकिन इस पुस्तक के भूमिका लेखक नाहटा आगे लिखते हैं कि जब से सं 1674 (सन् 1617) में सूरिजी बादशाह के दरबार में आ रहे थे तो मेडता में उनका स्वर्गवास हो गया जब बादशाह को पता चला तो उसने सूरिजी की मृत्यु का स्वागत किया. इसका कारण नाहटा की समझ में नहीं आया वास्तव में इसका कारण मानसिंह द्वारा जहांगीर के विषय में की गई भविष्यवाणी थी। बीकानेर के राजा रायसिंह भरटिया ने मानसिंह से जहांगीर के राज्य के बारे में पूछा, मानसिंह ने बताया कि बादशाह का राज्यकाल अधिक से अधिक दो वर्ष रहेगा । बादशाह ने क्रोधित होकर मानसिंह को बुलवाया। मानसिंह बीकानेर से बिहार कर मेड़ता आये वहां शायद मानसिंह को पता चल गया कि बादशाह ने किस कारण से बुलाया है इसलिए विष खा लेने पर अस्वस्थ हो जाने के कारण काल कर गये यही कारण था कि जब बादशाह को इस घटना का पता चला तो उसने मानसिंह की मृत्यु का स्वागत किया। जहांगीर ने अपनी आत्मकथा में इस घटना का जिक्र किया है.' 5. आवार्य श्री विजयदेव सूरि जिस प्रकार मुगल सम्राटों में अकबर, जहांगीर और शाहजहां तीनों सम्राट भारत के गौरव के उत्कर्ष हुए उसी प्रकार जैनाचार्यों में भी हीरविजयसूरि, विजयसेनसूरि और विजयदेवसूरि जैन समाज के गौरव के उत्कर्ष हुए । इन तीनों आचार्यों का मुगल सम्राटों ने खूब सत्कार किया था, इनके ज्ञान और चरित्र से प्रभावित होकर उन्होंने भी जैन धर्म के प्रति अपना ऊंचा आदर भाव व्यक्त किया था। जिस तरह सम्राट अपने साम्राज्य की रक्षा और वृद्धि के प्रयत्न में आजीवन तल्लीन रहते थे। और देश में एक कोने से दूसरे कोने में घूमकर अपने 1. "नूरदीन जहांगीर सवाई प्रदत्त युग प्रधान पद धारक सकलविद्या प्रधान युग प्रधान श्री जिनसिंहसूरि । प्राचीन जैन संग्रह लेखांक 19 पृष्ठ 27 2. भानुचन्द्रगणि चरित-भूमिका लेखक मोहनलाल दलीचन्द्र देसाई पृष्ठ 20 3. जहांगीरनामा--हिन्दी अनुवाद ब्रजरत्नदास पृष्ठ 499 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 129 ) शासन की सुव्यवस्था में व्यस्त रहते थे उसी तरह ये आचार्य भी जैन धर्म और जन संघ की रक्षा और वृद्धि के प्रयत्न में आजीवन दत्तचित्त रहते थे अपने धर्म और समाज की उन्नति और प्रतिष्ठा के निमित्त ये राजाओं के दरबार में उपस्थित होते थे। उन्हें प्रतिबोधित करते थे। और बदले में सिर्फ प्राणी रक्षा और अहिंसा का उनसे प्रचार और पालन करवाते थे । अधर्मी और अत्याचारी द्वारा सताये जाने वाले प्रजाजनों और धर्मनिष्ठ मनुष्यों की रक्षा करवाते थे। धर्म स्थानों की पूजा और पवित्रता का सुप्रबन्ध करवाते थे। आचार्य हीरविजयसूरि और विजयसेन सूरि ने बादशाह अकबर पर जो प्रभाव डाला वह तो हमें विदित हो ही गया है यहां हम आचार्य विजयदेवसूरि और जहांगीर के बारे में देखेंगे। हीरविजयमूरिजी के समय में ही उनके शिष्यों में कुछ विचार भेद हो जाने से विरोध पैदा हो गया था जो कि विजयदेवसूरि के समय में ज्यादा बढ़ गया। गच्छ के इस विरोधी वातावरण का प्रतिबोध जहांगीर के दरबार तक जा पहुंचा। हीरविजयसूरि के शिष्यों में से कइयों के साथ जहांगीर का बचपन से ही परिचय या वह अपने पिता के धर्मोपदेश के साथ वाली नीति का पालन भी करना चाहता पा इसलिए जब बादशाह ने सुना कि हीरविजयसूरिजी के शिष्य आपस में अनबन हो जाने के कारण परस्पर एक दूसरे के विपक्षी बन रहे हैं जिनविजयदेवसूरि को हीरविजयसूरि के पट्टधर विजयसेनसूरि ने अपना पट्टधर घोषित किया है उनके बारे में कई शिष्य अपना विरोध व्यक्त कर रहे हैं तब बादशाह के मन में विजयदेवसूरि से मिलने की उत्कण्ठा पैदा हुई (इस समय भानुचन्द्र उपाध्याय बादशाह के पास मांडू में ही थे। उन्होंने भी बादशाह से इस घटना की चर्चा करते हुए आग्रह किया था कि वे विजयदेवसूरि को समझावें) बादशाह इस समय मांडू में था और विजयदेवसूरि का चातुर्मास खम्भात में था बादशाह ने मांडू जैन श्रीसंघ के नेता चन्द्रपाल को बुलाया और एक फरमान लिखकर, जिसमें सूरिजी से दरबार में आने का निवेदन किया गया था, खम्भात भेजाः जैसे ही सूरिजी को फरमान मिला, उन्होंने खम्भात से बिहार कर दिया और आश्विन सुदी तेरस सम्बत 1674 सन् 1617) को मांडू पहुंचे । चन्द्रपाल ने बादशाह को समाचार दिया कि जिनविजयदेवसूरि के दर्शनों के लिए आप लालायित थे वे मांडू पधार चुके हैं। अगले दिन अर्थात् आश्विन शुक्ला चतुर्दशी को सूरिजी बादशाह के दरबार में 1. विजयदेव-माहात्म्यम्-श्री श्रीवल्लभपाठक सर्ग 17 पद 10 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 130 ) पहुंचे । बादशाह ने तीन पग आगे बढ़कर सूरिजी का स्वागत कियाः सूरिजी क प्रभावशील चेहरे और व्यक्तित्व को देखते ही बादशाह मे सूरिजी से धर्मगोष्ठी की जिसमें उनसे रात्रि आहार परित्याम के बारे में पूछा ? सूरिजी मे रात्रि आहा परित्याग का सुफल बताया कि न केवल जैन अपितु वैदिक ग्रन्थों के अवलोकन से भी ज्ञात होता है कि रात्रि भोजन का सभी में निषेध किया गया है क्योंकि दिन की अपेक्षा रात्रि में सूक्ष्म जीव अधिक उहते हैं जिस तरह वे हमारे शरीर पर बैठते हैं उसी तरह भोजन पर भी। अतः रात्रि भोजन करने वालों के पेट में इन सूक्ष्म जीवों का जाना स्वाभाविक है। इसी कारण शास्त्रकारों ने रात्रि भोजन का निषेध किया है । कर्मपुराण में लिखा है-"हरेक प्राणी पर प्रेम भाव रखें, द्रोह नहीं करे, निन्द, निर्भय रहे और रात्रि भोजन म करे, रात्रि को ध्यान में, लीन रहे। इसी पुराण में आगे चलकर लिखा है कि "सूर्य की विद्यमानता में पूर्व दिशा की तरफ मुंह करके भोजन किया जाये ।" रात्रि भोजन निषेध के बारे में मार्कण्डेय पुराण में लिखा है कि सूर्यास्त के बाद पानी रुधिर के समान और अन्न मांस के समान है। योगशास्त्र में भी कहा गया है कि यदि भौजन में कीड़ी आ जाये तो बुद्धि का नाश करती है, जाये तो जलोदर हो जाता है, मक्खी आने से उल्टी हो जाती है, मकड़ी आये तो कोढ़ हो जाता है, तिनका गले में आ जाये तो दर्द होता है सांग आदि में बिच्छु आ जाये तो तलुए को तोड़कर प्राणों का नाश कर देती और यदि गले में बाल आ जाये तो स्वर भंग हो जाता है, इत्यादि शरीर सम्बन्धि अनैक भय रात्रि भोजन में हैं। बादशाह सूरिजी की विद्वता, तेजस्वित और कर्तव्यनिष्ठा को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ सूरिजी के विपक्षियों ने जो जो बातें सूरिजी के विषय में बादशाह से कही थी उनका सूरिंजी में विपरीत भाव जानकर बादशाह ने सूरिजी को खूब सस्कृत किया और यह जाहिर किया कि हीरविजयसूरिजी के ये ही यर्थार्थ उसरा धिकारी हैं इसलिये उनको "जहांगीर महातपा" की उपाधि देकर गच्छ के सच्चे अधिनायक प्रणाणित किया:- मोहनलाल दलीचन्द भी लिखतें है कि बादशाह सूरिजी से बहुत प्रभावित हुआ "जहांगीर महातपा" (जहाँगीर द्वारा पहचाना गया 1. वही, पदें 24 2. कर्मपुराण अध्याय 27 पृष्ठ 645 3. वही, पृष्ठ 653 4. विजयदेवसूरि महात्मय वर्ग 17, पछ 32 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक महान तपस्वी) की उपाधि दी: 1 ܘ रेजी को महातपा की उपाधि दिये जाने का विवरण शिलालेखों से भी मिलता है: " ( 131 ) सूरिजी के व्यक्तित्व व तप से प्रभावित होकर बादशाह ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर कहा हैं कि - " इस लोक के मान्य पुरुषों में आप सर्व श्रेष्ठ हैं अपने क पराये सभी की उन्नति में रत है। बादशाह ने बार-बार अपनी ओजस्वी वाणी मैं कहा कि आप जैसे तेजस्वी के आगे मैं नतमस्तक हूं कोई भी प्राणी क्रोध चूरिज होने पर भी अगर आपका परोक्ष रूप में भी अपमान करता हैं तो वह आत्मिक रूप से दुखी होता है । मैं धन्य हूं कि आप जैसे तेजस्वी पुरुष के दर्शन किये जिससे मुझे सुख की अनुभूति हुई इस प्रकार बादशाह ने सभी लोगों की उपस्थिति में गुरूदेव की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा कीः 3 बादशाह जहांगीर के अलावा मेवाड़पति राणाजगतसिंह, जामनगराधीश लाखा: जाम, ईडरमरेश रायकल्याणमल आदि बहुत से राजा महाराजा भी सूरिजी का बहुत आदर सत्कार करते थे । उदयपुर के महाराणा जगतसिंह पर सूरिजी ने जो प्रभाव डाला इसके लिए देखिये परिशिष्ट नं. 5 21 2. 1. भानुचन्द्रगणिचरित - भूमिका लेखक 'मोहनलाल दलीचन्द पृष्ठ "श्री जालौर नगरे प्रतिष्ठितं व तपागच्छधिराज भ श्रीहीरविजय सूरिजी पट्टालंकार भ. श्री विजयसेनसूरिं पट्टालंकार पातशाहि श्री जहांगीर प्रदत्त महातपाविरुदधारक - भा. श्री विजयदेवसूरिभिप्राचीन जैन लेख संग्रह - भाग 2 - लेखांक 367, पृष्ठ 319 अतः समस्ता भोलोका मन्यन्तामिममुक्तमम, समस्तरि समस्तानं मामि प्रभुक्तम | पातिसाहिर भाषिष्ट बारं वारमितिस्फुटम, मत्तोडप्यीध कतेजस्वीयद्धर्ते शव हम कुपितः कांsपि पापीयानकोपतः कोपपूरित, भविष्यति सदादुखी सएतस्मात्परा ड. मुख धन्योsयं कृतपुण्योsयं तपस्तेजः समुच्चयः, दर्शनेषुत्तमचास्यदर्शनं सुखकारियत । एवं प्रशंसतानेकभूपलोक सभास्थितः पातिसाहि जहांगीर शिलेम साहिर हो गुरूमः । विजयदेव महात्म्यम सर्ग 17 पद्य 51, 52, 53, 54, 55 3. Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 132 ) उपाध्याय विवेकहर्ष, परमानन्द, महानन्द, उदय हर्ष - उपाध्याय विबेकहर्षजी आचार्य आनन्दविमलसूरि के प्रतापी शिष्यों में से थे । ये अष्टावधान साधते थे । बादशाह जहांगीर से मिलने से पहले इन्होंने अनेक हिन्दू राजाओं और मुगल सूबेदारों को प्रतिबोधित कर जीव-हिंसा बन्द कराने का महत्वपूर्ण कार्य किया । इनका सम्बन्ध कोंकण का राजा बुरहानशाह, महाराज श्री रामराजा, कच्छ का राजा भारमल, खानखाना और नौरंगखान आदि से था कच्छ देश के खाखर में जो शिलालेख है उसे पढ़ने से तो ऐसा प्रतीत होता है कि राजा भारमल तो विवेकहर्ष के प्रभाव से जन ही हो गया था क्योंकि उनका बनवाया हुआ भुज नगर में राजबिहार नाम का ऋषभनाथ जैन मन्दिर है जो सम्वत् 1658 (सन् 1601) में बनाया और सपागच्छ संघ के अधीन कर दिया। जो आज भी कायम हैं । भारमल को प्रतिबोध देकर उनसे अनेक राज्य में जीव. हिंसा निषेध का लिखित रूप में भी प्रचार करवाया जो शिलालेखों के रूप में खाखर के मन्दिर में, जो आज भी विद्यमान है. उसमें वर्णन है कि उनके राज्य में हमेशा के लिए गाय वध का मुमानियम (मनाही) कर दी गई थी। ऋषि पंचमी सहित पर्यषणों के आठ दिनों को मिलाकर नौ दिन श्राद्ध पक्ष, सब एकादशी के दिन, रविवार, अमावस्या के दिनों में, महाराज का जन्म दिन तथा राज्याभिषेक के दिन राज्य में किसी जीव की हिंसा न की जाये । शिलालेख के लिए देखिये परिशिष्ट नं. 6 इस तरह जगह-जगह धर्मोपदेश देते हुए अपने शिष्यों परमानन्द, महानन्द और उदयहर्ष के साथ विवेकहर्ष ब दशाह जहांगीर के दरबार में पहुंचे । और बादशाह से विनती कर 12 दिन वाले फरमान की (जो अकबर ने हीरविजयसूरि जी को दिया था) एक नकल प्राप्त की। जहांगीर के दरबार में अन्य जैन साधू 1. नेमीसागर उपाध्याय जिस समय विजयदेवसूरि मांडू में बादशाह के पास थे, उन्होंने राधनपुर से नेमीसागर जी को बुलाया। सूरिजी की आज्ञानुसार नेमीसागर जी राधनपुर से बिहार कर मांडू आकर बादशाह जहांगीर से मिले। 2. दयाकुशल दयाकुशलजी ने बादशाह जहाँगीर से भेंट की बादशाह उनसे इतना प्रभावित हुआ कि एक अगस्त सन् 1618 को दयाकुशलजी के गुरू विजयदेवमूरि को एक पत्र लिखा- "हमने आपके शिष्य से जो कुछ सीखा उससे हम बहुत प्रसन्न Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ waspreesbihaneamhaswayastanparamethihijmumyami उपाध्याय विवेकहर्ष बादशाह जहांगीर से पशु-वध निषेध का फरमान प्राप्त करते हुए Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 133 ) बहुत अनुभवी और बुद्धिमान हैं । जो कुछ वे कहेंगे हम सब करेंगे । सम्पूर्ण ' के लिए देखिये परिशिष्ट नं. 7 धर्ममूर्ति और कल्याणसागर - कुनपाल और सोनपाल ओसवाल के दो धनाढ्य जैन भाई जहाँगीर के बार में उच्च पद पर सम्मानित थे। उन्होंने आगरा में एक विशाल मन्दिर वाया जिसमें धर्ममूर्ति और उसके शिष्य कल्याणसागर के द्वारा वंशाख तीज सम्वत् 1671 (सन् 1614 ) को श्रेयांसनाथ और महावीर की प्रतिमायें पित की गई। इससे प्रकट होता है कि धर्ममूर्ति कल्याणसागर मे बादशाह से की । नन्दविजयसूरि वर्ष 1617 ईसवी में आचार्य विजय सेनसूरिजी के शिष्य एवं उत्तराधिकारी चायं विजयतिलकसूरिजी के आदेश 'मुनि नन्दविजय धर्म प्रचारार्थ मांडू गये । दिनों वहां सम्राट जहांगीर का पड़ाव था । सम्राट ने मुनिजी का बहुत मान किया तथा उन्हें मुनि श्री भानुचन्द्रजी का स्मरण हो आया उन्होंने तत्काल न श्री भानुचन्द्रजी को मांडू के लिए मिमन्त्रण भेज दिया । सम्राट अकबर के पक्ष लाहौर में इन्होंने अष्टावधान का प्रदर्शन किया था। सम्राट मुनि की इस द्धता पर बहुत मुग्ध हुआ इस समय मुनि नन्दविजय के साथ आचामं श्रीविजय - सूरि भी थे। विजयतिलकसूरि आचार्य विजयदेवसूरिजी जिनका उल्लेख पूर्व में हो चुका रविजयसूरि की मान्यताओं के विपरीत प्रवचन परीक्षा ग्रन्थ के त नवीन संस्करण सर्वसशतक को जैन धर्म का प्रमाणिक ग्रन्थ र दिया था तथा इस प्रकार वे मुनि हीरविजय तथा उनकी शिष्य परम्परा मुनि जयसेनसूर, मुनि भानुचन्द्रगणि आदि से पृथक हो गये थे, परिणामस्वरूप चार्य हीरविजयसूरिजी के शिष्यों में जिनमें मुनि सोमविजय मुनिनन्दि विजय, निविजयराज मुनिभानुचन्द्र तथा सिद्धिचन्द्र सम्मिलित थे, अहमदाबाद में -1-1617 ईसवी में एकत्रित होकर रामविजय नामक एक विद्वान सन्यासी सम्प्रदाय के आचार्य की पदवी के योग्य घोषित किया तथा मुनि विजयसुन्दर भट्टारक के द्वारा उन्हें विजयतिलकसूरि के नाम से अभिषिक्त करवाकर उन्हें वार्य विजयसेनसूरि का उत्तराधिकारी स्वीकार किया। मुनि सिद्धिचन्द्रजी को स अवसर पर उपाध्याय की पदवी दी गयी । रि 1. विजयप्रशस्ति महाकाव्य सर्ग 12 इलोक 91 है, ने आचार्य मुनि धर्मसागर माननो प्रारम्भ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 134 ) 6. विजयप्रभसूरि ये श्री विजयदेवसूरिजी के पट्टधर थे तथा श्री मेंघविजय उपाध्याय ने इनको प्रशस्ति में दिग्विजय महाकाव्यः की रचना की है जैसा कि इस महाकाव्य शीर्षक से स्पष्ट है । इन आचार्यजी ने भारत में चतुर्दिक बिहार करके जैन धर्म क प्रचार किया था। सर्वत्र संघ के अनुयायियों ने इनका अत्यधिक सम्मान किय तथा इनके उपदेश से मन्दिर आबि बनवाये । विभिन्न स्थानों पर राजाओं ने इन उपदेश से पशु-वध निषेध करवाया । उदयपुर बुरहानपुर, ईडर तथा बीजापुर इनका बिहार इस दृष्टि से अधिक सफल रहा अन्तिम दिनों में ये आगरा जहांग से भेंट करने भी गये थे. 7. अन्य आचार्य सम्राट अकबर तथा सम्राट जहांगीर का जैन धर्म की दोनों प्रसिद्ध गच्च तपागच्छ एवं खरतरगच्छ के आचार्यों से घनिष्ठ सम्पर्क रहा था। किन्तु कुर प्रमुख आचार्यो के उल्लेख ही बादशाहों से सम्पर्क का मिलता है। जब मुनि हीरविजयजी आगरा से वापिस गुजरात से चले गये थे तब अकबर की प्रार्थन पर उन्होंने मुनि भानुचन्द्र जी को उनके पास भेज दिया था। मुनि भानुचन्द्रज के साथ सिद्धिचन्द्रजी भी आ गये थे। किन्तु ये जब वापिस गये तो अपने स्था पर किसी जैन मुनि को बादशाह के सम्पर्क में रहने को न छोड़ गये हों य सम्भव नहीं । आचार्य हीरविजयजी ने अकबर के बुलाने पर आना इसी विचा से स्वीकार किया था। कि बादशाह के सम्पर्क में रहने से- जैन धर्म के लि. शासकीय संरक्षण प्राप्त हो सकेगा। यह सत्य सम्भावना अन्य आचार्यों के मन भी रही होगी। कर्मचन्द्र जैसे कर्मठ मन्त्रि सम्राट अकबर तथा जहांगीर दोनों दरबार में रहे। ये खरतरगच्छ सम्प्रदाय के थे । इनके कारण इस सम्प्रदाय आचार्यों मुनि जिनचन्द्र तथा मुनि जिनसिंह को भी अकबर से सम्मान प्राप हुआ था। इन दोनों ही सम्प्रदायों की शिष्य परम्परा में जिन प्रसिद्ध आचार्यों । उल्लेख मिलता है उनका अवश्य ही सम्राट अकबर तथा जहांगीर से सम्पर्क रह होगा। ये आचार्य हैं-~-मुनिविजयराज, मुनिधर्मविजय, मनिसोमविजय, मुर्मा नेमीसागर, भानुचन्द्र के शिष्य उदयचन्द्र, सिद्धिचन्द्र के अग्रज भावचन्द्र, मू 3 1. भारतीय विद्या भवन द्वारा 1945 में प्रकाशित 2. दिग्विजय महाकाव्य सर्ग 10 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 135 ) विजयसेनसूरि के शिष्य देवचन्द्र एवं विवेकचन्द्र, इसी परम्परा के मुनि गुणचन्द्र, सेजचन्द्र, जिनचन्द्र, जीवनचन्द्र, ज्ञानचन्द्र, दीपचन्द्र, दौलतचन्द्र तथा प्रतापचन्द्र सभी सम्राट जहांगीर के समकालीन थे । खरतरगच्छ सम्प्रदाय के मुनि श्री जिनराजसूरि, श्रीजिनसागरसूरि, श्री जयसोम, महोपाध्याय, श्रीगुणविनयोपाध्याय, श्रीध मंविधानोपाध्याय, श्रीआनन्दकीर्ति, श्रीभद्रसैन, श्रीकल्याण समुद्रसूरि, श्रीभावसागरसूरि, श्रीदेवसागरगणि श्री विजयमूर्ति गणि, श्रीविजयसिंहसूरिजी आदि आदि । उक्त सभी आचार्यो एवं मुनियों के नामों का उल्लेख तत्कालीन मन्दिरों के शिलालेखों में मिलता हैं जो एपिप्राफिया इण्डिका तथा प्राचीन जैन संग्रह में प्रका शित है. 1 शिष्य परम्परा के विद्वान कषि मेघविजयगणि ने श्रीविजय देवसूरि की प्रशस्ति में देवानन्द महाकाव्य की रचना की तथा इनके शिष्य श्रीविजयदेवसूरि की प्रशस्ति में दिग्विजय महाकाव्य की रचना की। इन दोनों महाकाव्यों के प्रारम्भिक पद्यों में भी ऊपर वर्णित प्रत्येक जैनाचार्यों का उल्लेख आया है । 