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एक महान तपस्वी) की उपाधि दी: 1
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रेजी को महातपा की उपाधि दिये जाने का विवरण शिलालेखों से भी
मिलता है: "
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सूरिजी के व्यक्तित्व व तप से प्रभावित होकर बादशाह ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर कहा हैं कि - " इस लोक के मान्य पुरुषों में आप सर्व श्रेष्ठ हैं अपने क पराये सभी की उन्नति में रत है। बादशाह ने बार-बार अपनी ओजस्वी वाणी मैं कहा कि आप जैसे तेजस्वी के आगे मैं नतमस्तक हूं कोई भी प्राणी क्रोध चूरिज होने पर भी अगर आपका परोक्ष रूप में भी अपमान करता हैं तो वह आत्मिक रूप से दुखी होता है । मैं धन्य हूं कि आप जैसे तेजस्वी पुरुष के दर्शन किये जिससे मुझे सुख की अनुभूति हुई इस प्रकार बादशाह ने सभी लोगों की उपस्थिति में गुरूदेव की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा कीः 3
बादशाह जहांगीर के अलावा मेवाड़पति राणाजगतसिंह, जामनगराधीश लाखा: जाम, ईडरमरेश रायकल्याणमल आदि बहुत से राजा महाराजा भी सूरिजी का बहुत आदर सत्कार करते थे । उदयपुर के महाराणा जगतसिंह पर सूरिजी ने जो प्रभाव डाला इसके लिए देखिये परिशिष्ट नं. 5
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1. भानुचन्द्रगणिचरित - भूमिका लेखक 'मोहनलाल दलीचन्द पृष्ठ "श्री जालौर नगरे प्रतिष्ठितं व तपागच्छधिराज भ श्रीहीरविजय सूरिजी पट्टालंकार भ. श्री विजयसेनसूरिं पट्टालंकार पातशाहि श्री जहांगीर प्रदत्त महातपाविरुदधारक - भा. श्री विजयदेवसूरिभिप्राचीन जैन लेख संग्रह - भाग 2 - लेखांक 367, पृष्ठ 319 अतः समस्ता भोलोका मन्यन्तामिममुक्तमम, समस्तरि समस्तानं मामि प्रभुक्तम | पातिसाहिर भाषिष्ट बारं वारमितिस्फुटम, मत्तोडप्यीध कतेजस्वीयद्धर्ते शव हम कुपितः कांsपि पापीयानकोपतः कोपपूरित, भविष्यति सदादुखी सएतस्मात्परा ड. मुख धन्योsयं कृतपुण्योsयं तपस्तेजः समुच्चयः, दर्शनेषुत्तमचास्यदर्शनं सुखकारियत । एवं प्रशंसतानेकभूपलोक सभास्थितः पातिसाहि जहांगीर शिलेम साहिर हो गुरूमः ।
विजयदेव महात्म्यम सर्ग 17 पद्य 51, 52, 53, 54, 55
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