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________________ ( 130 ) पहुंचे । बादशाह ने तीन पग आगे बढ़कर सूरिजी का स्वागत कियाः सूरिजी क प्रभावशील चेहरे और व्यक्तित्व को देखते ही बादशाह मे सूरिजी से धर्मगोष्ठी की जिसमें उनसे रात्रि आहार परित्याम के बारे में पूछा ? सूरिजी मे रात्रि आहा परित्याग का सुफल बताया कि न केवल जैन अपितु वैदिक ग्रन्थों के अवलोकन से भी ज्ञात होता है कि रात्रि भोजन का सभी में निषेध किया गया है क्योंकि दिन की अपेक्षा रात्रि में सूक्ष्म जीव अधिक उहते हैं जिस तरह वे हमारे शरीर पर बैठते हैं उसी तरह भोजन पर भी। अतः रात्रि भोजन करने वालों के पेट में इन सूक्ष्म जीवों का जाना स्वाभाविक है। इसी कारण शास्त्रकारों ने रात्रि भोजन का निषेध किया है । कर्मपुराण में लिखा है-"हरेक प्राणी पर प्रेम भाव रखें, द्रोह नहीं करे, निन्द, निर्भय रहे और रात्रि भोजन म करे, रात्रि को ध्यान में, लीन रहे। इसी पुराण में आगे चलकर लिखा है कि "सूर्य की विद्यमानता में पूर्व दिशा की तरफ मुंह करके भोजन किया जाये ।" रात्रि भोजन निषेध के बारे में मार्कण्डेय पुराण में लिखा है कि सूर्यास्त के बाद पानी रुधिर के समान और अन्न मांस के समान है। योगशास्त्र में भी कहा गया है कि यदि भौजन में कीड़ी आ जाये तो बुद्धि का नाश करती है, जाये तो जलोदर हो जाता है, मक्खी आने से उल्टी हो जाती है, मकड़ी आये तो कोढ़ हो जाता है, तिनका गले में आ जाये तो दर्द होता है सांग आदि में बिच्छु आ जाये तो तलुए को तोड़कर प्राणों का नाश कर देती और यदि गले में बाल आ जाये तो स्वर भंग हो जाता है, इत्यादि शरीर सम्बन्धि अनैक भय रात्रि भोजन में हैं। बादशाह सूरिजी की विद्वता, तेजस्वित और कर्तव्यनिष्ठा को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ सूरिजी के विपक्षियों ने जो जो बातें सूरिजी के विषय में बादशाह से कही थी उनका सूरिंजी में विपरीत भाव जानकर बादशाह ने सूरिजी को खूब सस्कृत किया और यह जाहिर किया कि हीरविजयसूरिजी के ये ही यर्थार्थ उसरा धिकारी हैं इसलिये उनको "जहांगीर महातपा" की उपाधि देकर गच्छ के सच्चे अधिनायक प्रणाणित किया:- मोहनलाल दलीचन्द भी लिखतें है कि बादशाह सूरिजी से बहुत प्रभावित हुआ "जहांगीर महातपा" (जहाँगीर द्वारा पहचाना गया 1. वही, पदें 24 2. कर्मपुराण अध्याय 27 पृष्ठ 645 3. वही, पृष्ठ 653 4. विजयदेवसूरि महात्मय वर्ग 17, पछ 32 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003201
Book TitleMugal Samrato ki Dharmik Niti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1991
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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