1. प्राचीन जैन संग्रह लेख पृष्ठ 25-40 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टम अध्याय शाहजहां की धार्मिक नीति एवं जैन धर्म मदि अकबर धामिक मामलों में उदार था, जहांगीर उससे अभिन्न था। तो शाहजहां में इस मामले में अपने पूर्वजों से विपरीत भाव पाया जाता हैं। यद्यपि शाहजहां की मां और दादी मां राजपूत घराने से सम्बन्धित थी लेकिन वह अपने पूर्वजों के लक्षणों से प्रभावित नहीं हुआ। उसने अपने पिता व पितामह की तरह हिन्दू राजकुमारियों से विवाह नहीं किया, अत हरम में हिन्दू प्रभाव कम होना स्वाभाविक था । अकबर व शाहजहां दोनों में वितरीत भाव होने के कारण जहां अकबर ने सब धर्मों की उन्नति में सहयोग दिया वहां शाहजहां ने अन्य धर्मो को दबाकर इस्लाम धर्म की उन्नति में विशेष रूचि ली। इसलिए हिंजरी सन राजकीय कैलेन्डर घोषित किया, सिजदा अथवा जमीबोस जो अकबर, जहांगीर के समय अनिवार्य नहीं था, अनिवार्य कर दिया गया, दरबार में सारे मुस्लिम त्योहार नियमित रूप से मनाये जाने लगे जिसमें हिन्दू मुसलमान समान रूप से बादशाह को उपहार देते थे, श्रीराम शर्मा लिखते हैं कि 12 वें वर्ष में ईद के अवसर पर राजा जसवन्तसिंह और राजा जयसिंह ने बादशाह को हाथ भेंट किया। शाहजहां की धन लोलुप प्रवृत्ति ने उसे हिन्दुओं पर अनुचित कर लगाने को बाध्य किया जिनमें तीर्थ यात्री कर प्रमुख है जो कि हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं पर एक गहरी चोट थी यद्यपि बनारस के कविन्द्राचार्य के कहने पर बाद में बादशाह ने इस कर को हटा दिया। हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं पर कुठाराघात करते हुए पुराने मन्दिरों के जीर्णोद्धार की मनाही कर दी गई । नये मन्दिर बनाने की इजाजत न दी गई यहां तक कि उसके पूर्वजों के समय से जो मन्दिर बन रहे थे, उनका निर्माण कार्य भी रुकवा दिया। 1. रिलीजियस पोलिसी ऑफ द मुगल एम्पररस-श्रीराम शर्मा पृष्ठ 96 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 137 ) गुजरात में तीन मन्दिर, बनारस और उसके आस-पास के 72 मन्दिर और चार मन्दिर अहमदाबाद में तोड़े गये काश्मीर के कुछ मन्दिर भी उसकी धामिक कट्टरता का शिकार हुए। इन मन्दिरों की सामग्री मस्जिदें बनाने के. काम में ली गई । इच्छाबल के हिन्दू मन्दिर को मस्जिद में बदल दिया गया। __इस तरह शाहजहां ने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर ऐसा कुठाराघात किया जिसकी आज के आशावादी, देशभक्त, कल्पना भी नहीं कर सकते ।। ___इतना होने पर भी शाहजहां में कहीं कहीं सहिष्णुता का पुट भी पाया जाता है जैसा कि उसने पूर्वजों से चली आ रही झरोखा दर्शन तुलादान व हिन्दुओं को उच्च पदों पर नियुक्त करने की प्रथा को जारी रखा। राजा जसवन्तसिंह, जगतसिंह, जयसिंह, बिट्ठलदास पांच हजारी मनसब पर थे। यद्यपि उसने मसलमानी त्योहारों को राजकीय सज्ञा देकर अधिक रूचि के साथ मनाया । और इस अवसर पर मुसलमानों को एक बड़ी राशि दान में दी जाती थी। हिन्दू त्योहारों को मनाने में व्यक्तिगत रूचि नहीं ली । लेकिन बसन्त, दशहरा, रक्षा बन्धन आदि त्यौहार भी खुले आम मनाये जाते थे। शाहजहां ने अपने पिता व पितामह की तरह धार्मिक वाद-विवाद में रूचि नहीं ली फिर भी जैसा कि कानूनगो लिखते हैं कि 18 दिसम्बर-1634 को राजा लाहौर के पास प्रसिद्ध सन्त मेन मीर के घर उससे मिलने गया और सत्य व ईश्वर विषय पर चर्चा की: शाहजहां के समय में फारसी तथा हिन्दी साहित्य में विशेष उन्नति हुई । सुन्दरदास और चिन्तागणि हिन्दी के दो प्रसिद्ध कवि इसी काल में हुए जिन्होंने कई विषय लिखे जिनमें धार्मिक विषय भी शामिल थे संस्कृत साहित्य भी उन्नति की ओर अग्रसर हुआ। बादशाह ने स्वयं उपनिषद का अनुवाद किया और उसे कुरान के समान ही बतायाः जहां तक पशु-वध निषेध का प्रश्न है, कट्टर मुसलमान होते हुए भी उसने पशु-वध निषेध को जारी रखा हां अपने पूर्वजों द्वारा घोषित किये गये दिनों में कुछ कटौती जरूर कर दी गई। अकबर और जहांगीर की हिन्दुओं के प्रति सम्मान की भावना के कारण निश्चित क्षेत्रों में पशु-वध निषेध जारी रखा । 1. रिलिजियस पॉलिसी ऑफ द मुगल एम्परस-श्रीराम शर्मा पृष्ठ 103 2. जनरल ऑफ इण्डियन हिस्ट्री पृष्ठ 49 3. रिलिजियस पॉलिसी ऑफ द मुगल एम्पररस-श्रीराम शर्मा पृष्ठ 112 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 138 ) मैनरिक जो उस समय भारत में आया उसने यह देखा कि बंगाल में पशु बलि जो कि पवित्र मानी जाती थी शाहजहां द्वारा दण्डनीय अपराध घोषित की गई: 1 जैन धर्म के प्रति बादशाह की नीति की बहुत कुछ झलक मेंडलस्लों के पश्चिमी भारत भ्रमण वृतान्त से मिलती है जो कि शाहजहां के काल में भारत आया । वह लिखता है कि जब मैं अहमदाबाद में पहुंचा तो वहां का गवर्नर औरंगजेब था उसने कट्टर धार्मिक मुस्लिम नेताओं के प्रभाव में आकर सेठ शान्तिदास, जो मुगल दरबार का खास जौहरी था, उन्हीं के द्वारा निर्मित कराया श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ जैन मन्दिर जो सरसपुर मुहल्ले में स्थित था, तुड़वा दिया सेठ शान्तिदास ने आगरा आकर बादशाह से शिकायत की कि मेरा बनवाया हुआ मन्दिर शाहजहां औरंगजेब ने तुड़वाकर उस स्थान पर मस्जिद का निर्माण करवा दिया है। मीरा अहमदी कहते हैं कि राजकुमार ने उस मस्जिद का नाम कुवत - उल-इस्लाम रखा । और उस जगह पर गाय मारने का आरोप लगाया । सेठ की फरियाद सुनकर बादशाह में वहाँ का सूबेदार बदल दिया और शान्तिदास को फरमान दिया जिसके परिणामस्वरूप सन् 1648 में शाही गवर्नर तथा अहमदा बाद के अधिकारियों को सम्बोधित किया गया कि राजकुमार औरंगजेब द्वारा निर्मित मस्जिद तथा शेष मन्दिर के बीच एक दीवार खड़ी कर दी जाये और उस इमारत को सेठ शान्तिदास के सुपुर्द कर दिया जाये ताकि वह अपने धर्मानुसार पूजा कर सके इसके अलावा उन फकीरों को जिन्होंने मन्दिर के अन्दर अपना घर बना लिया हैं, हटा दिये जायें और जो सामग्री मन्दिर से बाहर लें जाई गई हो वह वापिस कर दी जाये ये कीमती और वास्तविक फरमान 50 वर्ष पुराना था जो अहमदाबाद के नगर सेठ के परिवार के मुखिया के afaपत्य में था : 1. रिलिजियस पॉलिसी ऑफ द मुगल एम्बरस - श्रीराम शर्मा पृष्ठ 112 2. मेंडलस्लो ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इण्डिया पृष्ठ 101-102 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय "उपसहार" 1. जैन साधुओं का राजनीति को प्रभावित करने का उद्देश्य जैन धर्म साधु का पर्याय हैं अर्थात् जैन वही है । जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में कर मन का दमन कर लिया है । और सांसारिकता से विरक्त तथा परमार्थ में आसक्त है । ऐसा व्यक्ति रात दिन मानव कल्याण में रत रहकर आत्म कल्याण के साथ-साथ लोक कल्याणकारी कार्यों में प्रवृत रहता है। जैन धर्म की विचार धारा धर्म विशेष से ही सम्बन्धित नहीं, अपितु वह मानव मत्र के कल्याणार्थ विकसित हुई विचार धारा है जिसका अनुयायी कोई भी हो सकता है जिसके व्रत, नियम एवं उपासना पद्धति के द्वारा अपना आत्मकल्याण कर सकता है। जैन धर्म में दीक्षित साधुओं की परम्परा साधना, त्याग; अन्य साधु परम्पराओं से भिन्न है। इस परम्परा के साधुओं के प्रधान लक्ष्य जीव कल्याण है जैन साधुओं की तपश्चर्या एवं उपासना, उपदेश आदि का प्रमुख आधार स्वान्तः सुखाय नहीं अपितु बहुजनहिताय एवं बहुजन सुखाय था। उनका कार्य क्षेत्र वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से परिपूरित था तथा इसका निर्वाह आज भी यथा सम्भव किया जा रहा हैं और इस पथ के अनुयायी अपनी अथक साधना में अनवरत अग्रसर हो रहे हैं। साधु को धर्म का आधार माना जाता है और धर्म राजनीतिक को इसी भावना से अभिप्रेरित होकर जैन साधुओं ने मुगल बादशाहों के दरबारों में पहुंच. कर उन्हें अपने उपदेशों से प्रभावित कर उनसे लोक कल्याणकारी कार्य करवाये ऐसे कार्य जिन कार्यों को लोक में शरीर बल, सैन्यबल एवं धनबल के प्रयोग से नहीं करवाया जा सकता था । इन सब कार्यो के पीछे साधुओं का उद्देश्य थामानव मात्र के प्रति शासकवर्ग के मन में कल्याण की भावना जागृत करना । आचार्य हीरविजयसूरिजी से लेकर मुगलकाल में होने वाले सभी आचार्यों एवं Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 140 ) मुनियों ने मुगल बादशाहों को प्रभावित किया अपने तपबल से आचार्य हीरविजयजी ने तो अपने मानवरूप में अलौकिक तत्वयुक्त व्यक्तित्व का पूर्ण परिचय देकर अकबर को अपने तप साधना से प्रभावित किया एवं ऐसे असम्भाव्य कार्यं करवाये जो कार्य आज भी शासन से आये दिन आन्दोलन करने पर भी बन्द नहीं करवाये जा रहे हैं उनमें प्रमुख हैं - गौ वध पर पाबन्दी । अकबर ने अपनी धार्मिक मीति से मात्र इस्लाम को ही नहीं बढ़ाया बल्कि उसने सर्व धर्म समन्वय की भावना से इबादतखाने का निर्माण कराया दीन इलाही धर्म का प्रचार किया जिसमें सभी धर्माचार्यो को बुलाकर वह धर्म चर्चा करता था और सभी धर्मों के रहस्यों को जानना चाहता था इतना ही नहीं उसने हिन्दू समाज में फैली दास प्रथा, बालविवाह आदि कुरीतियों को समाप्त किया उनकी दशा में सुधार किया करों की समाप्ति की घोषणा की और समय-समय पर होने वाले हिन्दुओं के सभी धार्मिक उत्सवों में वह स्वयं सम्मिलित होता था । इससे उसमे हिन्दुओं के मनोबल को बढ़ाया । हम देखते है कि ये सब जैन साधु समाज के उपदेशों का परिणाम रहा हैं, जिससे प्रेरित होकर अकबर जहांगीर जैसे बादशाह हिन्दू धर्म की ओर आकर्षित हुए और हिन्दुओं से सामाजिक सम्बन्ध बढ़ाये जर्जियाकर जिसे मृत्यु दण्ड की संज्ञा दी गई थीं अकबर ने समाप्त कर दिया । राजपूत काल में हैमचन्द्राचार्य ने कुमारपाल को प्रबोध दिया। जिस प्रबोध से उसने गौ वध, मांसभक्षण का निषेध कर दिया। इन सब बातों का प्रभाव सामान्य जन समाज पर पड़ता गया और अपने शासक वर्ग को धर्म की ओर झुकता हुआ देखकर जनता के मन में भी इसी प्रकार की भावनायें आती गई, क्योंकि यथा राजा तथा प्रजा का सिद्धान्त मानकर ही जैन साधुओं मे राजाओं और बादशाहों को अपने उपदेशों से प्रबोध दिया इस विषय में आचार्य श्रीहीर विजयसूरिजी का स्पष्ट मत था कि * हजारों बल्कि लाखों मनुष्यों को उपदेश देने में जो लाभ होता है । उसकी अपेक्षा कई गुना ज्यादा एक राजा या सम्राट को प्रतिबोध देने में मिलता है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हो अपना शिष्यत्व प्रदान किया। क्योंकि उनके थीं। इसके लिए उन्होंने अपने पूर्वाचार्यों की वाले संघर्षो को सहन करने की प्रवृत्ति का ही अनुसरण कोटि कलेशू । सम्राटों को जैनाचार्यों ने राजा एवं सम्मुख शासन सेवा ही सच्ची सेवा उपासना पद्धति और उसमें आने किया - सहे धर्म हेतु Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (141 ) जनकल्याण की भावना--- राजनीति का मुख्य आधार जनकल्याण होता है, शासन सत्तासीन होते ही जा को अपना कुछ नहीं रहता। वह अपना जीवन जन कल्याण के लिए सम. त कर देता है। ऐसी भावना ही राजनीति को धर्म से जोड़ती है और ऐसा धर्म जनीति को मूल आधार है जिसे राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता। न साधू अपने पद यात्रा के दौरान जन सामान्य से मिलते थे उन्हें उपदेश देते र आगे बढ़ते थे। जब साधुओं को सम्राट ने अपने दरबार में आमन्त्रित किया तब उन्होंने (समय इसी जनकल्याण की भावना को अपने धर्मोपदेश का मुख्य आधार 'नकर बादशाह को जन-कल्याणकारी कार्य करने के लिए प्रेरित किया । ___ जैन साधु पूर्ण विरक्त एवं अपरिग्रह होते हैं, परिग्रह उन्हें जन कल्याण के र्ग में बाधा है और इपी अपरिग्रह प्रवृत्ति, त्याग, संयम और नियम | कठोर साधना से ही शासक वर्ग इनसे प्रभावित होकर इनके उपदेशों को इण करता था तथा वह कार्य करता था जो आशीर्वाद के रूप में इससे प्राप्त रते थे। अकबर ही नहीं जहांगीर भी अपने पिता की धार्मिक नीति का अनुसरण रता रहा, अन्तर केवल इतना था कि अकबर स्वयं धर्माचार्यों को आमन्त्रित रता था लेकिन जहाँगीर के दरबार मैं धर्माचार्य स्वयं जाने को उत्सुक रहा रते थे, उसने हिन्दू धर्म ग्रन्थों बाल्मिीकी रामायण सिक्ख गुरू ग्रन्थ साहब । कई भाषाओं में अनुवाद करवाया। ईसाइयों से प्रगाढ़ मंत्री की तथा बाइबिल अनुवाद के लिए प्रेरणा दी । इससे लगता है कि यह उसकी धमनियों में दौड़ते र हिन्दू रक्त का प्रभाव था, क्योंकि उसकी माता भी हिन्दू थी, और पत्नी भी न्दू । और इन सब जनकल्याणकारी कार्यों के प्रति प्रमुख शक्ति कार्य कर रही । जैन साधुओं की उपदेशमयी वाणी। ब) भारतीय संस्कारों की स्थापना धर्म के मूल में पार्थक्य की भावना नहीं हुआ करती क्योंकि धर्म को दृष्टि कोई भेद नहीं होता इसी भाव से प्रेरणा पाकर धर्मपालक सम्राटों मे धर्मध्वजा रिक धर्मगुरूओं से प्रतिबोध प्राप्त कर अपने शासनकाल में समाज को श्रेष्ठ स्कारों से संस्कारित किया और यह सिद्ध कर दिया कि धार्मिक संकीर्णता मानव कुत्सित संस्कारों का परिणाम है । जजियोकर की समाप्ति, तीर्थयात्रा कर का षेध यह भी सम्राट की त्यागी वृत्ति का प्रतीक है जो उन्हें जैन साधुओं के Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 142 ) सत्संग और समागम से प्राप्त हुआ। जब ऐसा प्रभाव शासक वर्ग पर पड़ा क्यों न जनता पर पड़े अर्थात् जैन साधुओं ने अपने कार्य एवं संस्कारों से प्रजा को तो प्रभावित किया ही शासक वर्ग को विशेष और शासक वर्ग का प्रभाव र जनता पर पड़ा । इस प्रकार जैन साधु भारतीय संस्कारों की पूर्ण रूप से स्था करने का अनवरत प्रयास करते रहे जिसका प्रमाण है कि जहांगीर स्वयं. प्रतीकों को धारण किये रहता था। 2. राजकीय संरक्षण मुस्लिम शासकों ने जितना राजकीय संरक्षण जैन साधुओं को दिया उत अन्य किसी सम्प्रदाय के साधुओं को नहीं । हम प्रारम्भ से देखते हैं कि आच हीरविजयसूरिजी को अकबर ने आमन्त्रित किया और उनके उपदेशों से जीव-हिं को बन्द किया। हीरविजयसूरिजी के स्वर्गवास के पश्चात् उनके स्तूप के लिए 22 बी जमीन और विजयसेनसूरि के स्वर्गवास के पश्चात् 10 बीघा जमीन उनके स्तूप लिए जैन श्रीसंघ को दी। हीरविजयसुरिजी को अकबर ने पत्र भेजा जिसमें विजयसेनसूरि को लाह भेजने का निवेदन था उनके कार्य कर जाने के बाद अकबर (खम्भात के पा सूरिजी के नाम 10 बीघा जमीन भी दानस्वरूप दी। विजयदेवसूरिजी को जहांगीर ने अपने दरबार में आमन्त्रित किया' उस उपदेशों से अनेक दया के कार्य किये । तीर्थ रक्षा के फरमान जारी किये । बन्दियों को मुक्त किया। अकबर जब 1556 में सिंहासनारूढ़ हुआ तब उसकी राज्य सीमा विह नहीं थी लेकिन उसकी धार्मिक नीति के कारण अपनी मृत्यु तक अपने राज्य । पूर्ण विस्तार प्रदान किया। अकबर धर्म तत्व जिज्ञासु था इसी कारण उसने इबादतखाने जैसे स्थान का निर्माण कराया। जहां बैठकर वह सभी धर्म के आचार्यों से धर्म करता था इस धर्म सभा के सदस्यों का पांच श्रेणी में विभाजन किया इनमें प्रमुख जैन साधुओं के नाम आते हैं--हीरविजयसूरिजी, विजयसेनसूरि एवं चन्द्र उपाध्याय । पिता की धार्मिक नीति एवं व्यवहार का अनुसरण जहांगीर ने कि क्योंकि उसकी धमनियों में हिन्दू रक्त प्रवाहित था। उसने अपने दरबा सभी धर्मों से सहानुभूति रखी। पिता के ' फरमानों को यथावत जारी रख Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 143 ) या सभी को संरक्षण प्रदान किया । वह भी समय समय पर धर्म गुरूओं से म्पर्क करता रहता था । वह अपने दृष्टिकोण में मम से अकबर से भी अधिक मिक था। आध्यात्मिक शक्तियों पर विश्वास करता था। सभी धर्म गुरूओं । प्रसन्न रखने का भरपूर प्रयास करता था । उसने अपनी सत्ता को सुरक्षित बने के लिए धर्म गुरूओं को आश्रय दिया। अकबर की इबादतखाने की धमें र्चा को यथावत् कायम रेखा तथा जद्रूप से वैदान्त का ज्ञान प्राप्त किया। ल्मीकी रामायण का अनुवाद "राम नाम' शीर्षक से फारसी में कराया। रसागर के पदों के संकलन के लिए एक पद के लिए एक स्वर्ण मुद्रा पुरस्कार दम देने की घोषणा की। आचार्य जिनचन्द्र सूरिजी ने जहांगीर से ऐसे फरमानों को रद करवाया जिन्हें उसे अपने नशे की मदहोशी में जारी किया था । तथा वे जनता के लिए ही नहीं अपितु उसके हित में भी घातक थे । यह सब साधुओं के राजकीय संरक्षण का परिणाम था, जिससे वह बादशाह की हर अच्छी-बुरी गतिविधि पर ध्यान रखा करते थे। तथा उसे समय-समय पर प्रतिबोध देकर उन गल्तियों से होने वाले परिणामों से अवगत करा दिया करते थे। सभी कार्यो में हम देखते है कि उन्हें उचित मार्ग दर्शन धर्म गुरूओं से ही प्राप्त होता था । जो उनकी राजकीय संरक्षण की नीति की परिणाम था। 3. जैन साधुओं का सामाजिक योगदान का स्वरूप जैन साधओं की अपरिग्रहि प्रवृत्ति होने के कारण उनका समाज एवं राज्य में श्रेष्ठ स्थान रहा है । उन्होने संग्रही प्रवृत्ति को महत्व नहीं दिया तथा अहिंसा पर आधारित सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया । साधू प्रचारक एवं समाज सुधारक दोनों का कार्य करता है, साधू का स्वभाव ही ऐसा होता है। कि वह विगत मान-अपमान छोड़कर सुख दुख, सम-भाच, पूर्ण विचारों से समाज को सद्उपदेशों से प्रतिबोध देता है । और सभी को समान रूप में देखता हुआ एकांकी रूप में विचरण करता है जैन साधुओं ने समाज को संगठित करने का प्रयास किया और केवल सम्प्रदाय विशेष को ही नहीं अपितु सर्व धर्म समन्वय की भावना से। उनके अन्दर था धार्मिक संकीर्णता नहीं, अपितु धर्म व्यापकता थी और इसी गुण से मुसलमानी शासक उनके द्वारा प्रभावित हुए और उन्हें विनती पत्र लिखकर अपने दरबारों में आमन्त्रित किया उनका सामाजिक संगठन सकारात्मक वृत्ति को जन्म देता है। उनका लक्ष्य था, धार्मिक एकता एवं समानता के साथ राष्ट्रीय एकता की स्थापना, क्योंकि उनका प्रमुख उपदेश था "आत्मः प्रतिकूलानि परेषां समाचरेत्"। