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हाथी, और रथ आदि किसी भी तरह के वाहन की सवारी न करे। सत, वचन और काम से किसी जीव को कष्ट न दे, पांचों इन्द्रियां वश में रखे, मान अपमान की परवाह न करे, स्त्री पशु और नपुंसक के सहवास से दूर रहे, एकान्त स्थान में स्त्री के साथ वार्तालाप न करे, शरीर सजाने की ओर प्रवृत्त न हो, यथाशक्ति सदेव, तपस्या करता रहें, चलते फिरते उठते बैठते और खाते पीते, प्रत्येक क्रिया में उपयोग रखे रात में भोजन न करें, मन्त्र, यन्त्रादि से दूर रहें और अफीम वगैरह के व्यंजनों से दूर रहें। ये और इसी तरह अनेक दूसरे आचार साधू और गुरू को पालने चाहिए। थोड़े शब्दों में कहें तो "गृहस्थानां यदभूषणं " ( ग्रहस्थों के लिए जो भषण है साधुओं के लिए वही दूषण रूप है) ।
इस तरह देव, गुरू का स्वरूप जानने के बाद धर्म की उत्पत्ति और धर्म के लक्षण के विषय में पूछा । सूरिजी ने बताया कि जैन धर्म का सिद्धान्त कहता हैं कि धर्म की कभी उत्पत्ति नहीं होती, धर्म तो अनादि काल से चला आया है । धर्म तो धर्मी में उसी प्रकार रहता है जैसे गुण गुणी में रहता है । शास्त्रों के अनुसार "बस्थ सहाको धम्मो" अर्थात् जिस वस्तु का जो स्वभाव है, वही उसका धर्म है जैसे अग्नि का स्वभाव उष्णता है तो वही अग्नि का धर्म है, पानी का स्वभाव शीतलता है तो वही पानी का धर्म है । इसी प्रकार सच्चिदानन्दमयता अथवा ज्ञान, दर्शन और चरित्र ।
आत्मा का धर्म है
संसार की ऐसी कोई भी चीज जिससे हृदय शुद्ध हो, एवं पवित्रता हो, कमों का क्षय हो, आत्मा का विकास हो वह सब धर्म है। दान देना ब्रह्मचर्य पालन करना दूसरे की सेवा करना, अहिंसा और संयम का पालन करना यह सब धर्म है । सार रूप में सूरिजी ने धर्म का लक्षण इस प्रकार बताया
"संसार में अज्ञानी मनुष्य जिस धर्म का नाम लेकर क्लेश करते हैं, जिस धर्म के द्वारा मनुष्य मुक्त बनना और सुख लाभ करना चाहते हैं उस धर्म में क्लेष नहीं हो सकता है । वास्तव में धर्म वह है जिससे अन्तःकरण की शुद्धि होती है (अन्तःकरण शुद्धत्वं धर्मत्वम्) वह शुद्धि चाहे किन्ही कारणों से हो । दूसरे शब्दों में कहें तो धर्धं वह है जिससे विषय वासना से निवृत्ति होती है । ( विषय निवृत्तित्वम् ) यह धर्म का लक्षण है दूसरे, इसमें क्लेश को कहां अवकाश है ? इन लक्षणों वाले धर्म को मानने से क्या कोई इन्कार कर सकता है ? कदापि नहीं । संसार में असली धर्म यही है और इसी से इच्छित सुख मुक्ति सुख प्राप्त हो सकता है। 28
1. सूरीश्वर और सम्राट कृष्णलाल वर्मा पृष्ठ 117 118 2. सूरीश्वर और सम्राट कृष्णलाल वर्मा पृष्ठ 118-119
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