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 144 ) अर्थात् जो अपनी आत्मा के विपरीत है वह व्यवहार दुसरों के साथ मत करो यानि जियो और जीने दो। यह उपदेश समाजवादी सिद्धान्त और राष्ट्रीय एक का द्योतक है, जिसे हम राजनीति में नेहरूजी के पंचशील की समानता में सकते हैं तथा इन्हीं जैन आदर्शों के आधार पर यदि हम आज के परिपेक्ष्य में है तो विश्व शान्ति के सपने को साकार कर सकते हैं तथा सारे विश्व को निरसः करण की विचारधारा से प्रेरित कर सकते हैं, इन्हीं सिद्धान्तों का प्रतिपादन अ इन्हीं सिद्धान्तों से निर्मित समाज को साकार रूप में देखने का लक्ष्य जैन साधु का था । उनको उपदेश देने की भावना के पीछे सामाजिक एव ता एवं राष्ट्रीय की प्रेरणा थी वे धर्म को राष्ट्र एवं राजनीति से जोड़ना चाहते थे और वह उन धम था-मानव धर्म। सर्व धर्म समन्वय से जन साधुओं में समत्व की भावना थी, जिसे हम हिन्दू धर्म ग्रन्थों में योग की संज्ञा दी गई है । "समत्व योग उच्चते"। जहां य होता है वहां वियोग को स्थान नहीं, जहां वियोग नहीं वहां भेद नहीं, जहां नहीं वहां विग्रह नहीं। ऐसे विग्रह हीनसमाज की स्थापना करना चाहते थे साधू अपने धर्म मय उपदेशों के द्वारा। देश के उत्थान के लिए अच्छे समाज का होना आवश्यक होता है। 3 अच्छे समाज के लिए श्रेष्ठ नागरिकों का, क्योंकि व्यक्तियों से समाज का निम होता है और व्यक्ति का निर्माण सद्गुणों से । हमारे धर्म ग्रन्थों में वर्णित कि मानव जन्म से शूद पैदा होता है सस्कार ही उसे श्रेष्ठ बनाते हैं इन संस्क को देने का दायित्व हमारे जैन समाज ने अपने ऊपर लिया और अपनी पद य वृत्त को धारण करते हुए समाज को संस्कारित कर श्रेष्ठ समाज की स्थापन सहयोग दिया। जैन साधु देश सेवा में अग्रणी रहे इस बात का निवेदन मैंने पूर्व के अध्य में भली भांति किया है तथा उन्होंने हर सम्भव प्रयत्न के द्वारा परोक्ष रूप में सेवा में अपना जीवन लगाया। उन्होंने अपने चरित्र बल, तपशक्ति के प्रभाव मगल बादशाहों को प्रभावित किया, प्रजा कल्याण के कार्य करवाये, वे कार्य के के लिए ही नहीं अपितु सभी जैनेतर समाज के लिए थे। 4. राजनीतिक आदर्श की स्थापना प्रकृति का यह नियम है, कि समाज में श्रेष्ठ लोग जैसे आचरण करते समाज उन्हीं का अनुसरण करता है सामाजिक इकाईयों से राज्य का निम होता है और राज्य शासन व्यवस्था की प्रक्रिया को राजनीति कहा जाता Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 145 ) बासन व्यवस्था को बादर्श स्थापित करना सामान्य शासक का कार्य नहीं अपितु असामान्य गुणों का द्योतक होता है । शासन सत्ता को अधिग्रहण कर शासक ध्यष्टि से समष्टि की ओर अग्रसर होता है । उसका अपना व्यक्तित्व जीवन महीं बल्कि प्रजा रंजना ही उसका मुख्य लक्ष्य माना जाता हैं। प्रारम्भ से हम खति है कि तपागच्छा औरखरतरगच्छ दोनों सम्प्रदायों के जैन साधुओं ने जिमीति में प्रवेश नहीं किया, अपितु राजनीति के धारक सम्राट स्वयं उनके आर्चरणासि उनकी ओर आकर्षित हुए । उनके आशीर्वाद प्राप्त करने, उन्हें प्रसन्न करने तथा आध्यात्मिक तुष्टि के लिए बादशाहों ने वे कार्य किये जिन्हें लोक कल्याणार्थ जैन सधि चाहते थे। साधू के पास कोई भौतिक बल नहीं होता, उसे केवल तपबल का आधार होता है और उसी से वह अपने सभी कार्य जिन कार्यों से लोकोपकार्य होता है, की पूर्ति करता है। जैन साध अपने धर्म के प्रचार प्रसार के लिए ही पद यात्रा करते हैं। व्रतों का पालन करते हैं। उन्होंने अपने प्रज्ञाबल से ऐसे मुगल बादशाहों को आकृष्ट किया जिनका एक छत्र राज्य भारत पर था। तथा उन्होंने राजनीति में धर्म की समावेश कराकर अपने आदशी की स्थापना की आचार्य हीरविजयसूरिजी एवं अन्य जैनाचार्यों जो मुगल दरबारों में पहुंचे उनका लक्ष्य था कि अगर शासन को अपने ज्ञान के प्रतिबोध से आकृष्ट कर लिया तो वह अपनी राजनीति में उस प्रतिबोध के प्रभाव से अवश्य ही धर्म का समावेश करेगा, जिससे एक व्यक्ति का नहीं, अपितु, समूचे.. राष्ट्र का हित होगा। इसी भाव से उन्होंने मुगल बादशाहों को प्रतिबोध दिया क्योंकि उस समय भारत पर मगल सम्राटों का ही आधिपत्य था। राजपूत काल में हम देखें तो इससे भी यह स्पष्ट होता है कि जैन साधुओं ने केवल मुगल बादशाहों को ही नहीं, अपितु अन्य सम्राटों को भी अपने सद्उपदेशों से प्रभावित किया । हेमचन्द्राचार्य ने चौलुक्य वंश के चन्द्रमा कुमार. पाल को सत्य अहिंसा आदि गुणों को ग्रहण कर दुर्गगों के त्याग का उपदेश दिया तथा उसते,व्रत पालन की प्रतिज्ञा की। विशेष तिथियों पर पशु-वध निषेध कर दिया इस प्रकार जैन धर्म की शिक्षा का सबसे अधिक प्रभाव राजाओं पर ही हुआ। जिनप्रभसूरि, जिनदेवसूरि, रत्नशेखर, जैनाचार्यों ने सल्तनत युग में तत्कालीन सुल्तानों पर अपना प्रभाव डाला इनमें मुहम्मद तुगलक, फिरोज तुगलक; अलाउद्दीन खिलजी के नाम आते हैं जिनप्रभुसूरि ने 14 वीं शताब्दी में तुगलक Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 146) सुल्तान मुहम्मदशाह के दरबार में गौरव प्राप्त किया एवं सेवा कार्य के फलस्वरूप अनेक फरमान जारी किये । जैन साधुओं का प्रभाव मुगल सम्राटों पर भी हुआ यह सर्व विदित है लैकिन ऐसा नहीं कि उनका प्रभाव किसी एक ही पीढ़ी पर हुआ हो यह प्रभाव परम्परागत बना रहा क्योंकि अकबर ने अपने पुत्रों को शिक्षा दिलाने के लिए जैन साधुओं को रखा एवं जहांगीर ने भी अपने पुत्रों को शिक्षा दिलाने के लिए भानुचन्द्रजी को गुजरात से मोडू बुलाया, क्योकि जहांगीर मे स्वयं जैन साधुओं से शिक्षा ग्रहण की थी इसी शिक्षा एवं पारिवारिक परम्परा का प्रभाष है, कि मुगल सम्राटों ने अपने शासनकाल में जैन साधुओं को सम्मानित कर अपने दरबार में बुलवाया तथा उनसे धर्मोपदेश ग्रहण कर लोक कल्याण कारी कार्य किये । इन धर्मप्रदेशों का प्रभाव क्रमशः इतना प्रगाढ़ होता गया कि सम्राटों की अभिरूचि जैन उपदेशों के श्रवण, मनन एवं चिन्तन में अधिक हो गई। ऐसा पता उस समय के विदेशी पर्यटकों के विवरण से भी मिलता है। पिनहरों नाम के पुतंगीज पादरी ने लाहौर से 3 सितम्बर 1595 के दिन एक पत्र लैटिन भाषा में अपने देश में लिखा जो अकबर के जन सम्प्रदाय के अनुसार आचरण करने की पुष्टि करता है । जिसका अंग्रेजी अनुवाद करके डॉ स्मिथ ने अपने 2-11-1918 के पत्र के साथ शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्री विजयधर्म सूरिजी को भेजा सम्पूर्ण पत्र के लिए देखिये परिशिष्ट न. 8. जैनाचार्यों का समन्वयवादी दृष्टिकोण राष्ट्र निर्माण एवं सामाजिक उत्थान की भावना से प्रेरित था क्योंकि हम देखते हैं कि उन्होंने मुगल शासकों से मिल. कर उन्हें प्रतिबोध दिया। समाज कल्याण के कार्य करवाये, मगर ऐसा कोई काय नहीं करवाया जिसका विरोध समाज के किसी भी वर्ग ने किया हो यानि उनके कार्य जैन, अजैन, हिन्दू, मुस्लिम सबके हित की दृष्टि से किये गये । राजनीति में पारंगत शासक की बुद्धि का क्षेत्र व्यापक होता है तथा वै.जो भी कार्य करते हैं उसे राष्ट्र के परिपेक्ष्य में देखकर ही करते हैं, इसी कारण जैन साधुओं ने जो काय मुगल बादशाहों से करवाये उनका किसी ने विरोध नहीं किया। निष्कर्षतः हम देखते हैं कि जैन आचार्यों एवं मुनियों को मुगल बादशाहों को प्रभावित करने का मुख्य लक्ष्य समाज एवं राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांधना एक शान्ति स्थापित करना था । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट । महाराणा प्रताप का श्री हीरविजयसूरिजी को पत्र "स्वस्त श्री मगसुदाग्रह महासुभस्थान सरव औपमालाअंक भट्टारकजि महाराज श्री हीरवजेसूरजि चरणकमला अणे स्वस्तश्री वजेकटक चांवडरा डेरा सुथाने महाराजाधिराज श्रीराणा प्रतापसिंहजी ली, पगे लागणो बंचसी। अठारा समाचार भला है आपरा सदा भला छाईजे । आप बड़ा है, पूजनीक है, सदा करपा राखे जीसु ससह (श्रेष्ठ) रखावेगा अप्रं आपरो पत्र अणा दनाम्हे आया नहीं सो करपा कर लषावेगा । श्रीबड़ा हजुररी वमत पदारवो हुवो जीमें अठासु पाछा पदारता पातसा अकब्रजीने जेनाबादम्हे ग्रानरा प्रतिबोद दीदो जीरो चमत्कार मोटो बताया जीवहंसा (हिंसा) छरकली (चिड़िया) तथा नामपणेरू (पक्षी) वेती सो माफ कराई जीरो मोटो उपगार किदो, सो श्री जेनरा ध्रममें आप असाहीज अदोतकारी अबार कीसे (समय) देखता आपजु फेर वे न्हीं आवी पूरव हीदुसस्थान अत्रवेद गुजरात सुदा चारू हसा म्हे धरमरो बडो अदोतकार देखाणो, जठा पछे आपरो पदारणों हुवो नहीं सो कारण कहं वेगा पदारसी आगे सु पटाप्रवाना कारणरा दस्तुर माफक आप्रे हे जी माफक तोल मुरजाद सामो आवो सा बतरेगा श्री बडाहजुररी वषत आप्री मुरजाद सामो आवारी कसर पडी सुणी सो काम कारण लेखे भूल रही वेगा जीरो अदेसो नहीं जाणेगा । आगेसु श्रीहेमाआचरणजी ने श्री राजम्हे मान्या हे जीरो पटो करदेवाणो जिमाफक अरो पगरा भटारषगादीप्र आवेगा तो पटा माफक मान्या जावेगा। श्रीहेमाचारजी फेलां भी बडगच्छरा भटारषजी ने बडा कारणसुश्रीराजम्हे मान्य जि माफक आवेगा श्री हेमाचारजी पगरा गादी प्रपाटहवी तपगच्छराने मान्या जावेगारी सुवाये देसम्हे आप्रे गच्छरो देवरो तथा उपासरो वेगा जीरो मुरजाद श्रीराजस वा दुआ गच्छरा भटारष आवेगा सो राषेगा श्रीसमरणध्यान देव जात्रा जठे साद करावसी भूल सी नहीं ने बेगा पदारसी" | प्रबामगी पंचोली गोरो सम्बत् 1635 रा वर्ष आसोज सुद 5 गुरुवार Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 खम्भात में विजयसेनसूरिजी की पादुकाएं वाले पत्थर का लेख 1160 सम्वत् 1672 वर्षे माघसितंत्रयोगश्यों रवी "वृद्ध शाखीय । स्तम्भतीर्थनगरवास्तव्य उसवाल ज्ञातीय सा० श्री महल भीयाँ मौहणदे लघुभूत सा0 जगसी भर्या तेजलदे सुत सा० सोमा नाम्ना भगिनी धमई भार्या सहजलदेवं वयजलदे सुतः सा० सूरिजी स (रा) मजी प्रमुख कुटुं बयुतेन स्वश्रेयसे श्री अकबर सुरत्राणदत्त बहुमाम भट्टारक, श्रीहीरविजय सूरिपट्टपूर्वाचल तटीसहस्त्रकिरणानु कारकांणां । ऐदयूगीनराधिपति चक्रवतिसमान श्री अकबरें छत्रपति प्रधान पैदि प्राप्त प्रभूतभट्टाचार्या दिवादिवृदंज यवादलक्ष्मीधारणकोणा। सकलेलुविहितभट्टार. कपरंपरापुरं दराणां । भट्टारक श्रीविजयसेनसूरीश्वरोणी पादुकोः प्रात्तुर्गस्तूपसहिताः कारिताः प्रतिष्ठापिताश्च महामहः पुरः सरं प्रतिष्ठिताश्च श्रीतपागच्छे । भी श्रीविजयसेनसूरिपट्टालंकार हार सौभाग्यादिगुणांधीरसुविहित सूरिशंगार भट्टारक श्रीविजयदेवसूरिभिः । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 3 सूर्यसहस्त्रनामस्तोत्रम् - आदिदेव, आदित्य, आदितेजाः, आप, आचारतत्परः, आयुः आयुष्मान, आकाश, आलोककृत, आमक्त, ऊकार, आरोग्य, आरोग्यकारण, 'आशेग, आतप, आतपी, आत्मा, आत्रय, असह, असगगामी, असुरांतक, स्त्रपति, अहस्पति, पहिसमान् (पा० अहिमान) अहिमांशुभेत:-तिः, हिमकर अहिमरूकु, हिमचिः अहिंसके, अहम्मणि, उदाकर्मा, अद्वितीय, उदीच्य वेश, अयोपतिः अभयप्रदः, अभिनन्दित , अभिष्टुंतः, अब्जहस्तः, अन्जबांधवः, अपराजित, अमेय, उच्चमिच्युतः अजय, अचल, अचिन्त्य, अचिन्त्यान्मा, अचर, अजित, अधिचिन्त्यवपुः 'अव्यय, मध्यागधारी, जित, अयोनिज, ऍधन, एक एकाकी, एकचक्ररथ, एकनाथ, ईश, ईश्वर, अविष्टकर्मकृत उग्ररूप, अग्नि, अकिंचर, अक्रोधन, अक्षर, अलंकार, अलंकृत (पा0 अलंकृत) अमाय, अमेयात्मा, अमरप्रभु, अमरश्रेयष्ठ, अमित, अमितात्मा अगु, इन अनायस, अंधकारपह, इन्द्र, अंभ, अंभोजबाधु, अंबुद, अंबरभूषण, अनेक अगादक, अंगिरा, अनल, अनलप्रभ, अनिमित्तगति, अनंग, अन्न, अन्नत, अनिर्देश्य अनिर्देश्वबपु, अशु; अंशुमान, अंशुमाली, अनुत्तम, अरिहीं (100) अरहनआएम विदोक्ष, अर्यमा, अर्क, अरिमर्दन, अरूणसारथि, बध्वस्थ, अशीखरश्मि उहकर अधिवन, अशिशिर, अंतुलद्यति, अतीन्द्र, अतीन्द्रिय, उत्तम, · उत्तर, साधु, सान मो, आवित्री, सविता, (पा0 साविता) सायन, सौष्य (ख्य) सागर, साम, सामवेडा सारंगन्धवा, सहस्त्राक्ष, सहस्त्रांशु, सहस्त्रधामा, सहस्त्रदीधितिः, सहस्त्रपात, सह चक्षुः, सहसत्रक्षोत्रः, सहस्त्रकरः, सहस्त्रकिरण, सहस्त्र रश्मि, सदयोगी, सदागति, धर्मा, सिद्धः, सिद्धकार्य, सभाजित्, सुप्रभ, सुप्रदीपक, सुप्रभावन, प्रभावकुर, प्रिय, सुपर्ण, सप्ताचिः, सप्ताश्रव , सप्तजिह, , सप्तलोकनमस्कृत, सप्तमीप्रिय, प्तिमान' सप्तप्सि, सप्ततुंरग, स्वस्वाहाकार, सवाहरन, स्वाहाभुक, स्वाचार, वाकू, सुसंयुक्त, सुस्थित, स्वजन, सुवैश, सूक्ष्म, सूक्ष्मधी, सोम, सूर्य, सुवर्चा सुवर्ण, वर्ण, स्वर्णरेता, सुविषिष्ट, सुवितान, सैहिकेयरिपु, स्वयंविभु, सुख्द, सुखप्रद, सुखी, खसेव्य, सुकेतन, स्कंद, मुलोचन, समाहितमति, समायुक्त, समाकृति, सुमहाबल, मुद्र, सुमूर्तिः सुमेधा, सुमगाः, सुमनोहर, सुमंगल, समति, समत, समतिनय, नातन, ससारार्णवतारक (200) संसारगतिविच्छेत्ता, संसारारक, सहर्ता, पूरम, सम्पन्न, सम्प्रकाशक, सम्प्रतापन, सन्चारी, सन्जीवन, संयम, सविभाग्य, Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 150 ) संवर्तक, संवत्सर, संवत्सरकर, सुनय, सुनेत्र, संकल्प, संकल्पयोनि, संतापन, संतान कृत, संतपन, सुराध्यक्ष, सुरावत, सुरारिह, सगरि, सर्वसद, सर्वर्भानु, सर्वद सर्वदर्शी, सर्वप्रिय, सर्ववेदप्रगीतात्मा, सर्ववेदालय, सर्वरत्रमय, सुरपूजित, सर्वलोक प्रकाशक, सुरपति, सर्वशनिवारण, सर्वतोमुख, सर्व, सर्वात्मा, सर्वस्व, सर्वस्वी, सर्वदयोत, सर्वदयुतिकर, सर्वजितांबर, सर्वोदधिस्थितिकर, सर्ववृत्त, सर्वमदन, सर्वप्रह रणायुध, सर्वप्रकाशक, सर्वग, सर्वज्ञ सर्वकल्याणभाजन, सर्वसाक्षी, सर्वशस्त्रभृतांवर, सुरेश, सर्ग, सर्गादिकर, सुरकार्यज्ञ, स्वर्णकार, स्वर्गप्रतर्दन, सुग्वी, सुरमणि, सुरनिभाकतिसुरेश्रेष्ठ, सृष्टि, स्त्रष्टा, श्रेष्ठात्मा, सृष्टिकृत, सृष्टिकर्ता, सुरथ, सित, स्थावरात्मक, स्थानम्थूलदकू, स्थविर, स्टेय, स्थितिमान्, स्थितिहेतु, स्थिरात्मक, स्थितिस्श्रेय, स्थितिप्रिय, सुतप, सत्व, स्त्रोत, सत्यवान, सत्य, सत्यसन्धि, हुव, होम, होमांतकरण, होता, हयग, हेलि, हिमद, हंस, कर, हरि, हरिदृष्य (300) हरिप्रिय, हर्यश्रय, हरी, हिरण्यगर्भ, हिरण्यरेता, हरिताश्व, हेत, हुताहुति, द्यौः; दुःस्वप्रापशुभनाशन, धराधर, धाता, ध्वांतापह, ध्वांतसूदन, ध्वांतविषेषी, ध्वांतहा, धुमकेतु, धीमान्धीर, धीरात्मा, धन, धनाध्यक्ष, धनद, धनंजय, धन्वन्तरि, धन्य; धनुर्धर, धनुष्मान् धुव, धर्म, धर्माधर्म, प्रवर्तक, धर्माधर्मवरपद, धर्मद, धर्मध्वज, धर्मवृक्ष, धर्मवत्सल, धमकेतु, धर्मकर्ता, धर्मनित्य, धर्मरत, धरणीधर धर्मराज, धृतातपत्राप्रतिम (पत्राअप्रतिम) धृतिकार, धुतिमान्, दिवा, द्वादशात्मा, द्वापर, दिवापुष्ट, दिवापति, दिवाकर, रिवृत, दिवसपति, दिविस्थतं, दिव्यवाह, दिव्यवपुः, दिव्यरूप, दयुवम, दयालु, देहकर्ता, दीधितिमान्, दीप दीप्तांहूं, दीप्तदीधित, देव, देवदेव, ध्योत, ध्योतितानल, दिपति, दिग्वासा, दक्ष दिनाधीश, दिनबन्ध, दिनमणी, दिनकृत, दिनानाथ, दुराराध्य, पापनाशन, पावन भास्वान्, भास्कर, ससंत, भासत, भासित, भावितात्मा, भाग्य, भानु, भानेमि भानुकेसर, भानुमान (?) भानुरूप, बहुदायक, भूधर, भवद्योत् भूपति, भूष्ट (400) भूषणोन्दासी, भोगी, भोक्ता, भुक्नपूजित, भुवनेश्वर, भूष्णु, भूतादि, 'भूतां तकरण, भूतात्मा, भूताश्रय, भूतिद, भूतभव्य, भूतविभु भूतप्रभू, भूतपति, भूतेश, भयांतकरण, भीम, भीमत, भग, भगवान् भक्तवत्सल, बहुमंगल, बहुरूप, भृताहार, भिषग्वर, बुद्धिबुद्धिवद्धन, बुद्धिमान, बन्ध, पदमहस्त, पद्मपाणि, पद्मबन्धु, पद्मः योगी, पद्मयोनि, पदमोदरनिभानन, पदमेक्षण, पदमावली, पदमनाभ, पदिमनीश, विभावस, विचित्ररथ, पवित्रात्मा, पूषा, ब्योममणि, पीतवासा, पक्षबल; बलभृत, बलप्रिय, बलवान, बली, बलिनांवर, पिनाकधुक्य, बिन्दु, बन्धु, बन्धहा, पुंडरीकाक्षा पुण्य, संकीर्तन, पुण्य हेतु, पर, प्राप्तयान, परावर, परावरश्र, परायण, प्राज्ञ, पराक्रम प्राणधारक, प्राणवान्, प्रांशु, प्रसनात्मा प्रसन्न वदन, ब्रह्मा, ब्रह्मचर्यवान्, प्रद्योत प्रदयोतन, प्रदयोत, प्रभावन, प्रभाकर, प्रभजन, परप्राण, परपुरंजय, प्रजाद्वार, प्रजापति, प्रजन, प्रजन्यप्रिय, प्रियदर्शन, प्रियकारी, प्रियकत, प्रियंवद, प्रियंकर Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 131 ) प्रयत, प्रीति, प्रयतात्मका, प्रीतात्मा, प्रयतांनन्द, प्रीति मना, प्रकाश (500) रूषोतम, प्रकृति, प्रकृतिस्थिति, पृथ्वी, प्रथित, प्रत्यूह. वृषाकपि, परमोदार, परपष्ठी, पुरन्दर, प्रणतात्तिहा, प्रगात्तिहर, परंतप, प्रेरेता, प्रशान्त, प्रशम, प्रतापन, तापवान पुरूष, वृषध्वज, वि, विश्वमित्र, विश्वंभर, पशुमान, विश्तापन, पिता पतामह, पतग, पतंग, पितृद्वार, पुष्कलनिभ, बषटुकार, ज्यायानजा, जामदग्यजित्, वारूचरित, जाठर, जातवेदा, छन्दवेदा, छन्दवाहन, योगी, योगीश्रवरपति, योगा'नत्य, योगतत्पन, यो (ज्यो) तिरीश, जयजीव, जीवानन्द, जीवन, जीवनाथ, जीमूत जनप्रिय, जेता-जगत् युगादिकृत, युग, युगातव, जगदाधार, जगदादिज, जगदानन्द जगदीप, जगज्जेता, चक्रसन्धु, चक्रवत्ति, चक्रपाणि, जगन्नाथ, जगत्, जगतामंतकरण, जगतापन्ति, जगत्साक्षी, जगत्पति, जगतिप्रिय, जगप्सिता, यम, जनार्दन, जनानन्द, डकर, जनेश्वर, जंगम, जनयिता, चराचरात्मा, यशस्वी, जिष्णु, जितावरीश, 'जतवपुः, जितेन्द्रिय, चतुर्भुज, चतुर्वेद, चतुर्वेदमय, चतुर्मुख, चिद्धांगद, वासुकि, वास रेशिता, वासरस्वामी, वासरप्रभु, सरप्रिय, वासररेष्वर, वाहनातिहर, वाय, धायुवाहन, वायुरत, वाग्विशारद, वाग्मी, पारिधि (600) मारण, 'वसुदाता, बसुप्रद, वसुप्रिय, वसुमान, विसृज, बिहारी, विहगवाहन, विहं, विहंगम, विहित, 'वधिविधाता,विधेय, वदान्य, विद्वान, विद्योतन, विद्या, विद्यावान, विद्याराज, विद्युत, विद्य तमान, विदिताशय, विपाप्मा, विभावसु, विभवचसापति, विजय, विजयप्रद, 'वजेता, विचक्षण, विवस्त्रान, विविध, विविधासन, वज्जधर, व्याधिहा, व्याधिनाशन, ज्यास बंदांग, वेदपारग, वेदभृत, वेदाहवाहन, वेदवेछयं, वेदवित्, वेद्य, वेदकर्ता, वैदमुर्ति, बैदनिलय, ध्योमग विचित्ररथ, ब्योर मणि, देदवान् विगतात्मा, वीर बैश्रवण, विगाही. विश्शमन, विषण, विग्रह, विकृति, वक्ता व्यक्ताव्यक्त, विगतारिष्ट, विमल, विमलेदयुति, विमन्यु, विमी, (र्षी) विनिद्र, विराट, विराट, बहस्पति, बृहत्कीति, वृहज्जेता, बुहन्तेजा, पद, वरदाता, बुद्धिबुद्धिद, वरप्रद, वर्चस, विरूपाक्ष, विरोचन, वरीयान, वरुण, वरनायक, वर्णाध्यक्ष, वरुणेश, वरेण्य-वरेण्यवृत्त, वृत्तिधन, वृत्तिचारी, विश्वामित्र, वत्ति, वशानुग, विशाष ख) विश्मेश्वर, विश्योनि, विजित, विवित, विशोक, विशविविष्णुविश्वात्मा, विश्वभाजन, विश्वकर्ता, विनिलय, (700) विश्वरूंगी, विष्तोमुख, विशिष्ट, विशिष्टात्मा, विषाद, यज्ञ, यज्ञपति, काक, काल, कालनलति, कालहा, कालचक्र, कालचक्रप्रवर्तक, कालकर्ता, कालनाशक, कालत्रय, काम, कामारि, कामद, कामचारी, काक्षिक, कांति, कांतिप्रद, कार्यकारण, वह, कारूणिक, कार्तस्तर, काश्यपेय, काष्टा, कपि, कुबेर, कपिल, गभस्तिमान्, मभस्मिली, कपर्दी, ख, खतिलक, खदयोत, खोल्का, खग, खगसत्तम, धर्मासू, वृणी, घृणि मान, कवि, कवच कवची, गोपति, गोविन्द, गोमान, ज्ञानशोभन, ज्ञानवान, ज्ञानगम्य, ज्ञेय, केयूर, कीति, कीर्तिवर्द्धन, कीर्तिकर, केतुमान, गमनकेतु, गगनमणि, कला, कल्प, कल्पांत, कल्पांतक, कल्पातकरण, कल्पकृत, कल्पक-कल्पक, कल्पकर्ता, कल्पितांबर, कल्याण, कल्याणकर, कल्याणकृत, कपिकालज्ञ, कल्पवपु, Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 152 ) कल्मषापहू, कमलाकरबोधन, कमलानंद, गुण, गन्धवह, कुण्डली, गति, कज्जुकी; 'गुणवान, गणेश, गणेश्वर, गणनायक, गुरूगृहद, गृहपुष, गृहपति, ग्रहेश, ग्रहेश्वर, गुण, ग्रहण मंडन, क्रियाहेतु, क्रिकावान, गरीयान, किरीटी, कम्मसाक्षी, करण, किरण, कर्णेर्स, कृष्णवासा, कृष्णवर्मा, कृतकर्म्मा ( 800 ) कृताहार, कृतांता, कृतातिथि, कृनात्मा, कृतविश्व, कृती, कृत्यकृत्य, कृतंमंगल, कृतिनांवर, क्षांति, क्षधाज, क्षेम, क्षेमस्थिति, क्षेमप्रिय, क्षमा, कश्मलापह, गतिमान्, लोहितांग, लोकाध्यक्ष, लोकालोकन पस्कृत, लोकबन्धु, लोकवत्सल, लोकेश, लोककर, लोकनाथ, लोकसाक्षी, लोकत्रयासा, लय, मासमानिदामा, मांधाता, मानी, मारुत, मास्तडि, "मातो, मातर, महाबाहु, "महाबुद्धि, महाबल, महायोगी, महायशाः महावैद्य, "महावीय, महावराह, महावृत्ति, महाकारुणिकोत्तम, महाभाय, महामंत्र, महात्, महारथ, महास्ते (अ) ताप्रिय, महाशक्ति, महाशनि, महावेजा, महात्मा, मुहुर्त, महेन्द्र, महोत्साह, महेच्छ, महेश, महेश्वर, मिहिर, महित, महत्तर, मधूसूदन, मोक्षदायक, मोक्ष, मोक्षर्धर, मोक्षहेतु, मोक्षद्वार, मौनी, मेघा, मेघावी, मेधिक, मेध्य मेरुमेय, मुकुट, मनुमुनि, मंदार, संदेहक्षेपण, मनोहर, मनोहररूप, मंगल, मंगलालय मंगलवन, मंगली, मंगलकर्ता, मंत्र, मंत्रमूर्ति, मरीचिमाली, मृत्यु, मरूतांपति, मिष्टा स्वार, मर्ति, मतिमान्, नाकार, नाकपालि, नागराष्ट्र, नारायण, नाथः नभ, नअम्बान 'नमीविगाहर, नमकैतन, नूतन, नोत्तर, नयनेकरूप, नैकरूपात्मा, नीलकण्ठ, नील लो "हित, नेता, नियतात्मा, निकेतने, निक्षुपाभपति, नंदिवर्धन, नंदन, नर, निराकुल निराकार, निबन्ध, निर्गुण, निरंजन, निर्णय, नित्योदित, नित्य, नित्यगामी, निरं जर, नित्यरथ, राजा, राश्रीप्रिय, राज्ञापती, रवि, रविराज, रूचिप्रद, रूद्र, ऋद्धि, 'रोचिष्णु, रोगहा, रेणु, रेणुक, (पा० रेणव) रेवंत, हृषीकेश, रक्षोन्ध, रक्तांग, रश्मिमी, रि (ऋतु (900) रथाधीश, रथाध्यक्ष, रथारूढ़, रथपति, रथी रथिनांवर, शांतिप्रिय, शास्त्र (श्रव) त, साष्ठाक्षर, शुद्ध, शुभ, शुभाचार, शुभप्रद, शुभकम्म, dioदर, शुची, शिव, शोभा, शोभन, शुभ्र, सुर, शीघ्रग, शीघ्रगति, शीर्ण, शषशुक, शुग, सेक्तिमान्, शक्तिमता, श्रेष्ठ, शंभु शनैश्चर, शनैश्रपिता, शब्वं, श्रीधर, श्रीपति, श्रेयस्कर, श्रीकण्ठ, श्रीमान्, श्रीमतांवर, श्रीनिवास, श्रीनिकेतन, श्रेष्ठ हरिण्य, शरण्यात्तिहरे श्रुतिमान् शतबिन्दु शतमुख, तापी, तापन, तारापति, तावान, तपन, तपनांबर, विषामीश, त्वरमाण, स्वष्टा, तीव्र, तेज, तेजसांनिधि, तेजसा पति, तेजस्वी, तेजोनिधि, तेजोराशि, तेजोनिलय,, तीक्ष्ण, तीक्ष्णदीधिति तीर्थ, तिग्मांशु, ममिश्र, (स्व) हा, तमः, तमोहर, तमोनुद, तमोरांति, तपोध्न, तिमिराह, त्रिविष्टप, त्रिविक्रय, त्रय, नेता, त्रिकंसस्थित, त्रयक्षर, त्रिलोचन तरणिsias, त्रिलोकेश (1000) 25 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 4 अलबदायूनी के अनुवादक डब्ल्यू. एच. लॉ ने "श्रमण" ' शब्द का प्रयोग किया है जबकि यहां सेवड़ा होना चाहिये क्योंकि उस समय जैन साधू सेवड़ा (श्वेताम्बर जैन) के नाम से जाने जाते थे । इसका प्रमाण है कि आज भी पंजाब में अजैन जैनों को भावड़ा कहते हैं जिन्हें मुगल काल में सेवड़ा कहा जाता था। अनुवादक ने अपने अनुवाद के फुटनोट में श्रमण का अर्थ बौद्ध श्रमण किया है । जो उचित नहीं है । क्योंकि बादशाह के दरबार में बौद्ध श्रवण तो कोई गया ही नहीं। यह बात तो निर्विवाद है कि अकबर के दरबार में रहने वाले शेख अबुलफजल और बदायूनी अकबर के समय का खास इतिहास लिखने वाले हैं। अकबर के विषय में आज तक जो लिखा गया है उन्हीं के ग्रन्थों के आधार से लिखा गया है उन्होंने अकबर के ऊपर प्रभाव डालने वालों में जैन साधुओं का नाम तो दिया है, हालांकि जैन साधू न लिखकर "श्रमण" "सेवडा" या यति शब्द का प्रयोग किया है उन्होंने यह भी लिखा हैं कि अकबर के दरबार में जैन “साधू गये और इन साधुओं का अकबर पर बहुत प्रभाव पड़ा । अबुलफजल ने तो अकबर की धर्म सभा के 140 सदस्यों में तीन जैन साधुओं हरिजी सूर (हीरविजयसूरि) बिजसेन और भानचन्द (विजसेन और भानुचन्द) के नाम भी दिये हैं। लेकिन बाद में जितने इतिहास लेखक और अनुवादक हुए उन्होंने यह जानने का प्रयत्न नहीं किया कि ये कौन हैं ? और किस धर्म के अनुयायी हैं । यदि वे जैन धर्म से परिचय करते तो उन्हें तत्काल ही पता चल जाता है कि वे बौद्ध श्रमण या अन्य धर्म वाले नहीं बल्कि जैन साधू ही हैं इस सत्य को खोजने का कार्य यदि किसी ने किया है तो वे हैं "अकबर व ग्रेट मुगल" के. लेखक डॉ. विन्सेन्ट ए स्मिथ, उसने अपनी खोजबीन के बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि "अबुलफजल और बदायूनी" के ग्रन्थों के अनुवादकों ने अपनी अनभिज्ञता के कारण ही जैन शब्द की जगह "बौद्ध" शब्द का प्रयोग किया है । क्योंकि अबुलफजल ने तो अकबरनामा में लिखा है कि-"अकबर की धर्म सभा में सूफी, दार्शनिक, वक्ता, विधिज्ञाता, सुन्नी, शिया, ब्राह्मण, यति, सेवडा, चार्वाक, यहूदी, सानी, (ईसाइयों का एक सम्प्रदाय) Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 154 ) और पारसी आदि अन्य लोग सम्मिलित हुए:1 इस स्थान पर यति और सेवड़ा शब्द जैन साधओं के लिए आये हैं, न कि बौद्ध साधुओं के लिए । वास्तविकता तो यह है कि अकबर को कभी किसी बौद्ध विद्वान से समागम करने का अवसर मिल्म ही नहीं जैसा कि अबुलफजल ने भी लिखा हैं कि-"चिरकाल से बौद्ध साधुओं का कहीं पता नहीं है। बेशक पेगू, तनासिरम और तिब्बत में ये लोग कुछ हैं। बादशाह के साथ तीसरी बार र मणीय काश्मीर की मुसाफिरी में जाते वक्त इस मत के (बौद्ध मत के) दो चार वृद्ध मनुष्यों से मुलाकात हुई थी, मगर किसी विद्वान से भेंट नही हुई थी इससे स्पष्ट होता है कि अकबर न कभी किसी बौद्ध विद्वान से मिला था और न कभी कोई बौद्ध विद्वान फतेहपुर सीकरी की धर्मशाला में सम्मिलित हुआ था। इतना होने पर भी किसी ने. यह जानने का प्रयत्न ही नहीं किया वि अकबर के दरबार में कोई बौद्ध साधू था या नहीं ? अथवा अकबर ने कभी बोर साधुओं के उपदेश सुने या नहीं? स्मिथ का कहना है कि चलमर्स ने अकबर नामा के अंग्रेजी अनुवाद में भूल से जैन और बौद्ध शब्द का प्रयोग कर दिय बस एक लेखक की भूल के बाद सभी लेखक भूल करते गये जिसका परिणाम यह हुआ कि जैन शब्द की जगह बोद्ध शब्द ही रह गया । स्मिथ ने तो यहां तक लिखा हैं कि "अकबर की बौद्धों के साथ न कभी भेंट हुई थी और न उस पर उनका प्रभाव ही पड़ा था, न बौद्धों ने कभी फतेहपुर सीकरी की धर्मसभा में भाग लिया थ और न कभी अबुलफजल के साथ किसी बौद्ध विद्वान साधू की मुलाकार हुई थी। इससे बौद्ध धर्म के विषय में उसका (अकबर) ज्ञान बहुत ही कम था धार्मिक परामर्श सभा में भाग लेने वाले जिन दो · चार लोगों के लिए और होने का अनुमान किया जाता है, वह भ्रम हैं वास्तव में गुजरात से आये हु। जैन साधू थे।" 1. अकबरनामा हिन्दी अनुवाद-मथुरालाल शर्मा पृष्ठ 472 2. आइने अकबरी-एच. एस. जैरेट द्वारा अनुदित भाग 3, पृष्ठ 224 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 5 विजयदेवसूरिजो का महाराणा जगतसिंह पर प्रभाव उदयपुर के महाराणा जगतसिंह ने आचार्य विजयदेवसूरिजी के उपदेश से प्रतिकर्ष पौष सुदी दसमी को वरकाना (गोडवाड) तीथं पर होने वाले मेले में आगन्तुक यात्रियों पर टैक्स लेना रोक दिया था और सदैव के लिए इक आज्ञा को एक शिला पर खुदवाकर मन्दिर के दरवाजे के आगे लगवा दिया था; जो कि अभी तक मौजूद है । राणा जगतसिंह के प्रधान झाला कल्याण सिंह के निमन्त्रण पर आचार्य विजयदेवसूरि ने उदयपुर में चातुर्मास किया । चातुर्मास समाप्त होने के समय एक रात दलबादल महल में विश्राम किया । तब महाराणा जगतसिंह सूरिजी को नमस्कार करने गये और सूरिजी के उपदेश से निम्नलिखित चार बातें स्वीकार की1-उदयपुर के पिछोला सरोवर और उदयसागर में मछलियों को कोई न पकड़े। 2-राज्याभिषेक वाले दिन जीव-हिंसा निषेध । 3-जन्म-मास और भाद्रपद में जीव-हिंसा निषेध । 4-मचिन्द्र दुर्ग पर राणा कुम्भा द्वारा बनवाये गये जैन चैत्यालय का पुनरुद्धारः 1. इन सब बातों का विवरण विजयदेवसूरि माहात्म्यम, देवानन्द महाकाव्य एवं दिविजय महाकाव्य में मिलता है । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 6 कच्छ मोटी खाखरना देशसरनो शिलालेख व्याकरण काव्य साहित्य नाटक संगीत ज्योतिष बन्दोडलंकार कर्कशते शैव जैन चिन्तामणि प्रचंग खम्मन मीमांसा स्मृति पुराण वेद श्रुति पद्धति षटत्रिंशत्वसहस्त्राधिक 6 लक्षमित श्री जैनागमप्रमुख स्वपर सिद्धान्त गणित जाग्रद्यावनीयादि षडदर्शनी ग्रन्थ विशदेति ज्ञान चातुरी दलितर्वादिजनोन्मादः ब्राहीया. वनीयादि लिपि पिछालिपी विचित्र चित्रकला छटोज्जवाल नावधि विधीयमान विशिष्ट शिष्टचेतश्रचमत्कार कारि श्रृंगारादिरस सरस चित्रादलांकारालंकृत सुरेन्द्र भाषा परिगणि भवरू नष्ट काव्य षटत्रिंशद्रागिणी गणोपनीत परम भाव राममाधुर्य श्रेतृजनामृत पीतगीत रास प्रबन्ध परम भाव रागमाधुर्य श्रतजनामृत पीत गीतरास प्रबन्ध नाना छन्दः प्राच्यमहा पुरूष चरित्र प्रमाण सूत्रवृत्यादि करण यथोक्त समस्या पूरण विविध ग्रंथग्रंथनेन नेक इलोकशत संख्यकरणादि लब्धगीः प्रसादः श्रोतृश्रवणामृत परणानुकारि सर्वराग परिणि मनोहारि मुख नादैः स्पष्टाष्टावधान शतावधान कोष्टकपूरणादि पांडित्यानुरंजित महाराष्ट्र कौंकणेश श्री बुहार्नशाहि महाराज श्री रामराज श्रीखानखाना श्रीनवरंगखान: प्रभृत्यडनेक भूपबत्त जीवामारि प्रभूत बन्दिमोक्षावि सुकृत समजित यशःप्रवादः प. श्री विवेक हर्षगणि प्रसाईरस्मवगुरुपादैः संसघाट कैस्तेषामेव श्री परमगुरूणा मादेश प्रसाद माराज श्री भारमल्लजिदाग्रहानुगा मिनमासाव्य श्री भक्तामरादि स्तुति भक्ति प्रसन्नी भूत श्री ऋषभदेवोपासक सुर विशषज्ञया प्रथम विहारं श्री कच्छदेशंत्रं चक्रे तत्रच सम्वत् 1656 वर्ष श्री भुज नगरे आद्यं यतुर्मासंक द्वितीयच राजपुर बन्दिरे तदाव श्री कच्छा मच्दुकांग परिचम पांचाल वागड जैसला गंडलायनेडक देशाधीशमहाराज श्री खंगार जी पट्टालेकरणकिरण काव्यादि परिझान सरस्वती महानवस्थान विरोध त्याजकर्यादववंश भास्कर महाराज श्रीभारमल्लजी राजाधिराजः (विज्ञप्ता) श्रीगुरूव स्ततस्तदिच्छापूर्वक संजिग्मिवांसः काव्य व्याकरणादि गोष्ठया स्पष्टावधानादि प्रचंड पांडित्य गुण दर्शनेन च रंजितः राजेन्द्रः श्री गुरूणां स्वदेशेषु जीवामारी प्रसादश्रके तद्धयक्तिर्यथा सर्वदापि गवामारिःपर्युषणा ऋषिपञ्चमीयुत नवदिनेषु तथा श्राद्धपक्षे सर्वेकादशी रविवार दर्शषु च तथा महाराज जन्मदिने राज्य दिने सर्व जीवामारिरिति सार्वदिकी सार्वत्रिकी चोटुघोषणा जज्ञे तदनु चैकदा Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 157 ) महाराज पाल्लविधीयमान न भोवाषिक विप्र विप्रतिपत्रो तच्छिक्षाकरण पूर्वक श्री गुरूभिः कारिता श्री गुरुमन्त्र नभस्यवाषिक व्यवस्थापिका सिद्धांतार्थ चुक्ति मा कर्ण्य तुष्टो राजा जयवादपत्राणि स्वमुद्रांकितानि श्रीगुरूश्यः प्रसादादुपठोकयतिस्म प्रतिपक्षस्य च पराजितस्य तादश राजनीति मासूत्रय श्रीराम इव सम्यग न्याय धर्म सत्यापितवान किंच कियदेवदस्मदगुरूणाम ॥यतः। यजिग्ये मलकापुरे विवदिषुमूलभिधानो मुनिः । श्री मज्झैनमत यन्नुतिपंद नीति प्रतिष्ठानके ॥ टटानांशतशोडपियासुमिलितासुदृदीप्य युक्तीजिता । यमों में श्रयितः स बोरिदपुरेवादी श्रवरोदेवजी ।। . जैन न्याय गिराविवाद पदवी मारोप्य निर्धाटितो। पाचीदेश गजलणा पुरवरे दिगंबराचार्य राद् ।। श्री मद्रामपरेन्द्र संसदि किलात्मारामवादीवर । कस्तेषां च विवेकहषं सुविधयामने धराचन्द्रकः ॥ किंचास्मद गुरूवक्त्रानिर्गत महाशास्त्रामृताधौरतः। सर्वत्रामितमान्यतामवदधे श्री मयुगादिप्रभोः ।। तदभक्यै भुजपत्तने व्यरवेचत श्री भारमल्लप्रभुः । श्री मद्रायबिहारनाम जिनप्रपासादमत्यद भुतम् ॥ । अथव सम्वत् 1656 वर्षे श्रीकच्छदेशांजेंसला मण्डले विहरन्दि श्रीगुरूभिः प्रबल धनधान्याभिरामं श्रीखाखर ग्राम प्रतिबोध्य सम्यग धर्मक्षेत्रं चके यत्राधीशौ महाराज श्रीभारमल्लजी भ्राता कुअरश्रीपंचायणी प्रमद प्रबल पराक्रमाक्रांत इक्चक्रश्चक्रबन्धु प्रताप तेजा यस्यपट्टराज्ञी पुष्पांबाई प्रभृति तनूजाः कुवर इजाजी, हाजाजी, भीमजी, देसर जी, देवोजी, कमोनी, नामानो रिपुगजघटाकेशरिण नत्रच शतशः श्रीऊशवालग्रहणि सम्यग् जिनधर्म प्रतिबोध्य सर्वश्राद्ध समाचारी क्षणेन च पतमश्राद्धी कृतानि तत्रच ग्रामग्रामणी भद्रकब दानशुरत्वादि ग्रणी तयशः प्रसर कपूर पूर सुभिकृत ब्रह्मांड भांड: शा वयरसिकः सकुटुम्बः 'गुरूगा तथा प्रतिबोधितो यथा तेन धधरशा शिवापेथा प्रभृति समवहितेन योपाश्र यः श्रीतपागण धर्मराजधानीव चक्रे तथा श्रीगुरूपदेशेनैव गुजर धरित्रयाः लातक्षकानाकार्य श्रीसम्भवनाथ प्रतिमा कारिता शा वय रसिकेन तत्सुतेनशा एयरनाम्ना मूलनायक श्री आदिनाथ प्रतिमा 2 शावीज्झाख्येन 3 श्रीविमलनाथ तिमाच कारिता तत्प्रतिष्ठा तृशा0 वयरसिकेनैव द0 1657 वर्षे माद्यसित 10 मे श्रीतपागच्छ नायक भट्टारक श्रीविजयसेन सूरिपरमगुरूणा मादेशाधस्यमव गुरु । विवेकहर्ष गणिकरेणेव कारिताः तदन्नत रमेषप्रसादोडप्यस्मद गुरूपदेशेनैन फाल्गुना त 10 सुमहत ऊबएस गच्छे भट्टारक श्री कक्कमूरि बांधत श्री आनन्दकुशल श्राद्धन शवाल ज्ञातीय पारिषिगौत्रे शा0 वीरापुत्र डाहापुत्र जेठापुत्र शा० खाखण पुत्र Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 158 ) नत्नेन शाo वयरसिकेन पुत्र शा० रणवीर शा० सायर शा० महिकरण स्नुषा ऊमा रामा पुरीपौत्र शाo मालदेव, शा० राजा, खेतल, खेमराज, वणवीर, दीदा प्रमुख कुटुम्बयुतेन प्रारभेः तत्र सान्निध्यकारिणी धंधरगोत्रीयो पौर्णमीयक कुलगुरू भट्टारक श्री निश्राश्राद्धो शा० कंथंड सुत शा० नागीआशा० मेरग नामानो सहोदरी सुत शा० पाचासा महिपाल मल प्रसादादात् कुटुं बयुतो प्रसादोडयं श्री शत्रुन्ज्य यावताराख्यः सम्बत् 1657 वर्षे फाल्गुन कृष्ण 10 दिने प्रारब्धः । सम्वत् 1659 वर्षे फाo शु० 10 दिनेडत्रसिद्धि नगर संघ श्रेयश्च सम्वत् 1659 वर्षे फा० सुद 10 दिने प० श्री विवेकहर्ष गणिभिजिनेश्वर तीर्थ विहारोडयं प्रतिष्ठितः प्रशस्तिरियं विद्या हर्षगणिभिविरचिताः संवता वैक्रमः । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहांगीर बादशाह का विजयदेवसूरिजी के नाम पत्र اسکر کونام این شماری اور نجات کشور ایران یکی از بنوانات شده بود و از میان رده اون از بن شاه جان دان زدت فولاد در اجتہاد کیا مراعات فردا از وی دی خام شاخه مقرات درباره همراه داران روز این رو پیدا و کار مورد برند تولید و در صورت کر متر خان اور اہم ترین درمان قرار دیا کہ دونج فنانة من 114 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट -7 जहांगीर बादशाह का विजयदेवसूरि के नाम पत्र ( अल्ला हो अकबर ) हक को पहचानने वाले, योगाभ्यास करने वाले विजयदेवसूरि को, हमारी खास मेहरबानी कर हासिल हो कि, तुमसे "पत्तन" में मुलाकात हुई थी इससे एक सच्चे मित्र की तरह (मैं) तुम्हारे प्राय: समाचार पूछता रहता हूं । ( मुझे ) विश्वास है कि तुम हमारे साथ सच्चे मित्र का ( तुम्हारा ) जो सम्बन्ध है उसको नहीं छोड़ोगें । इस समय तुम्हारा शिष्य दयाकुशल हाजिर हुआ है। तुम्हारे समाचार उसके द्वारा मालुम हुए । इससे हमें बड़ी प्रसन्नता हुई । तुम्हारा शिष्य भी अच्छी तरह तर्क शक्ति रखने वाला और अनुभवी है। यहां योग्य जो कुछ काम हो वह तुम अपने शिष्य को लिखना (जिससे ) हुजूर को मालुम हो जाये । हम उस पर हरेक तरह से ध्यान देंगे । हमारी तरफ से बेफिक्र रहना और पूजने लायक जान की पूजा कर हमारा राज्य कायम रहे इस प्रकार की दुआ करने में लगे रहना । लिखा ताo 19, महीना शाहबान, हिजरी सन् 1027 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 8 स्मिथ के पत्र का हिन्दी अनुवाद अकबर बादशाह ईश्वर और सूर्य को पूजता है, और वह हिन्दू है व्रती सम्प्रदाय के अनुसार आचरण करता है । वे मठवासी साधुओं की भांति बस्ती में रहते हैं और बहुत तपस्या करते हैं । वे कोई सजीव वस्तु नहीं खाते हैं बैठने के पहले रूई (ऊन) की पीछी (साधुओं का एक उपकरण ) से जमीन का साफ कर लेते हैं ताकि जमीन पर कोई जीव रहकर उनके बैठने इन लोगों की मान्यता है कि संसार अनादि है, मगर दूसरे कहते संसार हो गये हैं ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें लिखकर आप श्रीमान् को नहीं चाहता । से मर न जायें कि अनेक करना है चिन्तित 1. व्रती से तात्पर्य जैन साधुओं से ही है उस समय के बहुत से लेखकों ने जैन साधुओं के लिए व्रती शब्द ही लिखा हैं । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मिथ का मूल पत्र his King [Akbar ] ... worships God, Hindu [Gentiled; be us the Sun, and is a the sect of the Vartisie, who an like monks, in communities [Congregation], and das because. They eat nothing there has had life[amima), fore they sit domen, thy sivapp the place wither de of cotton, in order that it may not happen. si affronti) that with them WTM my must, vernice I may remain, and be killed i sitting holi that the would on it. There purple " from sternity, but others sey No, many would In this · passed away they say many things, which I omit so as not to Reverence. Whiting швикур 5 - Nieu A fuitte Road Oxford 116 Bankey Road 2 Nov. 1718. Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर बादशाह द्वारा आचार्य श्री हीरविजयसूरिजी f faqT THI HIT io1 ماء = مسامعه بارودی سرپرست این جشنواره با پر بیننده را مرداد بروید ا جنبی مردن کون منی بعدی سنتی است. من سامبل . 3. 5 ن یهان لن تعریف دهد می وا अकबरबादशाह का फरमान । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ हीरविजयसूरिजी को अकबर बादशाह का फरमान [ नम्बर 1] ( ईश्वर के नाम से ईश्वर बड़ा है ) मालवा के मुत्सद्दियों को विदित हो कि चुकि हमारी कुछ इच्छायें इसी बात के लिए हैं कि शुभाचरण किये जायें और हमारे श्रेष्ठ मनोरथ एक ही अभिप्राय अर्थात् अपनी प्रजा के मन को प्रसन्न करने और आकर्षण करने के लिये नित्य रहते हैं। इस कारण जब कभी हम किसी मत व धर्म के ऐसे मनुष्यों का जिक्र सुनते हैं जो अपना जीवन पवित्रता से व्यतीत करते हैं, अपने समय को आत्म ध्यान में लगाते हैं और जो केवल ईश्वर के चिन्तवन में लगे रहते हैं तो उनकी पूजा की बाह्य रीति को नहीं देखते हैं और केवल उनके चित्त के अभिप्राय को विचार के उनकी संगति करने के लिए हमें तीव्र अनुराग होता है और ऐसे कार्य करने की इच्छा होती है जो ईश्वर को पसन्द हो इस कारण हरिभज सूर्य (हीरविजयसूरि) और उनके शिष्य जो गुजरात में रहते हैं और वहां से हाल ही में यहां आये हैं । उनके उग्रतप और असाधारण पवित्रता का वर्णन सुनकर हमने उनको हाजिर होने का हुक्म दिया है और वे आदर के स्थान को चूमने की आज्ञा पाने से सन्मानित हुए हैं। अपने देश को जाने के लिए विदा (रूखसत) होने के पीछे उन्होंने निम्नलिखित प्रार्थना की यदि बादशाह जो अनाथों का रक्षक है यह आज्ञा दे दें कि भादों मास के बारह दिनों में जो पजूसर (पजूषण) कहलाते हैं और जिनको जैनी विशेषकर के पवित्र समझते हैं कोई जीव उन नगरों में न मारा जाये जहां उनकी जाति रहती हैं, तो इससे दुनियां के मनुष्यों में उनकी प्रशंसा होगी बहुत से जीव बध होने से बच जायेगें और सरकार का यह कार्य परमेश्वर को पसन्द होगा और चूंकि जिन मनुष्यों ने यह प्रार्थना की हैं वे दूर देश से आये हैं और उनकी इच्छा हमारे धर्म Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 162) की आज्ञाओं के प्रतिकूल नहीं है वरन् उम शुभ कार्यों के अनुकूल ही हैं जिनेय माननीय और पवित्र मुसलमानों ने उपदेश किया हैं। इस कारण हमने उनय प्रार्थना को मान लिया और हुक्म दिया कि उन बारह दिनों में जिनको पजस (पर्जूषण) कहते हैं, किसी जीव की हिंसा न की जावे। यह सदा के लिए कायम रहेंगी और सबको इसकी आज्ञा पालन करने और इस बात का यत्न करने के लिए हुक्म दिया जाता है कि कोई मनुष्य अपने धम सम्बन्धि कार्यो के करने में दुख में पावें। मिति 7 जमावुलसानी सन् 992 हिजरी। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर बादशाह द्वारा आचार्य श्री हीरविजयसूरिजी f faur TaT FRATT io 2 اور ان فی : منم : . او " م " اب و ۴ = . ر هن في - له دی چه علمها عند م ه کرنے سے عبونت بر این که خودتان و داود و النمو بدمنهور روز به میزبانی به بیمه در میدان های کرما ن ج و بد و اسمع ریل بروز روزنه های کاربری عمومی نرم بیرام نوری ای اولین بازی ه ا ی روز با همان کاری نکنی، از بین و . و . .. انجام غناوي انا مخنیوی در برخی به کشان به این دنیا به زمین کی تعمیر کو ان کی بازی با نوعی جنو بی وزیرستان کے دور ان م ن انا بھی جو نیکی مین دی بروین باری باری بھی ان کا نام بانی به معناها : مامون اندریاس اوور دن کو منانا اور مان لی اور پی پی پی رہنما اور میری سنت نت در اقدامی که در معاون اداری است. من خیس ، مد انیس سوساند او ات Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होर विजयसूरिजी को अकबर बादशाह का फरमान [ नम्बर 2] जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर बादशाह गाजी का फरमान जलालुद्दीन अकबर बादशाह हुमायू बादशाह का लड़का बाबर बादशाह का लड़का अमरशेख मिर्जा का लडका सुल्तान अबू सइद का लड़का सुल्तान मुहम्मदशाह का लड़का मीरशाह का लड़का अमीर तैमूर साहिब किरान का लड़का सूबा, मालवा, अकबराबाद, लाहोर, मुलतान, अहमदाबाद, अजमेर, गुजरात, बंगाल तथा दूसरे हमारे कब्जे में मुल्क का हाल तथा इसके बाद मुत्सदी सूबा करोरी तथा जागीरदारों को मालूम हो कि हमारा कुल इरादा ये हैं कि सभी रइयत का मन राजी रहे, कारण कि उनका दिल परमेश्वर की एक बड़ी अमानत है । विशेषकर वृद्धावस्था में हमारा इरादा ये है कि हमारा भला चाहने वाली रइयत सुखी तथा राजी रहे । हमारा अन्तःकरण पवित्र हृदय वाले व्यक्ति भक्त सज्जनों की खोज में निरन्तर लगा रहता है । जिस कारण मेरे सुनने में आया है कि हीरविजयसूरि (हीरविजयसूरि) जैन श्वेताम्बर के आचार्य गजरात के बन्दरों में परमेश्वर की भक्ति कर रहे है उनको अपने पास बुलाया, उनसे मुलाकात की हमें बड़ी खुशी हुई। उन्होंने अपने वतन जाने की आज्ञा मांगते समय अजं किया गरीब परवर की हुक्म हो कि सिद्धाचलजी, गिरनारजी, तारंगाजी, केसरियानाथजी, आबूजी, के पहाड़ जो गुजरात में हैं तथा राजगिरी के पांचों पहाड़, सम्मेतशिखरजी उर्फ पार्श्वनाथजी जो बंगाल के मुल्क में है वो तथा पहाड़ों के नीचे जो मन्दिर कोठी तथा भक्ती करने के सभी जगहें तथा तीर्थ की जगहें जहां जैन श्वेताम्बर धर्म की अपने अधिकार में, मुल्क में, जहां-जहां भी हमारे कब्जे में है, पहाड़ तथा मन्दिर के आसपास कोई भी आदमी जानवर न मारे और ये दूर देश से हमारे पास आये हैं इनकी अर्ज यथार्थ है । यद्यपि मुसलमानी धर्म के विरुद्ध लगता है फिर भी परमेश्वर को पहचानने वाले मनुष्यों का कायदा है कि किसी के धर्म में दखल न दे और उनके रिवाजों को कायम रखे। ये अर्ज मेरी नजर में दुरुस्त Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 164 ) मालूम पड़ी कि जो सभी पहाड़ तथा पूजा की जगहें बहुत समय से जैन श्वेताम्बर धर्म की है, अतएव उनकी अर्ज कबूल कर सिद्धाचल का पहाड़, गिरनार का पहाड़ सारंगा का पहाड़, केसरियानाथजी के पहाड़ जो गुजरात देश में है वो तथा राज• गिरी के पांचों पहाड़ सम्मेत शिखर उर्फ पार्श्वनाथ का पहाड़ जो बंगाल में है । सभी पूजा की जगहें तथा पहाड़ के नीचे की तीर्थं की जगह जो हमारे अधीन मुल्क में है, और कोई जो जैन श्वेताम्बर धर्म की हो वो हीरविजयसूर जैन श्वेताम्बर आचार्य को दे दिया गया है । वे निखालिस मन से परमेश्वर की शक्ति करेंगे और जो पहाड़ तथा पूजा की जगहें तीर्थं, की जगहें श्वेताम्बर धर्म की ही है। असल में देखा जाये तो वे सब जैन श्वेताम्बर धर्म की ही है। जब तक सूर्य से दिन उजाला होगा, चन्द्रमा से रात को रोशनी होगी तब तक इस फरमान का हुक्म जैन श्वेताम्बर धर्म को मानने वाले लोगों में प्रकाशित रहे और कोई मनुष्य इस फरमान में दखल न करे । कोई भी उन पहाड़ों के ऊपर तथा उसके आस-पास के पूजा की जगहों, तीर्थों की जगहों में जानवर मारना, नहीं और इस हुक्म पर गौर कर अमल करें। तथा हुक्म से मुकरना नहीं, दूसरी नई फरमान मांगना नहीं | लिखा तारीख 7 माह उरदी बेस्त मुताबिक रविजल अवल, सन् 37 जुलुसी । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होर विजय सूरिजी को अकबर बादशाह का फरमान [ नम्बर 3] महान राज्य के सहायक, महान राज्य के वफादार, श्रेष्ठ स्वभाव और तम गुण वाले, अजित राय को दृढ़ बमाने वाले, राज्य के विश्वास भाजन, शाही पापत्र, बादशाह द्वारा पसन्द किये गये और चे दर्जे के खानों के नमूने स्वरूप सुबारिज्जुदीन" (धर्मवीर) आजमखान ने बादशाही मेहरबानियां और बख्शीशों 'बढ़ती से, श्रेष्ठता का मान प्राप्त कर जामना कि भिन्न-भिन्न रीति-रिवाज ले, भिन्न धर्म वाले, विशेष मतवाले और जुदा पंथ वाले, सभ्य या असभ्य छोटे या टे राजा या रंक, बुद्धिमान या मूर्ख दुनिया के हरेक दर्जे या जाति के लोग, कि नमें का प्रत्येक व्यक्ति खुदाईनूर जहूर में आने का प्रकट होने का स्थान और नया को बनाने वालों के द्वारा निर्मित भाग्य के उदय में आने की असल जगह एवं सृष्टि संचालक (ईश्वर) की आश्चर्य पूर्ण अमानत है-अपने-अपने श्रेष्ठ गं में दृढ़ रहकर, तन और मन का सुख भोगकर, प्रार्थनाओं और नित्य क्रियाओं एवं अपने ध्येय पूर्ण करने में लगे रहकर, श्रेष्ठ बख्शिशें देने वाले (ईश्वर) से ॥ प्रार्थना करे कि वह (ईश्वर) हमें दीर्घायु और उसम काम करने की सुमति । कारण, मनुष्य जाति में से एक को राजा के दर्जे तक ऊंचा चढ़ाने और उसे र की पोशाक पहनाने में पूरी बुद्धिमानी यह है कि वह (राजा) बदि सामान्य और अत्यन्त दया को जो परमेश्वर की सम्पूर्ण दया का प्रकाश है, अपने ' रखकर सबसे मित्रता न कर सके, तो कम से कम सबके साथ सुलह, मेल व डाले और पूज्य व्यक्ति में (परमेश्वर के) सभी बन्दों के साथ मेहरबानी, दि और दया करे तथा ईश्वर की पैदा की हुई सब चीजों (प्राणियों) को जो । परमेश्वर की सृष्टि के फल हैं मदद करने का ख्याल रखें एवं उनके हेतुओं 'फल करने में और उनके रीति-रिवाजों को अमल में लाने के लिए यह करे कि जिससे बलवान गरीब पर जुल्म न कर सके और हरेक मनुष्य और सुखी हो। इससे योगाभ्यास करने वालों में श्रेष्ठ हीरविजयसरि "सेवडा" और उनके बनने वालों की जिन्होंने हमारे दरबार में हाजिर होने की इज्जत पाई है जो हमारे दरबार के सच्चे हितेच्छ हैं योगाभ्यास की सच्चाई, बद्धि और की शोध पर नजर रखकर हुक्म हुआ कि उस शहर के (उस तरफ के) Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 166 ) रहने वालों में से कोई भी इनको हरकत (कष्ट) न पहुंचावे और इनके मन्दिर तथा उपाश्रयों में भी कोई न उतरे। इसी तरह इनका कोई तिरस्कार भी न करे । यदि उनसे में ( मन्दिरों या उपाश्रयों में से कुछ गिर गया या उजड़ गया हो और उनको मानने, चाहने खैरात करने वाले में से कोई उसे सुधारना या उसकी नींव डालना चाहता हो तो उसे कोई बाह्य ज्ञान वाला ( अज्ञानी) या धर्मान्ध न रोके । और जिस तरह खुदा को नहीं पहिचानने वाले, बारिश रोकने और ऐसे ही दूसरे कामों को करना जिनका करना केवल परमात्मा के हाथ में है - मूर्खना से जादू समझ, उसका अपराध उन बेचारे खुदा को पहचानने वालों पर लगाते हैं और उन्हें अनेक तरह से दुख देते हैं ऐसे काम तुम्हारे साये और बन्दोबस्त में नहीं होने चाहिये, क्योंकि तुम नसीब वाले और होश्यार हो । यह भी सुना गया है कि हाजी अबीबुल्लाह ने जो हमारी सत्य की शोध और ईश्वरीय पहचान के लिए थोड़ी जानकारी रखता है इस जमात को कष्ट पहुचाया है इससे हमारे पवित्र मन को जो दुनियां का बन्दोवस्त करने वाला है - बहुत ही बुरा लगा है इसलिए तुम्हें इस बात की पूरी होश्यारी रखनी चाहिए कि तुम्हारे प्रति में कोई किसी पर जुल्म न कर सके उस तरफ के मोजूदा और भविष्य में होने वाले हाकिम, नबाव या सरकारी छोटा से छोटा काम करने वाले अहलकारों के लिए भी यह नियम है कि व राजा की आज्ञा को ईश्वर की आज्ञा का रूपान्तर समझें. उसे अपनी हालत सुधारने का वसीला समझें और उसके विरुद्ध न चलें, राजाज्ञा के अनुसार चलने ही में दीन और दुनियां का सुख एवं प्रत्यक्ष सम्मान समझें। यह फरमान पढ़ इसकी नकल रख, उनको दे दिया जाये जिससे सदा के लिए उनके पास नद रहे, वे अपनी भक्ती की क्रियायें करने में चिन्तित न हों और ईश्वरोपासना में उत्साह रखे इसको फर्ज समझकर इसके विरुद्ध कुछ न होने देना । इलाही सम्बत् 35 अजार महीने की छठी तारीख और खुरदाद नाम के राज यह लिखा गया | मुताबिक तारीख 28 वीं मुहर्रम सन् 999 हिजरी । मुरीदों (अनुयायियों) में से नम्रतिनम्र अबुल फजल ने लिखा और इब्राहीम हुसेन ने नोंध की ! Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयसेन सूरीजी को अकबर बादशाह द्वारा दिया गया फरमान سكر هنا ابرلاند فنان البان مواد اصلان دین زنان این روند . هدران. کلام کردن در این حراستنلرتمان ها مرد را بر خان سالیان سالانه به رنکاران نظمون اینانسلز کواجدونبلجرذان الدراجات ریفرنیان راند جانشین کرنا جاناتانیاستدان بالاخره بازداشت احناز نام وستفالام نابند دود نان لازانيا نظام سے رکات وخلع الناريه بيهظبتجريبرتابدار گرفتار کردم تازه ايمان المانجاده باباکنایان والانابنانيان نردبارامانابانزاد وكان امر بالمبادرات معانایانه بزاز ملبن تولیدکبیراوااسفانه جولداظا عرض زونالدجية گرج لنخاناشناسان این کار بتانان العاملوانانسرز للانننبنهامانامونم باندونزاع او برادران وطنخوكمیکنه فان میکندطنانو راویان ناودنه کی کاهندکردینان باردار برده باد انتقاله من دوطریق س ایت استندبايب الرمان عالیشان علنباتایلندکرببن جی میلدواعد الاكاديمية از اینترگارترا بدلا ۔ والی تکلیف پہنماء Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयसेन सूरिजी को अकबर बादशाह का फरमान [ नम्बर 4] इस वक्त ऊ'चे दर्जे वाले निशान को बादशाही मेहरबानी से बाहर निकलने का सम्मान मिला (है) कि मौजूदा और भविष्य के हाकिमों, जागीरदारों, करोड़ियों और गुजरात सूबे के तथा सोरठ सरकार के मुसद्दियों में, सेवड़ा ( जैन साधु) लोगों के पास गाय और बैलों को तथा भैसों और पाडों को किसी भी समय मारने की तथा उनका चमड़ा उतारने की मनाई से सम्बन्ध रखने वाला श्रेष्ठ और सुख के चिन्हों वाला फरमान है और श्रेष्ठ फरमान के पीछे लिखा है कि "हर महीने में कुछ दिन इसके खाने की इच्छा नहीं करना तथा इसे उचित और फर्ज समझना और जिन प्राणियों में घर में या वृक्षों पर घौंसले बनाये हों उन्हें मारना या कैद करने (पिंजड़े में डालने) से दूर रहने की पूरी सावधानी रेखना ।" इस मनिने लायक फरमान में और भी लिखा है कि "योगाभ्यास करने वालों में श्रेष्ठ हीरविजयसूरि के शिष्य विजयसेनसूरि सेवड़ा और उसके धर्म को पालने वाले जिन्हें हमारे दरबार में हाजिर होने की सम्मान प्राप्त हुआ है और जो हमारे दरबार के खास हितेच्छु हैं- उनके योगा भ्यास की सत्यता और बुद्धि तथा परमेश्वर की शोध पर नजर रख (हुक्म हुआ कि ) इनके मन्दिरों में या उपाश्रयों में कोई न ठहरें एवं कोई उनका तिरस्कार भी ने करे । अगर ये जीर्ण होते हों और इनके मानने वालों, चाहने वालों में से कोई इन्हें सुधारें या इनकी नींव डाले तो कोई भी बाह्य ज्ञान वाला या धर्मान्ध उसे म रोके । और जैसे खुदा को नहीं पहचानने वाले, बारिस को रोकने या ऐसे ही दूसरे काम जो पूजा के ( ईश्वर के) काम हैं- करने का दोष, मूर्खता और बेवकूफी के सबब, उन्हें जादू के काम समझ, उन बेचारे खुदा के मानने वालों पर लगाते हैं। और उन्हें अनेक प्रकार के दुख देते हैं। ऐसे कामों का दोष इन बेचारों पर नहीं लगाकर इन्हें अपनी जगह और मुकाम पर खुशी के साथ भक्ती का काम करने देना चाहिए एवं अपने धर्म के अनुसार उन्हें धार्मिक क्रियायें करने देना चाहिए । इससे (उस) श्रेष्ठ फरमान के अनुसार अमेल कर ऐसी ताकीद करेंनी ाहिए कि, बहुत ही अच्छी तरह से इस फरमान का अमल हो और इसके विरुद्ध Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 168 ) कोई हुक्म न चलावे (हरेक के चाहिये कि) वह अपना फर्ज समझकर फरमान अपेक्षा न करे, उसके विरुद्ध कोई काम न करे । तारीख 1 शहयुर, महीना इला सन् 46 मुताबिक तारीख 25 महीना सफर सन् 1010 हिजरी। पेटा का वर्णन फरवरदीन महीना जिन दिनों में सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में जाता वे दिन, ईद, मेहर का दिन, हर महीने के रविवार, के दिन कि जो दो सूफियाना दिनों के बीच में आते हैं रजब महीने के सोमवार शाबान महीना जो कि बादशाह के जन्म का महीना हैं हरेक शमशी महीने का पहला दिन जिसका नाम ओरमर है, और बारह पवित्र दिन कि जो श्रावण महीने के अन्तिम छः और भादवे । प्रथम छः दिन मिलकर कहलाते हैं। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य जिनचन्द्रसूरिजी को अकबर बादशाह द्वारा दिया गया फरमान - - و - . ن ار هنا دیا. و و او را بنایا اور دا او وه کره شعار این دوران ان کا نام دیا اور دار ند و در این باره با می ناو و و و و و او ادامه عدم ا ما در این اور اشت شما اس کا با ما Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर बादशाह का फरमान आचार्ग जिनचन्द्रसूरिजी को [ नम्बर 5] सूबे मुलतान के बड़े बड़े हाकिम, जागीरदार, करोडी और सब मुत्सद्दी (कर्मचारी) जान लें कि हमारी यही मानसिक इच्छा है कि सारे मनुष्यों और जीव-जन्तुओं को सुख मिले जिससे सब, लोग अमन चैन में रहकर परमात्मा की आराधना में लगे रहें । इससे पहले शुभचिन्तक तपस्वी जयचन्द्र (जिनचन्द्र) सूरि खरतर (गच्छ) हमारी सेवा में रहता था। जब उसकी भगवदभक्ती प्रकट हुई तब हमने उसको अपनी बड़ी बादशाही की मेहरबानियों में मिला लिया। उसने प्रार्थना की कि इससे पहले हीरविजयसूरि ने सेवा में उपस्थित होने का गौरव प्राप्त किया था और हर साल बारह दिन मांगे थे, जिनमें बादशाही मुल्कों में कोई जीव मारा न जावे और कोई आदमी किसी पक्षी, मछली और उन जैसे जीवों को कष्ट न दें उसकी प्रार्थना स्वीकार हो गई थी। अब मैं भी आशा करता हूं कि एक सप्ताह का और वसा ही हुक्म इस शुभचिन्तक के वास्ते हो जाये । इसलिए हमने अपनी आम दया से हुक्म फरमा दिया कि आषाढ़ शुक्ल पक्ष की नवमी से पूर्णमासी तक साल में कोई जीव मारा न जाये और न कोई आदमी किसी जानवर को सताये। असल बात तो यह है कि जब परमेश्वर ने आदमी के वास्ते भांति-भांति के पदार्थ उपजाये हैं तब वह कभी किसी जानवर को दुख न दे और अपने पेट को पशुओं का मरघट न बनावे । परन्तु कुछ हेतुओं से अगले बुद्धिमानों ने वैसी तजवीज की है इन दिनों आचार्य जिनसिंह उर्फ मानसिंह ने अर्ज कराई कि पहले जो ऊपर लिये अनुसार हुक्म हुआ था वह खो गया है इसलिए हमने उस फर्मान के अनुसार नया फर्मान इनायत किया है । चाहिये कि जैसा लिख दिया गया है वैसा ही इस आज्ञा का पालन किया जाये । इस विषय में बहुत बड़ी कोशिश और ताकीदी समझकर इसके नियमों में उलट फेर न होने दें। तारीख 31 खुरदाद इलाही सन् 491 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवेकहर्ष, परमानन्द, महानन्द उदयहर्ष को जहांगीर बादशाह का फरमान [ मम्बर 6] भल्ला हो अकबर (ता0 26 माह फर्वरदीन, सन् 5 के करार मुजीब के फरमान की) तमाम रक्षित राज्यों के बड़े हाकिमों, बड़े दीवानों, दीवानी, के बड़े-बड़े काम करने वालों, राज्य कारोबार का बन्दोबस्त करने वालों, जागीरदारों और करोड़ियों को जानना चाहिये कि दुनिया को जीतने के अभिप्राय के साथ हमारी भ्यायी इच्छा ईश्वर को खुश करने में लगी हुई है और हमारे अभिप्राय को पूरा हेतु तमाम दुनियां को जिसे ईश्वर ने बनाया है-खुश करने की तरह रज हो रहा है। उसमें भी खास करके पवित्र विचार वालों और मोक्ष धर्म वालों को जिनका ध्येय सत्य की शोध और परमेश्वर की प्राप्ति करना है-प्रसन्न करने की ओर हम विशेष ध्यान देते हैं । इसलिए इस समय विवेकहर्ष, परमानन्द, उदयहर्ष, तपा यति (तपागच्छ के साधू) विजयसेनसूरि, विजयवेवसूरि और नन्दिविजयजी, जिनको "खुशफहम" का खिताब है के शिष्य है, हमारे दरबार में थे। उन्होंने दरखास्त और विनती की कि,-"यदि सारे सुरक्षित राज्य में हमारे पवित्र बारह दिन जो भावों के पयूषण के दिन है तक हिसा करने के स्थानों में हिंसा बन्द कराई जायेगी तो इससे हम सम्मानित होंगे, और अनेक जीव आपके उच्च और पवित्र हुक्म से बच जायेंगे इसका उत्तम फल आपको और आपके मुबारकि राज्य को मिलेगा। हमने शाही रहेम-नजर हरेक धर्म तथा जाति के कामों में उत्साह दिलाने बल्कि प्रत्येक प्राणी को सुखी कर दुनिया का माना हुआ और मामने लायक जहांगीरी हुक्म हुआ कि उथल्लखित बारह दिनों में, प्रतिवर्ष हिंसा करमे के स्थानों में, समस्त सुरक्षित राज्य में प्राणी हिसा न करनी चाहिये और म करने की तैयारी ही करनी चाहिये इसके सम्बन्ध में हर साल नया हुक्म नहीं मांगना चाहिये । इस हुक्म के मुताबिक चलना चाहिये । फरमान के विरुद्ध आचरण नहीं करना चाहिये इसको अपना कर्तव्य समझना चाहिए । नप्रतिनम्र, अबुल्खैर के लिखमे से और महम्मदसैयद की मौंध से। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवेकहर्ष; परमानन्द, महानन्द, उदयहर्ष को orgian Tang KI #tan اسایی حکام کرد در پایان عفام و نسیار گرانتر استالسلطالب وجارديرلز جوکر دربار لاکر محروسے بلند کرد که مالت برای جهانکہ مباريات المرور والے نت نطن دربار ستارخاطراتر بریک میلع معبردوواجرواجب الجراد معناست حصر مادر از مطالب فیتان فرصة الذينان کم وجہ منصور ومطلبناتجزحجوبنی روخهاطل کی رکنیت عايته وجد مبررله میایم عزادرین و گریدرکومادرهاد واورعلاج کروانه سبز سرزمی در سرور رباب حدش فری که این ملت در لیہ س لطنت کی بودندچون الیاسی واستدایبند کرلمالک محروسی درد رازرز متراکم روت کادر نکن باشد درسلنا ان تجاوزها بيانات كه نردجب سر این مکان خواهردوجزیزمان من ربک ایرحم اندیالی اعانت رتابل برزگاریخ حضرت انسانوهارون عابر خواهد کرديرالخانانه بابا مطالب راروطروغل ازعور راینرکار انجاز معروق راننامله اورا ببرلننوذرات جهانطلع ة ياعناع ها که نزد اصراوریات که در دوازده روز مذکورال بالکل المخ ل اباز نکنند و بر این امر کررددين باب مسام بدرطبندی بلدهب لكم لامتر مانده از متخلنواخان نورزند دهند و Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्याय भानुचन्द्र एवं सिद्धिचन्द्रजी को जहांगीर बादशाह द्वारा दिया गया फरमान اسد اکبر تقرام املاست سے ونيه القطاع أو النظر حكام والتصديان مات و بازار سالار دل راستتار عمري سردار سورن برجر بادشاهان بازار و مرور بوده بداند كچون بانجلجة وسر الي بجوشانم مهارت رساندند که وحی جزیرون کننده ایران از کارت زوبارہ اضلا وحيوانات دیکر امتهما، وفريال مية واسپرکردن مردم درهم مرور کریتی سنج سرکارسوق میکنندحضرت لعل معان ومنع سر و پیامبران وکالت رفيع المزات ابزار كار عاطفت ومان كرمان كافر آیا داریم امور مذکور را مع لضاد یک امر که در زماء ولارت باكر وفتح شده موجی که در تصلان معاف نمودم می بار است الم الاشرة النرد على راغ ورزند وی دی کرد انجا ندازل الاساني دار بود، درگاه بان بدون چند د. اما رعايت وما فيت ارسال مرمر اليها مردم مرجوع اريد المعلم رساند که باغ خاطره ای دوام رویت نام اشتغال مرد باشند و در مرکز او یک نطر بلع د انجام ميکروب مردن عاده الدستور قدیم سایت قرام وتعين کردند ترین نے تاریخچه مردم نه ورواه النت Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भानुचन्द्र एवं सिद्धिचन्द्रजी को जहांगीर का फरमान [ नम्बर 7 ] बड़े कामों से सम्बन्ध रखने वाली, आज्ञा देने वालों, उनको अमल में लाने वालों, उनके अहलकारों तथा वर्तमान और भविष्य के मुआमलतदारों आदि और मुख्यतया सोरठ सरकार को शाही सम्मान प्राप्त करके तथा आशा रखके मालूम हो कि भनुचन्द्र यति और "खुशफहम" का खिताब वाले सिद्धिचन्द्र यति ने हमसे प्रार्थना कि " जजिया कर, गाय, बैल, भैंस और भैंसे की हिंसा प्रत्येक महीने के नियत दिनों हिंसा, मरे हुए लोगों के माल पर कब्जा करना, लोगों को कैद करना और सोरठ सरकार शत्रुन्ज्य तीर्थं पर लोगों से जो महसूल लेती है वह महसूल इन सारी बातों की आला अजरत ( अकबर बादशाह ने मनाई और माफ की है । इससे हमने भी हरेक आदमी पर हमारी मेहरबानी है इससे एक दूसरा महीना जिसके अन्त में हमारा जन्म हुआ है और शामिलकर, निम्नलिखित विगत के अनुसार माफी की है और हमारे श्रेष्ठ हुक्म के अनुसार अमल करना तथा विजयदेवसूरि और विजयसेनसूरि के जो वहां गुजरात में है हाल की खबरदारी करना और भानुचन्द्र तथा सिद्धिचन्द्र जब वहां आ पहुंचे तब उनकी सार सम्भालकर, वे जो कुछ काम कहें उसे पूरा कर देना, कि जिससे वे जीत करने वाले राज्य को हमेशा (कायम) रखने की दुआ करने में दत्तचित्र रहें। और " ऊना" परगने में एक बाड़ी है उसमें उन्होंने अपने गुरू हीरजी (हीरविजयसूरि) की चरण पादुका स्थापित की है । उसे पुराने रिवाज के अनुसार "कर" आदि से मुक्त समझ, उसके सम्बन्ध में कोई विघ्न नहीं डालना । लिखा (गया) तारीख 14 शहेरीवर महीना, सन् इलाही 55 पेटा खुलासा फरवरदीन महीना, वे दिन कि, जिनमें सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में जाता है। ईद के दिन, मेहर के दिन, प्रत्येक महीने के रविवार, वे दिन कि जो सूफियाना के दो दिनों के बीच में आते हैं, रजब महीने का सोमवार, अकबर बादशाह के जन्म का महीना जो आबान महीना कहलाता है । प्रत्येक शमशी महीना का पहला दिन, जिसका नाम ओरमज है । बारह बरकत वाले दिन कि जो धावण महीने के अन्तिम छः दिन और भादो के पहले छः दिन हैं | अल्ला हो अकबर....... Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्दू संघवी को जहांगीर बादशाह का फरमान [ नम्बर 8] अल्ला हो अकबर हमेशा रहने वाला यह आलीशान फरमान तारीख 17 रजबुल्मुरमब हि० सम्वत् 1824 का है। अब इस फरमान आलीशान को प्रकट और प्रसिद्ध करने का महत्व का प्रसंग प्राप्त हुआ। हुक्म दिया जाता है कि-मापी हुई दस बीघे जमीन खम्भात के समीप चौरासी परगने के महम्मदपुर (अकबरपुर) गांव में निम्नलिखित नियमा. नुसार चन्दू संघवी को "मदद-ई-मुआश" नाकी मागीर खरीफ के प्रारम्भ नौशकाने ईल (जुलाई) महीने से हमेशा के लिए दी जाय, जिससे उसकी आमदनी का उपयोग हर एक फसल और हर एक साल में वह अपने खर्च के लिए करे और असीम बावशाही अखडित रहे इसके लिए वह प्रार्थना करता रहे । वर्तमान के एवं अब होने वाले अधिकारियों, पटवारियों, जागीरदारों तथा माल के ठेकेदारों को चाहिये कि वे इस पवित्र एवं ऊंचे हुक्म को हमेशा बजा लाने का प्रयत्न करें। ऊपर लिखे हुए जमीन के टुकड़े को नापकर और उसकी मर्यादा बांधकर वह जमीन चन्दू संघवी को दे दी जाये । इसमें कुछ भी फेरफार या परिवर्तन न किया जाये । एवं उसे तकलीफ भी न दी जाये । जैसे पट्टा बनाने का खर्च, जमीन कब्जे में देने का खर्च, रजिस्टरी का खर्च पटवार, फंड, तहसीलदार और दारोगा खर्च, बेगार, शिकार और गांव का खर्च, नम्बरदारी का खर्च, जेलदारी की प्रति सैकड़ा दो रुपये फीस, कानूनगो की फीस, किसी खास कार्य के लिए साधारण वार्षिक खर्च, खेती करने के समय की फीस और इसी समय सभी प्रकार की समस्त दीवानी सुल्तानी तकलीफों से वह हमेशा के लिए मुक्त किया जाता है। इसके लिए प्रतिवर्ष नवीन हुक्म और सूचना की आवश्यकता नहीं है। जो कुछ हुक्म दिया गया है। वह तोड़ा न जाये । सभी इसको अपना सरकारी कार्य समझे । तारीख 17 अस्फनदारमुझ इलाही महीना, 10 वां वर्ष दूसरी तरफ का अनुवाद ता० 21, अमरदाद, इलाही 10 वो वर्ष, · बराबर रजबुलमुरउजब हि सम्वत् 1024 की 17 वीं तारीख, गुरूवार । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्दू संघवी को जहांगीर बादशाह का फरमान (A) . و تکرار جب وہ بو ر ہوتے، بہت اصرار بر پذیه قناری بینینی زراون و بروا ل کر نا مرتب و تبار بنایا م هربانی را نمایان است از رنویر زمینه موار اور تدبیر هنری ایران خود را در کار نبوده اسم را تکرار کنید در این کار بود ایران نیز او را تا مرز بولا و الان داراب شیرین زبان مسجد میں نے راو انوار کے پہاڑ فارم سے ان کا ایک سیب داری کا شکر ادا کرتا اور جوابات او از این از چه روزی در دور بر سر راه یابد از خود، در این رمان فروزن - الاضرار مرا مال سے Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंदू संघवी को जहाँगीर बादशाह का फरमान (B) مهرنت در کار ادارات کنکریان و وان ورق زدم و دوران عراقی و جسمانی امنه را در پسران با محور بنا دیا ہے ۔ وہ کون ہال به بیماری نے لال مسجد بنانے کا کابل کرد و در بین کاربران بر این بار م رزداران ما این موارد را در برابر ہر نا مع ماء السما از استاد موادی که از بازی را از زبان فراہم کرینات برای شیر مانی را از روی مواد لازم برای ایرانی که کارمندان در مرام الله عنہم میوه در میان این را سی کی دنیا کامران و هواداران ا یران در میان آنان که از رای مجلسی دلهرنہ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 173 ) पूर्णता और उत्तमता के आधार रूप, सच्चे और ज्ञानी ऐसे सैयद अहमद कादरी के भेजने से बुद्धिशाली और वर्तमान समय के जालीनूस (धन्तन्तरी वैध) एवं आधुनिक ईसा जैसे जोगी के अनुमोदन से वर्तमान समय के परोपकारी राजा सुबहान के दिये हुए परिचय से और सबसे नम्र शिष्यों में से एक तथा नोंध करने धाले इसहाक के लिखने से चन्दू संघवी, पिताबोरू (?) पितामह वजीवन (बरजीवन) आगरे का रहने वाला समजवम (सेवड़ों को मानने वाला) जिसका कपाल चोड़ा, भ्रमर चौड़ी, भेड़िये के जैसे नेत्र, काला रंग मुड़ी हुई दाड़ी मुंह के ऊपर चेचक के बहुत से दाग दोनों कानों में जगह-जगह छेद, मध्यम ऊंचाई और जिसकी करीब 60 वर्ष की उम्र है, उसने बादशाह की ऊंची दृष्टि को एक रत्न से जड़ी हुई अंगूठी 10 वें वर्ष के इलाही महीने की 20 तारीख के दिन भेंट की और अर्ज की कि अकबरपुर गांव में 10 बीघा जमीन, उसको सहत गुरू विजयसेनसूरि के मन्दिर, बाग, मेला और सम्मान की यादगार के लिए दी जाये। इसलिये सूर्य की किरणों की तरह चमकने वाला और सब दुनियां को मानने योग्य हुक्म हुआ कि चन्दू संघवी को गांव अकबरपुर, परगना चौरासी में जो खम्भात के समीप हैं । दस बीघे जमीन का टुकड़ा "मदद-इ-मुआश" नाम की जागीर स्वरूप दिया जाये । हुक्म के अनुसार जांच करके लिखा गया। माजिन में लिखा है कि "लिखने वाला सच्चा हैं"। जुमलुतुल्मुल्क, मदारूलमहाम एतमादुद्दौला का हुक्म-"दूसरी बार अर्ज की जाये।" मुखलीसखान ने जो मेहरबानी करने योग्य है--बादशाह के सामने दूसरी बार अर्ज पेश की (पुनः यह पत्र पेश किया जाता है) तारीख 21 माह यूर, इलाही सम्वत् 10 जुमलुतुल्मल्क, मदारूलमहाम का हुक्म-"खरीफ के प्रारम्भ मौशकाने ईल से हुक्म लिखा जाये ।" जुमलुतुल्मुल्को मदारूल, अन्तिम हुक्म महामी का हुक्म जुमलुतुम मदारूल महामका "भारती (वाजिन) बनाई जाये" यह है कि"मोजा मुहम्मदपुर से इस (चन्दू संघवी) को माफी दी बाय।" Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाहजहां का सेठ शान्तिदास को फरमान परमेश्वर बड़ा है अबुल मुजफ्फर मुहम्मद मुहर के अनुसार वंशावली शाहबुद्दीन बादशाह गाजी अबुल मुजफ्फर मुहम्मद किराने सानी शाहजहां शाहबद्दीन शाहजहां बादशाह बादशाह गाजी का फरमान गाजी किराने सानी सने जहांगीर बादशाह अकबर बादशाह हुमायू बादशाह बाबर बादशाह उमरशेख मिर्जा सुल्तान अबूसय्यद सुल्तान मुहम्मद मिर्जा मीराशाह अमीर तैमूर किरान हुजूर में अजं हुआ है कि चिन्तामण, शत्रुन्ज्य, शंखेश्वर, केसरियानाय का मन्दिर जो असल में जुलुस मुबारक (गद्दी में बैठने से पहले है तथा अहमदाबाद में तीन नया, दूसरा चार खम्भात में, एक-एक सूरत तथा राधनपुर में शान्तिदास के अधिकार में है हज़र आली का हुक्म हुआ है कि उन मकानों तथा जगहों में कोई ठहरे नहीं, आसपास जाये नहीं कारण कि उनका बख्शीश में दिया गया तथा सेवड़ाओं के जो ग्रन्थ भण्डार तथा सरोकन मुंह से देखकर जैसा भी रीति से पढ़े गुजरात जिला में रहे, आमने-सामने झगड़ा न करें, आदेशों के विरुद्ध न जायें और वो लोग बादशाह कायम रहे ऐसी आर्शीर्वाद मांगते रहे अब जरूरी हैं कि वहां के अमलदारों, को इस तरह समझाकर कोई भी तकरार न करें। लिखा न0 21 आजूर माह इलाही सन् 2 जुलूस (गद्दी पर बैठने का सन्) Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाहजहां का सेठ शान्तिदास को फरमान अबुल मुजफ्फर मुहम्मदशाह बुद्दीन शाहजहां बादशाह गाजी किराने सानी. अबुल मुहफ्फर मुहम्मद शाहबुद्दीन शाहजहाँ बादशाह-गाजी किराने सानी का फरमान थे फरमान की से भरा हुआ बड़ा हुकुम हुआ है कि पालीताणा, सोरठ (सौराष्ट्र) सरकार के कब्जे का सूबा अहमदाबाद में लगता है उसे शत्रुन्ज्य कहते हैं वह बादशाह जादा मुहम्मद मुराद बख्श (नेकी से भरा, दौलत की आंख का ठण्डक, माथे की बड़ी रोशनाई, राज्य की फुलवाड़ी का उगता हुआ पौधा, नया फल, आंख का नूर, बड़े दर्जे का पेड़ का फल, उच्च कुल का) को जागीर में दिया है उसकी जमा बन्दी दो लाख दाम की है । वो तखाकवि इतनी फसल खरीफ के शुरू से झवेरी शांतिदास को इनाम में अल्तमगा (बख्शीश) के तौर पर लिखकर दिया गया है जिसे कुल के वंशज हाल तथा आइन्दा हमारे बड़े दर्जे का प्रधानों दीवानी खाता के मुत्सद्दियों, हाकिमों, आमीलों, नागीरदारों तथा कटोरिये इस पाक तथा बड़े हुक्म को चालू जारी रखने की कोशिश कर मजबूर, मनुष्य के पेढ़ी दर पेढ़ी तथा कुटुम्बियों के कब्जे में रहने देना और परममा ऊपर के हरेक तरह के कर, हासले बजे, तथा खर्च मान मिलकर दिया है जानना और हर वर्ष इस विषय में कोई भी नया हुक्म अभवा समद मांगना नहीं और इस हुक्म से मुकरना भी नहीं । ताo 19 माह रमजान, सन् 31 जुलूसी 1067 ता० 18 माह शाबान शुक्रवार सन् 31 जुलूसी 1067 हिजरी ताo 12 खुरदाद माह इलाही सन् 21, शम्सी के रोज काम चला उसका वर्णन, नबाव शाहजादा मुहम्मद दारा शिकोह के दफ्तर में तथा ॐ चे मुहम्मद काजम मे लिखा है जो दुनियां को कब्जे मैं करने वाले बादशाह का हुक्म हुआ है कि पालीताणा सरकार सोरठ के कब्जे का सूवा अहमदाबाद में लगता है उसे शत्रुज्य कहते हैं उसे बादशाह जादा मुहम्मद मुरादबख्श को जागीर में दिया है जिसकी जमा बन्दी दो लाख दाम की है वा तखाकविइलनी फसल खरीफ के शुरू से झवेरी शांतिदास को अल्तमगा ( बख्शीश ) के तौर पर इनाम में दिया है । दूसरी यदि जो ऊंचे अल्काष का नबाव शाहजादा मुहम्मद मुराद बख्श के दफ्फर में ताo 17 माह शाबान सन् 31 जुलूसी रोज मुंशी शेख मीरक के मार्फत दखल हुआ हैं इस तरह ये लिखने में आया है। पाक अल्काब के नबाव ऊंचे दर्जे का बादशाह जादा मुहम्मदधारा शिकोह के दफ्तर में दाखिल हुआ। मुन्शो मुहम्मद काजम । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 10 पालीताना में आदीश्वर भगवान के मन्दिर का शिलालेख ॐ॥ ॐ नमः॥ श्रेयस्वी प्रथमः प्रभुः प्रथिममाग नैपुण्यपुण्यात्मना मस्तु स्वस्तिकरः सुखाब्धिकमरः श्री आदिदेव: स वः । पद्मोल्लासकरः करैरिव रवियोम्नि क्रमांकभोरुह न्यासर्यस्तिलकीबभूव भगवान् शत्रुन्ज्येडनेशकश: धीसिद्धार्थनरेशवंशसरसीजन्माब्जिनीवल्लभः पायाः परमप्रभावभवनं श्री वर्धमानः प्रभुः। उत्पत्तिस्थिति (सं) हतिप्रकृतिवाग चदगोर्जगत्पावनी स्वर्वापीव महाब्रतिप्रणयभूरासीद् रसोल्लसिनी आसीद्धासववन्दवन्दितपदद्वन्तः पन्द सम्पदा तत्पटटांबुन्धिचन्द्रमा गणधरः श्रीमान् सुधर्माभिधः । यस्यौदार्ययुता प्रहष्टसुमना अद्यापि विद्यावती धत्ते संततिरून्नति भगवतो वीरप्रभोगौरिव श्रीसुस्थितः सुप्रतिबुद्ध एत सूरी अभूतां तदनुक्रमेण । याभ्यां गणोडाभूदिह कोटिकाहअंद्रार्यमभ्यामिव सुप्रकाशः तत्राभूदग्निणां वन्द्यः श्रीवषिगणाधिपः । मूलं श्रीवजशाखाया गंगाया हिमवानिव तस्पटटाबर दिनमणिरूदितः श्रीवजसेनगुरूरासीत् । नागेन्द्र-चन्द्र- निति-विद्याधर-संज्ञकाश्र तच्छिध्याः स्वस्वनामसमानानि येभ्यश्रत्वारि जश्रिरे। कुलानि काममेतुषु कुलं चान्द्रं तु दिदयुते भास्करा इव तिमिरं हरन्तः ख्यातिभाजनम् : भूरयः सूरयस्त त्र जज्ञिरे जगतां मता Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 177 ) (9) (10) (11) (12) (13) बभूवुः क्रमतस्तत्र श्रीजगच्चद्रसूरयः । यस्तपाबिरूदं लेभे बाणिसिद्धचर्क 1285 वत्सर क्रमेणास्मिन गणे हेमविमलाः सूरयोडभवन् । ___ सत्पट्टे सूरयों डभूवन्नांदविमलाभिधा: साध्वांचारविधि:पयः शिलितः सम्यकत्रियां धाम ये ___ रूदेध्र स्तनसिद्धियाकसुधारोचिनिभे 1582 नेहसि । जमूतौरिव यजगत्पुनरिंद तापं हरद्रि शं सश्रीकं विद्धे गवां शचितमैः स्तोम. रसोल्लासिभिः पद्मश्रयरलमलंक्रियते स्म तेषां प्रीणन्मनांसि जगतां कमलोदयेन । पट्टः प्रवाह इव निज्वरनिज्जुरिण्या: __ शुद्धात्मभिविजयदानमुनीशहंसः सौभाग्यं हरिसर्व(व) वंहरणं रूपं च रम्भपति श्रीजैत्रं शतपत्रमित्रमहसां चौरं प्रतापं पुनः । येषां वक्ष्यि सनातनं मधुरिपुस्वःस्वामियाशियो जाताः कामपत्रपाभरभृतो गोपत्वमाप्तास्यः तत्पट्टः प्रकटः प्रकामकलिततोयोतस्तथा सोधव (स्) सस्नेहैयं (ति) राजहीरविजयसनेहप्रियनिर्ममे । सौभाग्यं महसां भरेण महतामत्यर्थं मुल्लासिनां विभ्राणः स यथाजनिष्ट सुधशां कामप्रमोदास्पदम् देशद् गूर्जरतोडथ सूरिवृषमा आकारिताः सादरं श्रीमतसाहितअकवरेण विषयं मेवातसंज्ञा शुभम् शा....................जपाणयोवतमसं सर्व हरन्तो गवां स्तोमः सूत्रिताविश्वविष्वकमलोल्लासनभोर्का इव चक्रु फतेपुरम....................(न) भौम___हग्युग्मकोमकुलमाप्तसुखं सृजंतः अब्देकपावकनृपप्रमिते 1639 स्वगोभिः । सोल्ला........................बुजकामननम् ये दामेवाखिलभूपमूद्ध सु निजमाज्ञा सदा धारयन्य । श्रीमान् शाहिअकब्बरो नरवरो (देशेष्व) शेषेप्वपि । षण्मासाभ्यवानपुष्ट होघोषानधध्वंसितः । । कामं कारियति स्म हष्टहरयो यद्धापकारंजितः (14) (15) (16) (17) Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (178 ) 18) (19) (20) 21). यदुपदेशवरान मुव धन् ... निखिलमण्डवासिजने निजे। मृतधनं च कर च सुजोजिमा भिधमकम्बरभूपतिरत्यजत् यद्धाचा कतकामया विलितस्योतांबुपूर: कुपा--- पूर्णः शाहिरन्व्यिनीतिवनिताको (डिकृतात्मा) त्यसर शुल्कं त्य (कम) शक्यमन्यधरणीराजा जमप्रीतये । तहानीडजपुजपूरुषपशूधाममुद्ररिशः यद्धांचा निचर्यमुधाकृतसुधास्तवा (वर) मंदैःकृता । ल्हादः श्रीमदाब्बर नितिपति संतुष्टिपुष्टाशयः । स्यकत्वा तत्करमर्थसार्थमसुलं येषां मनःप्रीतये जनेभ्यःप्रवदो च तीर्थ तिलकं शजयोधरम यदाग्निभमुदतश्रकार करूणास्फूजन्मना: पोस्तकं भाण्डागारमपारवाडग्जयमं वैश्मेव बाग्दैवतम् । यतसंवेगभरेण भावितमतिः शाहिः धुनःप्रत्यह पूतात्मा बहु मन्यते भगवता सदर्शनो वर्शनम् यद्धाचा तरणित्विषेव मलितोल्लसं मनःपंकज ____ विभ्रच्छाहिअक्बरी व्यसनधोपोजिनी चन्द्रमाः । जो थारजनोचितच सुकृतः सर्वेषु देशेष्वपि विख्याताडडहतभक्तिभातिमतिः श्रीणिकक्षमापवर लुपाकानिपमेघजीश्रषिमुखा हित्वा मुमत्याग्रह भेजुर्यच्चरणद्वयीमनुदिनं भृगा इवांभोजिनीम् । उल्लास गर्मिता यदीयवचनैराग्यरंगोन्मुखे उजीताः स्वस्वमतं विहाय बहवो कोकास्तपासका आसीत्यविधापनादिसुकृतक्षेत्रेषु विसध्ययो । भूयान यद्धचनेन गुज्जरधरामुख्येषु वैशेऽवलम् । यात्रां गुज्जरमालवा दिकमहादेशोंद्रवभूरिभिः। संकः साई मृषीश्वरा विदधिरे शत्रुजये ये गिरी तस्पट्टमब्धिमिव रभ्यतमं सृजन्तः स्तोमगंवां सकलसंतमसं हस्तः । कामोल्लसत्कुवलयप्रणया ययति । स्फूर्जकला बिजयसेनमुनींद्रचन्दा (22) (23) (24) (23) Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 179 ) यत्प्रतापस्य महाग्त्य वर्णयते किमतः परम् । अस्वप्राक्रिरे येन जीवं (तोड) पि हि वादिनः सौभाग्यं विषमायुधात्कमलिनीकांताच्च तेजस्विनामैश्रव गिरिजापते कुमुदिनीकांतात्कलामालिनाम् । माहात्म्यं धरणीधरान्मखभुजां गांभीर्यमभोनिधे raniबुजभूः प्रभुः प्रविदधे यन्मूतिमेतन्मयीम् ये च श्रीमदकब्बरेण विनयादाकारिताः सादरं श्रीमल्लामपुरं पुरंदरपुरं व्यक्तिं सुपर्वोत्करेः । भूयोभिर्वतिभिः परिवृतो वेगादसंचक्रिरे । सामोदं सरसं सरोरुहवनं लीजामराला इव अर्हतं परमेश्वरत्वकलितं संस्थाप्य विश्वोत्तमं साक्षात्साहित अकब्बरस्य सदसि स्तोमैर्गवामुद्यतैः । यः संमीलितलोचनादिधिरे प्रत्यक्ष शूर श्रिया वादोन्मादभृतो द्विजातिपतयो भट्टा निशाटा इव श्रीमत्साहित अक्कबरस्य सदसि प्रोत्सपित्यभिभू रिभिर्वादैर्नादिवरान विजीज्व समदान्सि हैदिद्ध द्रानिव enterg दत्तासाहसधीर होर विजयसूरिराजां पुरा यच्छी शाहि अकब्बरेण धरणीशऋण तत्प्रीतये । तच्चक्रे sखिलमप्यवालमतिना यत्साज्जगत्साक्षिकं तत्पत्रं फुरमाणसंज्ञसनधं सर्वादिशो व्यानशे किं च गोष्टषभकास र कांताकासना यमगृहं न हि नेया: : । मोच्यमेव मृतवत्तमशेषं बन्दिनोऽपि हि न च ग्रहणीया:: यत्कलासलिलवाहविलासप्रीतचित्तरूणाजनतुष्टये । स्वीकृतं स्वयमकम्बर धात्रीस्वामिना सकल वेतदपीहः चोलीवेगमनन्दनेन वबुधाधीशेर सम्मानिता गुर्वी गुरमेहिनीमनुदिनं स्वर्लोकविवेकिनीम् । सत्ता महसां भरेण सुभगा गाढं गुणोल्लसिनो ये हारा इव कन्ठमुबुजद्दशां कुर्वन्ति शोभास्पदम (26) (27) सर्वज्ञाशयतुष्टि हेतुरनधो दिश्युक्तरस्यां स्फुरन् । यैः कैलास इवोज्जवलो निजयशः स्तम्भो निचस्ने महान ( 30 ) (28) (29) (31) (32) (33) (34) Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (180) (33) आभूरान्वय (4) ज्ञपज्ञविया ओकेशवंशेडभव च्छेष्ठी श्री शिवराज इत्याभिधया सौवणिक:पुण्यधी। तत्पुत्राडिजम सीधरश्र तनयस्तस्याभवपर्वतः (का) लाहौडजनितत्सुतश्र तनुजस्तस्यापि साधाभिधः तस्याभुछियाभिधश्रच तनुजः रव्याती रजाईभव स्तस्याभूच्च सुहासिणी (ति) गृहिणी पद्व पदमापतेः इन्द्रणीसुरराजयोरिव जयः पुत्रस्तयोश्यभव तेजः पाल इतिप्रहष्टसुमना पित्रोमनः प्रीतिकृत् (क) मस्येव रतिहरिव रमा गौरीव गौरीपते रासीत्तेजल दे इति प्रियतमा तस्याकृतिः (................) भोगश्रीसुभार्ग गुरी प्रणयिनी शश्वत्सुपर्वादरौ।। पोलोमीत्रिदशेश्वराविद सुखं तौ दम्पती भेजतु! वैराग्यवारिनिधिपूर्णनिशाकारा तेषां च हीरविजयतिसिन्धुराणाम् । सौभाग्य (भा) ग्यपरभागविभासुराणो। सौभाग्य (तेषां) पुनविर्जयसैनमुनीश्वराणाम वाग्भिधाकृतसुधाभिरूदंचिचैताः श्राद्धः स शोमममा भजति स्म भावम् श्रीसं(धम) तितधनदानजिद्रचत्योद्वारादिकर्मसु भृशं सुकृतिप्रियेषु (विशेषक) (37) अहैः प्रशस्तैडिह सुश्विंभ(र) नन्तमर्तुथ शुभी प्रतिष्ठाम सोडचीकरत्षडयुगभूप 1646 वर्षे हर्षेण सीवणिकतेजपालः आदावार्षभिरत्र तिर्थतिलक शत्र (ज) येडचौकर-- श्रेत्यं शंत्यं शैत्यकरं दृषोंमणिगणस्वर्णादिभिर्मासुरम् । अमान्यपि भुजाजिता फलवतीमुचर्चः सजंतः श्रीयं (प्रा) सादं तकनुक्रमेण कहवश्राकारयन् भूजुजः bational Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (181) सोधेडत्र साधुकरमाभिधो धनी सिद्धितिद्धतिय 1588 संख्थे चैत्यम (ची) करयुक्त रानन्दविमलोमुनिराजाम् (43) तं वीक्ष्य जीर्ण भगवाद्धिहार स तेजपालः स्वहदीति दध्यो। भावी कदा सो डवंसरो वरीयान् यंत्रा डन घेत्वं भविता नवीनमें अन्येदयुः स्वगुरूपदेशेशरदा काम वलक्षीकृत स्वातामा च वणिग् व (२) पुरवरे श्रीस्तंभतीर्थे वसन् उद्धार कतुं मना अजायततमा साफल्यमिच्छत्र श्रियः (45) __अब स्याते सुकृतं कृतं तेनुमतां श्रेयः श्रियां कारणं भत्वैवं जिमपूर्वजवजमहामन्दप्रभोदाप्तये। ती श्रीविमलावले डातिविमले मोलेडर्हतो मन्दिर जीर्णोद्वारमकारयत्स सुकृती कुन्तीतनूजन्मवत् (46) शेण भिन्नगगनांगपमेत दुच्चेश्रेत्यं चकास्ति शिखरस्थिति हेमकुभम् । हस्तेषु 52 हस्तमितमुच्चमुपैति नाक---- लक्ष्मी विजेतुमिव काममखर्वगर्वाम् (47) यत्राहदोकसि जितागरंकुभिकुभाः कुंभा विभान्ति शरवेदकरेंदु 1245 संख्याः । कि सेवितु प्रभुयमुः प्रचुरप्रतापनजिता दिनकराः कृतनैकरूपाः । उम्मूलितप्रमदभूमिरूहानशेषाने विश्वेष विवकारिणों युगपनिहंतुम् सज्जाः स्म इत्यमभिधातुमिवेंदुनेत्रा (21) (49) सिंहा विभाथुगता जिलधामि यत्र थोनिन्यो यत्र शोभंते यतस्त्रों जिनधेश्मनि । निषेवितमिवारीताः प्रतापरागता दिशः (50) राजतेन दिशा पाला (................) यत्राहदालये । तिमंत किमायाता धस्सिंयमिनाममी द्वासप्ततिः श्रिययंति जिनेंद्रचन्द्र-- विबानि देवकुलिकाससु च तावातीपु । द्वासप्ततेः श्रितजनालिकलालंतानं (51) Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (182) किं कुडमला परिमलंभुवनं भरतः ( 5 ) आजंतो यत्र चत्वारो गवाक्षा जिनवेश्मनि । विरचेरिव वक्त्राणि विश्वाकारणहे तवे यत्र चैत्ये विराजते चत्वारथ तपोधनाः ant धर्माः किमायाताः प्रभुपास्त्यं वपुर्भुतः पंचालिकाः श्रियमयंति जिनेंद्रद्यानि द्वात्रिंशदिद्ररमणीभर जैत्ररूपाः । ज्ञात्वा पतीनिह जिने किमु लक्षणक्ष्माराजां प्रिया निजनिजेशनिभालनोत्काः द्वात्रिंशदुत्तमतमानि च तोरणानि राजति यत्रजिनाम्नि मनोहराणि । किं तीर्थंकट्शनलक्ष्मिमृगेक्षणाना मन्दोलनानि सरलानि सुखासनानि गुजाविंशतिरडद्रितुंगा विभांति शस्ता जिनधाम्नि यत्र । देवाश्रतुविशति शभत्तयं किमागता: कुज्जररूपभाजः स्तंभाश्रतुस्सप्ततिरद्विराजो - गाविभांतीह जिनेंद्र चैत्ये । दिशामधीशः सह सर्व इन्द्राः किमाप्तभतयै समुतेयिवांसः रम्यं नन्थपयोधिभूपति 1649 मिते वर्षे सुखोत्कर्ष कृत साहाय्याद् जसुठकुरस्य सुकुतारामंकपाथोमुचः । प्रसादं छतेन सुधिया शत्रुज्यकारितं दृष्टवाडष्टापदतीर्थ चैत्यतुलितं देषां न चित्ते रतिः चैत्यं चतुर्णामिव धर्म्ममोदिनी भुजां गृहं प्रीणिताविश्रवविष्पटम् । शत्रु जयवभृति नन्दिवर्द्धना भिधं सदा यच्छतु वांछितानि वः ( - ) यः प्रभाभरविनिर्मितनं शैत्ये चैत्येss भूरिरभवद् विभवव्ययो यः । ज्ञात्वा वदति मनुजा इति तेजपाल कल्पदुमत्ययमनेन धनव्ययेन (53) (54) (55) (56) (57) (58) (59) (60) (61) Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 183 ) शत्रुज्ये गगनाणकला 1650 मितेडग्दे यात्रा चकार सुकृताय से तेजपालः 1 चैत्यस्य तस्य सुदिने गुरूभिः प्रतिष्ठा चक्रे च हीरविजयाभिधसूरिसिंहैः मार्तण्डमण्डलामिबुरूह समूहः पीयूषरforfen नीरनिधेः प्रवाहः । 'केकिव्रजः सलिलवाहामिवातितु मे चैत्यं निरीक्ष्य मुदमेति जनः समस्तः चैत्यं चारू चतुर्मुखं कृतसुखं श्रीरामजीकारितं तुगं जठक्कुरेण विहितं चैत्यं द्वितीय शुभम् । रम्यं कुमरजीविनिम्मितम भूच्चैत्यं तृतीयं पुन --- श्रेष्ठीकृतं एभिविश्व विसारिभिद्युतिभरे रत्यर्थ स सुत्रितोद्द्योतो दिक्ष्वखिलासु निज्जै पतिः स्वलोकपालैरि । श्रीशत्रु' जयलमौलिमुकुटं चैत्येतुभिर्युतः प्रसादो मनोविनोदकमलाचैत्थं चिरं नन्दतु वस्ताभिस्य वरसूत्रधरस्य शिल्ल चैत्यं चिरादिसुदीक्ष्य निरीक्षणभ्यम् । शिष्यत्वामिच्छति कलाकलितोsपि विश्व कर्मास्य शिपिटले भवितुं प्रसिद्ध सदाचारधीनां कमल विजयाहान सुविधयां पदद्वन्द्वांभोजभ्रमरसदशो हेमविजयः । rinitasai स्त्रिमिव शुभ या विहितवान् प्रशस्तिः श (स्तै )षा जगति चिरकालं विजयताम् इति सोणिसाह श्रीतैजः पालोहतविमलाचल--- मण्डन श्रीमादीशमूलप्रसाद प्रशस्तिः बुधसहजसागराप दिनेयजयसागरोड लिखद्वर्ण: feferreratorf माधवनानाभिधानाभ्याम् (62) (63) (64) (65) (66) (67) (68) Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खम्भात का श्री चिन्तामरिण पार्श्वनाथ जैन मन्दिर का शिलालेख श्रेयः संततधामकामितमनः कामदुमामोधरः पाश्वं प्रीतिपयोजिनीदिनमणिश्रितामणिः पातु वः । ज्योतिः पंक्तिरिवाब्जिनीप्रणयिन पद्यत्करोल्लासिनं संपत्तिर्न जहाति यच्चरणयोः सेवां सृजन्तं जनं ॥ 1 ॥ श्रीसिद्धार्थन रेशवंशसरसीजन्माब्जिनी वल्लभः पायाद्धः परमप्रभावभवनं श्रीबमानप्रभुः । उत्तपत्तिस्थितिसंहतिप्रकृतिवाण यन्दीजंगत्पावनी स्वर्वापीव महाब्रतिप्रणयभूरासीद रसोल्लासिनी ॥ 2 ॥ आसीद्धासवव दवंदित पदद्वन्द्वः पद सम्पदा तत्पट्टाबुद्धिचन्द्रमा गणधरः श्रीमान् सुधर्माभिधः । यस्यौदाययुता प्रहृष्टसमुना अद्यापि विद्यावती धत्ते संततिरूप्रति भगवतों वीरप्रभोगौं रिव ॥ 3 ॥ विभूवुः क्रमतस्तत्र श्रीजगच्चंद्रसूरयः । यैस्तपाबिरूदं लेभे वाणसिध्ध्यकं 1285 वत्सरे ॥ 4॥ क्रमेणास्मिन गणे हेमविमला: सूरयो भवन् । पत्प्टटे सूरतोऽभूवन्नान्द विमलाभिधाः ॥ 5 ॥ साध्वाचारविधिपथः शिथिलतः सम्यक्श्रियां धाम चरूद्द स्तनासिद्धिसायकसुधारोचिमिते 1582 वत्सरे । जीमूतैरिक यैर्जगत्पुनरिंग ताप हरिदिभमृशं श्रीकं विदधे गवां शुचितर्मः स्तोमं रसोल्लासिभिः ॥ 6 ॥ पद्याश्रयैरलामलंक्रियते स्म तेषां प्रणिन्मनांसि जगतां कमलोद येन । पट्टः प्रवाह इव निर्ज्जर निर्झरिण्या शुद्धात्मभिर्विजयदानमुनीश हसं ॥ 7 ॥ तत्पट्टपूर्वपब्वंत पयो निजी प्राण बल्लभप्रतिमाः । श्रोहीर विजयसूरिप्रभावः श्रोधाम शोभते ॥ 8 ॥ श्रीफतेपुरं प्राप्ताः श्रीमकब्बर शाहिता । आहूना वत्सरे नन्वान लस्तु शशिभू 1639 न्मिते ॥ 9 ॥ निजाशेषेषु देशेषु शाहिना तेन घोषितः । पाण्मासिको यदुक्त्योच्कमारिपटह पटः ॥ 10 11 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 185 ) स श्रीशाहिः स्वकीयेषु मंडलेष्वखिलेष्वपि । मतस्य जोजिमाख्यं च करं यद्धचनही ॥11॥ दुस्त्यजं तत्करं हित्वा तीर्थ शत्रुन्जयाभिधं । जनादगिरा चक्रे क्षमाशकेणामुना पुनः ॥ 12 ॥ ऋषी (षि) श्रीमेघजीमुख्या लुपाका मतमात्मनः । हित्वा यच्चरणद्धन्द भेजुभुंगा इवांबुजं ॥ 131 तत्पट्टमब्धिमिव रम्यतम मजंतः स्तोमर्गवां सकलसंतमसं हरतः। कामोल्लसत्कुवलयप्रणया जयति स्फूर्जकला विजयसेनमुनींद्रचन्दाः ।। 14 ॥ यत्प्रतापस्य महात्म्यं वण्यंते किमतः परं । अस्वमाश्रयक्रिरे येन जीवन्तो पि वादिनः ।। 15॥ सुदरादरमाहूतः श्रीअकब्बरभूजुजा । द्राग् यैरलंकृतं लाभपुर पत्रमित्रालिभिः ।। 16॥ श्रीअकब्बरभूपस्य सभासीमंतिनीहदि । यत्कोतिमौक्तिकीभूता वादिवृन्दजयाधिना ॥ 17॥ श्रीहीरविजम्हहान सूरीणां शाहिना पुरा। अमारिमुख्य यवन्त यत्स्यातत्सकलं कृतं ।। 18 ॥ अर्हतं परमेश्वरत्वकालतं संस्थाप्य विश्वोत्तम साक्षात् शाहिअकब्बरस्य सदसि स्तोमैगंबामुद्दतः । ये संमीलितलोचना विदधिरे प्रत्यक्षशुरैः श्रिया वादोन्मादभृतो द्विजातियतयो भट्टा निशाटा इव ।। 19॥ वरभी सौरभयी च सौरभेयश्र सैरभः । न हन्तव्या न च ग्राहः वन्दिनः के पि कहिचित् ।। 20 ॥ येषामेव विशेषोक्तिविलासः शाहिनामुना । ग्रीष्मतप्तभुवेवाब्दपयःपूर प्रतिश्रुतः ।। 21 ॥ युग्मम् ।। जित्वा विप्रान् पुरः शहे कैलास इद मूर्तिमान् । यरुदीच्यां यश स्तम्भः स्वो निचख्ने सुधोज्जवलः ॥ 22 ।। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 186 ) तष उच्चलेगच्छलिताभिरूमिततिभिर्वारांनिधेबंधुरे श्रीगन्धारपुरे पुरंदरपुरप्रख्ये श्रिया सुन्दरे । श्रीश्रीमालिकुले शशांकविमले पुण्यात्मनामग्रणी रासीवाल्हणसी परीक्षकमणिनित्यास्पदं सम्पदा ।। 23 ॥ बासीदेल्हणसीति तस्य तनुजो जज्ञे धनस्तत्सुतस्तस्योदारमना: सनामुहल. सीसंज्ञो भवनन्दनः । तस्याभूत समराभिधध तनयस्तस्यापि पुत्रोऽर्जुनस्तस्यासी. सनयो नयोजिमतिीमाभिधानः सुधीः ।। 24 ॥ लालूरित्यजनिष्ट तस्य गृहिणी पद्देव पद्यपतेरिभ्यो भूतनयोऽनयोत्र जसिआसंज्ञाः सुपर्वप्रियः । पौलोमीसुरराजयोरिव जयः पित्रोर्मनः प्रीतिकृद् विष्णोः सिधुसुवेद तस्य जसमादेवीति भार्याऽभवत् ।। 25॥ मदर्भ सृजतोस्तयोः प्रतिदिन पुत्रावभूतामुभावस्त्येको वजिमाभिधः सदभिधोऽन्या राजिआहः सुधीः । पित्रोः प्रेमपरायणी सुमनसा देषु वृन्दारको शर्वाणी. स्मरवैरिणोरिव महासेनकदन्ताविर्मा ।। 26।। आदस्य विमलादेवी देवीध सुभगाकृतिः । परस्य कमलादेवी कमलेव मनोहरा ।। 27॥ इत्याभूताभुभे भार्ये योबांधिवयोस्तयोः । ज्यायसो मेघजी-त्यासी सूनुः बामो हरेरिव ।। 28 ॥ युग्मम् ॥ __सुस्निग्धौ मधुमन्मयाविव मियो दस्त्राविव प्रोल्लसद्पो ख्यातिभृतौ धनाधि. पसतीनाथविव प्रत्यंह । अन्येयूव्हदिभ्यसभ्यसभर्ग श्रीस्तंभतीर्थ पुरं प्राप्तो पुण्य. परम्पराप्रणयिनी तौद्धावपि भ्रातरी ॥ 290 . तत्र तो धर्मकम्माणि कुर्वाणी स्वभजाजिता । श्रियं फलवती कृत्वा प्रसिद्धि प्रापतुः परा॥30॥ काबिल्लदिकपतिरकब्बरसार्वभौमः स्वामी पुनः परमतकालपुनः पयोधेः काम तयोरपि पुरः प्रथिताविमों स्वस्तत्तदिशोरस शोरनयोः प्रसिद्धिः ।। 31 ।। तेषां च हीरविजय प्रतिसिंधुराणां तेषां पुनर्विजयसेनमुनीश्रवराणां वाग्भिधाकृतसुधाभिरिमी सहोदरी द्राग खापपि प्रभुक्तिौ सुकृते वभूवतुः ।। 32॥ श्री पारधनाथस्य च वर्द्धमानप्रभोः प्रतिष्ठा जगतामामिष्टा । धर्म धनैः कारयतः स्म बन्धू तौर वाविपाथोधिकलमिते ब्दे 1644 1 33॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 187 ) श्रीविजयसेनसूरिनिम्नने निर्ममेश्वरः इमां प्रतिष्ठां श्रीसंघ-कैरवा करकोमदीं ॥ 34 ॥ चिन्तामणेरिवात्यर्थ चितितार्थविधायनिः नामास्य पश्वनाथस्य श्रीचिन्तामणिरित्यभूत् ॥ 35॥ अंगुलैरेकचत्वारिंशता चिंतामणेः प्रभोः । संमिता शोभते मूतिरेषा शेषाहिसेविता ॥ 36॥ सदैव विध्यापयितु प्रचण्ड-मयप्रदीपानिब सप्त सान् । या वस्थितः सप्त फणान् दधानो विभाति चिन्तामणिपार्श्वनाथः ॥ 37 ॥ लोकेषु सप्तस्वपि सुप्रकाशं किं दीप्रदीपा युगपद्धिधातु। रेजुः फणाः सप्त यदीयमूधि मणित्वषा ध्वस्ततमःसमूहाः :। 38 ।। सहोदराभ्यां सुकृतादराभ्यामाभ्यामिद दत्तबहुगमोदं व्याधियि चितामणिपार्श्वचैत्यमपत्यमुर्वीधनभित्सभायाः ।। 39 ।। निका माकित कामं दत्तै कल्पलतेव यत् । चैत्यं कामदनामैतत् सुधिरं श्रियमश्रुतां ।। 40॥ उत्तभा द्वादश स्तम्भा भांति यत्राहतो गृहे । प्रभूपाय किमभ्येयुः स्तम्भरूप. भृतों शवः यत्र प्रदत्त दौत्ये चत्ये द्वाराणि भांति षद् । षण्णां प्राणभृतां रक्षायिनां मार्गाहवागतः ।। 420 __शोभन्ते देवकुलिकाः सप्त चैत्ये त्र शोभनाः । तप्तर्षीणां प्रभूपास्त्य साखिमाना श्वेयुषां ॥ 43॥ द्धो द्वारपो यत्रोच्चः शोभते जिनवेश्मनि । सौधर्मेशानयोः पावसेवार्य किमिती-पती॥ 44॥ पंचविंशतिरुततुंगा भांति मंगलमूर्तयः प्रभूपापर्व स्थिताः पंचव्रतानां भावना इव ।। 45॥ भृशं भूमिगृहं भांति यत्र चैत्ये महत्तरं किं चैत्यश्रीदि क्षार्थमितं भवनभासुरं ॥ 46॥ यत्र भूमिगृहे भाति सोपानी पंचविंशतिः । मार्गालिरि दुरिताक्रियातिक्रांति. हेतवे ॥470 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 188 ) संमुखो भाति सोपानोत्तरवारि द्धिपाननः । अन्तः प्रविशता विघ्नवि ध्वंसाय मिमीयिवान् ।। 48॥ ____ यद् भाति दशहश्तोच्चं चतुरस्त्रं महीगृहं । दशादिक्मपदी स्वरोपवेशायेव मंडपः षडविंशतिविबुधवृदावितोमहर्ष राजंति देवकलिका इह भूमिधाम्नि । आधाद्धि तीयदिवनाथरवींदुदेव्य श्रीवाग्युताः प्रभुनमस्कृतये किमेताः ॥ 50 ॥ द्वाराणि सुप्रपंचानि पंच मातीह भूगृहै । जिघत्सवा होऽहरिणान् धर्मसिंह मुखा इव ।। 51॥ खो द्धास्थौ द्वारदेशस्थौ राजतोभूमिधामिन । मूर्तिमन्तो चमरेंद्रधरणोंद्राविव स्थितौ ॥ 52॥ __चत्वारश्रमरधरा राजन्तै यत्र भूगृहे । प्रभुपाश्य समायाता धम्मरित्यागादय विमु ।। 53 ॥ माति भूमिगृहे मूलगर्भागारे तिसुन्दरे । मूतिरादिप्रभोः सप्तत्रिशद गुल. संमिता ॥ 54 ।। श्री वीरस्य प्रयस्त्रिशदंगुला मूतिरुत्तमा श्रीशान्तश्चसप्तविंशत्यंगुला भांति भूगृहे ॥ 55॥ यत्रोद्धता धराधम्नि शोभन्ते देश दन्तिनः । युगपज्जिनसेवाय दिशामीशा इवाययुः ।। 56॥ यत्र भूकमगृहे भांति स्पष्टमष्ट गृगरायः। भक्तिभाजामष्टकर्मगजान् हंतुमिवोत्सुकाः ।। 571 श्रीस्तम्भतीर्थपूभुमिभामिनी भालभूषणं चैत्यं चिंतामणेवीक्ष्य विस्मय: मास्य भाभवत् ।। 58 ॥ एतो नितान्तमतनु तनुतः प्रकाशं यावत् स्वयं सुमनसां पथि पुष्पदन्ती। श्रीस्तम्भतीर्थधरणीरमणीललाम तवाच्चिरं जयति चैतयमिन्द मनोरं ।। 59॥ श्रीलाभविजयपण्डिततिलकैः समशोधि बुद्धिधनधुर्यः । लिखिता च कीतिविजयाभिधेन गुरूबान्धवेन मुदा ॥ 60 ॥ वर्णिनीव मुणाकीर्णा सवलंकृतिवृत्तिभाग एषा प्रशस्तिरूत्कीर्णा श्रीधरेण सुशिप्निा ।। 61 ॥ . श्रीकमलविजयकोविदशिशुना विवुधेन हेमविजयसेन रचिता प्रशास्तिरेषा कनीव सदलंकृतिजयति ।। 62॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 189 ) इति परीक्षकप्रधान प० वजिमा प० राजिमानामसहोदनिरापित श्रीचिन्तामणिपावजिनपुंगवासावशस्तिः संपूर्णा । भद्रं भूयात् ।। ॐ नमः । श्रीमद्धिक्रमनुपातीत सम्वत् 1644 वर्षे प्रवत्तेमान शाके 1509 गन्धारी ५० जसिआ तद्रार्या जसमादे सम्पत्ति श्रीस्तम्भतीर्थवास्तव्यतत्पुत्र ५० विजिया १० राजिआभ्यां वृद्धभ्रातृभायाँ विमलादे लधुभ्रातृ भार्या तद्भार्या मयगलदेप्रमुखनिज परिवारपुताभ्यां श्रीचिन्तामणिपार्श्वनाथ श्रीमहावीरप्रतिष्ठकारिता श्रीचिन्तामणिपाश्वचैत्यं च कारिं । कृता च प्रतिष्ठा सकलमण्डलाखण्डलशाहि श्री अकब्बरसम्मानित श्रीहीरविजयसूरीशपट्टालंकारहार सदृशैः शाह श्री अकबरपर्षवि प्राप्तवर्णवावः श्रीविजयसेनसूरिभिः Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रारकपुर में प्रादीश्वर भगवान के मन्दिर का शिलालेख (1 ) || सम्वत् 1647 वर्षे श्री फाल्गुनमासे शुक्लापक्षे (2) पंचम्यां तिथी गुरुवासरे श्रीतपागच्छाधिराजपात (3) साह श्री अकबरदत्तजगद्गुरूंविरूदधारक मट्टारि (र) क श्री(4) धोधी 4 हीरविजयसूरिणामुपदेशेन । चतुर्मुखश्रीधरण (5) बिहारे प्राग्वाटज्ञातीयसुश्रावक सा० खेता नायकेन ( 6 ) वर्द्धापुद्ध यशवन्तादि कुटं (टु) बयुतेन अष्टचत्वारिंशत् 48 - (7) माणानि सुवर्णनांणकानि मुक्तानि पूर्वदिक सत्कप्रतोली(8) निमित्तमिति श्रीअहमदाबादपावें । उसमापुरतः ॥श्रीरस्तु Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पावापुरी तीर्थ मन्दिर प्रशस्ति-शिलालेख (1) ॥ एं। स्वस्ति श्री सम्वति 1698 बैशाख सुदि 5 सोमवावरे । पाति शाह श्री साहिजाह सकलनूर । (2) मंडलाधीश्वर विजयी राज्ये 11 श्री चतुविशतितमजिनीधराज श्री वीर वनमान स्वामी। (3) निर्वाण कल्याणिक पपित्रिक पावापुरी परिसरे श्री वीरजिनधैत्य निवेश थी। (4) रूपन जिनराज प्रथम पुत्र चक्रवर्ती श्री भरत महाराज सकलमन्त्रि मण्डल श्रेष्ठ मन्त्रि श्रीमदसन्तानीय म० (5) हतिआणे ज्ञातिभंगार चोपड़ा गोत्रीय संघनायक संघवी तुलसीदास मार्या निहाले पुत्र सम्वत् संग्राम । (6) लघुभ्रातृ गोवर्द्धन तेजपाल भोजराज । रोहदीय गोत्रीय मण्डल परमानंद सपरिवार महधा गोत्रीय विशेष धर्म । (7) कम्मोद्यम विधायक 0 दुलीचन्द कांडडा गोत्रीय मण्डल भदनस्वामी दास मनोहर कुशला सुन्दरदास रोहदिया। मथुरादास नारायणदासः गिरिधर सन्तावास प्रसादी । वातिदिया गोल गूजरमल्ल बूदडमल मोहनदास । (9) माणिकचन्द बूदमल्ल 80 जगन दुरीचन्द्र । नान्हरागो0 30 कल्याण मल्ल मलूकचन्द्र सभा10) चन्द 1 सन्धेला गोत्रीय 30 सिंभू कीर्तिपाल बाबूराय केसवराय सूरति सिन्ध 1 काड्डा गो० दयाल11) दास भोवोलदार कृपालदास मौर मुरारीदास किलू । काणा गोत्रीय ठे० राजपाल रामचन्द। 12) महधा गो० कीतिसिध रो० छबीचन्द । जाजीवाण मो० म० नथमल्ल नन्दलाल नान्हड़ा गोत्रीय । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 192 ) (13) ठ० सुन्दरदास नागरमल कमलदास 11 रो० सुन्दर सूरति मूरतिसबलकृती प्रताप पाहाडिया | ( 14 ) गो० हेमराज भूपति काथा गो० मोहन सुखमम्लल 80 गढ़मल्ल जा० हरदास पुरसोत्तम । मीणवा (15) ण गो० बिहारीदास बिन्दु । मह० मेदनी भगवान गरीबदास साहरेणु रीय जीवण वजागरा मो० । ( 16 ) मलूमचन्द जूझ गो० सचल बन्दी सन्ती । चो० गो० नरसिंघ हीरा धरमू उत्तम वर्द्धमान प्रमुख श्री । ( 17 ) बिहार वास्तव्य महतीयाण श्री संघन कारितः तत् प्रतिष्ठा च श्री बृहत् खरतर बच्छाधीश्वर युगप्रधान श्री । : ( 18 ) जिनसह सूरि पट्टप्रभाकर युगप्रधान श्री जिमराज सूरि विजयमान गुरूराजानामादेशेन कृ (1) पूर्वदेश, बिहारे युग प्रधान श्री जिनचन्द्र सूरि शिष्य श्री समयराजोपा ध्याय शिष्य बा० अभवत्वर (20) णि विनये श्री कमला भोपध्यायः शिष्य पं० लब्धकीर्तिगणि प० राजहंस गणि देवविजय म ( 21 ) गणि धिरकुमार चरणकुमार मेघकुमार जीवराज सांकर जसवन्त महाजना शिष्य संततिः सपरिवार्यो । श्रीः । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक का नाम आइने अकबरी सूरीश्वर और सम्राट युग प्रधान श्रीजिनचंद्र सूरि अकबरनामा विजयप्रशस्तिसार इतिहास प्रवेश एतिहासिक जैन काव्य संग्रह जहांगीरनामा जैन साहित्य और इतिहास कुरान शरीफ तर्जुमा ( 195 ) लेखक रामलाल पांडेय कृष्णलाल वर्मा जगद्गुरूहीर सूरिश्वरजी श्रीपुण्य विजयजी अगरचन्द्र भंवरलाल नाहटा मथुरालाल शर्मा मुनिविद्याविजयजी श्रीजयचन्द्र विद्यालंकार संग्रह स० अगरचन्द भंवरलाल नाहटा प० बुजरत्नदास नाथूराम प्रेमी हिन्दी अनुवाद प्रकाशक विद्या मन्दिर कानपुर श्रीविजयधमं स० 1980 लक्ष्मी ज्ञानमंदिर आगरा कैलाश पुस्तक सदन, ग्वालियर शकरदान, शुभं स० 1992 राज, कलकत्ता सन् शंकरदान शुभराज नाहटा कलकत्ता हर्षचन्द्र भूराभाई, 1912 बनारस नागरीप्रचारिणी सभा, काशी 1935 सरस्वती पब्लिशिंग 1939 हाउस, इलाहाबाद लब्धिभुवन जैन सo2027 साहित्य सदन छाणी (गुजरात) 1975 रतन एण्ड कम्पनी दरियागंज, देहली 1994 सo 2014 हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर 1942 कार्यालय बम्बई Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक का नाम आइन-ए-अकबरी आइने अकबरी भाग 3 मुन्तख बडउत तवारीख ( अल बदायूनी ) अकबर द ग्रेट मुगल मोंक एण्ड मोनार्क द रिलीजियस पॉलिसी ऑफ मुगल एम्पररस एडीशन इण्डिया, एशॉर्टकल्चरल हिस्ट्री ए सर्वे ऑफ इण्डियन हिस्ट्री द मुगल एम्पायर मुगल एम्पायर इन इण्डिया भण्डारकर अभिनन्दन ग्रन्थ ( 196 ) "इंग्लिश" लेखक एच० ब्लॉचमैन एच० एस० जैरेट डब्ल्यू० एच० ला विन्सें-ए-स्मिथ डॉलर राय आर मकड़ श्रीराम शर्मा प्रकाशक आर्शीवादीलाल श्रीवास्तव एस० आर० शर्मा विन्सेन्ट ए स्मिथ एशियाटिक सोसायटी 1927 ऑफ बंगाल, कलकत्ता रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल वही एच० जी० रावलिसन लन्दन सन् एशिया पब्लिशिंग हाउस न्यू देहली ऑक्सफोर्ड एट द 1919 क्लेरंडन प्रेस 1948 श्रीविजयधर्मसूरिर्जन स० 2000 बुक्स सीरिज, उज्जैन 1924 के० एम० पनिक्कर कुसुम नावर द नेशनल 1947 इनफारमेशन एंड पब्लि केशन 1962 1948 शिवलाल एण्ड कम्पनी 1967 आगरा लक्ष्मीनारायण अग्रवाल 1966 आगरा भण्डारकर ओरियन्टल 1917 रिसर्च इन्स्टीटयूट पूना Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 17 ) - पुस्तक का नाम प्रकासक सन् प्रेस एन्शिएन्ट विज्ञप्तिपत्र डा०हीरानन्द शास्त्री डायरेक्टर ऑफ आर्को- 1942 लीकेल, बड़ोदा मेंडलस्लो ट्रबल्स इन वैस्टर्न एम० एस० कमशर्ट ऑक्सफोर्ड यूनीवसिटी 1931 इण्डिया तुजुक-ए-जाहंशीरी श्री बेनीप्रसाद द.जैन विद्या बनारसीदास जैन जुलाई 1 वोलियम न० 1 लाहौर 1941 ए शार्ट हिस्ट्री ऑफ मुस्किम ईश्वरीप्रसाद इलाहाबाद 1950 रूल इन इण्डिया द्वितीय एडीसन द रिलीजियेश पालिसी श्रीराम शर्मा आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी 1940 ऑफ मुगल एम्पररस 1 एडीशन द हिस्ट्री ऑफ इण्डिया इलियट एण्ड डाउन 1977 एज टोल्डबाइ इटस ओन हिस्टोरियनस "गुजरातो" पुस्तक का नाम लेखक प्रकाशक सन् श्रीतपागच्छ पत्रावली श्रीतपागच्छश्रमणवंशवृक्ष स०पन्याश श्रीकल्याण विजयनीतिसूरिजन 1940 विजयजी लायब्ररी अहमदाबाद जयन्तीलाल छोटा• जयन्तीलाल, छोटा स0 2462 लाल शाह अहमदाबाद मुनिराजविद्या यशोविजयजैन ग्रन्य-स01979 विजयजी माला, भावनगर सूरीश्वरअने सम्राट Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 198 ) पुस्तक का नाम लेखक प्रकाशन सन् श्रीमानन्दकाव्य महोदधि स० जीवनचन्द भाईघेलाभाई 1916 खाकरचन्द नगर सूरत भाग 5 (हीरविजयसूरिरास) (लेखककवि ऋषभदा स श्रीसेनप्रश्नसार संग्रह ५० शुभविजय गणि हाकरसी जैन ज्ञान 1940 मन्दिर लींच जमद्गुरूहीर मुमुक्षुभव्यानन्द विजयश्री स0 2008 हितसत्कज्ञानमन्दिर घाणेराव (मारवाड़) जैन इतिहासिक गुर्जर सश्रीमानजिनविजयजी श्री जनआत्मानन्द 1933 काव्य संचय सभा, भावनगर जैन साहित्य नो इतिहास मोहनदलीचन्द देसाई मोहनलाल दली- 1933 चन्द देसाई, बम्बई जैन गुर्जर कवियों भाग 2 स0मोहनलाल दलीचन्द श्रीजैनश्वेताम्बर 1931 देसाई कांफ्रेंस ऑफ बम्बई एतिहासिकरास संग्रह श्रीविद्याविजयजी श्रीयक्षोविजय जैन 1977 भाग 4 (संशोधक) माला, भावनगर एतिहासिक सज्झाय- समुनिराजविद्या --वही- स01973 माला विजयजी खम्भात नो प्राचीन जैन नर्मदाशंकर त्रम्बकराम जैनाचार्य श्रीआत्मा स01998 बैन इबिहास नन्द जन्मशताब्दी स्मारक ट्रस्ट बोई बंबई प० लालचन्द भगवान जिनहीरसागरसूरि- 1939 सुल्तान मुहम्मद गांधी ज्ञान भण्डारलोहावट (राजस्थान) लाभोदयरास ५० दयाकुशलगणि अप्रकाशित मूलप्रति श्रीविजवल्लीरास वही है Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भित ग्रन्थ सूची "संस्कृत" पुस्तक का नाम लेखक प्रकाशक पट्टावली समुच्चम सम्पादक मुनिदर्शन . श्रीचरित्रस्मारक 1933 भाग 1 विजय ग्रन्थ माला, वीरम. गांव गुजरात खरतरगच्छ पट्टावली स० श्रीजिनविजयजी पूरनचन्द नाहर 1932 संग्रह कलकत्ता खरतरगच्छवृहदगुर्वावलि स० जिनविजयमुनि सिन्धी जनग्रन्थ 1956 माला बम्बई कीति कौमुदी स० आगमप्रभाकर श्री सिंधी जैन ग्रन्थ 1961 पुण्य विजयजी बम्बई' कुमारपालचरित्रसंग्रह स० जिनविजयमुनि ......... 1956 कुमारपाल प्रतिबोध सोमप्रभाचार्य गायकवाड ओरि- 1920 पटल सीरिज बड़ौदा भानुचन्द्रगणिचरित स० मोहनलाल सिंधीविज्ञान पीठ 1941 दलीचन्द्र दसाई महमदाबाद हीरसौभाग्य काव्य श्रीदेवविमलगणि तुकाराम जाटव 1900 जावाजी, निर्णय सागर बम्बई विजयप्रशस्ति काव्य श्रीहेमविजयगणि • यशोविजय जैन वीरसंवत ग्रंथमाला बनारस 2437 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक का नाम कृपारस कोष विजयदेवसूरि माहात्म्य दिग्विजये महाकाव्य देवानन्द माहाकाव्य प्राचीन जैनलेख संग्रह भाग 2 मनुस्मृति गीता महाभारत पुस्तक का नाम चालुक्य कुमारपाल अकबरी दरबार पहला भाग लेखक ( 194 ) शांतिचन्द्र उपाध्याय स० [जिनविजयजी Ro अम्बालाल प्रेमचंद शाह स० बेवरदास जीवराज दींशी स० [जिमविजयजी भाषा टीका fo रामेश्वर भट्ट संग्रहकर्ता गणेशशास्त्री पाठक अनु० प० नारायणदत्त "हिन्दी" लेखक श्री लक्ष्मीशंकर व्यास मौलाना मुहम्मद हुसैन अनुo रामचन्द्र वर्मा प्रकाशक जैन आत्मानन्द सभा, भावनगरे जैन साहित्य संशोधक समिति, अहमदाबाद सिधी जैन ग्रंथ माला, बम्बई सिंधी जैन ग्रंथ माला, अहमदाबाद श्री जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर प्रकाशक भारतीय ज्ञानपी काशी सन् काशी नागरी प्रचारिणी सभा 1917 1928 निर्णय सागर प्रेस, 1916 बम्बई 1945 के० एम० पाठक, 1893 गीता प्रेस, गोरखपुर 1937 1921 - सम् 1954 1924 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक का नाम विविधती कल्प आचाराङ्ग सूत्रम पुस्तकें का नाम विश्ववाणी नवं + दिल० fe tree विशेषकर इण्यिन हिस्टोरिकल क्वार्टरनी भाग 12 जनरल ऑफ इण्डियन हिस्ट्री बोलियम 8 भाग 1 श्री जैन सत्यप्रकाश वर्ष 10, अंक 12 ( 199 ) " प्राकृत" लेखक जितप्रभसूरि प्रायोजक- रवजीभाई देवराजं "पत्रिका" इण्डियम कल्चर भाग 4 जहांगीर रिलीजियस न० 1 - 4 श्रीराम शर्मा लेख व लेखक का नाम रिलीजियस पालिसी ऑफ शाहजहां श्रीराम शर्मा प्रकाशक बंगाल मेहता मोहनदास दामोदर, राजकोट अधिष्ठातासिधी जैन 1934 ज्ञानपीठशांतिनिकेतन, 2 अकबर की धार्मिकनीति विश्ववाणी कार्यालय 1942 रामलाल पाण्डेय इलाहाबाद सन्साईड लाईटस ऑन महास द केरेक्टर एण्ड कोर्ट लाइफ ऑफ शाहजहाँ -०आर० कानूनगो प्रकाशक सन 1906 पंचानन घोषले मार्च 1936 कलकत्ता पॉलिसी, इण्डियन 1937-38 रिसर्च इन्टीटयूट कलकत्ता जगदगुरु हीरविजयसूरिजी जैन सत्यप्रकाश मुनित्याय विजयजी समिति अहमदाबाद सन् अप्रैल 1929 1945 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 200 ) - - पुस्तक का नाम लेख व लेखक का नाम प्रकाशक सन् स० 2438 जैन शासन दीपावली हीरविजयसूरिऑर द हर्षचन्द भूराभाई नो खास अंक जैनस, एटदकोर्ट ऑफ बनारस सिटी अकबर -चिमनलाल डाहयामाई Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international